Author : Rajeev Jayadevan

Published on Jun 15, 2021 Updated 0 Hours ago

भविष्य के लिए ये आवश्यक है कि हम शरीर के भीतर वायरस के प्रभावों पर काबू पाने के लिए नए तरीकों की तलाश करें.

एक से ज़्यादा अनमोल से अनमोल सार्स-कोव-2 वायरस: चुनौती और अवसर, दोनों साथ-साथ

सार्स-कोव-2 वायरस अब किसी परिचय का मोहताज नहीं रह गया है. मानव जाति पर इस वायरस का प्रहार जारी है. महामारी के मौजूदा दौर में वैज्ञानिक शोध और वायरस के बीच मानो एक होड़ सी मची है. कोरोना संक्रमण के इलाज के नज़रिए से देखें तो वैक्सीन और चंद चिकित्सकीय अभ्यासों के हिसाब से बदलते मुट्ठीभर बेतरतीब क्लीनिकल ट्रायलों के अतिरिक्त आधुनिक विज्ञान कोई और कमाल दिखा पाने में अबतक नाकाम रहा है. हम आज भी पिछले करीब 100 सालों से ज्ञात पारंपरिक ग़ैर-औषधीय उपायों को ही अपना रहे हैं.

मिसाल के तौर पर देखें तो आज भी हमारे पास कोई प्रभावी एंटी-वायरल एजेंट नहीं है. फेफड़ों और रक्तवाहिकाओं समेत हमारे शरीर के विभिन्न अंदरुनी तंत्रों पर वायरस के प्रभावों को पूरी तरह से रोक पाने से जुड़ा ज्ञान आज भी हमारे पास नहीं है. इतना ही नहीं, एक बार जब विषाणु हमारे प्राकृतिक प्रतिरोधक क्षमता को भेद कर आगे निकल जाता है तो शरीर में इसके और आगे प्रसार से रोकने से जुड़ी प्रक्रिया से हम आज भी अनभिज्ञ हैं. कोरोना संक्रमण से जुड़े सिद्धांत तो अनेक हैं, लेकिन हम अब भी ये नहीं जान सके हैं कि विभिन्न आयु वर्गों के कुछ वयस्कों में क्यों ये वायरस बेहद घातक प्रभाव डाल रहा है. वहीं दूसरी ओर कई अन्य लोग वायरस की चपेट से आसानी से बाहर निकल जा रहे हैं. इनमें से कइयों को तो ये पता भी नहीं चलता कि उन्हें कोरोना का संक्रमण हुआ था. हमें इसके पीछे की वजह अब भी ज्ञात नहीं है.

स्वास्थ्य से जुड़े विज्ञान के साथ एक समस्या ये है कि ये चंद स्थापित प्रतिमानों या विचार प्रक्रियाओं का अनुसरण करता है. इस पर पिछले अनुभवों और ज्ञात तथ्यों का बड़ा भारी प्रभाव रहता है. ये बात सही है कि ऐसी कार्य पद्धति के कई निश्चित लाभ होते हैं लेकिन ये बात भी उतना ही सच है कि इस तरह का रवैया नए-नए प्रयोगों या नवाचारों के दायरे को सीमित कर देता है. भविष्य के लिए ये आवश्यक है कि हम शरीर के भीतर वायरस के प्रभावों पर काबू पाने के लिए नए तरीकों की तलाश करें.

कोरोना संक्रमण से जुड़े सिद्धांत तो अनेक हैं, लेकिन हम अब भी ये नहीं जान सके हैं कि विभिन्न आयु वर्गों के कुछ वयस्कों में क्यों ये वायरस बेहद घातक प्रभाव डाल रहा है.

इसके साथ ही व्यावसायिक लाभ के लिए जादूई असर और चमत्कारों का सब्ज़बाग़ दिखाने वाले फ़र्जी उपायों से जुड़े गोरखधंधे की पहचान करने, उन्हें हतोत्साहित करने और उनको जड़ से ख़त्म करने के तत्पर प्रयासों की भी ज़रूरत है. इन उपायों का या तो बेहद सीमित या फिर कोई वैज्ञानिक आधार नहीं होता है. हालांकि, ये बात भी सच है कि वैज्ञानिकों के मुक़ाबले इस तरह के घपलेबाज़ अपने उत्पादों के बारे में लोगों को ज़्यादा आसानी से यकीन दिला देते हैं. ऐसे धंधेबाज़ कई रूपों में सामने आते हैं. इस तरह के जादूई नुस्खे ईजाद करने वाले कुछ लोग तो अपने उत्पादों को लेकर इतने आश्वस्त होते हैं कि उन्हें ये समझ ही नहीं आता कि वो किसी गोरखधंधे में लिप्त हैं.

वायरस कैसे काम करता है: कोरोना वायरस के कोशिकाओं में प्रवेश से जुड़ा तंत्र

वायरस बुनियादी तौर पर धूल के कण जैसा होता है. इसमें प्रोटीन के आवरण तले जेनेटिक कोड का हिस्सा छिपा होता है. कभी-कभी इसमें वसा का एक अतिरिक्त आवरण भी चढ़ा होता है. विषाणु स्वत: गतिमान नहीं हो सकते और न ही बिना किसी मेज़बान के इनकी संख्या बढ़ सकती है. सार्स-कोव-2 वायरस ने इंसान के तौर पर एक आदर्श मेज़बान ढूंढ लिया है. मौजूदा महामारी इस तथ्य का जीता-जागता उदाहरण है.

अगर हम सार्वभौम टीकाकरण और दूसरे ग़ैर-औषधीय उपायों के ज़रिए इंसानों को संक्रमित करने की इस वायरस की क्षमता को सीमित कर देते हैं तो सैद्धांतिक रूप से हम इस महामारी पर काबू पा सकते हैं. हालांकि जब हम आर्थिक विषमता, जनसंख्या घनत्व और दुनिया भर में वैक्सीन को लेकर झिझक से जुड़े तथ्यों की ओर नज़र डालते हैं तो ये एक बहुत बड़ा और कठिन काम मालूम होता है.

भविष्य के लिए ये आवश्यक है कि हम शरीर के भीतर वायरस के प्रभावों पर काबू पाने के लिए नए तरीकों की तलाश करें.

संक्रमण के बाद इलाज से जुड़े विकल्पों पर अब तक अपेक्षाकृत काफ़ी कम पड़ताल हो सकी है. इस संदर्भ में हमें ख़ासतौर से संक्रमण के उपरांत शरीर में विषाणु के प्रसार को रोकने से जुड़े उपायों पर ज़ोर देना चाहिए. हमें इस बात का पता लगाना चाहिए कि इंसानी शरीर को संक्रमित करने के बाद वायरस क्या रास्ते अपनाता है. कोविड-19 दो चरणों में अपना प्रभाव दिखाने वाली बीमारी है. ज़्यादातर लोगों में शुरुआती वायरल प्रभावों के बाद ये शांत पड़ जाता है. जबकि कुछ लोगों में आगे चलकर प्रतिरोधकता के मध्यवर्ती प्रभावों से जुड़ा दूसरा चरण दिखाई पड़ने लगता है.  इसमें अलग-अलग मात्रा में शारीरिक अंगों को नुकसान पहुंचने की घटना देखने को मिलती है. साफ़ तौर पर जो वायरस मानव शरीर में फैल नहीं सकता वो शरीर को नुकसान नहीं पहुंचा सकता. दुर्भाग्यवश इस वक़्त हमारे पास इंसानी शरीर के भीतर वायरस का प्रसार रोकने से जुड़ा कोई उपाय नहीं है.

हममें से ज़्यादातर ने सार्स-कोव-2 वायरस के हमारी कोशिकाओं में प्रवेश से जुड़े तंत्र के बारे में सुन रखा है. इस प्रक्रिया में ACE-2 रिसेप्टर्स की भूमिका होती है. वायरस अपने स्पाइक प्रोटीन के ज़रिए इनसे जुड़ता है. इसके बाद ये कोशिकाओं के भीतर प्रवेश कर इंसान के शारीरिक तंत्र को अपने कब्ज़े में कर लेता है. इंसानी शरीर के आंतरिक संसाधनों का इस्तेमाल कर ये अपने असंख्य प्रतिरूप तैयार कर लेता है. इस प्रक्रिया को ऐसे ही आगे बढ़ाने हेतु इन विषाणुओं को संक्रमण फैलाने के लिए सदैव दूसरी कोशिकाओं की तलाश रहती है.

सवाल उठता है कि क्या ये विषाणु दूसरे माध्यमों का इस्तेमाल कर आसपास की कोशिकाओं तक फैलने में कामयाब होते हैं या नहीं. दूसरे शब्दों में कोशिका की मुक्त सतह पर क्या ये हमेशा ACE-2 रिसेप्टर के साथ जुड़कर ही कोशिका के भीतर प्रवेश कर सकता है?

अपने प्रतिरूप बनाने की कोरोना वायरस की प्रक्रिया को समझने का महत्व

इंसानी शरीर विशाल ऊतकों से बने होते हैं. इन ऊतकों में आपस में जुड़ी करोड़ों कोशिकाएं समाहित होती हैं. हक़ीक़त ये है कि किसी विषाणु के लिए कोशिकाओं के मुक्त सतह को ढूंढना और उसे संक्रमित करना एक दुर्लभ कृत्य है.

ग़ौरतलब है कि एचआईवी-1 और खसरे के वायरस भी “चक्करदार तंत्र” यानी कोशिकाओं के बीच के संपर्क बिंदुओं का इस्तेमाल कर कोशिकाओं के मध्य फैलते हैं. दूसरे शब्दों में कोशिका की सतह से जुड़ने और उसमें प्रवेश करने के लिए उन्हें हमेशा ही रिसेप्टर की ज़रूरत नहीं पड़ती.

इसे एक साधारण परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए हम गगनचुंबी और कई अपार्टमेंट वाले कॉम्प्लेक्स का उदाहरण ले सकते हैं. मान लेते हैं कि यहां की किसी खुली खिड़की से कोई कीड़ा उड़कर अंदर प्रवेश कर जाता है. एक बार अपार्टमेंट में घुस जाने के बाद ये तेज़ी से प्रजनन करता है और इस प्रकार नए जन्मे कीड़े दीवारों में बिल बनाकर उनके ज़रिए आसपास के अपार्टमेंटों और इकाइयों में पसर जाते हैं. चूंकि ये प्रक्रिया बार-बार दोहराई जाती है लिहाजा ये कीड़े उस समूचे कॉम्प्लेक्स में बहुत तेज़ी से और बहुत भारी संख्या में धावा बोलने में कामयाब हो जाते हैं.

सवाल उठता है कि क्या ये विषाणु दूसरे माध्यमों का इस्तेमाल कर आसपास की कोशिकाओं तक फैलने में कामयाब होते हैं या नहीं.

इसके ठीक विपरीत एक दूसरे प्रकार का कीड़े का उदाहरण लेते हैं जो सिर्फ़ तभी कमरे में घुस पाता है जब वहां की खिड़की खुली हो. चूंकि वो दीवारों में बिल बनाकर उसके आर-पार जाने की काबिलियत नहीं रखता, लिहाजा वो उस तरह के नतीजे नहीं दिखाता जैसा पहले प्रकार के कीड़े ने दिखाया था.

सार्स-कोव-2 विषाणु के संदर्भ में ऐसे चक्करदार प्रसार की संभावनाओं की मौजूदगी का मामला एक साल से भी ज़्यादा वक़्त पहले से उठता आया है.

भारतीय शोधकर्ता अनामिका बसु और गुरदास कॉलेज और कोलकाता के जादवपुर विश्वविद्यालय के उनके सहकर्मियों ने 26 मई 2020 को एक प्रकाशन-पूर्व शोध प्रस्तुत किया था. इस शोध में उन्होंने सार्स-कोव-2 वायरस के प्रसार को लेकर पारंपरिक तौर पर दी गई जानकारियों के अलावा उनके फैलाव के दूसरे तंत्रों के बारे में विस्तार से व्याख्या की थी.

कुछ दिनों पहले 1 जून 2021 को ओहियो स्टेट यूनिवर्सिटी और वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी के कोंग ज़ेंग और कुछ दूसरे लोगों ने इस बात की पुष्टि की थी कि सार्स-कोव-2 वायरस कोशिका-दर-कोशिका प्रवेश (चक्करदार प्रवेश से) के ज़रिए प्रभावी तरीके से फैलता है.

ये विषाणु कोशिकाओं के बीच मौजूद चिपकने वाले पदार्थों (आसपड़ोस की कोशिकाओं के बीच के चिपचिपे संलग्नकों) का इस्तेमाल करते हैं. कभी-कभी ये इंडोज़ोम्स नामक छोटे फफोलों  के ज़रिए और इसके प्रसार में मददगार कोशिकाओं के ख़ुद के साइटोस्केलेटन का इस्तेमाल कर प्रसारित होते हैं.

कोशिकाओं के बीच की तंग जगह में हमारे शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र के लिए विषाणु को बेअसर कर पाने की कोई गुंज़ाइश नहीं होती. मानव शरीर में मौजूद ये प्रतिरक्षी तत्व कोशिकाओं की मुक्त सतह के पास ही देखे जाते हैं. बाहरी तत्वों को बेअसर करने वाली एंटीबॉडी हमारे शरीर में तैयार होने वाले कुल प्रतिरक्षी तत्वों का एक छोटा सा हिस्सा होता है. ये एंटीबॉडी विषाणु पर कुछ चुनिंदा कारक स्थापित करने में कामयाब रहते हैं. इस तरह वो इन विषाणुओं को ACE-2 रिसेप्टर से जुड़ने से रोक देते हैं. इससे कोशिकाएं संक्रमित होने से बच जाती हैं.

विषाणु जैसे बाह्य तत्वों को बेअसर करने वाले ये ताक़तवर एंटीबॉडी कोशिकाओं के बीच की तंग जगह में बड़ी तादाद में प्रवेश नहीं करते हैं. ऐसे में वायरस कोशिकाओं के अनेक स्तरों के बीच से अपना रास्ता बनाने में कामयाब हो जाते हैं. इस प्रकार वो ख़ुद को इन ताक़तवर प्रतिरक्षियों से बचाने में कामयाब हो जाता है.

मानव शरीर के अंदर इन विषाणुओं से दो-दो हाथ करने के लिए दूसरे प्रतिरक्षी तंत्र मौजूद होते हैं. इसके बावजूद विषाणुओं के कोशिका-दर-कोशिका प्रवेश से जुड़ा मामला चिंता का विषय है. हालांकि इससे चिकित्सा के नए तरीकों की खोज के अवसर भी हाथ लगते हैं.  

मॉस्को के गमालेया नेशनल रिसर्च सेंटर की नतालिया क्रुगलोवा और उनके सहकर्मियों ने 5 मई 2021 को प्रस्तुत अपने प्रकाशन-पूर्व शोध कार्य में इस तथ्य की पुष्टि की है. उन्होंने साबित किया है कि विषाणुओं के कोशिका-दर-कोशिका प्रवेश की प्रक्रिया इन्हें बेअसर करने वाले प्रतिरक्षी तत्वों की मौजूदगी से लगभग पूरी तरह अप्रभावित रहते हैं.

मानव शरीर के अंदर इन विषाणुओं से दो-दो हाथ करने के लिए दूसरे प्रतिरक्षी तंत्र मौजूद होते हैं. इसके बावजूद विषाणुओं के कोशिका-दर-कोशिका प्रवेश से जुड़ा मामला चिंता का विषय है. हालांकि इससे चिकित्सा के नए तरीकों की खोज के अवसर भी हाथ लगते हैं.

सार ये है कि सार्स-कोव-2 वायरस कोशिकाओं के बिना आवरण वाली सतह पर स्थित ACE-2 रिसेप्टर का इस्तेमाल कर कोशिका में प्रवेश कर सकते हैं. हालांकि अन्य कोशिकाओं तक इसका प्रसार न सिर्फ़ रिसेप्टर बल्कि कोशिका-दर-कोशिका संक्रमण की प्रक्रिया के ज़रिए भी होता है.

यहां महत्वपूर्ण सवाल ये है कि विषाणु के एक से दूसरी कोशिका तक होने वाले इस प्रसार को चिकित्सकीय या औषधीय उपायों के इस्तेमाल से प्रभावी तरीके से रोका जा सकता है या नहीं. इतना ही नहीं, भविष्य के हिसाब से एक महत्वपूर्ण प्रश्न ये भी है कि विकसित किए गए ये औषधीय उपाय महामारी के दौरान उपयोग के लिए कितने सुरक्षित या व्यवहार्य साबित होते हैं.

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