Author : Kashish Parpiani

Published on Apr 14, 2021 Updated 0 Hours ago

अमेरिका को वैश्विक स्तर पर भारत के रक्षा संबंधों, वाणिज्य के रास्ते में आने वाली बाधाओं और अनेक सामरिक ज़रूरतों और तालमेल के प्रबंधन से जुड़े कारकों का ख्याल रखना होगा.

बाइडेन प्रशासन और भारत-अमेरिका संबंध: भारत की ज़रूरतों और प्रतिबद्धतों की पहचान

अमेरिकी सीनेट में दिए बयान में अमेरिकी विदेश मंत्री एंटोनी ब्लिंकन ने भारत के बारे में चर्चा करते हुए आपसी रिश्तों को “दोनों देशों की अबतक की सरकारों का दोतरफ़ा कामयाब सफ़र” बताया. उन्होंने कहा कि बाइडेन प्रशासन भारत के साथ रिश्तों को और आगे बढ़ाना चाहता है. इस संदर्भ में उन्होंने बाइडेन द्वारा सीनेट में गुज़ारे वक्त को भारत के साथ रिश्तों के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण करार दिया. उनका कहना था कि इसी की बदौलत अमेरिका ने सामरिक तौर पर भारत का महत्व समझा और रिश्तों को उस दिशा में बढ़ाने की कोशिशें शुरू कीं. ब्लिंकन ने इसके लिए बाइडेन के शुरुआती दृष्टिकोण को श्रेय देते हुए कहा कि उऩका लक्ष्य भारत और अमेरिका को 2020 तक दुनिया के दो सबसे करीबी देश बनाने का था. हालांकि ब्लिंकन ने स्वीकार किया कि “हम अबतक इस लक्ष्य को हासिल नहीं कर सके हैं लेकिन फिर भी ये एक बेहतरीन विचार है“.

भारत-अमेरिकी संबंधों के विस्तार की अपार संभावनाओं को अब तक पूर तरह से टटोला नहीं जा सका है. सच्चाई ये है कि इस तरह के आकलनों में अब कोई आश्चर्य की बात भी नहीं रह गई है. ग़ौरतलब है कि डोनाल्ड ट्रंप के 4 वर्षों के कार्यकाल के दौरान आपसी लेनदेन की प्रक्रियाओं में बेहद आक्रामक रुख़ अपनाया गया. आपसी रिश्तों में धीरे-धीरे प्रगति करने और किश्तों में हासिल होने वाले लाभ की परंपरा की तिलांजली दे दी गई. ख़ासतौर से व्यापार से जुड़े मुद्दों पर ऐसा देखने को मिला. भारत-अमेरिकी संबंधों में गतिशीलता की असीम संभावनाओं के मद्देनज़र ऐसी आलोचना समझ में आती है. बहरहाल इसके साथ ही अमेरिका को भारत की प्राथमिकताओं, हदों और वैश्विक स्तर पर विभिन्न देशों के साथ असंख्य सामरिक तालमेल का भी ध्यान रखना होगा. अमेरिका को इसी हिसाब से भारत के साथ अपने रिश्तों और उससे जुड़ी उम्मीदों को ढालना पड़ेगा.

अमेरिका को भारत की प्राथमिकताओं, हदों और वैश्विक स्तर पर विभिन्न देशों के साथ असंख्य सामरिक तालमेल का भी ध्यान रखना होगा. 

सम्मिलन और आपसी नज़दीकियों पर आधारित संस्थागत स्वरूप से जुड़ी ट्रंप की नीति का अनुसरण

आपसी संबंधों में निश्चित रूपरेखा और मानकों पर आधारित संचार की प्रक्रियाएं तो बराक ओबामा प्रशासन के तहत ही शुरू हो गई थीं. उसके बाद ट्रंप प्रशासन ने भी इस मामले में निरतंरता बनाते हुए भारत-अमेरिका संबंधों को संस्थागत रूप दिया. इसके लिए दोनों देशों को ज़्यादा से ज़्यादा करीब लाने के लिए रूपरेखाएं तय की गईं. इसका प्रमुख उदाहरण है भारत और अमेरिकी विदेश मंत्री और रक्षा मंत्री के स्तर पर 2+2 मंत्रिस्तरीय संवाद. 2+2 मंत्रिस्तरीय संवाद ने दोनों देशों के विदेश और वाणिज्य मंत्रियों के बीच होने वाले भारत-अमेरिका सामरिक और वाणिज्य संवाद का स्थान लिया है. इसी पहल का नतीजा है कि भारत-अमेरिका व्यापार वार्ताओं में बार-बार आने वाली बाधाओं के बावजूद रक्षा संबंधों के मामलों में निर्बाध रूप से तरक्की सुनिश्चित की जा सकी है.

इतना ही नहीं 2+2 संवाद के केवल तीन दौर में ही भारत और अमेरिका ने काफ़ी प्रगति कर ली है. इनमें अमेरिकी नौसेना के सेंट्रल कमांड और भारतीय नौसेना के बीच और अधिक सहयोग, पारस्परिकता से जुड़े दो और समझौतों को अंतिम रूप देना और अमेरिका-भारत रक्षा तकनीक और व्यापार पहल को साकार करने का मार्ग प्रशस्त करने जैसी कामयाबियां शामिल हैं. इन दिनों अटकलों लगाई जा रही हैं कि बाइडेन प्रशासन ओबामा युग में चलने वाले सामरिक और वाणिज्यिक वार्ताओं को एक बार फिर से शुरू कर सकता है. ऐसे में रक्षा क्षेत्र में निर्बाध प्रगति की भारत की प्राथमिकताओं की ठीक से पहचान किए जाने की ज़रूरत है.

औषधि और अत्याधुनिक मेडिकल उपकरणों के क्षेत्र में अपनी-अपनी शक्तियों की पहचान कर भारत और अमेरिका एक-दूसरे की आपूर्ति श्रृंखला को और मज़बूत करने में सहयोग कर सकते हैं.

इसी तरह ऊर्जा के क्षेत्र में रिश्तों को और प्रगाढ़ करना ट्रंप प्रशासन की सम्मिलन आधारित संस्थागत पहलों का एक और प्रमुख कारक था. भारत के साथ अपना व्यापार घाटा कम करने के लिए अमेरिका ऊर्जा के व्यापार पर ध्यान लगाना चाहता है. वहीं दूसरी ओर भारत भी अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ओपेक देशों के इतर दूसरे स्रोतों की भी तलाश में है. 2018 का अमेरिका-भारत रणनीतिक ऊर्जा सहयोग (एसईपी) इन तमाम बिंदुओं को समाहित करता है. इस भागीदारी के कई उल्लेखनीय नतीजे सामने आए हैं. एसईपी की बदौलत भारत को कच्चे तेल का निर्यात करने वाले देशों में अमेरिका छठा सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता बन गया है. दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय हाइड्रोकार्बन व्यापार 9.2 अरब अमेरिकी डॉलर को पार कर गया है. इतना ही नहीं भारत में ऊर्जा के स्वच्छ स्रोतों की पहुंच बढ़ाने के मामले में तकनीकी और निजी क्षेत्र की भागीदारी को प्रोत्साहित करने में भी तेज़ी आई है.  

दोनों देशों के रिश्तों में आई इस गतिशीलता को बाइडेन प्रशासन और आगे ले जा सकता है. भले ही बाइडेन प्रशासन “जलवायु को पहली प्राथमिकता” देने की अपनी नीति को आगे बढ़ाने की कोशिश में हो लेकिन इसके बावजूद एसईपी के प्रमुख बिंदुओं को और बढ़ावा देते हुए तालमेल के दूसरे समान अवसरों की तलाश की जा सकती है. मिसाल के तौर पर दोनों पक्ष एसईपी के तत्वाधान में जलवायु को लेकर अपनी कार्ययोजना को औपचारिक रूप दे सकते हैं. जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर सरकारों के स्तर पर व्यापक पहल सुनिश्चित की जा सकती है. जलवायु से जुड़ी प्राथमिकताओं को व्यापार, राष्ट्रीय सुरक्षा और कूटनीतिक क्षेत्रों तक विस्तारित किया जा सकता है ताकि एक सतत और टिकाऊ भविष्य के लिए साझा रुख़ तय किए जा सकें. एसईपी के दायरे में इस तरह की पहलों से बाइडेन की स्वच्छ ऊर्जा नीति में भारतीय दृष्टिकोण के हिसाब से थोड़े-बहुत बदलाव किए जा सकते हैं. इन बदलावों का मकसद भारत के भूराजनीतिक हितों की पूर्ति में निरंतरता बनाए रखना होगा. भारत की योजना अमेरिकी सामरिक भंडारों में कच्चा तेल जमा करने की है. इसके साथ ही भारत स्वच्छ ऊर्जा को अपनाते हुए औद्योगिक विकास को बढ़ावा देकर तमाम हिस्सेदार पक्षों के लिए नौकरियों, रोज़गार और आजीविका की सुरक्षा के अपने उद्देश्यों को भी साधना चाहता है.

व्यापार के मामलों में शिष्टता लाकर घरेलू उत्पादन में साझा ज़ोर को स्वीकार करना 

व्यापार से जुड़े मुद्दों पर ट्रंप प्रशासन द्वारा एकटक ध्यान केंद्रित किए जाने से दोनों देशों के बीच असाधारण किस्म के तनाव पैदा हुए. बहरहाल बाइडेन प्रशासन की “अमेरिका इज़ बैक” नीति के चलते दोनों देशों के बीच मिलकर काम करने की रणनीतियों में एक निरंतरता का भाव आया है, ये भावना बेहद अहम है. हालांकि पिछले प्रशासन की ‘अमेरिका फर्स्ट’ नीति की ही तरह बाइडेन का भी पूरा ध्यान अमेरिका के घरेलू आर्थिक हित साधने पर है ताकि इन सबसे वहां के मध्यम वर्ग को लाभ पहुंचाया जा सके. इसी प्रकार “आत्मनिर्भर भारत” का आह्वान भारत के सामर्थ्य, कार्यक्षमता और भारत द्वारा वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला को मज़बूत करने के भरोसे को बढ़ावा देने पर ज़ोर देता है. यहां भी उद्देश्य स्थानीय आपूर्ति श्रृंखला को मज़बूती से संगठित कर इलेक्ट्रॉनिक, कृषि और सौर ऊर्जा से जुड़े आयातों पर शुल्कों में बढ़ोतरी लाना है.

इन तमाम परिस्थितियों में इस बात में कोई शक नहीं रह जाता है कि भारत-अमेरिका व्यापारिक संबंध अनिश्चितता भरे दौर में प्रवेश कर रहा है. निकट भविष्य में बाइडेन प्रशासन द्वारा भारत के साथ कोई नया व्यापार सौदा किए जाने की संभावना न के बराबर है. मौजूदा अमेरिकी प्रशासन भारत-अमेरिका व्यापार सौदे के मौजूदा सीमित स्वरूप की “नए सिरे से समीक्षा” करना चाहता है. ग़ौरतलब है कि व्यापार सौदे को ट्रंप प्रशासन सिरे चढ़ाने में नाकाम रहा था.

बाइडेन प्रशासन ओबामा युग में चलने वाले सामरिक और वाणिज्यिक वार्ताओं को एक बार फिर से शुरू कर सकता है. ऐसे में रक्षा क्षेत्र में निर्बाध प्रगति की भारत की प्राथमिकताओं की ठीक से पहचान किए जाने की ज़रूरत है.

और तो और ट्रंप के कार्यकाल में व्यापार को लेकर अमेरिका का भारत के साथ तनाव बढ़ता ही जा रहा था. प्राथमिक तौर पर इसकी वजह यही थी कि दोनों ही पक्ष अलग-अलग नज़रियों से व्यापार वार्ताओं में शामिल हो रहे थे. एक ओर भारत व्यापार के क्षेत्र में असंतुलन को दूर करने के लिए प्रयासरत था. जबकि अमेरिका भारतीय शुल्क और बाज़ार-पहुंच के रास्ते में आने वाली ग़ैर-शुल्क बाधाओं को लेकर लंबे समय से चली आ रही अपनी चिंताओं को दूर करना चाह रहा था. मौजूदा अमेरिकी प्रशासन भारत की ही तरह अपने घरेलू उत्पादन को बढ़ावा देने पर ज़ोर दे रहा है. घरेलू उत्पादन पर साझा रूप से इस तरह तवज्जो दिए जाने से आपसी तनाव के नए मुद्दे पैदा होने से रोके जा सकते हैं. मिसाल के तौर पर औषधि और अत्याधुनिक मेडिकल उपकरणों के क्षेत्र में अपनी-अपनी शक्तियों की पहचान कर भारत और अमेरिका एक-दूसरे की आपूर्ति श्रृंखला को और मज़बूत करने में सहयोग कर सकते हैं. इसके ज़रिए एक ही समय में संरक्षणवाद से होने वाले नुकसान से बचते हुए चीन पर निर्भरता कम की जा सकती है. 

उल्लेखनीय है कि ट्रंप के नेतृत्व वाला अमेरिकी प्रशासन अलग-अलग मुद्दों का आपस में घालमेल करने की नीति अपनाया करता था (जैसे डेटा-स्थानीयकरण की कोशिश करने वाले देशों के लिए एच-1बी वीज़ा को सीमित करने से जुड़े तात्कालिक विचार). उसकी फितरत तनाव बढ़ाने वाली रहा करती थीं (ख़बरें आईं थीं कि ट्रंप प्रशासन ने सेक्शन 301 के तहत बड़ी जांच कराने की धमकी दी थी). असलियत ये है कि भारत-अमेरिका व्यापारिक रिश्तों के सफल संचालन के लिए एक स्थायी सलाहकारी मंच गठित किए जाने की आवश्यकता है. इसके लिए या तो बाइडेन प्रशासन को व्यापार नीति मंच को पुनर्गठित करना होगा या फिर एक वैकल्पिक खाका बनाना होगा. ऐसे किसी भी नए तंत्र के लिए भारत-अमेरिका व्यापार की रणनीतिक प्रासंगिकता की पहचान करना ज़रूरी है. इस तंत्र में वार्ताओं के लिए सभी संबद्ध पक्षों को शामिल किया जा सकता है. इसमें अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि, अमेरिकी विदेश मंत्री, अमेरिकी वाणिज्य मंत्री और उनके भारतीय समकक्षों को शामिल किया जा सकता है. दोनों देशों के विदेश मंत्रियों को ऐसे किसी मंच से जोड़ने पर सामरिक मामलों की पहचान में मदद मिल सकेगी. इनमें अमेरिकी उत्पादकों की चीन पर निर्भरता कम करने में भारत के जीएसपी स्टेटस की प्रासंगिकता जैसे विचार शामिल हैं. 

भारत की अनेक सामरिक ज़रूरतों और उसके हिसाब से किए जाने वाले तालमेलों की पहचान

पिछले चार वर्षों में पूर्वी एशिया और एशिया-प्रशांत क्षेत्र की सुरक्षा से जुड़े आकलनों के हिसाब से भारत खुद को जोड़ता रहा है. कई बार भारत की इस तरह की कवायद में अमेरिका भागीदार नहीं रहा है. हालांकि इसका ये मतलब नहीं है कि हिंद महासागर में सुरक्षा व्यवस्था के आपूर्तिकर्ता के रूप में भारत को मिल रहे अमेरिकी समर्थन में कोई कमी आई है. सच्चाई तो ये है कि अमेरिका में बने पी-8 टोही विमानों का भारतीय बेड़ा हिंद महासागर क्षेत्र में इंफॉर्मेशन फ़्यूज़न सेंटर के लिए रीढ़ की हड्डी की तरह काम करता है. ये सेंटर हिंद महासागर में सामुद्रिक शक्ति के प्रति जागरूकता के प्रसार की दिशा में भारत की ओर से किए गए पहल का एक प्रमुख केंद्र है

बहरहाल, हिंद महासागर में साझा निगरानी के लिए भारत ने अमेरिका की बजाए फ्रांस के साथ भागीदारी करने का फ़ैसला किया. हालांकि “कई वरिष्ठ अमेरिकी सैन्य अधिकारी” इस तरह की भागीदारी स्थापित करने के लिए बार-बार भारत से अनुरोध कर रहे थे. हिंद महासागर क्षेत्र में फ्रांस को “स्थाई शक्ति” का दर्जा हासिल है. इस शक्ति के तहत फ्रांस यहां के इलाकों की निगरानी करता है. यहां के इलाके “फ्रांस के लिए भी संप्रभुता का विषय” बन जाते हैं. ऐसे में भारत ने फ्रांस को इस पूरे क्षेत्र में अपने क्रियाकलापों के लिए ज़्यादा उपयुक्त भागीदार समझा. इसी तरह इतने बड़े इलाके की सुरक्षा की ज़िम्मेदारियों का बोझ साझा करने के लिए भारत-फ्रांस और ऑस्ट्रेलिया ने एक त्रिपक्षीय समझौता किया है. इसके तहत तीनों ही देशों को हिंद महासागर में एक दूसरे की चौकियों (अंडमान निकोबार द्वीप समूह, रीयूनियन द्वीप और कोकोज़ द्वीप) तक पारस्परिकता के आधार पर पहुंच प्रदान की गई है. 

भारत-अमेरिका व्यापारिक रिश्तों के सफल संचालन के लिए एक स्थायी सलाहकारी मंच गठित किए जाने की आवश्यकता है. इसके लिए या तो बाइडेन प्रशासन को व्यापार नीति मंच को पुनर्गठित करना होगा या फिर एक वैकल्पिक खाका बनाना होगा.

रूस से एस-400 मिसाइल सिस्टम की ख़रीद के चलते भारत पर सीएएटीएसए के तहत अमेरिका की ओर से दूसरे दर्जे की पाबंदी लगाए जाने की आशंका बरकरार है. हालांकि इसी बीच ये उम्मीद की जा रही है कि बाइडेन प्रशासन सेक्शन 231 (डी) के तहत दिए गए छूट के प्रावधानों का उपयोग कर भारत को पाबंदियों से रियायत दे सकता है. अगर ऐसा नहीं भी होता है तो कम से कम भारत ट्रंप प्रशासन द्वारा शुरू की गई परंपरा को आगे भी जारी रखने का अनुरोध कर सकता है. इस परंपरा के तहत भारत द्वारा अमेरिकी हथियारों का आयात बढ़ाए जाने पर अमेरिकी पाबंदी की संभावनाओं को टाल दिया जाता है. भारत और रूस के रिश्तों पर अपेक्षाकृत कम ध्यान दिया जाना भी सामरिक तौर पर अमेरिका के लिए प्रासंगिक हो सकता है. इसी कड़ी में हाल ही में भारत और जापान द्वारा भारत-प्रशांत क्षेत्र को लेकर रूसी आशंकाओं को निरुत्साहित किए जाने की घटना को अहम माना जा रहा है.

इसी तरह ईरान के साथ भारत के संबंधों के रास्ते में अमेरिकी पाबंदियों का ख़तरा टलने से ईरान में भारत द्वारा किए जाने वाले रणनीतिक निवेश को बढ़ावा मिल सकता है. मिसाल के तौर पर चाबहार पोर्ट में भारतीय निवेश अमेरिकी पाबंदियों के दायरे से बाहर है. भारत और अमेरिका व्यापार के मामले में अफ़ग़ानिस्तान में मौजूद तमाम संभावनाओं को सामने लाना चाहते हैं. इसके लिए ईरान के प्रति ट्रंप-युग की “अधिकतम दबाव” वाली नीति को काफ़ी हद तक बदलना होगा. ऐसा होने पर ही अफ़ग़ानिस्तान को लेकर दोनों देशों ने जो लक्ष्य तय किए हैं उसकी प्राप्ति के लिए चाबहार पोर्ट की सामरिक क्षमताओं का पूरी तरह सदुपयोग संभव हो सकेगा. 

बाइडेन प्रशासन भारत-अमेरिकी रिश्तों की अबतक अप्राप्त रही संभावनाओं की पूर्ति करना चाहता है. इसके लिए अमेरिका को भारत के प्रति अपनी पहले से लगाई गई उम्मीदों के साथ भारतीय दृष्टिकोण का तालमेल बिठाना होगा. अमेरिका को वैश्विक स्तर पर भारत के रक्षा संबंधों, वाणिज्य के रास्ते में आने वाली बाधाओं और अनेक सामरिक ज़रूरतों और तालमेल के प्रबंधन से जुड़े कारकों का ख्याल रखना होगा.

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