Author : Niranjan Sahoo

Published on Sep 22, 2022 Updated 0 Hours ago

वैश्विक लोकतांत्रिक व्यवस्था के सामने खड़े ख़तरों और ख़ास तौर से तानाशाही देशों के बढ़ते लड़ाकू रवैये से निपटने के लिए साझा रणनीतियां विकसित करने की ज़रूरत है.

लोकतांत्रिक देशों के गठबंधन का ये बिल्कुल मुफ़ीद वक़्त है

अंतरराष्ट्रीय लोकतंत्र दिवस की 15वीं सालगिरह के मौक़े पर संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरस ने प्रमुख लोकतांत्रिक देशों के पीछे हटने, आम लोगों के लिए अपनी बात रखने की गुंजाइश कम होते जाने, असहिष्णुता के बढ़ते माहौल, अविश्वास और ग़लत सूचना के प्रसार की चर्चा की. उन्होंने कहा कि बढ़ते ध्रुवीकरण के चलते स्वतंत्र संगठनों की ताक़त लगातार कमज़ोर होती जा रही है. दुनिया में लोकतंत्र की ख़राब हालत को लेकर गुटेरस का ये डरावना संदेश, कोई हैरानी की बात नहीं है. अकेले साल 2021 के दौरान ही दुनिया ने म्यांमार, चाड, घाना, माली और सूडान जैसे कई देशों में सैन्य तख़्तापलट की घटनाएं होते देखीं. इसके अलावा ट्यूनिशिया में एक राष्ट्रपति द्वारा ‘ख़ुद की हुकूमत के ख़िलाफ़ तख़्तापलट’ कर दिया गया, तो अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान ने दोबारा सत्ता पर क़ब्ज़ा जमा लिया. इससे विश्व की लोकतांत्रिक व्यवस्था लहू-लुहान हो गई.

पिछले कई साल से लोकतंत्र पर नज़र रखने वाली बड़ी संस्थाएं और उनके वार्षिक मूल्यांकन में दुनिया के सभी इलाक़ों में लोकतंत्र और लोकतांत्रिक मूल्यों में गंभीर रूप से आ रही गिरावट की चेतावनी देते आ रहे हैं. मिसाल के तौर पर फ्रीडम हाउस ने अपनी रिपोर्ट ‘फ्रीडम इन द वर्ल्ड 2021’ में पिछले 15 साल से विश्व में आज़ादी में आ रही गिरावट को दर्शाया था. इस रिपोर्ट में कहा गया था कि ‘इस साल लोकतांत्रिक मूल्यों में गिरावट वाले देशों की तादाद, लोकतांत्रिक व्यवस्था में सुधार लाने वाले देशों की तुलना में रिकॉर्ड फ़ासला दर्ज किया गया है, और ये सिलसिला वर्ष 2006 से ही चला आ रहा है.’ लोकतंत्र में लंबे समय से चली आ रही इस गिरावट को देखते हुए लोकतंत्र के मशहूर विद्वान लैरी डायमंड ने इसे लोकतांत्रिक मंदी का नाम दिया है. इस लोकतांत्रिक मंदी का नतीजा ये हुआ है कि तानाशाही देशों (ख़ास तौर से चीन और रूस) में लोकतंत्र की कमज़ोरी को देखकर ख़ुशी की लहर है. उदारवादी लोकतांत्रिक देशों द्वारा इस पतन को रोक पाने में नाकाम रहने की बुनियादी कमज़ोरी ने लोकतंत्र को हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने के ख़िलाफ़ इन देशों की नीति को और बढ़ावा ही दिया है. लोकतांत्रिक व्यवस्था की इन कमज़ोरियों का फ़ायदा उठाकर चीन अपनी भू-राजनीतिक ताक़त का विस्तार कर रहा है, और लोकतंत्र के नाज़ुक बिंदुओं जैसे कि रिसर्च केंद्रों, थिंक टैंक, विश्वविद्यालयों, राजनीतिक दलों और बड़ी कारोबारी कंपनियों में घुसपैठ करके अपने दबदबे का विस्तार कर रहा है. आसान शब्दों में कहें, तो आज लोकतांत्रिक देशों के सामने अंदरूनी और बाहरी चुनौतियां दोनों ही खड़ी हैं.

दुनिया में लोकतंत्र की ख़राब हालत को लेकर गुटेरस का ये डरावना संदेश, कोई हैरानी की बात नहीं है. अकेले साल 2021 के दौरान ही दुनिया ने म्यांमार, चाड, घाना, माली और सूडान जैसे कई देशों में सैन्य तख़्तापलट की घटनाएं होते देखीं.

तो क्या अब उस लोकतांत्रिक व्यवस्था के ख़ात्मे का वक़्त नज़दीक है, जिसे दुनिया सदियों से और ख़ास तौर से दूसरे विश्व युद्ध के बाद के दौर से देखती आई है? इतिहास गवाह है कि पहले भी बड़ी मशहूर हस्तियां, समय समय पर लोकतंत्र की मौत की भविष्यवाणी करती रही हैं. मिसाल के तौर पर आज से सवा दो सौ साल पहले 1787 में अमेरिका प्रमुख संविधान निर्माताओं में से एक बेंजामिन फ्रैंकलिन ने भविष्यवाणी की थी अमेरिकी लोकतंत्र बहुत जल्द निरंकुश तानाशाही में तब्दील हो जाएगा. हालांकि फ्रैंकलिन की भविष्यवाणी के ठीक उलट अमेरिका आगे चलकर दुनिया का सबसे महान और प्रभावशाली लोकतांत्रिक देश बनकर उभरा. लोकतंत्र के पतन की ऐसी ही भविष्यवाणियां, विद्वानों ने दो विश्व युद्धों के दौरान की थीं. फिर भी दूसरे विश्व युद्ध के बाद दक्षिणी यूरोप से लेकर लैटिन अमेरिका और एशिया तक लोकतांत्रिक देशों का उभार देखा गया, जिसके बाद राजनीतिक वैज्ञानिक सैम्युअल हंटिंगटन ने इसे ‘लोकतंत्र की तीसरी लहर’ का नाम दिया था. यही कहानी भारत के बारे में भी दोहराई गई. आज़ादी के समय भारत की दिमाग़ को हिला देने वाली विविधता, ग़रीबी और बड़े पैमाने पर अशिक्षित आबादी को देखते हुए दुनिया के बड़े राजनीतिक विद्वानों ने भविष्यवाणी की थी कि भारत में आख़िरकार लोकतंत्र का पतन हो जाएगा. हालांकि, आज़ादी के दशकों बाद भारत, दुनिया के तमाम उपनिवेशों के बीच से लोकतांत्रिक व्यवस्था की सबसे कामयाब मिसाल बनकर उभरा. इसीलिए ये कहना बहुत बड़ी अटकलबाज़ी होगी कि लोकतांत्रिक व्यवस्था दुनिया में अप्रासंगिक हो जाएगी क्योंकि तानाशाही व्यवस्था की अपील बढ़ती जा रही है. जैसा कि डेनमार्क के पूर्व प्रधानमंत्री और नेटो के महासचिव आंद्रेस फोग़ रासमुसेन ने कहा था कि, ‘लोग शायद ही और अधिक तानाशाही की मांग लेकर सड़कों पर उतरते हैं.’

हालांकि, लोकतंत्र के पक्ष में इतने मज़बूत तर्कों के बावुजूद हमें ये मानना होगा कि ऐसे कई मोर्चे हैं, जिन पर लोकतांत्रिक देशों को ध्यान देने की ज़रूरत है, जिससे लोकतांत्रिक मूल्यों के विघटन को रोका जा सके और सबसे आकर्षक और स्वीकार्य प्रशासनिक व्यवस्था के तौर पर लोकतंत्र की अपील बढ़ाई जा सके और उसे कारगर बनाया जा सके.

ध्रुवीकरण की खाई को पाटना होगा

लोकतांत्रिक देशों के सामने सबसे बड़ी चुनौती, तेज़ी से बढ़ता राजनीतिक ध्रुवीकरण है. वैसे तो ध्रुवीकरण एक क़ुदरती प्रक्रिया है, मगर पिछले कुछ दशकों के दौरान ये कई पूरी तरह से विकसित लोकतांत्रिक देशों में भी बहुत अधिक बढ़ गया है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण तो अमेरिका है, जहां ऐसा लगता है कि पूरा समाज ही दो सियासी ख़ेमों में बंट गया है. राजनीतिक ध्रुवीकरण का कई वर्षों से अध्ययन कर रही जेनिफर मैक्कॉय ने अपने हालिया अध्ययन में इस बात को बिल्कुल सटीक तरीक़े से बयान किया है कि, ‘वॉशिंगटन में समाज के कुलीन वर्ग के स्तर पर सियासी ध्रुवीकरण ने संसद के भीतर समझौते की संभावनाएं ख़त्म कर दी हैं. संस्थागत और बर्ताव संबंधी नियमों को कमज़ोर बना दिया है और राजनेताओं को प्रोत्साहित किया है कि वो अपने हित अटकी पड़ी संस्थाओं से बाहर साधें. इनमें अदालतों का सहारा लेना भी शामिल है. फिर भी ये कहना होगा कि ये राजनीतिक खेमेबंदी सत्ता के गलियारों से बाहर भी फैली हुई है और आज पूरे देश में बड़े पैमाने पर ध्रुवीकरण के चलते अमेरिकी नागरिक ख़ुद को बिल्कुल अलग और विरोधी सियासी ख़ेमों में बांट रहे हैं. ‘हम बनाम वो’ की मानसिकता के विस्तार और अमेरिकी सामाजिक राजनीतिक जीवन में सियासी पहचान को हम समाज के हर कोने में देख सकते हैं. फिर चाहे वो बेहद बंटा हुआ मीडिया हो या फिर अमेरिकी नागरिकों द्वारा किसी विरोधी राजनीतिक पार्टी के समर्थक इंसान से शादी करने में आनाकानी करना हो. इससे भी चिंताजनक बात तो ये है कि इस सियासी ध्रुवीकरण के चलते देश में सीधे तौर पर राजनीतिक हिंसा को बढ़ते देखा जा सकता है.’ वैसे तो अमेरिका में रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक पार्टी के बीच तल्ख़ सियासी अलगाव के बारे में तो पूरी दुनिया जानती है. लेकिन, हाल के वर्षों में भारत और इंडोनेशिया जैसे विकासशील देशों में भी कई स्तरों पर सियासी ध्रुवीकरण देखने को मिल रहा है, जिसका लोकतांत्रिक संस्थाओं, जीवन मूल्यों और विविधता भरे समाज में भरोसे पर बहुत बुरा असर पड़ रहा है. इसी वजह से लोकतांत्रिक देशों को, इस राजनीतिक और सामाजिक खाई को पाटने और अहम संस्थाओं में फिर से भरोसा जगाने को तरज़ीह देनी होगी.

‘हम बनाम वो’ की मानसिकता के विस्तार और अमेरिकी सामाजिक राजनीतिक जीवन में सियासी पहचान को हम समाज के हर कोने में देख सकते हैं. फिर चाहे वो बेहद बंटा हुआ मीडिया हो या फिर अमेरिकी नागरिकों द्वारा किसी विरोधी राजनीतिक पार्टी के समर्थक इंसान से शादी करने में आनाकानी करना हो.

डिजिटल तकनीक और लोकतंत्र

एक वक़्त में इंटरनेट और जिन डिजिटल तकनीकों को उदारवाद, लोकतंत्र और समावेशी तरक़्क़ी को बढ़ावा देने वाले सबसे क्रांतिकारी हथियार के तौर पर देखा जाता था, वही तकनीकी तरक़्क़ी आज लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा ख़तरा बन चुकी है. ऑनलाइन दुनिया में ग़लत जानकारी, नफ़रत, उग्रवाद और तकनीक पर आधारित विदेशी दख़लंदाज़ी, ख़ास तौर से चुनावों के नतीजे प्रभावित करने की कोशिशें आज दुनिया के विकसित से विकसित लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले पश्चिमी देशों में चिंता का सबसे बड़ा कारण बन चुकी हैं. महज़ दो दशकों के दौरान ही (अमेरिका के पश्चिमी तट पर स्थित) कुछ मुट्ठी भर तकनीकी कंपनियों ने पूरी डिजिटल दुनिया पर अपना दबदबा क़ायम कर लिया है और आज वो लोकतांत्रिक समाज की हर परिचर्चा पर ज़रूरत से कई गुना ज़्यादा दख़ल रखती हैं. समाज के सत्ताधारी वर्ग और अन्य तबक़ों के बीच बढ़ते ध्रुवीकरण के पीछे मुख्य रूप से डिजिटल तकनीक की आमद का हाथ है, जहां बड़ी तकनीकी कंपनियां (सोशल मीडिया) नफ़रत भरे कंटेंट को बढ़ावा देकर और विविधता भरे समाजों में ध्रुवीकरण करके मुनाफ़ा कमाती हैं. हालांकि इस मामले में लोकतांत्रिक देशों को सबसे बड़ा ख़तरा तो तानाशाही व्यवस्था वाले चीन से पैदा हुआ है. चीन के पास पैसे की कमी नहीं है, और उसके अंदर ये महत्वाकांक्षा बढ़ रही है कि वो गूगल और एप्पल जैसी अपनी कंपनियां खड़ी करे. इसीलिए चीन, तकनीक के उभरते इकोसिस्टम में बड़ी तेज़ी से कामयाबी दर कामयाबी हासिल कर रहा है, ताकि वो विश्व के तकनीकी आविष्कार की व्यवस्था पर अपना दबदबा क़ायम कर सके. जिस तरह से चीन ने डिजिटल तकनीक का इस्तेमाल करके अपने इर्द गिर्द तकनीक की ऊंची दीवार खड़ी कर ली है, ताकि सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी अपने नागरिकों पर कड़ा शिकंजा बनाए रख सके और इसके साथ ही साथ इन क्षमताओं का इस्तेमाल शिंजियांग के वीगर अल्पसंख्यकों को दबाने के लिए कर सके, उससे ये इशारा मिलता है कि, चीन अपने विरोधी लोकतांत्रिक देशों के ख़िलाफ़ भी इन तकनीकी हथियारों का इस्तेमाल करने से बिल्कुल नहीं हिचकेगा. संक्षेप में कहें तो डिजिटल तकनीक बढ़ते तानाशाही नियंत्रण ने लोकतंत्र के सामने सबसे बड़े ख़तरे को जन्म दिया है और इससे निपटने के लिए कई स्तरों यानी नियमन व्यवस्था बनाने और जवाबदेही की एक मज़बूत दीवार खड़ी करने जैसे प्रयासों पर एक साथ काम करने की ज़रूरत है.

ऑनलाइन दुनिया में ग़लत जानकारी, नफ़रत, उग्रवाद और तकनीक पर आधारित विदेशी दख़लंदाज़ी, ख़ास तौर से चुनावों के नतीजे प्रभावित करने की कोशिशें आज दुनिया के विकसित से विकसित लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले पश्चिमी देशों में चिंता का सबसे बड़ा कारण बन चुकी हैं.

निष्कर्ष

ये सच है कि कुल मिलाकर दुनिया में लोकतंत्र की सेहत की कोई अच्छी तस्वीर नहीं बनती है. ये भी एक  हक़ीक़त है कि लोकतंत्र और स्वतंत्रता के पैमाने अब 1990 और 2000 के दशक के शुरुआती दौर में देखे गए उस ऊंचे स्तर तक नहीं पहुंच सकते हैं, जब सोवियत संघ के विघटन और शीत युद्ध के ख़ात्मे के बाद दुनिया के बहुत से देशों ने लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपनाया था. हालांकि, पुराने कारनामों की याद के झांसे में फंसने (जैसा कि हम कई लोकतांत्रिक रेटिंग एजेंसियों के मूल्यांकन में देख रहे हैं) के बजाय, वैश्विक लोकतंत्र के प्रमुख भागीदारों को चाहिए कि वो हाल के दशकों में पैदा हुई बड़ी बड़ी चुनौतियों पर ध्यान दें. तकनीक और सोशल मीडिया से पैदा हुए ध्रुवीकरण से लेकर डिजिटल तकनीक पर बड़ी कंपनियों के दबदबे और चीन जैसे तानाशाही देशों के चलते पैदा हुए ख़तरों तक, लोकतांत्रिक व्यवस्था के सामने क्या चुनौतियां हैं, वो बिल्कुल स्पष्ट है. इन चुनौतियों से स्थानीय और वैश्विक स्तर पर निपटने की दरकार है. इसके लिए ज़रूरत है लोकतांत्रिक देशों के ऐसे गठबंधन की, जो आज वैश्विक लोकतंत्र के सामने खड़ी सबसे बड़ी चुनौतियों से निपटने के लिए साझा रणनीतियां विकसित कर सके.

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