Author : Ayjaz Wani

Published on Sep 23, 2021 Updated 0 Hours ago

पाकिस्तान समर्थित आतंकवादी समूह के साथ तालिबान के काम करने से कश्मीर में दोबारा हिंसा फैलने की संभावना न सकती है

पड़ोस के देश ‘अफ़ग़ानिस्तान’ में तालिबान की वापसी और भारत के ‘कश्मीर’ पर इसका प्रभाव

युद्धग्रस्त अफ़ग़ानिस्तान को तालिबान ने, अमेरिका की पूरी तरह वापसी से पहले जिस नाटकीय अंदाज में अपने कब्ज़े में ले लिया उससे, इस क्षेत्र में कट्टरता, राजनीतिक इस्लाम और आतंकवाद को लेकर चिंता बढ़ी है. क्षेत्रीय शक्तियां, जिनमें चीन, रूस, ईरान, पाकिस्तान, भारत और यहां तक की शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गेनाइज़ेशन यानी एससीओ भी शामिल हैं, ठोस रणनीति के बिना उन्मादी तालिबान को नियंत्रित करने में विफल साबित हुई हैं. 

अफ़ग़ानिस्तान के घटनाक्रम से भारतीय नीतिकारों और सुरक्षा विशेषज्ञों के बीच, कश्मीर में आंतकवादी समूहों को ज़मीनी समर्थन मिलने को लेकर एक नयी आशंका खड़ी हो गई है. हालांकि, तालिबान इस बात पर कायम है कि जम्मू-कश्मीर द्विपक्षीय और अंदरूनी मामला है, पाकिस्तान, जो फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स यानि एफएटीएफ की ग्रे-लिस्ट से बाहर होने की जद्दोजहद कर रहा है, अंतरराष्ट्रीय जांच से बचने के लिए इस हालात को जम्मू और कश्मीर में आंतकवाद फैलाने के लिए इस्तेमाल कर सकता है.     

1989 के बाद कश्मीर में विदेशी आतंकवादी

1989 में अफ़ग़ानिस्तान से सोवियत संघ के लड़ाकू बल की वापसी के बाद, पाकिस्तान ने युद्ध में कठोर हो चुके उग्रवादियों को, नये सिरे से आतंकवाद और संघर्ष शुरू करने के लिए कश्मीर घाटी की तरफ मोड़ दिया था. घाटी में मौजूदा राजनीतिक परिस्थिति और 1987 में विधानसभा चुनावों में हुई धांधली से लोगों में नाराज़गी ने पाकिस्तान को हालात भुनाने के लिए उपयुक्त ज़मीन मुहैया करवा दी थी. पाकिस्तान ने असंतुष्ट कश्मीरी युवाओं को बहकाया और सशस्त्र विद्रोह का समर्थन किया ताकि भारत के खिलाफ़ आईएसआई और अन्य अंतरराष्ट्रीय इस्लामिक संगठनों की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष भागीदारी के साथ खुली नियंत्रण रेखा यानी एलओसी के ज़रिए छद्म युद्ध प्रायोजित कराया जा सके. पाकिस्तान ने भारतीय सेना के साथ हिसाब बराबर करने की कई नाकाम कोशिश की जिसके बाद उसने अपनी चालबाज़ी को ‘इस्लाम के लिए लड़ाई’ का नाम दिया. उसने भारतीय राज्य कश्मीर को चुनौती देने के लिए एक अस्थिर और आकारहीन धर्मयुद्ध को संगठित आंदोलन का रूप दिया. 1971 में बांग्लादेश युद्ध में शर्मसार होने और शक्ति का क्षेत्रीय संतुलन निर्णायक रूप से भारत के पक्ष में जाने के बाद यह पाकिस्तान के लिए ख़ासतौर से मर्मभेदी था.    

पाकिस्तान ने असंतुष्ट कश्मीरी युवाओं को बहकाया और सशस्त्र विद्रोह का समर्थन किया ताकि भारत के खिलाफ़ आईएसआई और अन्य अंतरराष्ट्रीय इस्लामिक संगठनों की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष भागीदारी के साथ खुली नियंत्रण रेखा यानी एलओसी के ज़रिए छद्म युद्ध प्रायोजित कराया जा सके.

इसके बाद हुए विद्रोह में राजनीतिक हत्याएं हुईं और सरकारी मशीनरी चरमरा गई जिसके कारण भारत को स्थिति नियंत्रित करने के लिए सशस्त्र बलों को भेजना पड़ा. सीमा पार स्थित आतंकी कैंपों से प्रशिक्षित विदेशी और कश्मीरी आतंकवादियों की मौजूदगी को देखते हुए सुरक्षा एजेंसियों को हालात पर काबू पाने के लिए कुछ समय लगा. रिपोर्ट के मुताबिक, अगस्त 1993 में, 400 अफगान विद्रोहियों- जिनमें ज़्यादातर सदस्य गुलमुद्दीन हिकमतयार की पार्टी हेज्ब-ए-इस्लामी के थे- कश्मीर में मौजूद थे. साल 1989 और 2000 के बीच, जम्मू-कश्मीर में 55,538 हिंसक घटनाएं दर्ज की गई और मारे गए 15,937 आतकंवादियों में से 3000 से ज्य़ादा पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के थे. इसी दौरान विभिन्न आतंकवाद विरोधी अभियान में करीब 40,000 आग्नेय शस्त्र, 1,50,000 विस्फोटक उपकरण और  छह मिलियन से ज्य़ादा गोला-बारूद ज़ब्त किया गया. सुरक्षा एजेंसियों को कश्मीर घाटी में शांति स्थापित करने में कई साल लग गए. इसी समय में एलओसी पर चौकसी बढ़ाने से सीमा पार आतंकवाद में कमी आयी. बेहतर होते हालात को देखते हुए सुरक्षा एजेंसियों ने चेक पोस्ट और सैन्य बंकरों की संख्या भी घटायी जो बीते कई सालों में घाटी के कोने-कोने में बनाई गई थी. सितंबर 1996 के चुनावों ने लोकतांत्रिक सरकार को बहाल किया. प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने, जो 2004 तक सत्ता में रहे, अपने ‘इंसानियत के दायरे में’ के दर्शन के साथ कश्मीरियों की तरफ़ हाथ बढ़ाया. वाजपेयी ने मानवतावादी दृष्टिकोण के ज़रिये कश्मीर में संघर्ष को ख़त्म करने के लिए ज़रूरी कदम उठाये. उन्होंने कश्मीरी आवाम के साथ अच्छे संबंध बनाये और उनकी यह रणनीति एक विश्वास स्थापित करने के महत्वपूर्ण उपाय के रूप में कामयाब रही. उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री मुफ्त़ी मोहम्मद सईद को स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप्स यानी एसओजी को भंग करने के लिए मजबूर किया जो कश्मीरी समाज में कुख्य़ात थे. कई कश्मीरियों को इस बात का एहसास हुआ कि पाकिस्तान अपने स्वार्थ भरे लक्ष्यों को पूरा करने और बांग्लादेश में हार का बदला लेने के लिए उनका इस्तेमाल कर रहा था.   

घाटी के स्पष्ट रुख़ से भौचक्के पाकिस्तान ने सीमा पार से आतंकवादियों की घुसपैठ में इज़ाफ़ा कर दिया. इस्लामाबाद स्थित कट्टरपंथी आतंकवादी संगठन जैसे लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए- मोहम्मद ने फिदायीन हमले का हथकंडा अपनाया ताकि पाकिस्तान की नापाक साज़िश बरकरार रहे और कश्मीर जलता रहे. 1999 के मध्य से 2002 के अंत तक कश्मीर में 55 फिदायीन हमले हुए जिन्हें विशेषकर पाकिस्तानी आतंकवादियों ने अंजाम दिया. जैसे-जैसे आतंकवाद का रास्ता छोड़ने वाले स्थानीय युवाओं की संख्या में इज़ाफ़ा हुआ, वैसे-वैसे 2002 के बाद साल दर साल मारे जाने वाले पाकिस्तानी और विदेशी आतंकवादियों की तादाद भी बढ़ती रही, जैसा मुख्य लेख में शामिल चित्र-1 में दिखाया गया है.    

तालिबान की वापसी और कश्मीर

1989 की तरह इस्लामाबाद, अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की वापसी का इस्तेमाल आतंकवादियों को कश्मीर भेजने के लिए कर सकता है. रिपोर्ट्स के मुताबिक, लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए- मोहम्मद और अन्य आतंकी संगठनों के हजारों पाकिस्तानी आतंकवादी वर्तमान में तालिबान के साथ मिलकर जंग लड़ रहे हैं. वो कश्मीर घाटी में घुसपैठ के लिए तैयार रहेंगे. हालांकि, आज का कश्मीर 1989 की तरह नहीं है. पिछले कुछ सालों में आंतरिक सुरक्षा तंत्र को मज़बूत किया गया है, ड्रोन और नाइट विज़न कैमरों के साथ एलओसी पर निगरानी काफ़ी बेहतर हुई है और 2019 में अनुच्छेद 370 और 35A हटने के बाद यह नया केंद्र शासित प्रदेश केंद्र सरकार के सीधे नियंत्रण में है. इसके अलावा, पाकिस्तान जून 2018 से एफएटीएफ की ग्रे-लिस्ट में शामिल होने और अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद को उसके अप्रत्यक्ष समर्थन का ख़ुलासा होने के बाद पूरी दुनिया में शर्मसार हुआ है. अपनी करतूतों के लिए निंदा का सामना कर रहे पाकिस्तान के लिए कश्मीर घाटी में शांति भंग करने की अपनी शैतानी चाल को दोहराना मुश्किल होगा. एलओसी में बढ़ाई गई सुरक्षा से घाटी में विदेशी आतंकवादियों की मौजूदगी स्पष्ट रूप से कम हुई है. उदाहरण के लिए, 2019 में, एलओसी पर 130 घुसपैठ की घटनाएं दर्ज की गई जबकि जनवरी से अक्टूबर 2020 तक कश्मीर घाटी में सिर्फ़ 30 ही घुसपैठ कर पाये. एलओसी पर घुसपैठ के रास्तों को बंद करने के प्रभावी कदम के बाद पाकिस्तानी सेना और आईएसआई ने हताशा भरे हथकंडे अपनाने शुरू कर दिये हैं, जिसमें वाघा बॉर्डर से नार्को आतंकवाद और एलओसी में भारतीय सीमा में ड्रोन्स के ज़रिए हथियारों को गिराना शामिल है. जून 2020 में सीमा सुरक्षा बल यानी बीएसएफ़ ने अंतरराष्ट्रीय सीमा के करीब जम्मू के कठुआ जिले में पाकिस्तानी ड्रोन को मार गिराया. ड्रोन में चार बैटरी, दो ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम (जीपीएस), सात चीनी ग्रेनेड और अमेरिका में बने अत्याधुनिक एम-4 सेमी ऑटोमैटिक कार्बाइन मिली.  

हालांकि, आज का कश्मीर 1989 की तरह नहीं है. पिछले कुछ सालों में आंतरिक सुरक्षा तंत्र को मज़बूत किया गया है, ड्रोन और नाइट विज़न कैमरों के साथ एलओसी पर निगरानी काफ़ी बेहतर हुई है और 2019 में अनुच्छेद 370 और 35A हटने के बाद यह नया केंद्र शासित प्रदेश केंद्र सरकार के सीधे नियंत्रण में है.

1989 और वर्तमान में एक अन्य परिवर्तन यह है कि अब लोग बंदूक के साये में जीवन गुज़ारते-गुज़ारते थक चुके हैं. कथित उत्पीड़न का बोध और अन्याय और तिरस्कार का सामना करने का भावनात्मक खिंचाव अभी भी भारत विरोधी सोच को भड़काता है, लेकिन पत्थरबाज़ी और मुठभेड़ स्थलों पर हड़ताल और विरोध करने की आवाज़ उठाये जाने की कम होती घटनाओं में हिंसा से ऊब झलकती है. आधिकारिक डेटा के अनुसार, 2020 में कश्मीर में पत्थरबाज़ी की केवल 255 घटनाएं हुई हैं जबकि 2019 में 1,999, 2018 में 1,458 और 2017 में 1,142 घटनाएं हुईं.  

हालांकि, भारत ने भले ही पाकिस्तान के बाहरी कोशिशों को विफल करने के लिए पर्याप्त तरीके से अपनी रणनीति को उन्नत किया हो, लेकिन असल परेशानी कश्मीर के अंदर मौजूद है. अफ़ग़ानिस्तान में कबीलियाई संस्कृति को शामिल करते हुए इस्लामिक सरकार का गठन करने और अफ़ग़ानिस्तान से यूरोप की सीमा तक ख़लीफ़ा की स्थापना करने की कल्पना को साकार करने का इरादा रखने वाला तालिबान भटके हुए कश्मीरी युवाओं के एक तबके की हिंसक भावनाओं को भड़का सकता है. कश्मीर पर अंतहीन संघर्ष ने कश्मीरी समाज में राजनीतिक और सामाजिक अलगाव का निर्माण किया है, जो घाटी के परंपरागत सामाजिक ढांचे और नियंत्रण व्यवस्था के लिए ख़तरे की घंटी है. भले ही पाकिस्तान अपने शैतानी इरादों में कुछ हद तक सफल हो भी जाए, भटके हुए युवा कश्मीर में समाज के उस महत्वपूर्ण वर्ग की आवाज़ खामोश करने में सक्षम हैं, जो कश्मीरियत, उसके अनूठे सामंजस्यपूर्ण, भक्ति और दार्शनिक कश्मीरी जीवनशैली पर यक़ीन रखते हैं.        

अफ़ग़ानिस्तान में कबीलियाई संस्कृति को शामिल करते हुए इस्लामिक सरकार का गठन करने और अफ़ग़ानिस्तान से यूरोप की सीमा तक ख़लीफ़ा की स्थापना करने की कल्पना को साकार करने का इरादा रखने वाला तालिबान भटके हुए कश्मीरी युवाओं के एक तबके की हिंसक भावनाओं को भड़का सकता है.

पाकिस्तान इन भावनाओं का अनुचित लाभ उठा सकता है और अनुच्छेद 370 और 35-ए हटने के बाद अपनी पहचान और संस्कृति को लेकर फैले डर और शंका का इस्तेमाल तालिबान के ज़रिए सीमा पार से कश्मीर घाटी में कट्टरता कायम करने में कर सकता है. भारत के खिलाफ़ नाराज़गी और असंतुष्टि और घाटी में कथित पीड़ित होने ही सोच का उपयोग भी पाकिस्तान नफ़रत और हिंसा फैलाने के लिए कर सकता है. यह मंज़र नई दिल्ली के एकीकृत दृष्टिकोण को कुंद कर सकता है. इसलिए नई दिल्ली को अफ़ग़ानिस्तान की घटनाओं को एक अवसर के तौर पर देखते हुए घाटी के लोगों के साथ ईमानदार संवाद स्थापित करने की शुरुआत करनी चाहिए जिसके बेहतर नतीजे हों. उसे स्वच्छ और निष्पक्ष प्रशासन मुहैया कराना चाहिए और कश्मीरी पहचान और संस्कृति की सुरक्षा सुनिश्चित करनी चाहिए. इस तरह की सकारात्मक राजनीतिक पहुंच का अभाव, पाकिस्तान को मौका दे देगा जो अफ़ग़ानिस्तान के घटनाक्रम को अपने फ़ायदे के लिए भुनाने को बेकरार है.        

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