दुनिया की आबादी तेज़ी से बढ़ रही है और अब ये आठ अरब से ज़्यादा हो गई है. साल 2050 तक विश्व की जनसंख्या के 9.7 अरब हो जाने का अनुमान लगाया गया है. जनसंख्या की इस वृद्धि में सबसे ज़्यादा हिस्सेदारी एशिया की रहने का अनुमान लगाया गया है. भारत, दुनिया की सबसे तेज़ी से विकास कर रही अर्थव्यवस्थाओं में से एक है और उसकी जनसंख्या 1.4 अरब से अधिक है. एशिया में जनसंख्या वृद्धि का अधिकतर हिस्सा भारत में होगा, क्योंकि भारत, चीन को पीछे छोड़कर दुनिया की सबसे अधिक आबादी वाला देश बन चुका है. जनसंख्या में इस बढ़ोत्तरी के साथ ही भारत में तेज़ी से शहरीकरण भी हो रहा है, क्योंकि लोग रोज़गार, सेवाओं और बेहतर रहन सहन की तलाश में ग्रामीण से शहरी इलाक़ों की तरफ़ जा रहे हैं. भारत की 30 फ़ीसद से अधिक जनसंख्या पहले ही शहरों में रह रही है और 2030 तक ये तादाद बढ़कर 40 प्रतिशत हो जाने का अनुमान लगाया गया है. शहरी केंद्रों में बढ़ोत्तरी से मज़बूत और टिकाऊ बुनियादी ढांचे की मांग बढ़ेगी, ताकि बढ़ती हुई आबादी की ज़रूरतें पूरी की जा सकें.
जनसंख्या में इस बढ़ोत्तरी के साथ ही भारत में तेज़ी से शहरीकरण भी हो रहा है, क्योंकि लोग रोज़गार, सेवाओं और बेहतर रहन सहन की तलाश में ग्रामीण से शहरी इलाक़ों की तरफ़ जा रहे हैं.
जलवायु परिवर्तन से शहरों के मूलभूत ढांचे पर दबाव और बढ़ने वाला है, और ख़ास तौर से उत्तर भारत के शहरों में लगातार बढ़ती हीटवेव ने सेहत को लेकर चिंताओं को बढ़ा दिया है. वहीं, बढ़ती आबादी की वजह से बेंगलुरु जैसे शहरों में पानी की भारी क़िल्लत होती जा रही है. जैसे जैसे भयंकर मौसम की घटनाएं बढ़ेंगी, वैसे वैसे भारत के शहरों में जलवायु परिवर्तन के झटके सह सकने लायक़ बुनियादी ढांचे की मांग भी बढ़ेगी.
बढ़ती आबादी
मूलभूत ढांचे के विकास में जलवायु परिवर्तन की चिंताओं को शामिल करने के लिए व्यापक योजना निर्माण और ऐसी नीतियों के विकास की ज़रूरत है जो ऐसे विकास को सहायता और प्रोत्साहन दे सकें. नीति आयोग के मुताबिक़, इस वक़्त भारत के 65 प्रतिशत शहरों के पास अपना कोई मास्टर प्लान नहीं है. भारत में शहरीकरण का विकास ज़्यादातर बिना किसी योजना के हो रहा है. नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ अर्बन अफेयर्स (NIUA) के एक पेपर के मुताबिक़, चेन्नई, कोलकाता, मुंबई जैसे महानगर 2014 से पहले ही पर्यावरण के क्षरण की अपनी अधिकतम सीमा तक पहुंच चुके थे. हालांकि, नेशनल मिशन ऑन सस्टेनेबल हैबिटैट (NMSH) ने विकास की योजना बनाने की अहमियत पर काफ़ी बल दिया है. लेकिन, इनको लागू करने और पालन करने के मामले में हमें अभी बहुत लंबा सफर तय करना है. जबकि, भारत के शहरी क्षेत्र जलवायु परिवर्तन और उससे होने वाली तबाही के मामले में दुनिया में सबसे कमज़ोर स्थिति में हैं. मूलभूत ढांचे के स्थायी विकास की नीतिगत योजना बनाने के लिए अधिक सक्रिय तरीक़े की आवश्यकता है.
टिकाऊ मूलभूत ढांचे को लंबी अवधि में समृद्धि का लक्ष्य हासिल करने के लिए पर्यावरण संरक्षण और आर्थिक प्रगति के बीच संतुलन बनाना होगा. बुनियादी ढांचे के विकास की योजना इस तरह से बनानी होगी, जो भविष्य की मुसीबतों, जैसे कि जलवायु परिवर्तन का आकलन करके उसके हिसाब से तैयारी कर सके, और पर्यावरण पर दुष्प्रभाव को भी सीमित रख सके. जलवायु परिवर्तन और शहरीकरण की लगातार और तेज़ी से बढ़ती चुनौतियों से निपटने के लिए शहरों को ज्ञान के प्रबंधन की रचना और उनके उपयोग की रूप-रेखाएं बनानी होंगी. संसाधनों का अधिकतम कुशलता से इस्तेमाल किसी ख़ास जगह की जानकारी के आधार पर ही टिकाऊ तरीक़े से किया जा सकता है. ऐसी जानकारी स्थानीय स्तर पर ही जुटाई और समझी जा सकती है. इसके लिए, शहरी इलाक़ों की स्थानीय ज़रूरतों और चुनौतियों को समझने के लिए व्यापक स्तर पर आंकड़े जुटाने और टिकाऊ समाधान तैयार करने की ज़रूरत है.
लगातार बढ़ती आबादी की ज़रूरतें पूरी करने के लिए उपलब्ध संसाधनों पर दबाव पहले से ही काफ़ी ज़्यादा है. ऐसे में सीमित संसाधनों को कुशलता से इस्तेमाल करने और स्थायित्व की चुनौतियों से समग्र दृष्टि से निपटने के लिए एक व्यापक नज़रिए की आवश्यकता है.
टिकाऊ विकास के लिए भारत के शहरों को योजनाबद्ध क्षेत्रों में परिवर्तित करना, ऐसी नीतियों को ज़मीनी स्तर पर प्रभावी ढंग से लागू करने पर टिका हुआ है. विभाग अक्सर अलग अलग काम करते हैं और वो पानी, परिवहन और ऊर्जा पर ध्यान केंद्रित करते हैं. इससे पेचीदा नतीजे सामने आते हैं. लगातार बढ़ती आबादी की ज़रूरतें पूरी करने के लिए उपलब्ध संसाधनों पर दबाव पहले से ही काफ़ी ज़्यादा है. ऐसे में सीमित संसाधनों को कुशलता से इस्तेमाल करने और स्थायित्व की चुनौतियों से समग्र दृष्टि से निपटने के लिए एक व्यापक नज़रिए की आवश्यकता है. हाल में इस मामले से जुड़े अध्ययनों में पानी, खाने और ऊर्जा के आपसी संबंध पर तो ध्यान केंद्रित किया गया है. लेकिन भारत के शहरों के लिए इन सबको व्यापक स्तर पर लागू करने वाला नज़रिया अपनाना अभी भी एक संस्थागत चुनौती बना हुआ है. खाद्य उत्पादन बढ़ाने को प्रोत्साहन देने से पानी की खपत बढ़ने और क्षरण में तेज़ी के साथ साथ ऊर्जा की मांग बढ़ने का अंदेशा है. इसी तरह, ऊर्जा की आपूर्ति बढ़ाने से सिंचाई और दूसरे कामों के लिए पानी की क़िल्लत होने की आशंका है. इसीलिए, अलग अलग सेक्टरों के बीच आपसी तालमेल बिठाने और शहरों के स्तर पर एक समस्या का असर दूसरे पर पड़ने की गहराई से पड़ताल करने की ज़रूरत है. दूरगामी स्थायी विकास के लिए ये तालमेल ज़रूरी है, तभी लगातार बढ़ती आबादी की मांगों को पूरा किया जा सकता है.
निष्कर्ष
आख़िर में, भारत के शहरों के टिकाऊ विकास में जलवायु को जोड़कर बढ़ती आबादी के मुताबिक़ योजना निर्माण के लिए सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के बीच सहयोग की आवश्यकता होगी. सरकारी प्रयासों में मदद करने के साथ साथ निजी क्षेत्र जलवायु परिवर्तन सह सकने लायक़ मूलभूत ढांचे के निर्माण में अहम पूंजी उपलब्ध करा सकते हैं. कम कार्बन उत्सर्जन और बिजली की कम खपत वाले विकास के लिए ज़रूरी फंड की कमी को पूरा करने के लिए निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की साझेदारी (PPPs) आवश्यक है. हालांकि, निजी क्षेत्र को आकर्षित करने के लिए फंडिंग के नए नए तरीक़े विकसित करने की ज़रूरत है. ग्लोबल इन्फ्रास्ट्रक्चर हब के मुताबिक़, पिछले कुछ वर्षों के दौरान निजी फंडिंग जस की तस बनी हुई है, जबकि मूलभूत ढांचे के विकास के लिए आवश्यक फंडिंग की कमी अब कई ख़रब डॉलर के आंकड़ों तक जा पहुंची है. विकास की योजना बनाने और प्रोत्साहन देने के नए नए डांचों के लिए सरकार को एक स्पष्ट नियामक रूप-रेखा स्थापित करनी होगी, जिससे निजी क्षेत्र लंबी अवधि के टिकाऊ विकास में निवेश कर सके.
इसका समाधान एक व्यापक और एकीकृत नीतिगत रूप-रेखा में निहित है, जहां संस्थान मिलकर काम करते हैं, ताकि वो लगातार बढ़ती आबादी की ज़रूरतों को टिकाऊ तरीक़े से पूरा करने का अंदाज़ा लगाकर उसके हिसाब से अपनी तैयारी कर सकें.
वैसे तो भारत की विकास गाथा के केंद्र में उसके शहर होंगे. लेकिन, उन्हें ही तेज़ी से बढ़ रही आबादी का बोझ भी उठाना पड़ेगा. 2050 तक शहरों में 45.6 करोड़ अतिरिक्त लोगों की ज़रूरतों के लिए ज़रूरी बुनियादी ढांचे को टिकाऊ तरीक़े से विकसित किए जाने की ज़रूरत है. जलवायु की आपदाओं का मंडराता ख़तरा संसाधनों के प्रबंधन की चुनौतियों को और भी जटिल बना देगा. इसका समाधान एक व्यापक और एकीकृत नीतिगत रूप-रेखा में निहित है, जहां संस्थान मिलकर काम करते हैं, ताकि वो लगातार बढ़ती आबादी की ज़रूरतों को टिकाऊ तरीक़े से पूरा करने का अंदाज़ा लगाकर उसके हिसाब से अपनी तैयारी कर सकें.
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