अंतरराष्ट्रीय राजनय की डोर बहुत नाजुक होती है. उसमें एक छोटी सी घटना द्विपक्षीय संबंधों पर बड़ी भारी पड़ सकती है. गत सात अप्रैल को ऐसा ही कुछ घटनाक्रम घटित हुआ, जब अमेरिकी नौसेना के सातवें बेड़े के पोत जॉन पॉल जोंस ने भारत की अनुमति के बिना ही उसके विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र यानी ईईजेड में गश्त की. इतना ही नहीं उसने इसका प्रचार भी किया. स्वाभाविक है कि भारत ने इस पर कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की, जो एकदम उचित भी थी.
विदेश मंत्रलय के प्रवक्ता ने एक बयान में कहा कि भारत सरकार समुद्री कानून पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन को लेकर अपनी स्थिति स्पष्ट करना चाहती है और इसके तहत तटीय देश की अनुमति के बिना उसके विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र में नौवहन अधिकृत नहीं. एक ऐसे समय में जब तमाम ऊहापोह के बाद भारत के साथ अमेरिका के रिश्तों में कुछ गर्मजोशी महसूस होने लगी थी, तब ऐसे किसी कदम का औचित्य समझ से परे है. अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने भारत के साथ रिश्तों में सधी हुई शुरुआत की और उसे लेकर क्वाड जैसी साङोदारी को नए तेवर देने के संकेत भी दिए, मगर उनकी नौसेना के इस कदम ने द्विपक्षीय रिश्तों में अनावश्यक गतिरोध सा पैदा कर दिया है.
भारतीय विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र में अमेरिकी सैन्य पोत की मौजूदगी उतनी बड़ी चिंता का विषय नहीं, जितना इस घटना को लेकर अमेरिका का रवैया दिख रहा है. सामुद्रिक सीमाओं में ऐसी घटनाएं नई नहीं हैं और अमेरिका सहित तमाम देश ऐसी गतिविधियां करते रहते हैं, लेकिन ये अक्सर दबे-छिपे स्वरूप में होती हैं, मगर हालिया घटना का अमेरिका ने न केवल प्रचार किया, बल्कि अपने इस कदम को जायज भी ठहराया. इससे भारत में मौजूद अमेरिका के विरोधियों को बैठे-बिठाए एक मुद्दा मिल गया.
बीते कुछ वर्षो से भारतीय विदेश नीति के अमेरिका के पक्ष में झुकाव का आरोप लगाने वाला तबका यह राग अलापने लगा है कि भारतीय ईईजेड में गश्त करके अमेरिका ने भारत और चीन को एक ही तराजू पर रख दिया. दरअसल चीन की बढ़ती दादागीरी को देखते हुए उसे सख्त संदेश देने के लिए अमेरिका पिछले कुछ अरसे से यह पैंतरा आजमाता आया है, लेकिन भारत के खिलाफ उसका यह दांव समझ से परे है. ऐसा इसलिए, क्योंकि इससे उन देशों में गलत संदेश जाएगा, जिन्हें अमेरिका चीन के खिलाफ लामबंद करने में जुटा है. हिंद-प्रशांत क्षेत्र के लिए अमेरिकी रणनीति पर इसका खासा दुष्प्रभाव पड़ेगा. इस क्षेत्र के देशों को यही भय सताएगा कि यदि अमेरिका भारत जैसे करीबी मित्र और ताकतवर देश के साथ ऐसा व्यवहार कर सकता है तो फिर उनकी क्या बिसात? बीते दिनों दक्षिण कोरिया और मालदीव के सामुद्रिक क्षेत्रों में अमेरिकी नौसेना की हरकतें इस मामले में उल्लेखनीय हैं. जाहिर है कि ऐसी गतिविधियों से तमाम देशों को साधने पर केंद्रित अमेरिका की वह रणनीति फलीभूत नहीं हो पाएगी, जिसमें वह यह आश्वस्त करने में लगा है कि रिश्ते बनाने और उन्हें प्रगाढ़ करने में उसका अगाध विश्वास है.
अमेरिका ने वर्ष 1979 में फ्रीडम ऑफ नेविगेशन ऑपरेशन यानी नौवहन अभियान की स्वतंत्रता नाम से कानून पारित किया था. इसके बाद अंतरराष्ट्रीय सामुद्रिक मोर्चे पर अमेरिकी गतिविधियों में इजाफा होता गया. अमेरिकी बादशाहत को बरकरार रखने में इन गतिविधियों की अहम भूमिका रही. 1985 से भारतीय ईईजेड में भी अमेरिका इसके तहत घुसपैठ करता रहा, मगर उसने कभी इसका आक्रामक रूप से प्रचार नहीं किया. हालांकि अमेरिकी रक्षा मंत्रलय के वार्षकि प्रतिवेदनों में इन घटनाओं के छिटपुट उल्लेख अवश्य हुआ करते थे. उस पर कुछ हो-हल्ले के साथ बात आई-गई हो जाती थी, लेकिन हालिया घटना को लेकर अमेरिकी तेवर कुछ अलग दिखते हैं. यह जानकर और हैरानी होती है कि भारतीय ईईजेड में अपनी नौसेना की गतिविधियों के लिए अमेरिका संयुक्त राष्ट्र के जिन कानूनों की ढाल का सहारा ले रहा है, उन पर उसने खुद ही हस्ताक्षर नहीं किए हैं. इस प्रकार उसका दोहरा रवैया ही स्पष्ट हो रहा है. एक तो उसने कानून पर हस्ताक्षर ही नहीं किए और उलटे उनकी आड़ में मनमानी करने पर तुला है.
संयुक्त राष्ट्र कानूनों के अनुसार सामुद्रिक सीमाएं मुख्य रूप से तीन श्रेणियों में विभाजित की गई हैं. इनमें पहली श्रेणी है प्रादेशिक समुद्री सीमा की, जो तटीय आधार रेखा से 12 नॉटिकल मील (एक नॉटिकल मील 1.8 मील के बराबर होता है) तक फैली होती है. यह एक तरह से सामुद्रिक संप्रभुता की सीमा रेखा मानी जाती है. दूसरी होती है संलग्न सीमा जो 24 नॉटिकल मील तक विस्तृत होती है. इसके बाद आती है विशिष्ट आíथक क्षेत्र की सीमा जिसका दायरा 200 नॉटिकल मील होता है. अक्सर इसी को लेकर विवाद होते रहते हैं. चूंकि कई अंतरराष्ट्रीय कानूनों में अस्पष्टता कायम हैं, इसलिए कुछ देश उसका लाभ उठाते हैं. दक्षिण चीन सागर में चीन ने ऐसे ही तमाम कानूनों को तोड़-मरोड़कर उसका नक्शा ही बदल दिया है.
एक बड़ा प्रश्न यह उठता है कि आखिर अमेरिका को ऐसा कदम उठाकर क्या हासिल हुआ होगा? इससे कुछ हो न हो, लेकिन चीन का हौसला जरूर बढ़ा होगा. जिस चीन को भारत और अमेरिका की बेहतरीन होती जुगलबंदी से कुछ चिंता सता रही थी, वह कुछ हद तक काफूर जरूर हुई होगी. वहीं जो लोग अमेरिका के इस कदम को अत्यधिक तूल दे रहे हैं, वे भी यह समझ लें कि यह अमेरिका की व्यापक नीति में किसी बदलाव का संकेत नहीं. प्रथमदृष्टया यह नौकरशाही या पोत पर मौजूद अफसरों का ही फैसला प्रतीत होता है. संभव है कि उन्होंने रणनीतिक पहलुओं की परवाह न करते हुए कोई औचक फैसला किया हो या फिर इसके माध्यम से भारत की प्रतिक्रिया का पैमाना भांपने की कोई कवायद हो. जो भी हो, बीते दिनों कोरोना वैक्सीन के मामले में भारत की पीठ पर हाथ रखने से लेकर संयुक्त युद्धाभ्यास से दोनों देशों के रिश्तों में मजबूती का जो भाव उपजा था, उसमें अमेरिकी नौसेना का यह कदम यकीनन मिजाज बिगाड़ने वाला है. अब अमेरिकी विदेश मंत्री को अपने भारतीय समकक्ष के साथ मिलकर अचानक रिश्तों पर जमा हुई इस बर्फ को पिघलाने के कुछ न कुछ उपाय अवश्य करने होंगे.
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