बैलिस्टिक रॉकेट का एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने का सबसे पुराना लिखित दस्तावेज़ 1232 ईस्वी का है. तब चीन और मंगोलों के बीच युद्ध छिड़ा हुआ था. उस वक़्त जो इस्तेमाल किया गया था वो बहुत साधारण सा ठोस ईंधन वाला हथियार था, जिसमें दूर फेंकने के लिए बारूद भरा गया था. उसके बाद से ये हथियार काफ़ी विकसित हो चुका है और अब ये कई रूपों में हमारे सामने है. रॉकेट का इस्तेमाल दूसरे विश्व युद्ध के दौरान ख़ूब किया गया था. तब जर्मनी की सेना ने V2 रॉकेटों का बड़े पैमाने पर उपयोग किया था. उस वक़्त तो ये बहुत तबाही मचाने वाला हथियार था, और इसका पहले पता लगाना भी असंभव था. लेकिन, सीमित मात्रा में उत्पादन और सटीक निशाना लगाने के मामले में तकनीकी कमज़ोरियों की वजह से जर्मनी को अपने V2 रॉकेट से वैसे नतीजे नहीं हासिल हुए, जिनकी उसे उम्मीद थी. परमाणु हथियारों के आविष्कार और उसके साथ साथ सोवियत गुट और पश्चिमी देशों के बीच दुश्मनी बढ़ने की वजह से रॉकेट को एक नई और बढ़ी हुई भूमिका में विकसित किया गया. इस बार उसे भारी तबाही मचाने वाला हथियार ले जाने वाले सामरिक हथियार के तौर पर देखा जाने लगा. इस काम की अहमियत को देखते हुए रॉकेट की मारक दूरी, सटीक निशाना लगाने और भरोसेमंद बनाने पर काफ़ी काम किया गया.
जैसे जैसे सामरिक एटमी मिसाइलों की क्षमता में बढ़ोत्तरी होती गई, तो उनसे बचाव के उपायों पर रिसर्च में भी तेज़ी आने लगी. चूंकि इस तरह के तेज़ गति से चल रहे छोटे लक्ष्य को निशाना लगाने में काफ़ी जटिलताएं और उनकी भारी लागत आ रही थी. इसीलिए, शीत युद्ध की दुश्मन ताक़तों ने तय किया कि मिसाइल डिफेंस सिस्टम के विकास पर ऐसी पाबंदियां लगाई जाएं, जो दोनों पक्षों को स्वीकार्य हों. इनका मक़सद सामरिक स्थिरता क़ायम करना था. बहुत जल्दी इस नज़रिये को 1972 की एंटी बैलिस्टिक मिसाइल संधि (ABM) के ज़रिए संस्थागत स्वरूप दे दिया गया.
परमाणु हथियारों के आविष्कार और उसके साथ साथ सोवियत गुट और पश्चिमी देशों के बीच दुश्मनी बढ़ने की वजह से रॉकेट को एक नई और बढ़ी हुई भूमिका में विकसित किया गया.
हालांकि, उसके बाद के दशकों में जैसे जैसे पूर्व सोवियत संघ और अमेरिका के बीच तकनीकी फ़ासला बढ़ने लगा, वैसे वैसे अमेरिका में कुछ प्रभावशाली नीति निर्माताओं को लगने लगा कि एंटी बैलिस्टिक मिसाइल संधि अमेरिका के हितों के ख़िलाफ़ है. ये सोच इस विचार पर आधारित थी कि जहां अमेरिका के पास ज़्यादा परिष्कृत बैलिस्टिक मिसाइल डिफेंस सिस्टम (BMD) को तैनात करने की क्षमता और क़ाबिलियत है, वहीं सोवियत संघ (USSR) के पास इसकी कमी है. राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन के कार्यकाल में स्ट्रैटेजिक डिफेंस इनिशिएटिव (SDI) के साथ ही ये नज़रिया मुख्यधारा में आ गया. इस पहल (SDI) के अंतर्गत बैलिस्टिक मिसाइल रोधी संधि की रचनात्मक व्याख्या करते हुए ये कहा गया कि SDI के तहत जो प्रस्ताव रखे गए हैं, वो इस संधि की रूप-रेखा के तहत अमेरिका के उत्तरदायित्वों के अनुरूप हैं. 2001 में राष्ट्रपति जॉर्ज बुश के कार्यकाल में ये झीना आवरण भी उतार फेंका गया, जब अमेरिका ने इस संधि से इकतरफ़ा तरीक़े से ख़ुद को अलग कर लिया.
परमाणु हथियारों का विकास
उसके बाद के वर्षों के दौरान अमेरिका ने कई BMD सिस्टम विकसित किए हैं. इनमें से जो दुनिया भर में मशहूर हैं, उनमें अमेरिकी सेना द्वारा संचालित टर्मिनल हाई एल्टीट्यूड एरिया डिफेंस (THAAD) और पैट्रियट सिस्टम, अमेरिकी वायुसेना द्वारा लगाए गए ग्राउंड बेस्ड इंटरसेप्टर (GBI) और अमेरिकी नौसेना द्वारा संचालित एजीस बैलिस्टिक मिसाइल डिफेंस सिस्टम प्रमुख हैं. अब ऐसी क्षमताएं अन्य देशों ने भी हासिल कर ली हैं. या तो उन्होंने इसे अमेरिका में तैनात सिस्टम ख़रीदे हैं या फिर स्वदेश में ही उन्हें रिसर्च के ज़रिए विकसित किया है. कई देशों ने तो इस मामले में बिल्कुल नया तरीक़ा अपनाया है. उन्होंने मौजूदा एयर डिफेंस सिस्टम की क्षमता को बैलिस्टिक मिसाइल के ख़तरों से निपटने के लिए और बढ़ा लिया है.
एक छोटी और तेज़ गति से आ रही मिसाइल को निशाना बनाकर नष्ट करने में काफ़ी मुश्किलें आती हैं, ख़ास तौर से जब वो मिसाइल इधर उधर घूमकर आ रही हो. आम तौर पर एक BMD सिस्टम, हमलावर मिसाइलों का पता लगाकर उनका पीछा करने के लिए बेहद ताक़तवर रडार का इस्तेमाल करता है. इसके बाद वो एक इंटरसेप्टर मिसाइल लॉन्च करता है, जिसमें इतना पर्याप्त ईंधन होता है कि वो अपेक्षित दूरी और ऊंचाई पर जाकर हमलावर मिसाइल को नष्ट कर सके. इंटरसेप्टर मिसाइलें अक्सर थ्रस्टर्स यानी धक्का देने वाले इंजनों का इस्तेमाल करते हैं, क्योंकि ज़्यादा ऊंचाई पर हवा की कमी, ज़मीन से नियंत्रण को बेअसर कर देती है. इनके गाइडेंस सिस्टम में तेज़ रफ़्तार से निपटने की क्षमता होनी चाहिए, क्योंकि अक्सर मिसाइलों की गति सैकड़ों किलोमीटर प्रति घंटे के आस-पास होती है. ऐसे में इस बात से हैरानी नहीं होनी चाहिए कि BMD सिस्टम बेहद महंगे होते हैं. इसको एक उदाहरण से ऐसे समझिए. अमेरिका की डिफेंस कंपनी रेथियॉन द्वारा निर्मित एक स्टैंडर्ड SM-3 ब्लॉक 1B की अनुमानित क़ीमत 3.687 करोड़ डॉलर होती है. हालांकि, इस हमें इस बात का ध्यान रखना होगा कि बैलिस्टिक मिसाइल डिफेंस के इन रॉकेटों सामरिक एटमी मिसाइलों को मार गिराने के लिए विकसित किया गया था, जो भारी तबाही मचाने वाली होती हैं. ऐसे में इनको विकसित करने में निवेश की गई रक़म को हम वाजिब मान सकते हैं.
एक छोटी और तेज़ गति से आ रही मिसाइल को निशाना बनाकर नष्ट करने में काफ़ी मुश्किलें आती हैं, ख़ास तौर से जब वो मिसाइल इधर उधर घूमकर आ रही हो.
हालांकि, पिछले एक दशकों के दौरान इस क्षेत्र में कई नए बदलाव आए हैं. सामरिक परमाणु हथियार ले जा सकने वाले रॉकेट तैयार करने में आने वाली लागत लगातार घटती जा रही है. अब इन रॉकेटों को पारंपरिक हथियार ले जाने के लिए भी इस्तेमाल किया जा रहा है. वैसे तो इस मामले में उच्च स्तर के कई कार्यक्रम चल रहे हैं. जैसे कि अमेरिका की मदद से चलाया जा रहा कन्वेंशन प्रॉम्ट स्ट्राइक कार्यक्रम. इसके ज़रिए दुनिया के किसी भी हिस्से में 60 मिनट से भी कम समय में पारंपरिक विस्फोटक से हमला किया जा सकता है. इसके अलावा, कम लागत और बढ़ी हुई क्षमता वाली बहुत सी बैलिस्टिक मिसाइलें या तो तैनात की जा चुकी हैं, या फिर ये मिसाइलें अलग अलग देशों में विकास के अलग स्तर से गुज़र रही हैं. इस मामले में विकसित हथियारों का एक समूह चीन की एंटी शिप बैलिस्टिक मिसाइल (ASBM) है. किसी बैलिस्टिक मिसाइल का पता लगाकर उसे नष्ट करने वाला हथियार तैयार करने और इसे नियंत्रित करने वाला वो सिस्टम विकसित में इंजीनियरिंग की जिन जटिल चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जो इसे समंदर के रास्ते से आ रही हमलावर मिसाइल का पता लगाकर उसकी पहचान करके और ख़ुद को इस तरह घुमावदार रास्ते से ले जाकर, तेज़ गति से चल रहे लक्ष्य को नष्ट करने की ताक़त दे सके. ऐसा लगता है कि अब इस चुनौती से पार पा लिया गया है. यही नहीं, ख़बरों के मुताबिक़ अब ये हथियार ईरान जैसे देश भी बना रहे हैं और उनका इस्तेमाल तुलनात्मक रुप से कम प्रशिक्षित आतंकी समूह जैसे कि हूती कर रहे हैं. इससे पसंदीदा हथियार के तौर पर बैलिस्टिक मिसाइलों का लोकतांत्रीकरण हो रहा है.
इस मामले में चीन की प्रगति को हम DF-21D और DF-26 क्लास की एंटी शिप बैलिस्टिक मिसाइलों के उत्पादन और उनको बड़ी तादाद में तैनात करने के तौर पर देख रहे हैं. चीन की DF-26 बैलिस्टिक मिसाइल की रेंज चार हज़ार किलोमीटर बताई जाती है, जिससे गुआम का अमेरिकी सैनिक अड्डा इसकी ज़द में आ जाता है. इस मिसाइल की वजह से चीन के पास दुश्मन देश के एंटी एक्सेस एरिया डिनायल (A3AD) के कवच को भेदने की क्षमता हासिल हो गई है, और वो अपनी तट रेखा से इस मिसाइल की रेंज में आने वाले किसी भी बैलिस्टिक मिसाइल डिफेंस सिस्टम को भेद सकते हैं. चीन के आलेख ख़ुद भी इस हथियार को शशो जियान या क़ातिल की गदा कहते हैं, जो इस मिसाइल की समीकरण बदल देने की क्षमता को ही रेखांकित करता है.
कारोबारी तौर पर उपलब्ध परिष्कृत तकनीकों को तेज़ी से अपनाने और सस्ती क़ीमत पर ज़्यादा उत्पादन की वजह से बैलिस्टिक मिसाइलों की लागत और भी कम हो जाएगी. अब तो ऐसे रॉकेट भी तैयार किए जा रहे हैं, जिन्हें बार बार इस्तेमाल किया जा सकेगा. अमेरिकी कंपनी स्पेसएक्स ने अपने फाल्कन 9 रॉकेट और इसके बूस्टरों का दोबारा इस्तेमाल करके इस नई क्षमता को दिखा भी दिया है. ऐसी क्षमताओं को हथियार बनाने से किसी रॉकेट को पारंपरिक हथियारों से हमला करने के लिए बार बार इस्तेमाल किया जा सकेगा. इससे बैलिस्टिक क्षमता वाले इन रॉकेटों के कई ऑर्डर से इसकी लागत भी कम की जा सकती है.
अब तो ऐसे रॉकेट भी तैयार किए जा रहे हैं, जिन्हें बार बार इस्तेमाल किया जा सकेगा. अमेरिकी कंपनी स्पेसएक्स ने अपने फाल्कन 9 रॉकेट और इसके बूस्टरों का दोबारा इस्तेमाल करके इस नई क्षमता को दिखा भी दिया है.
पारंपरिक बैलिस्टिक मिसाइलों से होने वाले लगातार बढ़ते जा रहे ख़तरों से निपटने का मौजूदा तरीक़ा, इस समय उपलब्ध BMD इंटरसेप्टर इस्तेमाल करने का है. एजीस सिस्टम द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली स्टैंडर्ड SM 6 जैसी मिसाइलों की डिज़ाइन काफ़ी हद तक अमेरिका के BMD सुरक्षा कवच के तहत बैलिस्टिक मिसाइलों का पचा लगाने के लिए तैयार की गई है. ऐसे में ये मिसाइलें ईरान और उत्तर कोरिया के भंडार में मौजूद बुनियादी बैलिस्टिक मिसाइलों से निपट सकने में सक्षम है. एक ही लाठी से सबको हांकने वाला ये नज़रिया हाल ही में अमेरिका की इंडो पैसिफिक कमान के कमांडर एडमिरल अक़िलनो के बयान से ज़ाहिर हो गया था. एडमिर अक़िलनो ने 20 जुलाई 2023 को अमेरिकी संसद के सामने गवाही देते हुए कहा था कि, ‘मुझे फ़र्क़ नहीं पड़ता कि ये किसका पीछा करती है, कौन हमला करता है. मुझे तो बस इस बात से मतलब है कि हमें इसे मार गिराना है.’
आगे की राह
भले ही सैद्धांतिक तौर पर उपरोक्त नज़रिया ठीक हो. मगर ये टिकाऊ है नहीं. आज जिस तरह बैलिस्टिक मिसाइलों और इंटरसेप्टर की लागत में फ़ासला बढ़ता जा रहा है, तो हम ये मानकर चल सकते हैं कि आने वाले दौर के युद्धों में ऐसे हथियारों का बड़ी संख्या में इस्तेमाल किया जाएगा. कम लागत वाली मिसाइलों का पता लगाकर उन्हें नष्ट करने के लिए भारी क़ीमत से तैयार इंटरसेप्टर का इस्तेमाल धीरे धीरे घाटे का सौदा बनता जा रहा है. इसके अलावा इंटरसेप्टर मिसाइलें उपयोग करने वाले सिस्टमों को फिर से मिसाइलों से लैस करने की क्षमता को भी देखना होगा. कम से कम इतना तो करना पड़ेगा कि मोर्चे पर तैनात मिसाइल डिफेंस सिस्टम को वहां से हटाकर संभावित दूसरे सैन्य ठिकानों पर ले जाना होगा, ताकि उन्हें नई इंटरसेप्टर मिसाइलों से लैस किया जा सके.
कम से कम इतना तो करना पड़ेगा कि मोर्चे पर तैनात मिसाइल डिफेंस सिस्टम को वहां से हटाकर संभावित दूसरे सैन्य ठिकानों पर ले जाना होगा, ताकि उन्हें नई इंटरसेप्टर मिसाइलों से लैस किया जा सके.
ऐसे में बैलिस्टिक मिसाइल डिफेंस सिस्टम को नए नज़रिए से देखने और ऐसे विकल्प विकसित करने की सख़्त ज़रूरत है, जो हमलावर मिसाइलों और उनको निशाना बनाने वाली इंटरसेप्टर मिसाइलों की लागत में बढ़ते फ़ासले की चुनौती से निपट सकें. ख़तरे कम करने के उपायों को इस तरह से नए सिरे से तैयार करना होगा कि वो असरदार तो बने ही रहें. इसके अलावा उन्हें कम लागत में जल्दी से फिर से लैस किया जा सके. ऐसा तभी हो सकता है, जब मोर्चे पर तैनात सेनाओं के कमांडर युद्ध की लागत जैसे मसलों को हिकारत भरी सोच को पीछे छोड़ें और हथियार मुहैया कराने वालों से मज़बूती से ऐसे हथियारों की मांग करें, जो ताक़तवर हों और पारंपरिक बैलिस्टिक मिसाइलों के लगातार बने हुए व्यापक ख़तरों से निपट पाने में पर्याप्त रूप से सक्षम भी हों.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.