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Published on Jan 13, 2025 Updated 2 Days ago

वैश्विक सहयोग की दिशा में एक नई बहुध्रुवीय व्यवस्था आकार ले रही है. इसमें मध्य यूरोप के देश ग्लोबल साउथ और ग्लोबल वेस्ट के बीच पुल का काम कर सकते हैं.

21वीं सदी में वैश्विक सहयोग: एक नई सोच की जरूरत

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ये लेख निबंध श्रृंखला “बुडापेस्ट एडिट” का हिस्सा है. 


कार्ल श्मिट ने 1951 में कहा था कि "सोलहवीं से बीसवीं शताब्दी तक, यानी चार सौ साल में यूरोपीय अंतरराष्ट्रीय कानून की जो संरचना बनी, उसका मूल आधार था एक नई दुनिया व्यवस्था पर विजय पाना.  यूरोप इस वैश्विक व्यवस्था का अगुआ बनना चाहता था. हालांकि मौजूदा हालात को देखते हुए अब ये ज़रूरी हो गया है कि इसमें बदलाव की आवश्यकता है. इसके लिए साहसिक कदम उठाने होंगे. ऐसी व्यवस्था बनानी होगी जो सभी राष्ट्रों की संप्रभुता का ध्यान रखें. उभरते बहुध्रुवीय विश्व और बहुपक्षीय सहयोग के अनुकूल हो. 

 ग्लोबल साउथ यानी विकासशील देशों से जुड़े कानूनी विद्वान एक और कड़वी हकीक़त की तरफ इशारा करते हैं.

ग्लोबल साउथ यानी विकासशील देशों से जुड़े कानूनी विद्वान एक और कड़वी हकीक़त की तरफ इशारा करते हैं. उनका कहना है कि वैश्विक सहयोग के लिए 20वीं सदी के मध्य में संयुक्त राष्ट्र (यूएन) चार्टर के तहत जो ढांचा बनाया गया, उसमें भी कई कमियां हैं. जो औपनिवेशिक साम्राज्य वाले देश हैं, या फिर शक्तिशाली समूह हैं, वो इन संस्थाओं के सहारे फिर अपना प्रभुत्व बढ़ाने और दुनिया पर अपना नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं. हालांकि अपनी नियत छुपाने के लिए इसे "वैश्विक शासन" का नाम दिया गया है.

 

यही वजह है कि इस वैश्विक शासन तंत्र में अब अविश्वास की लहर दिख रही है. फिर चाहे वो राजनीतिक मामले हों, कानूनी सिद्धांत या फिर अंतरराष्ट्रीय संबंधों के क्षेत्र से जुड़े मुद्दे हों. भविष्य के लिए संयुक्त राष्ट्र के समझौते और वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम से "रीबिल्डिंग ट्रस्ट" जैसे जो नारे लगाए जा रहे हैं, उनसे भी बहुत ज़्यादा उम्मीदें नहीं हैं.

 

अब सारी उम्मीदें संप्रभुता आंदोलनों पर टिकीं हैं. वैश्विक स्तर पर इनका पुनरुत्थान हो रहा है. सामान्य शब्दों में इस रूढ़िवादी लोकलुभावनवाद कहा जाता है. ये बदलाव केंद्रीकृत वैश्वीकरण पर रोक लगा सकता है. इसे वास्तविक अर्थों में सांस्कृतिक, राष्ट्रीय और धार्मिक पहचान के क्षेत्र में दोबारा अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की नींव की रखना माना जा सकता है.

 

अब्राहम समझौता और मानव बंधुत्व की घोषणा (सभी धार्मिक और आध्यात्मिक दुराग्रहों के साथ) एक नई उम्मीद जगाते हैं. ये दिखाते हैं कि सबकी अलग-अलग पहचान को सुरक्षित रखते हुए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के नए प्रतिमान बन रहे हैं. हालांकि कुछ पुरानी व्यवस्थाएं अब भी बनी हुई हैं और इनकी समीक्षा की ज़रूरत है, उदाहरण के लिए, पोस्ट-कोटोनौ समझौता. ये समझौता यूरोपीय संघ को अफ्रीका, कैरिबियन और प्रशांत देशों (एसीपी) पर अपने विचार और पश्चिमी देशों की सोच का विस्तार करने की मंजूरी देता है.

 

मध्य यूरोपीय देश तेज़ी से आर्थिक विकास कर रहे हैं. इसके अलावा इन देशों में रूसी, परशिया और ओटोमन साम्राज्यों की औपनिवेशिक नीतियों की छाप भी दिखती है. ऐसे में ये देश ग्लोबल साउथ और ग्लोबल वेस्ट के बीच पुल का काम कर सकते हैं.


[1] Carl Schmitt, Der Nomos der Erde im Völkerrecht des Jus Publicum Europaeum, 4th ed. (Berlin: Duncker & Humblot, 1997), at 69.

[2] i.a. Anthony Anghie, Imperialism, Sovereignty and the Making of International Law, Cambridge University Press 2005; B. S. Chimni, Third World Approaches to International Law: A Manifesto, International Community Law Review 8, 2006; Sundhya Pahuja, Decolonising International Law: Development, Economic Growth and the Politics of Universality, Cambridge University Press 2013.

 

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