Published on Aug 20, 2022 Updated 0 Hours ago

श्रीलंका के मौजूदा आर्थिक संकट के बीच नई सरकार को पूरी योजना के साथ सुधारों की दिशा में क़दम बढ़ाना होगा.

श्रीलंका: अतीत की ग़लतियों से सबक़ लेने और आर्थिक दुश्वारियों से दो-दो हाथ करने का वक़्त

श्रीलंका की सरकार अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) के साथ कर्मचारी-स्तर के समझौते के काफ़ी क़रीब है. महीनों तक चली चर्चाओं के बाद ये कामयाबी मिलती दिख रही है. इस तरह आपात सहायता पहुंचाने वाली संस्था से सालाना तक़रीबन 80 करोड़ अमेरिकी डॉलर का बेलआउट हासिल करने का रास्ता साफ़ हो सकता है. साथ ही दूसरे बहुपक्षीय विकास बैंकों से भी ब्रिज फ़ाइनेंसिंग का जुगाड़ मुमकिन हो सकेगा. इससे श्रीलंका में विदेशी मुद्रा की आवक बढ़ाने में ज़रूरी मदद मिल सकेगी. राशनिंग व्यवस्था लागू किए जाने से ईंधन की उपलब्धता में सुधार आया है. ग़ैर-तेल आयातों के ठप हो जाने से विदेशी मुद्रा भंडार की दिक़्क़त भी कम हुई है. फ़िलहाल तीन महीनों के लिए रसोई गैस के आयातों का ख़र्चा विश्व बैंक वहन कर रहा है. वो मौजूदा प्रतिबद्धताओं की बजाए आयात पर रकम ख़र्च कर रहा है. पनबिजली उत्पादन बढ़ने से बिजली कटौती में काफ़ी हद तक कमी आई है. हालांकि ये फ़ौरी राहत है और निकट भविष्य के लिए टिकाऊ समाधान नहीं है.

अर्थव्यवस्था को मज़बूत धरातल पर लाने के लिए श्रीलंका को टिकाऊ ऋण व्यवस्था के रास्ते पर आगे बढ़ना होगा. इसके लिए श्रीलंका को अपने कर्ज़दाताओं (निजी और द्विपक्षीय) के साथ तेज़ गति से वार्ताएं करनी होंगी.

अर्थव्यवस्था को मज़बूत धरातल पर लाने के लिए श्रीलंका को टिकाऊ ऋण व्यवस्था के रास्ते पर आगे बढ़ना होगा. इसके लिए श्रीलंका को अपने कर्ज़दाताओं (निजी और द्विपक्षीय) के साथ तेज़ गति से वार्ताएं करनी होंगी. IMF का कार्यकारी बोर्ड सहायता पैकेज को तभी मंज़ूरी देगा जब उसे श्रीलंका के तमाम कर्ज़दाताओं की ओर से ‘फ़ाइनेंसिंग को लेकर पर्याप्त आश्वासन’ मिलेंगे. इसके बाद ही IMF बेलआउट फ़ंड जारी करेगा. ऋण की पुनर्संरचना से जुड़ी वार्ताओं का औपचारिक अंत होने में साल भर का वक़्त लग सकता है. इस बीच श्रीलंका को प्रमुख कर्ज़दाताओं से कुछ शुरुआती अनुमोदन हासिल करने होंगे. उसे अमेरिका जैसे IMF के प्रमुख शेयरहोल्डर्स को भरोसा दिलाना होगा कि उसके सभी कर्ज़दाताओं से निष्पक्ष बर्ताव होगा. उम्मीद की जा रही है कि अंतरिम कालखंड में तय किए जाने वाले क़रार में श्रीलंका के आर्थिक सुधार कार्यक्रमों का ख़ाका तैयार हो जाएगा. इसमें करों में बढ़ोतरी, ख़र्चों में कटौती और सरकारी उद्यमों को बेहतर ढंग से सुसंगठित करने जैसे उपाय शामिल हैं. इन उपायों से अंतरराष्ट्रीय कर्ज़दाताओं को ये भरोसा हो सकेगा कि श्रीलंका समायोजन के रास्ते पर चल पड़ा है.

हालांकि अभी ये पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि श्रीलंका समग्र सुधार कार्यक्रम लागू करने में कामयाब हो ही जाएगा. राजनेताओं द्वारा IMF-विरोधी तेवर दिखाए जाने, बजट कटौतियों और निजीकरण के ख़िलाफ़ जनता के विरोध और सुधारवादी क़दमों को लेकर सरकार के भीतर मतभेदों से स्थिरता लाने से जुड़े तात्कालिक उपाय बेपटरी हो सकते हैं. इससे निकट भविष्य में अर्थव्यवस्था को उबारने की कोशिशें कमज़ोर हो सकती हैं.

ये 17वीं बार है जब श्रीलंका ने आपात सहायता के तौर पर IMF से बेलआउट हासिल करने की कोशिश की है. हालिया सियासी चक्र में हर अगली सरकार नीतिगत सुधार एजेंडे को तुरंत वापस लेने का फ़ैसला लेती रही है. इससे नीतिगत मोर्चे पर धक्का लगता है और व्यापक अर्थव्यवस्था को नुक़सान होता है. गृहयुद्ध के बाद के कालखंड में श्रीलंका के समस्याग्रस्त आर्थिक विकास मॉडल को देखते हुए ये ख़ासतौर से चिंताजनक है.

विकास की पृष्ठभूमि

निश्चित रूप से मौजूदा आर्थिक संकट की जड़ें 2009 में गृह युद्ध के ख़ात्मे तक जाती हैं. बाद के कालखंड में आर्थिक कुप्रबंधन और ख़ामियों भरे विकास मॉडल के चलते इन दुश्वारियों की नींव डली. युद्ध के बाद विकास में आई तेज़ी के दौरान सार्वजनिक ऋण से बुनियादी ढांचों पर ख़र्च और घरेलू ग़ैर-व्यापार योग्य क्षेत्रों में निजी निवेश को प्राथमिकता दी गई. वाणिज्यिक शर्तों पर लिए जाने वाले ऋणों पर निर्भरता बढ़ गई. इसके अलावा मध्यम आय वाले देशों के लिए ज़रूरी राजकोषीय अनुशासन की अनदेखी की गई.

सार्वजनिक कोष से बुनियादी ढांचे के ताबड़तोड़ विकास के लिए बड़ी रकम की दरकार होती है. लिहाज़ा श्रीलंका ने चीन, जापान और अंतरराष्ट्रीय पूंजी बाज़ारों का रुख़ किया. चूंकि देश की अर्थव्यवस्था उच्च मध्यम आय वाले दर्जे को छूने लगी (प्रति व्यक्ति आय के इस्तेमाल से तंग रूप से परिभाषित) थी, लिहाज़ा ऋण वाणिज्यिक दरों पर लिए जाने लगे. श्रीलंका ने उच्च मध्यम आय वर्ग में शामिल होने के ‘दिखावटी’ एहसास का आनंद तो लिया, मगर इस कड़ी में उसने ढांचागत सुधारों को नज़रअंदाज़ कर दिया. दरअसल मध्यम आय और उससे आगे की विकास यात्रा के लिए ऐसे ‘व्यवस्थापन’ की दरकार होती है. बेहतर संस्थाओं और कुशलतापूर्ण मानवीय पूंजी के निर्माण पर बहुत कम ध्यान दिया गया. साथ ही अर्थव्यवस्था को ज़्यादा प्रतिस्पर्धी और नवाचार युक्त बनाने की क़वायद भी नहीं की गई.

सार्वजनिक संस्थाओं का ज़बरदस्त राजनीतिकरण कर दिया गया. इन पर भ्रष्ट कारोबारी वर्ग का क़ब्ज़ा हो गया. शिक्षा से ज़्यादा रक्षा पर ख़र्च को बढ़ावा दिया गया. सिविल सेवाओं में भर्ती का तेज़ी से विस्तार हुआ. तंग नज़रिए वाले निहित स्वार्थी तत्वों के हक़ में संरक्षणवादी व्यापार और औद्योगिक नीतियों पर अमल हुआ. निर्यात को बढ़ावा देने वाले तमाम क्षेत्रों की लगातार अनदेखी की जाती रही और पर्यटन पर ज़रूरत से ज़्यादा निर्भरता का दौर रहा. उत्पादकता, कार्यकुशलता और आर्थिक प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देने के लिए ज़रूरी सुधार नहीं किए गए. कर्ज़ पर ब्याज़ की अदायगी लगातार बढ़ती चली गई. दूसरी ओर विदेशी मुद्रा अर्जित करने वाले सेक्टर लचर होते गए. राजकोषीय पक्ष और विदेशी खाता- दोनों मोर्चों पर आई कमज़ोरियों ने बड़ी दुश्वारियों की बुनियाद रख दी. एक के बाद एक लगातार कई संकटों का दौर शुरू हो गया. इनमें अक्टूबर 2018 में संवैधानिक तख़्तापलट, अप्रैल 2019 में ईस्टर रविवार को हुए बम हमले, 2020 की शुरुआत में कोविड-19 महामारी की आमद और 2022 की शुरुआत में रूस-यूक्रेन जंग शामिल हैं.

निकट भविष्य में ख़र्च घटाने से जुड़े तमाम उपायों का बेहद कमज़ोर तबक़ों पर सबसे बुरा असर होगा. तमाम राजनेता अब तक ये साफ़ नहीं कर पाए हैं कि इन समुदायों की मदद के लिए क्या क़दम उठाए जाएंगे.

लाज़िमी तौर पर पिछले दशक में ही ज़्यादातर सुधारों को क्रमबद्ध और व्यवस्थित रूप से अमल में लाया जाना चाहिए था. अब व्यापक अर्थव्यवस्था में अनिश्चितता भरे हालातों के बीच इन सुधारों को ताबड़तोड़ ढंग से अपनाया जा रहा है.

ख़र्च घटाने की क़वायद

IMF की अगुवाई वाले कार्यक्रमों के तहत ख़र्च घटाने की क़वायद का दायरा बहुत बड़ा होगा. पहले से कमज़ोर पड़ी अर्थव्यवस्था, कठिनाइयों भरे जीवन और बढ़ती महंगाई के बीच तमाम इकाइयों, कामगारों और परिवारों पर इसकी मार पड़ेगी. साल की पहली तिमाही में ही श्रीलंकाई अर्थव्यवस्था में 1.6 प्रतिशत का संकुचन आ गया. अप्रैल 2019 में ईस्टर रविवार को हुए बम हमलों के पहले से ही सुस्त विकास का मौजूदा दौर जारी है. कोविड-19 और आर्थिक संकट के घालमेल से तमाम सामाजिक-आर्थिक मसलों के साथ-साथ कुपोषण की समस्या भी खड़ी हो गई है. 86 प्रतिशत परिवार या तो सस्ता, कम पोषणयुक्त आहार ख़रीद रहे हैं, या कई मौक़ों पर भोजन का पूरी तरह त्याग कर रहे हैं.

निकट भविष्य में ख़र्च घटाने से जुड़े तमाम उपायों का बेहद कमज़ोर तबक़ों पर सबसे बुरा असर होगा. तमाम राजनेता अब तक ये साफ़ नहीं कर पाए हैं कि इन समुदायों की मदद के लिए क्या क़दम उठाए जाएंगे.

ऊर्जा की अंतिम उपभोक्ता क़ीमतों में पहले ही काफ़ी बढ़ोतरी हो चुकी है. मार्च 2022 में ईंधन के दाम में भी तेज़ इज़ाफ़ा हुआ था. ईंधन की क़ीमतें तय करने वाले फॉर्मूले को दोबारा लागू किए जाने से ईंधन काफ़ी महंगा हो गया है. साल दर साल के हिसाब से पेट्रोल और डीज़ल की क़ीमतों में जून 2022 में 128 प्रतिशत, जबकि जुलाई 2022 में 143 प्रतिशत का इज़ाफ़ा हो चुका है. अक्टूबर 2021 और अगस्त 2022 के बीच रसोई गैस की क़ीमतों में 229 प्रतिशत की बढ़ोतरी हो चुकी है. हालांकि इनकी किल्लत की समस्या अब काफ़ी हद तक दूर हो गई है. हाल ही में बिजली की दरों में भी बढ़ोतरी का एलान हुआ है. इस्तेमाल के हिसाब से इनमें 125 प्रतिशत से लेकर 264 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी हो चुकी है. पानी की दरों में भी इज़ाफ़े की योजना है. मौजूदा संकट से सरकारी उद्यमों में सुधार की व्यापक ज़रूरत सामने आ गई है. इस कड़ी में इन उद्यमों में तैयार वस्तुओं और सेवाओं के लिए लागत के हिसाब से क़ीमतें तय करना, एक बड़ा मसला है. हालांकि घटी आय और सुस्त उपभोक्ता मांग के मौजूदा दौर में क़ीमतों में अचानक ऐसी बढ़ोतरी तमाम परिवारों के लिए बेहद तकलीफ़देह साबित होने वाली है. 2022 में कोलंबो अर्बन लैब द्वारा किए गए विश्लेषण में सीलोन इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड द्वारा बिजली दरों में की गई बढ़ोतरी की पड़ताल की गई. इस क़वायद में घरेलू उपभोक्ताओं (ख़ासतौर से शहर ग़रीबों) की ज़मीनी हक़ीक़तों पर ग़ौर नहीं किया गया.

सरकार ने थोड़े-बहुत नक़दी हस्तांतरणों का ऐलान किया है. इसके अलावा ‘समृद्धि’ जैसे दोषपूर्ण कार्यक्रमों को और मज़बूती से आगे बढ़ाया गया है. हालांकि सामाजिक सुरक्षा जाल तैयार करने की कोई भरोसेमंद पहल अब तक सामने नहीं आई है. वेरिटे रिसर्च श्रीलंका इकॉनोमिक पॉलिसी ग्रुप नाम की रिसर्च कंपनी ने कल्याणकारी भुगतानों की संरचना के लिए बिजली शुल्कों का इस्तेमाल किए जाने की सलाह दी है. बहरहाल इस क़वायद में कई कमज़ोर समुदायों की रोज़मर्रा की हक़ीक़तों का ध्यान नहीं रखा गया है. साथ ही असंगठित कामगारों और शहरी ग़रीबों को भी अनदेखा कर दिया गया.

ऊर्जा और अन्य सेवाओं की क़ीमतों में हाल ही में की गई बढ़ोतरी से आने वाले महीनों में समायोजन से जुड़े और उपायों का रास्ता साफ़ हो गया है. श्रीलंका लंबे अर्से से ढांचागत सुधारों को टालता आ रहा था. आज इन तमाम उपायों को बिना वक़्त दिए पूरी तात्कालिकता और तेज़ी से आगे बढ़ाया जा रहा है. ऐसे में ग़रीबों और कमज़ोर वर्गों पर पड़ने वाले प्रभावों पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है. इसके नतीजे ख़तरनाक हो सकते हैं. इन सुधारों की तार्किकता, इनसे हासिल होने वाले नतीजों और कमज़ोर वर्गों के बचाव से जुड़े उपायों के बारे में रुख़ साफ़ किए बिना इनको आगे बढ़ाने की क़वायद का विरोध होना तय है. राजनेता और आम जनता इनके ख़िलाफ़ हो जाएंगे. कुछ रसूख़दार राजनेताओं ने IMF विरोध के अपने जाने-माने रुख़ को और कड़ा कर दिया है. यहां तक कि इनमें से एक ने तो IMF (और आम तौर पर पश्चिमी की तमाम संस्थाओं) को यूक्रेन के मौजूदा संकट के लिए ज़िम्मेदार ठहराया है.

नए प्रशासन के सामने चुनौतियां

राष्ट्रपति रनिल विक्रमसिंघे और प्रधानमंत्री दिनेश गुणवर्धना की सरकार के सामने चुनौतियों का अंबार है. इस सरकार से चंद सालों में वो तमाम सुधार लागू करने की उम्मीद की जा रही है, जिन्हें क़रीब एक दशक तक नज़रअंदाज़ किया गया. ये काम बेहद कठिन है. देश के मौजूदा नेतृत्व के सामने भरोसे का संकट है. मौजूदा कैबिनेट में तमाम वही लोग हैं जिनके राज में ऐसी आर्थिक दुश्वारियां पैदा हुई थीं.

लग रहा कि नए राष्ट्रपति विपक्षी दलों को कैबिनेट में लाकर एक ‘सर्वदलीय सरकार’ के गठन की बेपरवाह कोशिश कर रहे हैं. तमाम दलों के बीच वैचारिक मतभेदों के मद्देनज़र ये क़वायद मसलों को और पेचीदा बना सकती है. वैसे राष्ट्रीय एकता सरकार के गठन की संभावना ना के बराबर है. JVP जैसी अहम छोटी पार्टियों ने ऐसी पेशकश ठुकरा दी है.

बेशक़ राजनीतिक सर्वसम्मति बनाने की कोशिशें जारी है, ऐसे में मतदाताओं के साथ ईमानदार और खुला संवाद ज़रूरी हो गया है. राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और अहम कैबिनेट मंत्रियों को बेबाक़ी से पेश आना होगा. उन्हें जनता को बताना होगा कि 1-2 सालों में उनकी ज़िंदगी कैसी होगी, ये समझाना होगा कि क्यों कुछ चुनिंदा क़दम उठाने ज़रूरी हो गए हैं. सबसे कमज़ोर तबक़ों को इन बदली हुई परिस्थितियों में व्यवस्थित होने में कैसे मदद की जाएगी, सरकार को इस बारे में भी साफ़गोई दिखानी होगी. निश्चित रूप से आर्थिक निर्णय प्रक्रियाओं से जुड़ी अहम ज़िम्मेदारियां भरोसेमंद और क़ाबिल लोगों को ही दी जानी चाहिए. इससे सरकार पर भरोसा क़ायम करने में मदद मिलेगी. साथ ही अर्थव्यवस्था के संचालन की सरकार की क्षमताओं को भी बढ़ावा मिलेगा.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.