Published on Jul 30, 2023 Updated 0 Hours ago

पिछले कई वर्षों के दौरान नई नई तकनीकें विकसित करके, रूस ने अपने दुश्मनों के ख़िलाफ़ हाइब्रिड युद्ध की रणनीति का इस्तेमाल करने में महारत हासिल कर ली है.

रूस की हाइब्रिड जंग वाली रणनीति: क्रीमिया से यूक्रेन तक
रूस की हाइब्रिड जंग वाली रणनीति: क्रीमिया से यूक्रेन तक

ये लेख हमारी सीरीज़, द यूक्रेन क्राइसिस: कॉज़ ऐंड कोर्स ऑफ़ कॉनफ्लिक्ट का एक हिस्सा है.


बहुत दिनों तक चली अटकलों के बाद आख़िरकार रूस ने, यूक्रेन के ख़िलाफ़ अपना ‘विशेष सैन्य अभियान’ शुरू ही कर दिया. दोनों देशों के बीच चल रहे इस संघर्ष के अन्य इलाक़ों में फैलने का डर है. रूस ने यूक्रेन के ख़िलाफ़ ये सैन्य अभियान शुरू करने से पहले उसके अलगाववादी ‘डोनबास’ क्षेत्र में अपनी शांतिरक्षक सेना भेजने का फ़ैसला किया था. रूस की सैन्य कार्रवाई से पहले यूक्रेन पर ज़बरदस्त साइबर हमले किए गए. इन हमलों में यूक्रेन के दो बैंकों, उसके रक्षा, विदेश और संस्कृति मंत्रालय के साथ-साथ सेना को निशाना बनाया गया. यूक्रेन के उप प्रधानमंत्री ने ये साइबर हमले करने का इल्ज़ाम रूस पर लगाया और ये भी कहा कि ये अब तक देखा गया अपने तरह का सबसे बड़ा साइबर हमला था.

2014 में यूक्रेन के क्रीमिया पर रूस के क़ब्ज़े और इस वक़्त यूक्रेन और इर्द-गिर्द हो रही घटनाओं के बीच तुलना करते हुए इस लेख में इस बात का विश्लेषण किया गया है कि किस तरह रूस अपनी हाइब्रिड युद्ध वाली रणनीति को नई तकनीकों और पश्चिमी देशों की प्रतिक्रियाओं से सीखते हुए और बेहतर बना रहा है.

ऐसा लगता है कि ये साइबर हमले रूस की उसी हाइब्रिड युद्ध रणनीति का हिस्सा हैं, जो उसने पिछले कुछ वर्षों के दौरान अपने दुश्मनों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल की है. 2014 में यूक्रेन के क्रीमिया पर रूस के क़ब्ज़े और इस वक़्त यूक्रेन और इर्द-गिर्द हो रही घटनाओं के बीच तुलना करते हुए इस लेख में इस बात का विश्लेषण किया गया है कि किस तरह रूस अपनी हाइब्रिड युद्ध वाली रणनीति को नई तकनीकों और पश्चिमी देशों की प्रतिक्रियाओं से सीखते हुए और बेहतर बना रहा है.

हाइब्रिड युद्ध की परिकल्पना

हाइब्रिड जंग का मतलब युद्ध के पारंपरिक तरीक़ों के साथ साथ ग़ैर पारंपरिक तौर-तरीक़ों का इस्तेमाल करना होता है. इसमें आर्थिक दबाव डालना, ग़लत जानकारी फैलाना, दुष्प्रचार करना, किसी और को मोहरा बनाना और साइबर युद्ध जैसे तरीक़े शामिल हैं. चूंकि इस तरह से युद्ध लड़ने में कई फ़ायदे होते हैं, तो ये बात साफ़ हो जाती है कि आख़िर आजकल बहुत से देश क्यों इस तरह से युद्ध लड़ रहे हैं.

चूंकि, हाइब्रिड युद्ध में एक तरह की अस्पष्टता रहती है, तो पश्चिमी देश इसका मुक़ाबला कर पाने में मुश्किलों से दो-चार होते रहे हैं. इसके बावजूद, पश्चिमी देश कुछ ऐसे नुस्खे आज़मा सकते हैं, जिनकी मदद से वो हाइब्रिड वॉर से ख़ुद की रक्षा कर सकें. मसलन ग़ैर सरकारी हमलावरों की पहचान और ग़लत जानकारी से निपटने में और लचीलापन अपनाना.

हाइब्रिड युद्ध में एक तरह की अस्पष्टता रहती है, तो पश्चिमी देश इसका मुक़ाबला कर पाने में मुश्किलों से दो-चार होते रहे हैं. इसके बावजूद, पश्चिमी देश कुछ ऐसे नुस्खे आज़मा सकते हैं, जिनकी मदद से वो हाइब्रिड वॉर से ख़ुद की रक्षा कर सकें. 

2014 में क्रीमिया पर रूस के क़ब्ज़े की यूक्रेन में आज के हालात से तुलना

फ़रवरी 2014 में जब यूक्रेन की सरकार यूरोपीय संघ के जुड़ने के लिए उसके साथ लंबे समय से चली आ रही वार्ता के बाद भी समझौते पर दस्तख़त नहीं कर सकी, तो यूक्रेन में बड़े पैमाने पर सरकार विरोधी प्रदर्शन हुए थे. इन विरोध प्रदर्शनों को यूरोमैडान संकट कहा गया था. इन विरोध प्रदर्शनों के चलते यूक्रेन के तत्कालीन राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच को पद से इस्तीफ़ा देने के बाद देश छोड़कर भागना पड़ा था. इसके बाद, जब रूस समर्थक कार्यकर्ताओं ने क्रीमिया की संसद के बाहर प्रदर्शन किया, तो रूस समर्थक सर्गेई अक्सोनोव को प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया था. जब रूस ने यूक्रेन में अपनी सेना भेजने का वादा किया तो उसके बाद क्रीमिया को रूस का हिस्सा बनाने के लिए एक जनमत संग्रह कराने की योजना बनाई गई- यूक्रेन ने इस क़दम की कड़ी आलोचना की. कहा गया कि इस जनमत संग्रह में क्रीमिया की जनता के बहुमत ने रूस में शामिल होने की इच्छा जताई है. चूंकि, इस जनमत संग्रह की किसी तरह की अंतरराष्ट्रीय निगरानी की इजाज़त नहीं दी गई थी, तो इसकी विश्वसनीयता पर सवाल भी उठे. इन ऐतराज़ों के बावजूद, क्रीमिया आधिकारिक रूप से रूस का हिस्सा बन गया.

यूक्रेन के ताज़ा हालात भी 2014 से ख़तरनाक रूप से मेल खाते हैं. हालांकि, पश्चिमी देश भी यूक्रेन को हथियार और सैनिक भेजकर मदद कर रहे हैं. लेकिन, रूस की सामरिक रूप से मज़बूत स्थिति और ज़्यादा तादाद वाली सेना से लड़ने में ये मदद काफ़ी नहीं साबित हो पा रही है. पहले रूस द्वारा एटमी हमले की धमकी देने और कुछ सैनिक वापस बुलाने और अब सीधे तौर पर युद्ध का एलान करके यूक्रेन पर पूरी ताक़त से हमला करने के बाद ये तय था कि पश्चिमी देश भी इस पर प्रतिक्रिया देंगे. लेकिन, ये बात रूस को युद्ध का एलान करने से नहीं रोक सकी और इससे हालात भी सही दिशा में मुड़ने वाले नहीं हैं.

आरोप लगते रहे हैं कि रूस ऐसे कलाकारों को भाड़े पर लेता है जो बहुत सी तबाहियों के पीड़ित की भूमिका अदा करने, नक़ली सबूत जुटाते और फ़र्ज़ी रिपोर्टिंग जैसी कई भूमिकाएं अदा करते हैं.

चूंकि, रूस ने पहले क्रीमिया पर हमला करके उस पर अपना क़ब्ज़ा कर लिया था, तो किसी को भी इस बात पर शक नहीं है कि पुतिन इस बार भी ऐसा करने में सक्षम हैं. मगर, इस बार रूस का हमला भी बहुत बड़ा है और उससे निपटने के लिए पश्चिमी देशों (मतलब कि नेटो) का पलटवार भी कई गुना अधिक है. इस बात को ध्यान में रखते हुए दोनों संकटों के हालात की तुलना करना उपयोगी साबित हो सकता है. हाइब्रिड युद्ध के नज़रिए 2014 में क्रीमिया और 2021-22 में पूरे यूक्रेन पर हमला.

मोहरों का इस्तेमाल

2014 में जब रूस ने क्रीमिया पर हमला किया, तो इसमें कोई शक नहीं कि ये हाल के वर्षों का सबसे आसान आक्रमण था. रूस के ख़ुफ़िया तंत्र ने इस योजना को गोपनीय बनाए रखने में बहुत अहम भूमिका निभाई थी. क्रीमिया में नियमित रूप से सैनिक भेजे जा रहे थे और इसके अलावा आम नागरिकों को भी अंडरकवर के रूप में भेजा जा रहा था. ऐसे में रूस के इस हमले पर किसी की नज़र ही नहीं गई. मिसाल के तौर पर यूक्रेन की वर्दी में रूस के सैनिक पुलिस और सेना के जवान के तौर पर तैनात थे और निगरानी चौकियों पर जांच कर रहे थे, जिससे कि स्थानीय लोगों के अलावा क्रीमिया की तरफ आ रहे हर शख़्स की जांच की जाए और क्रीमिया को पूरी तरह से रूस में शामिल कर लिया जाए. क्रीमिया के अधिग्रहण के बाद इन स्वयंसेवकों और ‘सैनिकों’ ने यूक्रेन के सैनिक अड्डों पर क़ब्ज़े में भी मदद की. ये कहीं ज़्यादा योजनाबद्ध तरीक़े से किया गया हमला था, जिसने न केवल क्रीमिया पर रूस के क़ब्ज़े की रफ़्तार को तेज़ किया बल्कि उसे यूक्रेन की तरफ़ से ज़्यादा विरोध का भी सामना नहीं करना पड़ा था.

हम दोनों हालात की तुलना के लिए ख़ुफ़िया अभियानों पर भी एक नज़र डाल सकते हैं. क्रीमिया का अभियान ख़ुफ़िया सेना द्वारा बहुत चुपके से और आसान तरीक़े से चलाया गया था. इसका नतीजा ये हुआ कि जब तक बाक़ी दुनिया समझ पाती या पलटवार करती, रूस का अभियान पूरा हो चुका था. लेकिन, इस बार यूक्रेन की सीमा पर रूसी सैनिकों की भारी तैनाती पूरी दुनिया की नज़र के सामने हो रही थी. रूस के हर क़दम पर बारीक़ी से नज़र रखी जा रही थी. ऐसे में सवाल ये भी उठता है कि क्या रूस का ये अभियान अपनी ताक़त दिखाने और पश्चिमी देशों से अपनी मांगें मनवाने के लिए है.

ग़लत जानकारी और दुष्प्रचार

क्रीमिया के मामले में, उसे औपचारिक रूप से अपना हिस्सा बनाने के लिए रूस ने जनमत संग्रह कराने का बहाना रचा था- क्रीमिया पर क़ब्ज़े के लिए रूस ने वहां की जनता की रूस में शामिल होने की इच्छा का हवाला दिया था. रूस के इस दुष्प्रचार के बारे में कहा जाता है कि न तो ये निष्पक्ष था और न ही हक़ीक़त ही बयां करता था. आरोप लगते रहे हैं कि रूस ऐसे कलाकारों को भाड़े पर लेता है जो बहुत सी तबाहियों के पीड़ित की भूमिका अदा करने, नक़ली सबूत जुटाते और फ़र्ज़ी रिपोर्टिंग जैसी कई भूमिकाएं अदा करते हैं.

मौजूदा संकट के मामले में ग़लत जानकारी वाली बात तो अमेरिका की उस रिपोर्ट से साफ़ तौर पर ज़ाहिर हो जाती है, जिसमें कहा गया था कि रूस ने रूसी भाषी लोगों के ऊपर यूक्रेनी अधिकारियों के हमले का नाटक रचने की योजना बनाई थी. अगर ऐसा होता तो ये घटना यूक्रेन पर रूस के हमले को जायज़ ठहराती. वैसे तो इस दावे को लेकर काफ़ी वाद-विवाद हो रहा है. लेकिन, ये बहस ही इस बात को ज़ाहिर करती है कि ग़लत सूचना और दुष्प्रचार की मदद से किस तरह एक ख़ास मक़सद वाला माहौल बनाया जाता है.

यूक्रेन पर साइबर हमले

हालांकि, रूस की हाइब्रिड युद्ध वाली रणनीति का सबसे अहम हिस्सा, यूक्रेन पर साइबर हमले हैं, जिन्हें करने का आरोप रूस पर लगा है. ये हमले करके रूस ने यूक्रेन के सुरक्षा तंत्र को साइबर सुरक्षा में लगी सेंध और बाधाओं के हालात से निपटने में उलझाए रखा.

मार्च 2014 में क्रीमिया के संकट के मामले में भी यूक्रेन पर साइबर हमले के चलते उस क्षेत्र में, ख़ास तौर से संसद सदस्यों की संचार सेवाएं ठप हो गई थीं. इसके अलावा यूक्रेन की सरकार की वेबसाइट भी हैक की गई थीं और वो सभी क्रीमिया पर रूस के क़ब्ज़े के 72 घंटे बाद तक काम नहीं कर रही थीं.

रूस द्वारा दो बाग़ी इलाक़ों में सेना भेजने, और अब यूक्रेन पर पूरी तरह से आक्रमण करने के बाद भी पश्चिमी देश पलटवार करने के इच्छुक नहीं नज़र आ रहे हैं. उनकी इस अनिच्छा में ही रूस की हाइब्रिड युद्ध वाली रणनीति की कामयाबी का राज़ छुपा है.

मौजूदा संकट के मामले में भी रूस की गतिविधियों की दशा-दिशा वैसी ही दिख रही है. 14 जनवरी 2022 को यूक्रेन की सरकारी वेबसाइटों पर ज़बदस्त साइबर हमला हुआ जिसमें यूक्रेन के नागरिकों को चेतावनी दी गई कि ‘वो डरकर रहें क्योंकि आने वाला वक़्त और भी बुरा होगा.’ इसके अलावा, यूक्रेन के सैन्य ख़ुफ़िया तंत्र ने रूस की ख़ुफ़िया और सैन्य एजेंसियों पर ये आरोप लगाया है कि वो पूर्वी यूक्रेन में बाग़ियों को टैंक, तोपख़ाना और ईंधन वग़ैरह मुहैया करा रहे हैं.

सच तो ये है कि रूस ने अपने जियोपॉलिटिकल मक़सद हासिल करने के लिए साइबर हमलों के इस्तेमाल में महारत हासिल कर ली है. 2007 में इसी तरह एस्टोनिया पर भी सिलसिलेवार साइबर हमले हुए थे. तब रूस ने एस्टोनिया के बैंकों और सरकारी वेबसाइटों को निशाना बनाया था. इसी तरह 2008 में जॉर्जिया के साथ एक विवाद के दौरान, रूसी सेना के हमले से पहले ही साइबर हमले हुए और ग़लत जानकारी फैलाने की रणनीति अपनाई गई, जिससे जॉर्जिया के सुरक्षा तंत्र पर बहुत बुरा असर पड़ा था.

निष्कर्ष

इस विश्लेषण से जो निष्कर्ष निकाला जा सकता है, वो ये है कि रूस ने 2014 में अपने हमले के तजुर्बे से, इस संकट के बाद पश्चिमी देशों की प्रतिक्रिया का अच्छे से अंदाज़ा लगा लिया था. अभी भी नेटो देश, यूक्रेन में अपने सैनिक भेजने पर सहमत नहीं हुई हैं. यहां तक कि पश्चिमी देशों द्वारा लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों से भी रूस की अर्थव्यवस्था को बहुत अधिक नुक़सान होने की आशंका कम ही है. रूस द्वारा दो बाग़ी इलाक़ों में सेना भेजने, और अब यूक्रेन पर पूरी तरह से आक्रमण करने के बाद भी पश्चिमी देश पलटवार करने के इच्छुक नहीं नज़र आ रहे हैं. उनकी इस अनिच्छा में ही रूस की हाइब्रिड युद्ध वाली रणनीति की कामयाबी का राज़ छुपा है.


KISHIKA MAHAJAN ओआरएफ में रिसर्च इंटर्न है.

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