राजनयिक संबंधों की 75वीं सालगिरह पर नवीकरणीय ऊर्जा कूटनीति से भारत-श्रीलंका की दोस्ती को मज़बूती
श्रीलंका इन दिनों अपनी आज़ादी के बाद सबसे गहरे आर्थिक संकट का सामना कर रहा है. वित्तीय संकट और उसकी वजह से विदेशी मुद्रा की कमी के कारण श्रीलंका ज़रूरी मात्रा में ईंधन की ख़रीद नहीं कर पा रहा है. इससे बिजली की लगातार आपूर्ति पर असर पड़ा है, बुनियादी सामानों की कमी हो गई है और सरकार के ख़िलाफ़ बहुत ज़्यादा निराशा पैदा हो गई है.
ऊर्जा संकट की गंभीरता पूरे देश में देखी और महसूस की जा रही है. ईंधन की खपत के नज़रिए से देखें तो पेट्रोल पंप/गैस स्टेशन पर लंबी लाइन देखी जा रही है जबकि बिजली उत्पादन की सुविधाओं में कटौती की जा रही है. इस तरह देश में रोज़ाना कई घंटों तक बिजली उपलब्ध नहीं रहती है. बिजली नहीं होने की वजह से हर तरह के उद्योग पर असर पड़ रहा है, उत्पादकता को नुक़सान हो रहा है और यहां के बाज़ार में प्रवेश करने को लेकर दुविधा में पड़े निवेशक संभावित निवेश से पीछे हट रहे हैं. ऐसे में मौजूदा समय की ज़रूरत है कि आर्थिक संकट का समाधान हो. लेकिन लंबे वक़्त में श्रीलंका को बिजली की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए रणनीतिक ऊर्जा नीति अपनाने की ज़रूरत है.
कुछ दशक पहले देश में विद्युतीकरण की वजह से कई क्षेत्रों में काफ़ी ज़्यादा सुधार हुआ था. वैसे तो उस वक़्त बिजली को विकास के संकेत के रूप में देखा गया था लेकिन आज ये ज़रूरी चीज़ बन गई है. मगर जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता की वजह से स्थिति बिगड़ती है क्योंकि बिजली की मांग लगातार बढ़ती जा रही है जबकि आपूर्ति सीमित है. इसकी वजह ये है कि विश्व के बाज़ारों में क़ीमत घटती-बढ़ती रहती है. वैसे तो जीवाश्म ईंधन के विकल्प व्यावहारिक हैं और पिछले कई दशक से उपलब्ध हैं लेकिन ज़्यादा कार्बन वाले विकल्पों से अधिक पर्यावरण अनुकूल उपाय की तरफ़ बदलाव नियमित मगर धीमा रहा है. श्रीलंका में जो ऊर्जा संकट खड़ा हो गया है, उसको देखते हुए हरित ऊर्जा के विकल्पों की आवश्यकता पर फिर से विचार करना उपयुक्त है. संसाधनों की प्रचुरता इसे मनपसंद विकल्प बनाती है लेकिन पूंजी और तकनीक मुख्य बाधाएं बनी हुई हैं. इस मोड़ पर श्रीलंका को भविष्य के लिए रणनीति बनाने की ज़रूरत है जिसमें तकनीकी समर्थन हासिल करने, ज़्यादा नवीकरणीय ऊर्जा की तरफ़ बदलाव को लेकर फिर से प्रतिबद्धता और इस क्षेत्र में सफल उदाहरणों से सीखने पर ज़ोर होना चाहिए.
बिजली नहीं होने की वजह से हर तरह के उद्योग पर असर पड़ रहा है, उत्पादकता को नुक़सान हो रहा है और यहां के बाज़ार में प्रवेश करने को लेकर दुविधा में पड़े निवेशक संभावित निवेश से पीछे हट रहे हैं. ऐसे में मौजूदा समय की ज़रूरत है कि आर्थिक संकट का समाधान हो.
मौजूदा स्थिति
2017 में एशियाई विकास बैंक (एडीबी) और संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) की एक साझा रिपोर्ट में बिजली के क्षेत्र में श्रीलंका की प्रगति पर प्रकाश डाला गया है. इसके मुताबिक बिजली का उत्पादन 1992 के मुक़ाबले 2016 में बढ़कर चार गुना हो गया है; 2016 के ख़त्म होते-होते बिजली तक 100 प्रतिशत लोगों की पहुंच हो गई थी जो 1990 में सिर्फ़ 50 प्रतिशत थी; ट्रांसमिशन और वितरण में तकनीकी नुक़सान 10 प्रतिशत से भी कम था जिससे पता चलता है कि कुशलता से बिजली परिचालन का काम हो रहा है; और बिजली क्षेत्र के लिए एक स्वतंत्र नियामक संस्था की स्थापना हो गई थी.
श्रीलंका की पहचान जलवायु के मामले में उन अतिसंवेदनशील 43 देशों में से एक के तौर पर की गई थी जिन्होंने ज़्यादा-से-ज़्यादा 2050 तक नवीकरणीय संसाधनों से 100 प्रतिशत बिजली उत्पादन पर सहमति दी थी और जिन्होंने मोरक्को में संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन संरचना सम्मेलन (यूएनएफसीसीसी) के पक्षों के 22वें सम्मेलन (कॉप22) की घोषणा पर दस्तख़त किए थे. वैसे तो इस घोषणा को उस समय एडीबी और यूएनडीपी ने ‘बेहद महत्वाकांक्षी’ माना था क्योंकि अलग-अलग देशों ने ‘आने वाले वर्षों में प्रति व्यक्ति बिजली की खपत में अत्यधिक बढ़ोतरी’ की उम्मीद लगाई थी लेकिन ये प्रतिबद्धता अभी भी तारीफ़ के लायक है और इसको पाने के लिए लिए पूरी ताक़त लगा देनी चाहिए.
2015 से 2025 की अवधि के दौरान ‘जानकारी आधारित अर्थव्यवस्था के लिए श्रीलंका ऊर्जा क्षेत्र विकास योजना’ में कहा गया है कि ऊर्जा की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए श्रीलंका को “हर साल 2 मिलियन मीट्रिक टन (एमएमटी) कच्चा तेल, 4 एमएमटी परिशोधित (रिफाइंड) पेट्रोलियम उत्पाद और 2.25 एमएमटी कोयला आयात करने की ज़रूरत है. इस पर सरकार को विदेशी मुद्रा में लगभग 5 अरब अमेरिकी डॉलर खर्च करना होगा जो कि श्रीलंका के आयात खर्च का क़रीब 25 प्रतिशत और निर्यात से आमदनी का क़रीब 50 प्रतिशत है. इसका नतीजा श्रीलंका के व्यापार संतुलन और विनिमय दर पर भारी बोझ के रूप में निकलेगा.”
ये ऐसी समस्या नहीं है जिसका समाधान समय बीतने के साथ हो जाएगा. ये राष्ट्रीय स्तर का एक ऐसा संकट है जिसके रोज़ाना के मुद्दे का समाधान करने के लिए रणनीतिक उपाय की ज़रूरत है जबकि आने वाले महीनों और वर्षों में आने वाली समस्या के लिए तैयारी करनी होगी.
आगे का रास्ता
श्रीलंका का मौजूदा संकट कोई छोटा-मोटा संकट नहीं है जिसे आसानी से लोग भुला देंगे. ये ऐसी समस्या नहीं है जिसका समाधान समय बीतने के साथ हो जाएगा. ये राष्ट्रीय स्तर का एक ऐसा संकट है जिसके रोज़ाना के मुद्दे का समाधान करने के लिए रणनीतिक उपाय की ज़रूरत है जबकि आने वाले महीनों और वर्षों में आने वाली समस्या के लिए तैयारी करनी होगी.
इसलिए संपुर में सौर ऊर्जा उत्पादन प्लांट की स्थापना के लिए भारत और श्रीलंका के संस्थानों के बीच साझा उपक्रम के समझौते पर दस्तखत शायद श्रीलंका के लोगों के लिए कई हफ़्तों में इकलौती अच्छी ख़बर थी. ये एक ऐसा समझौता है जिसके अच्छे नतीजे लंबे समय में देखने को मिलेंगे और इससे श्रीलंका के लिए बेहद ज़रूरी समाधान में मदद मिलेगी. एक दशक पहले सामपुर में साझा कोयला से चलने वाले प्लांट की स्थापना की योजना बनाई गई थी लेकिन काफ़ी आलोचना के बाद इस पर अमल छोड़ दिया गया. समझदारी से विचार करें तो ये क़दम अच्छा लगता है क्योंकि अब जो साझा उपक्रम बना है उससे श्रीलंका को लंबे वक़्त में फायदा मिलेगा.
भारत में सौर ऊर्जा एक तेज़ी से विकसित हो रहा उद्योग है. भारत ने 2022 के लिए सौर ऊर्जा का लक्ष्य समय से काफ़ी पहले हासिल कर लिया है. 2021 में नवीकरणीय ऊर्जा के मामले में आकर्षित करने वाले देशों की सूची में जहां भारत तीसरे पायदान पर था, वहीं दुनिया भर में नवीकरणीय ऊर्जा की स्थापित क्षमता के मामले में भारत तीसरा सबसे बड़ा देश था और वर्तमान में भारत सौर ऊर्जा की स्थापना क्षमता के मामले में पांचवें पायदान पर है. फ्रांस के साथ अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन के सह-संस्थापक के रूप में भारत नवीकरणीय ऊर्जा कूटनीति के नये युग में ले जाने में मददगार रहा है क्योंकि सौर ऊर्जा की संभावना का एहसास होने के बाद दुनिया भर के देश इस मुहिम में शामिल हो रहे हैं और इस क्षेत्र में अपना प्रभाव बढ़ा रहे हैं.
सौर ऊर्जा एक ऐसा विकल्प है जिस पर पूरी ताक़त के साथ खोज-बीन करने की ज़रूरत है. पवन और तरंग ऊर्जा ऐसे विकल्प हैं जिन पर व्यापक जांच की आवश्यकता है. पवन ऊर्जा की स्थापित क्षमता के मामले में भारत दुनिया का चौथा सबसे बड़ा देश है. इससे हरित ऊर्जा के मामले में भारत की विश्वसनीयता में बढ़ोतरी होती है. 1997 में 1 गीगावॉट की कुल स्थापित पवन ऊर्जा क्षमता को बढ़ाकर अगले दो दशक में भारत 22 गीगावॉट तक पहुंचाने में सफल रहा, इसमें निजी क्षेत्र के निवेश को प्रोत्साहन दिया गया. एक नज़दीकी पड़ोसी के रूप में भारत की ये प्रगति श्रीलंका के लिए भी अच्छा संकेत है.
श्रीलंका को दीर्घकालीन तकनीकी सहयोग की ज़रूरत है जो भारत-श्रीलंका के संबंधों को बढ़ावा देने के साथ इस द्वीपीय देश के सही सामर्थ्य को हासिल करने में प्रेरक का काम करेगा. चाहे साझा पहल के ज़रिए हो या तकनीक के ट्रांसफर से, लंबे समय में लाभ हासिल करने के लिए तुरंत क़दम उठाने की ज़रूरत है क्योंकि ऊर्जा क्षेत्र में बदलाव लाने में अच्छा-ख़ासा समय लगता है. जब तक संगठित कोशिश और निरंतर प्रतिबद्धता नहीं देखी जाती है, तब तक नवीकरणीय ऊर्जा की कूटनीति को बढ़ावा देने का काम वास्तविकता में तब्दील नहीं होगा.
ऊर्जा के मामले में स्वतंत्र श्रीलंका भारत के हितों के अनुकूल है. जैसे-जैसे श्रीलंका अपने मौजूदा संकट से पार पाने और भविष्य की तरफ़ देखने की कोशिश कर रहा है, वैसे-वैसे ये साफ़ हो रहा है कि उद्योग में ज़्यादा निवेश एक ठोस बुनियाद है जिस पर भविष्य की रणनीति बनाई जा सकती है. लेकिन इसके बावजूद ऊर्जा रीढ़ की हड्डी बनी हुई है और इससे समझौता नहीं किया जा सकता है. मांग में बढ़ोतरी और हरित विकल्पों के उपयोग के साथ श्रीलंका दुनिया भर के देशों से निवेश आकर्षित करने में एक उपयुक्त माहौल बनाने में सफल होगा. इससे एकमात्र या सीमित संख्या में साझेदारों पर श्रीलंका की निर्भरता को लेकर भारत की चिंताओं को दूर किया जा सकता है. आर्थिक तौर पर श्रीलंका के मज़बूत होने से भारत को एक अच्छा व्यापारिक साझेदार और एक मज़बूत पड़ोसी मिलता है.
श्रीलंका के पूर्वी तट पर स्थित संपुर साझा उपक्रम की परियोजना के लिए एक ठिकाना है, लेकिन इसी तरह की साझा परियोजनाओं को पूरे श्रीलंका में शुरू करने की ज़रूरत है ताकि मौजूदा बिजली आपूर्ति को बढ़ाया जा सके और अगले दशक में तेज़ी से बदलाव के लिए सक्षम बना जा सके. कई प्लांट को स्थापित करने वाला एक मेहनती नज़रिया अच्छा साबित होगा. सौर ऊर्जा के अलावा श्रीलंका को पवन ऊर्जा के क्षेत्र में ज़्यादा विशेषज्ञता प्राप्त करने और देश में मौजूद प्राकृतिक संसाधनों के अधिकतम उपयोग की कोशिश करने की ज़रूरत होगी. जलवायु परिवर्तन के असर को हल्का करने में सकारात्मक योगदान देने और दोनों देशों के लोगों के लिए फ़ायदेमंद होने के साथ-साथ द्विपक्षीय सहयोग के लिए नवीकरणीय ऊर्जा में बहुत ज़्यादा संभावनाएं हैं और पहले से मौजूद व्यापक संपर्क को और बढ़ाने में ये प्रेरक साबित हो सकती है.
2009 में श्रीलंका का गृह युद्ध ख़त्म होने के बाद इस बात की कोशिश की गई है कि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय इस द्वीप को एक आकर्षक निवेश के ठिकाने के तौर पर पहचाने. लेकिन श्रीलंका इस वक़्त जिस तरह के संकट का सामना कर रहा है, उसको देखते हुए लगता है कि ये कोशिशें बेकार साबित हुई हैं. भारत ने वित्तीय और आर्थिक सहायता के ज़रिए अपने दक्षिणी पड़ोसी का समर्थन करने के लिए बहुत कुछ किया है. इस तरह के क़दम मौजूदा संकट से उबरने में श्रीलंका की कुछ समय तक तो मदद कर सकते हैं लेकिन ये महत्वपूर्ण है कि निकट भविष्य में टिकाऊ और व्यावहारिक विकल्पों पर उचित ध्यान दिया जाए.
भारत और श्रीलंका के बीच कूटनीतिक संबंधों की 75वीं सालगिरह की पूर्व संध्या पर ऐतिहासिक रूप से जुड़े दोनों देशों के बीच आने वाले दशकों में दोस्ती को और मज़बूत करने में नवीकरणीय ऊर्जा की कूटनीति में काफ़ी संभावनाएं हैं और इस पर तुरंत ध्यान देने की ज़रूरत है.
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