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रूस वैसे तो अफ्रीका में एक अहम रोल अदा कर रहा है, लेकिन यहां व्यापक प्रभाव जमाने के लक्ष्य से वो अभी काफ़ी दूर है.
रूस-अफ्रीका शिखर सम्मेलन का दूसरा संस्करण 27-28 जुलाई, 2023 को सेंट पीटर्सबर्ग में संपन्न हुआ. पहला शिखर सम्मेलन 2019 में रूस के सोची शहर में आयोजित किया गया था, जहां 54 अफ्रीक देशों में से 43 के शासन प्रमुख मौजूद रहे थे. इस साल 49 देशों के प्रतिभागियों ने शिखर सम्मेलन में हिस्सा लेने की हामी भरी थी, जिनमें से 17 शासन प्रमुख यहां मौजूद थे, जबकि बाक़ी देशों का प्रतिनिधित्व अन्य उच्च-स्तरीय अधिकारियों ने किया.
2023 रूस-अफ्रीका शिखर सम्मेलन, इस बात की जीता-जागती मिसाल है कि रूसी विदेश नीति के लिए कौन सी बातें कारगर हो रही हैं और कौन सी नाकाम साबित हो रही हैं.
रूस ने ताज़ा सम्मेलन में प्रतिभागियों की कम मौजूदगी के लिए पश्चिमी देशों के दबाव को ज़िम्मेदार ठहराया है, हालांकि कहानी यहीं ख़त्म नहीं होती. दरअसल रूस-यूक्रेन संघर्ष पर अफ्रीकी राष्ट्रों की चिंताओं को संयुक्त राष्ट्र (UN) में मतदान से जुड़े उनके रुझानों से समझा जा सकता है. 2 मार्च 2022 को संयुक्त राष्ट्र महासभा का आपातकालीन विशेष सत्र बुलाया गया था. इसमें रूस से तत्काल युद्ध ख़त्म करने की मांग की गई थी. अफ्रीका के 54 में से 28 देशों ने प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया. एरिट्रिया ने इसके ख़िलाफ़ वोट किया, जबकि 16 अफ्रीकी देश मतदान से ग़ैर-हाज़िर रहे. बाक़ी बचे 9 वोट रिकॉर्ड नहीं किए गए. ग़ौरतलब है कि मार्च 2022 में प्रस्ताव के पक्ष में वोट करने वाले 28 में से 26 देशों ने रूस-अफ्रीका दूसरे शिखर सम्मेलन में अपने राष्ट्र प्रमुखों को नहीं भेजने का फ़ैसला किया. बाक़ी दो देशों- मिस्र और लीबिया के रूस के साथ अहम संपर्क हैं. 2019 में इन 26 देशों में से 19 ने सोची शिखर सम्मेलन में अपने राष्ट्र प्रमुखों को भेजा था. 2014 में क्रीमिया पर जबरन क़ब्ज़ा करने के चलते रूस पर उस समय भी कई तरह के प्रतिबंध लागू थे, ऐेसे में साफ़ है कि 2022 में यूक्रेन पर आक्रमण से रूसी कार्रवाइयों को लेकर इन अफ्रीकी देशों की धारणाओं में एक निश्चित बदलाव आया, और वो इस आक्रमण के विरोध में है. लिहाज़ा ये दलील दी जा सकती है कि कुछ अफ्रीकी देशों द्वारा अपनी उपस्थिति कम कर देना महज़ पश्चिमी दबावों का नतीजा नहीं है, ये बदलाव मौजूदा युद्ध को लेकर उनकी समझ और व्याख्याओं से प्रेरित है. हालांकि ये बात भी ध्यान देने लायक़ है कि अफ्रीका का एकजुट समूह रूस के ख़िलाफ़ नहीं है. 54 राष्ट्रों के मतदान से जुड़े रुझानों में दिखाई दे रहे अंतरों और शिखर सम्मेलन में केवल 17 राष्ट्र प्रमुखों की मौजूदगी को देखते हुए ये कहा जा सकता है. इसके अलावा अन्य राष्ट्रों के उच्च-स्तरीय अधिकारियों की मौजूदगी (प्रधानमंत्रियों, उपराष्ट्रपतियों और कैबिनेट स्तर के मंत्रियों समेत) की मौजूदगी को भी ध्यान में रखना ज़रूरी है.
2023 रूस-अफ्रीका शिखर सम्मेलन, इस बात की जीता-जागती मिसाल है कि रूसी विदेश नीति के लिए कौन सी बातें कारगर हो रही हैं और कौन सी नाकाम साबित हो रही हैं. ये क़वायद यूक्रेन पर उसके मौजूदा आक्रमण का ही परिणाम नहीं है, बल्कि ये उसकी विदेश नीति से जुड़े बर्ताव के वैचारिक और व्यावहारिक, दोनों आयामों की नुमाइंदगी करती है. दरअसल रूसी विदेश नीति की नई परिकल्पना के अफ्रीका खंड में बहुकेंद्रिक (polycentric) विश्व की चर्चा की गई है. इसमें ‘नव-उपनिवेशवाद’ के ख़िलाफ़ रुख़ जताते हुए ‘परंपरागत आध्यात्मिक और नैतिक मूल्यों के संरक्षण’ को बढ़ावा दिया गया है. हालिया शिखर सम्मेलन में ये विषय वस्तु बार-बार उभरकर सामने आई, जिसे अतिरिक्त लाभ के रूप में देखा गया है. हालांकि अफ्रीका के प्रतिस्पर्धी परिदृश्य में ये कायापलट करने वाली क़वायद नहीं है. जैसी कि दलील दी जा चुकी है अफ्रीका के कई देश पूरब और पश्चिम दोनों के साथ सहयोगपूर्ण जुड़ावों में लगे हैं, लेकिन स्वतंत्र नीति पर उनके ज़ोर और पश्चिम से ‘दूरी‘ बनाने का मतलब लाजमी तौर पर रूस के लिए समर्थन नहीं है.
उल्लेखनीय है कि दूसरे रूस-अफ्रीका शिखर सम्मेलन में बड़ी-बड़ी और दमदार घोषणाएं नदारद रहीं. इससे ऊपर कही गई बात प्रामाणिक रूप से उभर कर सामने आई. शिखर सम्मेलन से पहले रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के लेख और पूर्ण अधिवेशन में दिए गए संबोधन में 2019 के पिछले शिखर सम्मेलन के बाद की उपलब्धियों पर कोई ख़ास चर्चा नहीं की गई. प्रमुख सकारात्मक संदर्भों को सैन्य-तकनीकी सहयोग और कृषि निर्यातों से जुड़े विषयों के लिए बचाकर रखा गया, जो अपने-आप में कोई अचरज की बात नहीं है. दरअसल अफ्रीका में रूस को लेकर आकर्षण का मुख्य ज़ोर ‘सुरक्षा‘ सहायता पर रहा है, जिसका विदेश नीति परिकल्पना में ‘अन्य बातों के साथ-साथ खाद्य और ऊर्जा सुरक्षा और सैन्य और सैन्य-तकनीकी सहयोग’ के रूप में ब्यौरा दिया गया है. हालिया शिखर सम्मेलन में भी अनिवार्य रूप से इन्ही विषय वस्तुओं को दोहराया गया है. हालांकि इसमें सूचना सुरक्षा और बाहरी अंतरिक्ष में हथियारों की होड़ को रोकने समेत कुछ नई शब्दावलियां ज़रूर जोड़ी गई हैं. कुछ लोगों का अनुमान है कि भले ही आधिकारिक घोषणाओं से ज़्यादा कुछ हासिल नहीं हुआ हो, लेकिन पर्दे के पीछे ज़रूर कुछ सौदेबाज़ियां हुई होंगी. कुछ अन्य लोगों का तर्क है कि आने वाले वक़्त में रूसी प्रभाव सीमित (लेकिन प्रभावी) होगा, और भविष्य में रूस के पास अफ्रीका को कुछ ना कुछ मदद पहुंचाने की क्षमता मौजूद है. अपनी स्वतंत्र क्षमताओं (सूचना सुरक्षा, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, सैन्य-तकनीकी सहयोग, द्विपक्षीय तकनीकी भागीदारी आदि) पर ज़ोर देकर रूस इन क़वायदों को अंजाम दे सकता है. रूसी विशेषज्ञों का विचार है कि उनके लिए तमाम अवसर मौजूद हैं क्योंकि अफ्रीका अपने रिश्तों में विविधतापूर्ण स्वरूप लाने की कोशिश कर रहा है. हालांकि यही विशेषज्ञ ये भी मानते हैं कि अफ्रीकी महादेश के साथ ‘संभावनाओं‘ को हासिल करने के लिए अभी काफ़ी काम किया जाना बाक़ी है.
इस क़वायद को ‘वैश्विक बाज़ारों तक रूसी खाद्यान्नों और उर्वरक की पहुंच बनाने’ के प्रयासों के साथ जोड़ा गया. ये पहल ज़रूरी भी थी क्योंकि युद्ध की शुरुआत के बाद से रूस ने काला सागर में यूक्रेन के बंदरगाहों का रास्ता रोक दिया था.
दरअसल रूसी विदेश नीति में अफ्रीका को 2014 के बाद ही प्रमुख स्थान मिल पाया है. पूर्ववर्ती सोवियत संघ के विघटन के बाद से इस बड़े समय-अंतराल के मायने ये रहे कि रूस ना सिर्फ़ अफ्रीका से जुड़े ‘खेल में देरी से शामिल हुआ’ बल्कि वो काफ़ी सीमित क्षमताओं के साथ काम करता रहा है. अफ्रीका में रूस की कभी भी मज़बूत आर्थिक मौजूदगी नहीं रही है. हक़ीक़त ये है कि रूस-अफ्रीका व्यापार 2019 में 20 अरब अमेरिकी डॉलर के स्तर से गिरकर 2022 में 18 अरब अमेरिकी डॉलर रह गया. इस कड़ी में अफ्रीका को भारी-भरकम व्यापार घाटा भी झेलना पड़ रहा है. लक्ष्य अब इस आंकड़े को 2030 तक दोगुना करने का है. अफ्रीका के साथ रूस के व्यापार का तक़रीबन 70 प्रतिशत हिस्सा मिस्र, अल्जीरिया, मोरक्को, सेनेगल और दक्षिण अफ्रीका में केंद्रित है. 2022 के बाद से अफ्रीका में रूसी तेल और पेट्रोलियम उत्पादों के निर्यातों में तेज़ बढ़ोतरी हुई है.
रूस खाद्यान्नों का अहम आपूर्तिकर्ता है, और काला सागर के रास्ते से यूक्रेनी अनाज के निर्यात पर उसके नियंत्रण की वजह से रूस की भूमिका अतिरिक्त रूप से महत्वपूर्ण हो गई है. जुलाई 2022 में हुए काला सागर अनाज सौदे (संयुक्त राष्ट्र और तुर्किए की मध्यस्थता से) से काला सागर पर मौजूद बंदरगाहों (ओडेशा, चोर्नोमोर्स्क और युज़नी/पिवदेनी) से यूक्रेनी अनाज के निर्यात की छूट मिल गई. इस क़वायद को ‘वैश्विक बाज़ारों तक रूसी खाद्यान्नों और उर्वरक की पहुंच बनाने’ के प्रयासों के साथ जोड़ा गया. ये पहल ज़रूरी भी थी क्योंकि युद्ध की शुरुआत के बाद से रूस ने काला सागर में यूक्रेन के बंदरगाहों का रास्ता रोक दिया था. ये तमाम बंदरगाह यूक्रेनी अनाज के निर्यातों के लिहाज़ से बेहद अहम बिंदु हैं. इसने विश्व में खाद्यान्न की क़ीमतों में स्थिरता लाने में काफ़ी मदद की. इन प्रयासों से पिछले साल दुनिया के बाज़ार में 3.3 करोड़ टन यूक्रेनी अनाज पहुंच सका.
बहरहाल, जुलाई 2023 में रूस ने इस सौदे से हाथ खींच लिए. अपने अनाज और उर्वरकों पर प्रतिबंध हटाने से जुड़े आश्वासन पूरे नहीं किए जाने का हवाला देते हुए रूस ने ये क़दम उठाया. साथ ही उसने सबसे निर्धन देशों तक आपूर्ति नहीं किए जाने का भी मसला उठाया. हालांकि आपूर्ति के ठिकाने, सौदे का हिस्सा नहीं थे. इसके चलते अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में अनाज की क़ीमतों में बढ़ोतरी हो गई है, जिसका अफ्रीका के सबसे ग़रीब देशों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है. वैसे तो राष्ट्रपति पुतिन ने आने वाले महीनों में बुर्किना फासो, ज़िम्बाब्वे, माली, सोमालिया, एरिट्रिया और मध्य अफ्रीकी गणराज्य (CAR) को मुफ़्त में 25,000 से 50,000 टन अनाज आपूर्ति करने की घोषणा की है, लेकिन अफ्रीकी संघ के अध्यक्ष अज़ाली असोमनी ने इसे ‘नाकाफ़ी‘ क़रार दिया है. दक्षिण अफ्रीका ने साफ़ तौर पर असंतोष जताते हुए कहा है कि अफ्रीकी देश तोहफ़ों की आस में नहीं हैं बल्कि वो तो अनाज सौदे की बहाली चाहते हैं. उधर, संयुक्त राष्ट्र ने बताया है कि दुनिया के सबसे ग़रीब देशों को विश्व खाद्य कार्यक्रम (WFP) के तहत होने वाली आपूर्तियों का आधे से भी ज़्यादा हिस्सा यूक्रेनी गेहूं का होता है. इनमें अफ़ग़ानिस्तान, जिबूती, इथियोपिया, केन्या, सोमालिया, सूडान और यमन शामिल हैं. अनाज सौदे के तहत विश्व खाद्य कार्यक्रम के लिए ख़रीदा गया अनाज इन तमाम देशों में भेजा गया. पिछले साल भेजी गई अनाज की ये मात्रा 7 लाख 25 हज़ार टन थी.
प्राथमिक रूप से अफ्रीका में रूस का प्रभाव, हथियारों की बिक्री, कृषि निर्यातों, ऊर्जा और खनन संपर्कों के साथ-साथ PMC वैगनर (रूसी सरकार की फंडिंग से चलने वाली निजी सैन्य कंपनी) के ज़रिए बना. 2018-22 के बीच अफ्रीका को बड़े हथियारों की आपूर्ति का 40 प्रतिशत हिस्सा रूस से आया. वो इस क्षेत्र में हथियारों का सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता है. उसके बाद अमेरिका, चीन और फ्रांस का नंबर आता है जिनका हिस्सा क्रमश: 16, 9.8 और 7.6 प्रतिशत है. 2015 के बाद से रूस ने अफ्रीका के तक़रीबन 20 दशों के साथ सैन्य सहयोग समझौते भी किए हैं. वैगनर की मौजूदगी चार देशों में प्रमुखता से सामने आई है. इनमें मध्य अफ्रीकी गणराज्य, माली, सूडान और पूर्वी लीबिया शामिल हैं. इनके अलावा मोज़ाम्बिक, दक्षिणी सूडान, मेडागास्कर और हाल ही में बुर्किना फासो में भी रूसी निजी सेना की गाहे-बगाहे कुछ गतिविधियां दर्ज की गई हैं. वैगनर ग्रुप के इस्तेमाल ने साफ़ तौर से रूस को अपनी मौजूदगी बढ़ाने में मदद की है. इसके ज़रिए रूस ने खनन के ठेकों, तेल और गैस संसाधनों के बचाव और राजनीतिक रणनीतिकारों और मीडिया प्रचार/दुष्प्रचार अभियानों में मदद पहुंचाई है. माली में सैन्य नेतृत्व ने सत्ता संभालने के बाद वैगनर समूह का समर्थन करते हुए इस्लामिक आतंकवाद के ख़िलाफ़ संयुक्त राष्ट्र और फ्रांस की सहायता लेने से इनकार कर दिया. हालांकि सुरक्षा से जुड़े हालात अब भी लचर और चिंताजनक बने हुए हैं. व्यापक रूप से इस दायरे में रूसी क़वायद उन सरकारों के साथ ज़्यादा कामयाब रही हैं जो सेना की अगुवाई वाले हैं या ‘विरासती या पुश्तैनी ढर्रे वाले और प्राकृतिक संसाधनों के खनन से बड़े पैमाने पर रकम उगाहने वाले’ देश हैं.
ग़ौरतलब है कि इन विकासशील देशों को ऐसे मज़बूत खिलाड़ी रिझा रहे हैं जो उनके सामने खड़े सबसे नाज़ुक मसलों का समाधान भी मुहैया करा सकते हैं.[/pullquote]
इस बीच रूस की कमज़ोर आर्थिक उपस्थिति पर पश्चिमी प्रतिबंधों की वजह से और ख़तरे बढ़ गए हैं. इसके अलावा अफ्रीका में अहम बड़े खिलाड़ियों (अमेरिका, यूरोपीय संघ और चीन) की दीर्घकाल से जारी मौजूदगी से भी रूस पर असर पड़ा है. रूस के पास निवेश लाने की क्षमता मौजूद नहीं है, वो अफ्रीका में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के 1 प्रतिशत से भी कम हिस्से का योगदान करता है. साथ ही महाद्वीप के दीर्घकालिक आर्थिक विकास लक्ष्यों में भी उसका बेहद सीमित योगदान है. दरअसल अफ्रीका महाद्वीप में रूस की मुख्य मौजूदगी कुछ ख़ास देशों तक केंद्रित है. साथ ही अपने लक्ष्यों (राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्रों में) को हासिल करने के लिए उसके द्वारा अपनाए जाने वाले उपकरण भी बेहद सीमित हैं. जैसे जैसे अफ्रीका महादेश की अहमियत बढ़ रही है, बड़ी ताक़तें यहां अपना प्रभाव बढ़ाने में जुट गई हैं. रूस के विशेषज्ञ भी ये स्वीकार करते हैं कि अगर रूस ने पूरी ताक़त नहीं झोंकी तो इस इलाक़े का कोई भी देश, रूस के इंतज़ार में रुका नहीं रहेगा.
यूक्रेन के साथ लंबे अरसे से युद्ध में उलझे रूस के विदेश नीति बर्ताव में इस तरह की रुकावटें क्षेत्रीय और वैश्विक मसलों में रूस के व्यापक व्यवहार के लक्षण बनते जा रहे हैं. रूस ने पश्चिम के ख़िलाफ़ विमर्श को अपनी नीतियों की कसौटी बनाकर रखा है, और पश्चिम से बाहर की दुनिया काफ़ी हद तक इसका चतुराई से इस्तेमाल करती है. ये तमाम देश किसी एक महाशक्ति के दबदबे का प्रतिरोध करने के लिए अपने अंतरराष्ट्रीय संबंधों में विविधता ला रहे हैं, और यहां सहयोग की क़वायद एक हाथ से दूसरे हाथ की ओर बढ़ रही है. अफ्रीका में रूस के प्रमुख साथी तमाम तरह की जद्दोजहद में उलझे हैं, इस इलाक़े में दुनिया की बड़ी शक्तियों की मौजूदगी बढ़ती जा रही है. इन तमाम मसलों के साथ रूस की अपनी समस्याओं को मिलाकर देखें तो बहुध्रुवीय दुनिया तैयार करने की मुश्किलें पूरी तरह से बेपर्दा हो जाती हैं. इस परिदृश्य में विकासशील दुनिया के लिए विकल्प बढ़ने के बावजूद विकसित दुनिया के साथ उनकी शक्तियों का फ़ासला अब भी बहुत ज़्यादा है.
हालांकि ख़ास भूगोलों में ख़ास तरीक़ों से घटनाओं को प्रभावित करने की रूसी क़ाबिलियत (भले ही सीमित संसाधनों के ज़रिए) कम नहीं है. इनमें वैगनर का उपयोग या कृषि निर्यात शामिल हैं. बहरहाल, अगर ये क़वायद पर्याप्त साबित ना हो तो रूस के पास और पैंतरे अपनाने की जगह नहीं बचती है. अपना रसूख़ खोती ऐसी ताक़त जो पूर्णकालिक युद्ध में उलझी है, उसके लिए इसमें कोई ताज्जुब वाली बात नहीं है कि विकासशील देशों को प्रभावित करने वाले हथकंडे उसके पास आधे-अधूरे ही मौजूद हैं. ग़ौरतलब है कि इन विकासशील देशों को ऐसे मज़बूत खिलाड़ी रिझा रहे हैं जो उनके सामने खड़े सबसे नाज़ुक मसलों का समाधान भी मुहैया करा सकते हैं.
इन दलीलों का मक़सद रूस को ख़ारिज करना नहीं बल्कि ये बताना है कि कैसे वो विशिष्ट क्षेत्रों में अहम भूमिका अदा करने के बावजूद व्यापक प्रभाव जमाने से वंचित रह सकता है. ये बात अफ्रीका में रूसी मौजूदगी को लेकर जितनी सच है उतनी ही हिंद-प्रशांत को लेकर भी है. जैसा कि कुछ अन्य लोगों ने दलील दी है यूरेशियाई क्षेत्र में रूस के साथ यही बात लागू है. महाशक्ति बनने की महत्वाकांक्षा रखने वाले रूस के लिए ये एक बड़ी चिंता का सबब होना चाहिए.
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Nivedita Kapoor is a Post-doctoral Fellow at the International Laboratory on World Order Studies and the New Regionalism Faculty of World Economy and International Affairs ...
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