Author : Soham Agarwal

Published on Dec 12, 2023 Updated 0 Hours ago

भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच नज़दीकी सहभागिता ज़िम्मेदार और टिकाऊ तरीक़े से समुद्र तल के खनन के ज़रिए महत्वपूर्ण खनिजों के निकास का रास्ता साफ़ कर सकती है.

समुद्री तल में महत्वपूर्ण खनिज: भारत-ऑस्ट्रेलिया सहभागिता के लिए एक उभरता मोर्चा

गहरे समुद्र से जुड़ी प्रौद्योगिकी में उन्नति के चलते समुद्र तल पर खनिज संसाधनों की खोज और दोहन (जिसे समुद्र तल खनन के नाम से जाना जाता है) ने नए सिरे से दिलचस्पी पैदा की है. 19वीं सदी में HMS चैलेंजर्स द्वारा पॉलीमेटेलिक  नोड्यूल्स की खोज ने दुनिया को महासागर की तलहटी में खनिज भंडारों के अस्तित्व से अवगत कराया. इसके बाद पॉलीमेटेलिक  सल्फाइड्स और कोबाल्ट सघन फेरोमैंगनीज़ क्रस्ट की खोज ने समुद्री तलहटी को कई खनिजों का ज्ञात भंडार बना दिया. इनमें तांबा, कोबाल्ट, मैंगनीज़, लोहा, लिथियम  और रेयर अर्थ तत्व शामिल हैं. अहम खनिजों के इस नए स्रोत को आपसी तालमेल के साथ टिकाऊ और ज़िम्मेदार रूप से बाहर निकालने को लेकर ऑस्ट्रेलिया और भारत के बीच मौजूदा व्यवस्थाओं में शानदार अवसर मौजूद हैं.

 अहम खनिजों के इस नए स्रोत को आपसी तालमेल के साथ टिकाऊ और ज़िम्मेदार रूप से बाहर निकालने को लेकर ऑस्ट्रेलिया और भारत के बीच मौजूदा व्यवस्थाओं में शानदार अवसर मौजूद हैं..

हालांकि समुद्री तलहटी में खनन गंभीर पर्यावरणीय प्रभावों को लेकर चिंताएं पैदा करता है. पॉलीमेटेलिक  नोड्यूलस  के निकास की प्रक्रिया में खनन मशीनरी द्वारा समुद्री तलहटी में तक़रीबन 5 सेमी. तक कटाई करना शामिल है. नोड्यूल्स  में हवा भरी जाती है, उन्हें साफ़ करके अलग-अलग किया जाता है, जिसके बाद बाक़ी बची गाद को मध्य महासागरीय स्तर पर भंडारित कर दिया जाता हैपॉलीमेटेलिक  सल्फाइड्स और फेरोमैंगनीज़ के खनन के काम में क्रमश: हाइड्रोथर्मल निकासों और समुद्र  के चट्टानी उभारों से पत्थर की कटाई का काम शामिल है.

भले ही कुछ शोध समुद्री पारिस्थितिकी  तंत्रों पर खनन के प्रभाव का लेखा जोखा  तैयार करते हैं, गहरे समुद्र के पारिस्थितिक  तंत्र के बारे में वैज्ञानिक जानकारी में गहन अंतराल प्रमाण-आधारित प्रभाव आकलन में बाधा डालते हैं. संभावित पर्यावरणीय प्रभाव की हद को लेकर सूचना का अभाव, इसके असर को और गंभीर बना देता है, जो समुद्री तलहटी में खनन को आगे बढ़ाने की क़वायद में भारत और ऑस्ट्रेलिया, दोनों के रास्ते की बड़ी बाधा है. हाल ही में ऑस्ट्रेलिया की पर्यावरण मंत्री तान्या प्लिबरसेक ने इस स्थिति को दोहराते हुए कहा था कि "वो व्यापक और अज्ञात पर्यावरणीय प्रभावों को लेकर चिंतित हैं". हालांकि उनके बयान में समुद्री तलहटी में खनन की संभावना को पूरी तरह से ख़ारिज नहीं किया गया, बल्कि ये कहा गया कि "मज़बूत पर्यावरणीय नियमनों के अस्तित्व में आए बिना" ऐसा नहीं किया जाना चाहिए. 

समुद्र में खनिज कि उपस्थिति

समुद्री तल में खनन के संभावित आर्थिक और भू-राजनीतिक  फ़ायदों से ये भावनाएं पैदा होती हैं. अपने महत्व और लगातार जारी वैश्विक आपूर्ति जोख़िमों के चलते इन्होंने "महत्वपूर्ण" का ख़िताब हासिल कर लिया है. अकेले मध्य हिंद महासागरीय बेसिन (CIOB) में ही 47 लाख टन निकेल, 42.9 लाख टन तांबा, 5.5 लाख टन कोबाल्ट और 9.26 करोड़ टन मैंगनीज़ होने का अनुमान है. राष्ट्रीय न्यायिक क्षेत्राधिकारों (आर्टिकल 1(1) UNCLOS) की सीमाओं से परे ऐसे 'इलाक़े' यानी समुद्री तलहटी और महासागर के तल और वहां की निचली मिट्टी में में स्थित खनिजों के ये अनुमान तटीय राष्ट्रों के महादेशीय हिस्सों यानी राष्ट्रीय न्यायिक क्षेत्राधिकार के भीतर उपलब्ध मात्राओं के अतिरिक्त हैं. ये आंकड़ा किसी भी मौजूदा या अनुमानित भूमि-आधारित निकास के आंकड़ों से कहीं ज़्यादा है और संभावित रूप से ऐसे खनिजों की स्थिर आपूर्ति का विकल्प सामने रखता है, जो फ़िलहाल अस्थिरता, किल्लत और भूराजनीतिक अस्थिरताओं की चपेट में हैं. इसके अलावा, ये खनिज बैटरी भंडारण और इलेक्ट्रिक वाहन टेक्नोलॉजी के लिए तेज़ी से अहम होते जा रहे हैं, जो ऊर्जा संक्रमण प्रक्रियाओं और टिकाऊ भविष्य को सहारा देने के लिए महत्वपूर्ण हैं. 

राष्ट्रीय न्यायिक क्षेत्राधिकारों (आर्टिकल 1(1) UNCLOS) की सीमाओं से परे ऐसे 'इलाक़े' यानी समुद्री तलहटी और महासागर के तल और वहां की निचली मिट्टी में में स्थित खनिजों के ये अनुमान तटीय राष्ट्रों के महादेशीय हिस्सों यानी राष्ट्रीय न्यायिक क्षेत्राधिकार के भीतर उपलब्ध मात्राओं के अतिरिक्त हैं..

निर्देशित अनुसंधान की कमी के अलावा भारत और ऑस्ट्रेलिया में उपलब्ध तकनीक की कमी भी एक मुद्दा है. ये असरदार प्रभाव मूल्यांकनों में मुश्किलों को पेचीदा बना देती है, जो ठोस नियमनों के क्रियान्वयन के लिए महत्वपूर्ण है.

लिहाज़ा, ऑस्ट्रेलिया और भारत के बीच मौजूदा सहभागिता का विस्तार करके उसमें टिकाऊ समुद्र तल खनन में शोध को शामिल किया जाना चाहिए. इसमें गहरे समुद्र के पारिस्थितिकी तंत्र की साझा खोज; पर्यावरणीय प्रभाव आकलन रूपरेखाओं और प्रबंधन योजनाओं का सह-विकास; और गहरे समुद्री तकनीकों का व्यवसायीकरण  को भी जोड़ा जा सकता है, जो प्रक्रिया को अधिक कार्यकुशल और पर्यावरणीय तौर पर सुदृढ़ बना सकते हैं. ऑस्ट्रेलियाई सरकार की क़वायद 2035 तक की भारतीय आर्थिक रणनीति में एक अपडेट: संभावना से वितरण की ओर आगे बढ़ना (IES) के तहत मौजूदा जुड़ाव में महत्वपूर्ण खनिजों में भारत के साथ साझेदारियों को प्राथमिकता के तौर पर रखा गया है. इस प्रभाव के लिए “आपूर्ति श्रृंखलाओं में मज़बूती लाने, ऑस्ट्रेलियाई निर्यातों का मूल्य वर्धन करने, और टेक्नोलॉजी के व्यवसायीकरण  के लिए भारत के साथ मिलकर काम करने” को लेकर भारत-ऑस्ट्रेलिया महत्वपूर्ण खनिज शोध भागीदारी (CMRP) की स्थापना की गई. लिहाज़ा, CMRP वो उपयुक्त मंच हो सकता है जिसके तहत ऐसी सहभागिता हो सकती है.

इस साझेदारी की अगुवाई ऑस्ट्रेलिया की राष्ट्रीय विज्ञान एजेंसी, राष्ट्रमंडल वैज्ञानिक और औद्योगिक शोध संगठन (CSIRO) द्वारा की जाती है, जो पूरक क्षमताओं को आकर्षित करने, विशेषज्ञता को जोड़ने और अत्याधुनिक शोध और तकनीक में तेज़ी लाने के लिए भारतीय और ऑस्ट्रेलियाई शोधकर्ताओं, उद्योग जगत और सरकार के साथ मिलकर काम करने की कोशिश करता है. CMRP का एक प्रमुख घटक “भारतीय और ऑस्ट्रेलियाई महत्वपूर्ण खनिज मूल्य श्रृंखलाओं की शुरुआत, उन्हें सुधारने और एकीकृत करने के व्यावसायिक लाभों को शुरू करना” है. CSIRO के खनिज संसाधन प्रोसेसिंग  कार्यक्रम के तहत संचालित परियोजनाओं को 3.5 साल में आयोजित किया जाना है, और ये महत्वपूर्ण खनिजों की विविधतापूर्ण, लचीली और ज़िम्मेदार आपूर्ति श्रृंखलाओं में योगदान देने का लक्ष्य रखे हुए हैं. महत्वपूर्ण खनिज उद्योगों के विस्तार के साथ-साथ ऑस्ट्रेलियाई और भारतीय तकनीकों का व्यावसायीकरण करना भी इस क़वायद का मक़सद है. CMRP उद्देश्यों की पूर्ति के लिए तैयार की गई CSIRO परियोजनाओं को CMRP रकम मुहैया कराती है, और अब तक उसे 3.57 करोड़ ऑस्ट्रेलियाई डॉलर की धनराशि हासिल हुई है. चालू की जा रही परियोजनाओं की प्रकृति में “ऑस्ट्रेलियाई वैनेडियम  भंडारों को खुले में लाने और व्यावसायिक स्तर पर बैटरी सामग्रियों के उत्पादन को सक्षम बनाने में मदद के लिए नए और अनोखे आईपी का विकास” शामिल है.

CSIRO की विशेषज्ञता को देखते हुए पूरकताओं के भरपूर इस्तेमाल के लिए तकनीकी सहभागिता एक बड़ा अवसर है, जिससे जल्द से जल्द व्यवसायीकरण  तक पहुंचा जा सकेगा.

समुद्र तट से ज़िम्मेदार और टिकाऊ तरीक़े से खनिज संसाधनों के निकास को सक्षम बनाने के लिए परियोजनाएं शुरू किए जाने से खनिजों का एक विविध और टिकाऊ स्रोत खुल सकता है. इसके अलावा CSIRO के पास गहरे समुद्र में खनन अनुसंधान की भी विशेषज्ञता है और वो फ़िलहाल पारिस्थितिकी तंत्र के एकीकृत मूल्यांकन और पारिस्थितिकी तंत्र आधारित प्रबंधन रूपरेखा के विकास के लिए एक संघ (कंसोर्टियम) का नेतृत्व कर रहा है, जो प्रस्तावित खनन गतिविधियों के संभावित प्रभावों की माप करेगा. इस सिलसिले में, भारत सरकार के पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय और उसके स्वायत्त संस्थानों के साथ सहयोग फलदायी रहेगा. इन संस्थानों में गोवा स्थित राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान शामिल है, जिसने अतीत में विक्षोभ (डिस्टर्बेंस) अध्ययन आयोजित किए हैं. इस तरह की सहभागिता से CIOB से हासिल अनुभवों को प्रशांत क्षेत्र में क्लेरियन-क्लिपरटन ज़ोन में लागू किया जा सकेगा, और क्षेत्रों के बीच समानताओं और अंतरों की बेहतर समझ हासिल हो सकेगी. अनुभव साझा करने से ज़्यादा प्रभावी और अनुकूल रूप से तैयार प्रबंधन दृष्टिकोणों को अपनाने में मदद मिलेगी.

आगे की राह

इतना ही नहीं, टिकाऊ खनन के लिए तकनीक का साझा विकास और व्यावसायीकरण, मूल्यांकन और निगरानी के ज़रिए पर्यावरणीय प्रभाव की चिंताओं के निपटारे में काफ़ी हद तक मदद कर सकता है. चूंकि तकनीक का हस्तांतरण, दोनों ही न्यायिक क्षेत्राधिकारों में राजनीतिक रूप से संवेदनशील मसला है, आईपी के साझा विकास में गठजोड़ प्रभावी समाधान हो सकता है. भारत के गहरे महासागर मिशन के तहत पूरकताएं तैयार की जा सकती हैं, जो गहरे समुद्र में खनन और एकीकृत खनन प्रणाली के लिए तकनीक के विकास को प्राथमिकता देता है. राष्ट्रीय महासागर प्रौद्योगिकी  संस्थान एक मानवयुक्त पनडुब्बी मत्स्य 6000 का विकास कर रहा है, जो 6 हज़ार मीटर की गहराई पर संचालित होगा. CSIRO की विशेषज्ञता को देखते हुए पूरकताओं के भरपूर इस्तेमाल के लिए तकनीकी सहभागिता एक बड़ा अवसर है, जिससे जल्द से जल्द व्यवसायीकरण  तक पहुंचा जा सकेगा.   

ज़ाहिर है, गहरे समुद्र में खनन से जुड़ा अनुसंधान भारत-ऑस्ट्रेलिया सहयोग के लिए एक उभरता हुआ मोर्चा है, और इसके संचालन के लिए CMRP एक मौजूदा और उपयुक्त ढांचा मुहैया कराता है. ये गठजोड़ अधिक कुशल कार्रवाई की सुविधा देगा और भारत और ऑस्ट्रेलिया को महत्वपूर्ण खनिजों के नए स्रोत की शुरुआत का रास्ता साफ़ करने में सक्षम बनाएगा. साथ ही ये भी सुनिश्चित करेगा कि खनिजों का ये निकास ज़िम्मेदार और टिकाऊ तरीक़े से किया जाए.


 सोहम अग्रवाल नई दिल्ली स्थित नेशनल मैरीटाइम फाउंडेशन में पब्लिक इंटरनेशनल मेरीटाइम  लॉ क्लस्टर में एसोसिएट फेलो हैं.

ये लेख ऑस्ट्रेलियाई रक्षा विभाग के सहयोग से शुरू किए गए ऑस्ट्रेलिया इंडिया इंस्टीट्यूट के रक्षा कार्यक्रम के हिस्से के रूप में लिखा गया था.

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