यूक्रेन में रूस के ‘विशेष सैन्य अभियान’ (special military operation) का नौंवा महीना चल रहा है और अब इसमें घातक परमाणु हमले का ख़तरा मंडराने लगा है, क्योंकि अक्टूबर में ‘डर्टी बम‘ (dirty bomb)यानी न्यूक्लियर बम के संभावित इस्तेमाल की बातें तेज़ी से ज़ोर पकड़ने लगीं. हाल ही में जिस प्रकार रूस के रक्षा मंत्री द्वारा नाटो (Nato) सदस्य देशों के साथ-साथ भारत को जो असामान्य कॉल की गई है, उससे रूस द्वारा युद्ध में परमाणु हथियारों के इस्तेमाल के स्पष्ट संकेत मिलते हैं.परमाणु हमले (nuclear attack) को लेकर इस बयानबाज़ी ने पहले से ही मुश्किल हालातों को और जटिल बना दिया है. इतना ही नहीं नॉर्ड स्ट्रीम पाइपलाइन (Nord Stream pipeline) और क्रीमियन ब्रिज पर हमलों ने युद्ध के अगले चरण के स्पष्ट संकेत दिए हैं, जिसमें उर्जा और नागरिक बुनियादी ढांचे को निशाना बनाया गया है.ज़ाहिर है कि जैसे-जैसे युद्ध भयानक रूप से ख़तरे वाले इलाक़ों में प्रवेश करने लगा है, शांति स्थापित करने कीविश्वसनीय योजनाएं और युद्ध से बाहर निकलने की संभावनाएं साफ तौर से समाप्त होने लगी हैं.जिस प्रकार यह युद्ध अब अनिश्चितता से भरी सर्दी में प्रवेश कर रहा है, ऐसे में भारत को G20 और UNSC में मिलने वाली महत्त्वपूर्ण ज़िम्मेदारी के रूप में अपने विकल्पों पर गंभीरता के साथ ध्यान देना होगा, साथ ही युद्ध (war) को लेकर अपनी नीति परफिर से विचार करना होगा. ज़ाहिर है किइस युद्ध की तीन ऐसी अनूठी विशेषताएं हैं, जोख़ासतौर परइसे एक विकट चुनौती बनाती हैं.
एक व्यापक भू-राजनीतिक नज़रिए से देखा जाए तो इस संकट की पृष्ठभूमि में दो शीत युद्ध हैं, जिनके केंद्र में अमेरिका रहा है. यूरोप में हॉट वॉर ने वास्तविक शीत युद्ध को फिर से जीवित करने में भूमिका निभाई है और जो एक तरह से ऐतिहासिक होड़ या प्रतिस्पर्धा का 21वीं सदी का अपडेट है.
दो शीत युद्ध
सबसे पहले, एक व्यापक भू-राजनीतिक नज़रिए से देखा जाए तो इस संकट की पृष्ठभूमि में दो शीत युद्ध हैं, जिनके केंद्र में अमेरिका रहा है. यूरोप में हॉट वॉर ने वास्तविक शीत युद्ध को फिर से जीवित करने में भूमिका निभाई है और जो एक तरह से ऐतिहासिक होड़ या प्रतिस्पर्धा का 21वीं सदी का अपडेट है. यानी एक ऐसी स्थितजिसमें एक तरफ आक्रामक अमेरिका की अगुवाई वाला नाटो है, दूसरी तरफ फिर से उठ खड़ा होने वाला रूस है. एक तरफ यूरोप में एक छद्म युद्ध का मैदान है और दूसरी तरफ परमाणु अस्थिरता का माहौल है. ट्रम्प के दौर में अमेरिका ने चीन के विरुद्ध नए सिरे से भू-राजनीतिक संघर्ष के तौर परपहले ही वर्ष 2018 में शीत युद्ध 2.0 को घोषित कर दिया था. यह निश्चित है कि 20वीं शताब्दी की गलतियों के देखते हुए पुतिन की कार्रवाई उस समय की विचारधारा से प्रेरित नहीं लगती है, क्योंकि तब साम्यवाद ने USSR को संचालित किया था, लेकिन अपनी कथित सीमा या परिधि में ही अपनी ताक़त को प्रदर्शित करते हुए, उससे बाहर नहीं. देखा जाए तो यूक्रेन पर रूस का हमले का उद्देश्य नाटो को रूस के प्रभाव क्षेत्र में अतिक्रमण करने से रोकना था और संभावित रूप से इस आक्रमण का मकसद यूक्रेन पर और उस पूरे इलाके पर रूसी प्रभाव को फिर से स्थापित करना था. लेकिन यह अब रूस द्वारा रणनीतिक अतिक्रमण का मामला प्रतीत होता है.इतिहास हमें सिखाता है कि बड़ी ताक़तें यानी ताक़तवर देश बड़ी ग़लतियां कर सकते हैं; हालांकि, रूस की ग़लती अधिक महत्त्वपूर्ण है, यहां तक कि खुद उसके लिए भी.ऐसे हालातों में रूस ने कई मोर्चों पर ग़लत गणना की है औरपश्चिम भी प्रमुखता से अपनी प्रतिक्रियानहीं दे पाया है.शीत युद्ध के पुनर्जीवित होने ने 1940 के दशक में तैयार की गई यूएसएसआर की ‘रोकथाम’ जैसी व्यापक रणनीतिक प्रतिक्रियाको नहीं देखा है. जैसा कि किसिंगर ने वर्ष 2014 में लिखा था,’पुतिन का कब्जा एक नीति नहीं थी, बल्कि रूस को लेकर कोई नीति नहीं होने का एक बहाना था.’ठीक इसी प्रकार से,आज यह कहा जा सकता है कि पुतिन की निंदा एवं आलोचना और ज़ेलेंस्की को शेर की भांति साबित करने की कोशिश सिर्फ़ इस वजह से हो रही है, क्योंकि पश्चिम के पास इस समस्या को लेकर कोई बड़ी रणनीति नहीं है. 2020 के दशक के पुतिन का रूस, पिछली सदी का संघर्ष करने वाला और कहा जाए तो पोस्ट-सोवियत सत्ता वाला रूस नहीं है. पुतिन का आज का रूस एक सहयोगी के रूप में उभरते हुए चीन के साथ मिलकर, दोबारा अपने रुतबे को हासिल करने और विश्व की प्रासंगिक शक्ति बनने की महत्वाकांक्षा रखता है.
एक अप्रत्याशित दिशा
दूसरा, यह एक ऐसा संकट है, जिसकी कोई दिशा नज़र नहीं आ रही है.तात्कालिक प्रतिक्रियाएं, लगातार बदलते लक्ष्य और तेज़ी से बदल रहे युद्धक्षेत्र, इस संकट की वास्तविकता हैं.फरवरी में दोनेत्स्क और लुहान्स्क को मान्यताके साथपर्यवेक्षकों नेयह स्पष्ट रूप से देखा कि रूस ने वर्ष 2008 में जॉर्जिया और वर्ष 2014 में क्रीमिया में जो कुछ भी किया था, उससे सबक लिया और सब कुछ बहुत शांति के साथ निपटा दिया.हालांकि, पिछले महीनों में बहुत कुछ बदल गया है, क्योंकि यूक्रेन की तरफ से जो प्रतिक्रिया और प्रतिरोध दिखाई दिया है, उसने रूस को आश्चर्यचकित कर दिया है. जैसे कि कीव को पश्चिमी हथियारों और ख़ुफ़िया जानकारी की अंतहीन आपूर्ति और गंभीर आर्थिक प्रतिबंध, विशेष रूप से रूस के फाइनेंशियल सिस्टम और यूरोप को ऊर्जा निर्यात करने पर प्रतिबंध. रूस के लिए वर्तमान में सामरिक दृष्टि से सबसे बड़ा और अहम क़दम डोनबास और क्रीमिया से लगे चार इलाक़ों पर अपना कब्जा बरक़रार रखना है, भले ही ‘जीत की धारणा’ यानी युद्ध जीतने की प्रवृति, शांति प्रक्रिया में महत्वपूर्ण हो.जहां तक यूक्रेन की बात है तो उसके लिए किसी भी वार्ता से पहले सैन्य रूप से अपने क्षेत्रों को वापस पाना आवश्यक है. यूक्रेन क्रीमियापर फिर से कब्जा करने के साथ वर्ष 2014 से पूर्व की स्थिति ना भी हासिल कर पाए, फिर भी वह फरवरी से पहले की स्थिति को बहाल करने की कोशिश में लगा हुआ है. लेकिन इसके एक सैन्य समाधान को लेकर भ्रम की स्थिति बनी हुई है.
जहां तक यूक्रेन की बात है तो उसके लिए किसी भी वार्ता से पहले सैन्य रूप से अपने क्षेत्रों को वापस पाना आवश्यक है. यूक्रेन क्रीमियापर फिर से कब्जा करने के साथ वर्ष 2014 से पूर्व की स्थिति ना भी हासिल कर पाए, फिर भी वह फरवरी से पहले की स्थिति को बहाल करने की कोशिश में लगा हुआ है.
कहां हैं शांति की योजनाएं?
तीसरी महत्त्वपूर्ण बात है कि महीनों से जारी युद्ध को समाप्त करने के लिए विश्वसनीय शांति प्रस्तावों का आश्चर्यजनक रूप से अभाव. वर्ष 2014-15 के क्रीमिया पर कब्जा करने के बाद, फ्रांस, जर्मनी, रूस और यूक्रेन के क्वॉड शांति पहल पर चर्चा करने के लिए नॉर्मैंडी प्रारुप के अंतर्गत सामने आए थे. इन्हीं प्रयासों की वजह से अस्थिर मिन्स्क समझौते हुए थे. हालांकि ये सफल नहीं हो सके और रूस व यूक्रेन द्वारा इनकी अलग-अलग तरह से व्याख्या की गई. मौजूदा संकट में, इज़रायल और तुर्किए मार्च, 2022 से मध्यस्थता करने की कोशिश कर रहे हैं. इन देशों ने शुरुआती महीनों में एक अस्थायी शांति योजना पर महत्त्वपूर्ण प्रगति की थी, जिसमें रूस, बेलारूस और अन्य से कुछ ‘सुरक्षा गारंटी’ के बदले यूक्रेन के लिए ‘तटस्थ’, गैर-परमाणु वाली स्थिति शामिल थी. हालांकि इस गंभीर मसले पर भी लोग अपने-अपने अंदाज़ में, अपने हिसाब से प्रतिक्रिया दे रहे हैं. विश्व में ट्विटर के चीफ एलन मस्क ने इस मुद्दे पर अपने बयान में कुछ अजीब तरह की शांति योजनाओं को सामने रखा है, जबकि इस्तांबुल ने इस दौरान संयुक्त राष्ट्र के साथ एक सीमित अनाज सौदे को लेकरमध्यस्थता कर ली.
लेकिन 60 साल पहले क्यूबा मिसाइल संकट के दौरान दुनिया को परमाणु युद्ध से बचाने वाली गंभीर कूटनीति कहां है? एक हिसाब से विचारशील पर्यवेक्षकों द्वारा यह पूछा जाना ठीक ही है कि इस गंभीर संकट का समाधान खोजने के लिए प्रयासों की कमीं क्यों दिखाई दे रही है. क्या पश्चिमी देशों की तरफ से मिली यूक्रेन को अंतहीन समर्थन की गारंटी के कारण मार्च में शुरू हुई शांति योजना लटकी हुई है? ज़ाहिर है किअप्रैल में बोरिस जॉनसन ने कीव में कहा था कि ब्रिटेन ‘लंबे समय’के लिए वहां है. वहीं अमेरिकी रक्षा मंत्री ऑस्टिन ने अप्रैल में यूक्रेन की अपनी यात्रा के दौरान स्पष्ट तौर परबताया था कि अमेरिका और नाटो अब न केवल यूक्रेन को अपनी रक्षा करने में मदद करने की कोशिश कर रहे हैं, बल्कि अब रूस को “कमज़ोर” करने के लिए युद्ध का उपयोग करने के लिए भी प्रतिबद्ध हैं.
एक हिसाब से विचारशील पर्यवेक्षकों द्वारा यह पूछा जाना ठीक ही है कि इस गंभीर संकट का समाधान खोजने के लिए प्रयासों की कमीं क्यों दिखाई दे रही है. क्या पश्चिमी देशों की तरफ से मिली यूक्रेन को अंतहीन समर्थन की गारंटी के कारण मार्च में शुरू हुई शांति योजना लटकी हुई है?
इस साल की सर्दी में यूरोप की हालत बहुत ख़राब होने वाली है, ऐसे मेंदुनिया अगले वसंत तक युद्ध के खत्म होने या फिर इसके समाधान के लिए इंतज़ार नहीं कर सकती. यूक्रेन और रूस, दोनों ने ही कहीं ना कहीं संकट के अलग-अलग बिंदुओं पर कूटनीति के ज़रिए लड़ाई को समाप्त करने की बात कही है.लेकिन यह अभी तक धरातल पर नहीं उतर पाया है.संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की अपनी क्षमताएं हैं, क्योंकि इसमें एक स्थायी सदस्य शामिल है. इस संकट के बने रहने देने, यहां तक कि गतिरोध की स्थिति पर भी, जरा जी चूक होने पर परमाणु युद्ध जैसी परिस्थितियां पैदा होने की संभावना बढ़ जाती है. ऐसे में ज़रूरी है किदुनिया को शांति स्थापित करने के लिए पुख्ता योजनाओं के साथ आगे आना चाहिए.ज़ाहिर है कि मौजूदा हालातों में एक गंभीर शांति प्रक्रिया की तत्काल आवश्यकता है, या फिर यह कहना उचित होगा कि फौरी तौर पर इस संकट के समाधान का आधार तैयार करने के लिए खुले तौर पर या गुप्त तरीक़े से तमाम वैकल्पिक रास्तों को तलाशने की सख्त ज़रूरत है.
भारत की पसंद: क्या गोवा में हो सकता है संकट का समाधान?
अहिंसा के अपने पारंपरिक और सभ्यतागत मूल्यों के साथ ही संपूर्ण विश्व को एक सद्भावपूर्ण परिवार बताने वाले भारत के नेतृत्व द्वारा अक्सर शांति स्थापित करने वाले के रूप में नई दिल्ली की अहम भूमिका को लेकर बात की जाती है. ऐसे मेंयूक्रेन संकट पर भारत द्वारा अपनाए गए रुख में छिपे हुए अर्थ को समझना बेहद महत्त्वपूर्ण है.प्रधानमंत्री मोदी द्वारा राष्ट्रपति पुतिन से यह कहना कि यह ‘युद्ध का युग नहीं है’, कूटनीति और संवाद की दिशा में नई दिल्ली के इरादों की ओर इशारा करता है.इसके अलावा, भारत ने अक्टूबर में UNGA से कहा था कि वह ‘युद्ध समाप्त करने के उद्देश्य से किए गए सभी प्रयासों’ का समर्थन करने के लिए तत्पर है. पश्चिम और रूस दोनों के लिए एक विश्वसनीय भागीदार के रूप मेंभारत इस शांति स्थापना की प्रक्रिया में अहम भूमिका निभाने के लिए पूरी तरह से तैयार है. भारत अपने स्वयं के ऐतिहासिक अनुभव के मद्देनज़र संकटमें किसी भी अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता को थोपना पसंद नहीं करेगा. हालांकि, भारत को युद्ध करने वाले दोनों पक्षों द्वारा ‘सुविधाजनक द्विपक्षीयता’ की अगुवाई करने और शांति वार्ता के लिए एक प्लेटफॉर्म उपलब्ध करने के लिए तैयार किया जा सकता है.
जैसे ही भारत जी20 की अध्यक्षता की ज़िम्मेदारी संभालेगा और एक बड़े आर्थिक एजेंडे लेकर अपनी बात सामने रखेगा, तो ज़ाहिर है कि यूक्रेन में संघर्ष का मुद्दा उसमें सबसे बड़ा अवरोध बनकर सामने आएगा. ऐसे में भारत प्रमुख हितधारकों के बीच खुले तौर पर या बैक-चैनल के ज़रिए शांति प्रक्रिया की सुविधा प्रदान कर सकता है.प्रधानमंत्री मोदी आज शायद दुनिया के उन गिने-चुने नेताओं में से एक हैं, जो एक ही समय पुतिन, ज़ेलेंस्की, मैक्रों और बाइडेन जैसे राष्ट्राध्यक्षों से बात कर सकते हैं.ऐसे में G20 की अध्यक्षता भारत को आज के दौर की एक सबसे बड़ी समस्या का समाधान तलाशने के लिए महत्वपूर्ण मंच और एक अहम ज़िम्मेदारी दोनों प्रदान करती है. यह शांति प्रक्रिया ताशकंद 2.0 की भांति हो सकती है. वर्ष 1966 में ताशकंद वार्ता के रूप में उस समयरूस और यूक्रेन दोनों ने ही यूएसएसआर के हिस्से के तौर पर भारत और पाकिस्तान के बीच शांति समझौते को आगे बढ़ाने के लिए सुविधा उपलब्ध कराई थी.यह वह समय हो सकता है, जब भारत उस एहसान कोचुका सकता है. रूस और यूक्रेन दोनों ही देशों के पर्यटक सर्दियों के मौसम में भारत की यात्रा करना पसंद करते हैं. ऐसे में क्या इस यूरोपीय संकट का समाधान गोवा के धूप से भरे समुद्र तटों पर या फिर पवित्र गंगा नदी के किनारे तलाशा जा सकता है?
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