Published on Jul 31, 2023 Updated 0 Hours ago

आख़िर क्या कारण है कि पड़ोसी देशों की तमाम आशंकाएं दूर करने की भारत सरकार की पुरज़ोर कोशिशों के बावजूद इन देशों में भारत विरोधी बयानबाज़ी बढ़ रही है?

एस. जयशंकर का कामयाब श्रीलंका-मॉलदीव्स दौरा: पड़ोसी देशों में भारत की बदलती छवि
एस. जयशंकर का कामयाब श्रीलंका-मॉलदीव्स दौरा: पड़ोसी देशों में भारत की बदलती छवि

भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने पिछले हफ़्ते मालदीव और श्रीलंका के कामयाब दौरे किए. फिर भी इन दोनों ही देशों में मुखर होते भारत विरोधी सुरों को लेकर भारत के सामरिक समुदाय में चिंता का माहौल बना हुआ है. श्रीलंका और मालदीव में भारत विरोधी बयानबाज़ी का सामरिक समुदाय पर और भी गहरा प्रभाव इसलिए पड़ा है, क्योंकि बांग्लादेश और नेपाल में ऐसे सुर धीमे पड़ गए हैं. जबकि पहले इन देशों में ही भारत विरोधी ज़्यादा मुखर हुआ करते थे.

श्रीलंका और मालदीव में भारत विरोधी बयानबाज़ी का सामरिक समुदाय पर और भी गहरा प्रभाव इसलिए पड़ा है, क्योंकि बांग्लादेश और नेपाल में ऐसे सुर धीमे पड़ गए हैं. जबकि पहले इन देशों में ही भारत विरोधी ज़्यादा मुखर हुआ करते थे.

श्रीलंका में 60 के दशक के मध्य से ही वामपंथी झुकाव वाले दल, जनता विमुक्ति पेरमुना के रूप में भारत विरोधियों का एक तबक़ा मौजूद रहा है. इस बार विपक्ष के नेता सजिथ प्रेमदासा के नेतृत्व वाले समागी जना बलावेगाया (SJB) ने भी भारत से जुड़ी कुछ परियोजनाओं को लेकर विरोध का झंडा बुलंद कर दिया है. पूर्वी त्रिंकोमाली में दूसरे विश्व युद्ध के दौर के इस्तेमाल नहीं किए जा रहे तेल टैंक के फॉर्म को दोबारा इस्तेमाल करने लायक़ बनाने के लाखों डॉलर वाले सरकारी और निजी क्षेत्र की साझा परियोजना को छोड़ दें, तो समागी जना बलावेगाया ने श्रीलंका के उत्तरी सूबे में नवीनीकरण योग्य ऊर्जा की परियोजनाएं भारत में निजी क्षेत्र की बड़ी कंपनी अडानी समूह को दिए जाने का विरोध किया है.

श्रीलंका की सोशल मीडिया पोस्ट के मुताबिक़ इस बारे में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बारे में अभद्र बयानबाज़ी को स्थानीय स्तर पर काफ़ी पसंद किया गया है. अगर दो साल बाद होने वाले राष्ट्रपति चुनाव में सजिथ प्रेमदासा, श्रीलंका के राष्ट्रपति चुने जाते हैं, तो उन्हें ऐसे बयानों को लेकर शर्मिंदगी उठानी पड़ सकती है. हालांकि, पिछली बार के चुनाव में प्रेमदासा, मौजूदा राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे से भारी मतों के अंतर से हारे थे. या फिर चुनाव जीतने पर SJB, परियोजनाओं की अपनी मौजूदा आलोचना की आड़ में उन विदेशी निवेशकों की अनिच्छा को बढ़ाएगी, जिनकी आज के हालात में श्रीलंका को सख़्त ज़रूरत है. मगर विदेशी निवेशक पहले ही श्रीलंका में पूंजी लगाने से परहेज़ कर रहे हैं.

मालदीव का हाल तो और भी बुरा है. जबकि विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने अपने हालिया दौरे में वहां इतिहास ही बना था. जयशंकर, मालदीव के राष्ट्रपति इब्राहिम सोलिह से राजधानी माले के बाहर किसी और जगह पर मुलाक़ात और सीधी बातचीत करने वाले पहले ख़ास विदेश मेहमान बन गए. चूंकि, मालदीव के बीसवीं सदी के इतिहास में, 60 के दशक की शुरुआत में एकीकरण से पहले, उसका दक्षिणी हिस्सा ख़ुद को उत्तर से अलग और कटा हुआ महसूस करता रहा था. इसी वजह से इस बार मालदीव सरकार ने जयशंकर के सारे कार्यक्रम अद्दू शहर में रखे थे. 2011 में मालदीव ने वहीं पर सार्क का शिखर सम्मेलन आयोजित किया था. विदेश मंत्री जयशंकर ने अद्दू में भारत की मदद से बनाई गई पुलिस अकादेमी का उद्घाटन किया. मालदीव और भारत ने छात्रों, कारोबारियों और स्वास्थ्य सैलानियों की मदद के लिए अद्दू में एक वाणिज्य दूतावास खोलने का भी फ़ैसला किया है.

यामीन ऐसा माहौल बना रहे हैं, जैसे कि भारत के सैनिक पूरे मालदीव पर छा गए हैं और इशारा मिलते ही वो देश पर क़ब्ज़ा करने वाले हैं. ये तो मालदीव के घटिया सियासी पैमाने के लिहाज़ से भी सच को वीभत्स बनाकर पेश करने जैसा है.

भारत द्वारा मालदीव के सामाजिक क्षेत्र और मूलभूत ढांचे के विकास में भारी निवेश किए जाने और देश में सबसे लंबा समुद्री पुल बनाने के बाद भी ऐसा लगता है कि मालदीव के पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन के नेतृत्व वाला पीपीएम-पीएनसी (PPM-PNC) गठबंधन भारत विरोध की नीति से पीछे हटने को तैयार नहीं है. हाल के हफ़्तों में इस गठबंधन की भारत विरोधी बयानबाज़ी के सुर और भी ऊंचे हो गए हैं. पहले अब्दुल्ला यामीन का गठबंधन मालदीव के लिए बेहद अहम पर्यटन और उससे जुड़े सेवा क्षेत्र में हज़ारों भारतीयों की मौजूदगी का विरोध अपने ‘भारत बाहर जाए’ अभियान के तहत करता रहा था और उसके समर्थक, भारत के प्रति विरोध जताने के लिए ख़ास तौर से तैयार की गई टी-शर्ट पहना करते थे. हालांकि हाल के दिनों में उन्होंने अपना विरोध मालदीव में भारत के सैनिकों की मौजूदगी पर केंद्रित कर दिया है. यामीन ऐसा माहौल बना रहे हैं, जैसे कि भारत के सैनिक पूरे मालदीव पर छा गए हैं और इशारा मिलते ही वो देश पर क़ब्ज़ा करने वाले हैं. ये तो मालदीव के घटिया सियासी पैमाने के लिहाज़ से भी सच को वीभत्स बनाकर पेश करने जैसा है.

सच तो ये है कि श्रीलंका और मालदीव में इससे पहले भारत विरोधियों के सुर इतने ऊंचे नहीं हुआ करते थे. पहले भूटान को छोड़ दें, तो भारत के उत्तरी सीमा के पड़ोसी बांग्लादेश और नेपाल में घरेलू राजनीतिक माहौल ज़्यादा भारत विरोधी हुआ करता था. यहां तक कि भूटान जो अब तक संगठित और असंगठित, दोनों ही तरह से भारत के आर्थिक संरक्षण वाला देश है, वहां पर जब 2013 के संसदीय चुनाव से पहले भारत ने केरोसिन के तेल की आपूर्ति रोकी थी, तो लोगों ने नाख़ुशी जताई थी. कहा जाता है कि भारत ने ये क़दम राजनीतिक कारणों से उठाया था.

सत्ता परिवर्तन

इन सभी बातों से यही सवाल उठता है कि ‘आख़िर भारत ही क्यों निशाने पर है और बार-बार ऐसा क्यों होता है?’ हो सकता है कि नेपाल का वामपंथी विपक्ष और श्रीलंका की वामपंथी झुकाव वाली जनता विमुक्ति पेरामुना, वैचारिक कारणों से ऐसा करते हों. फिर भी, आज़ादी के बाद ख़ुद भारत भी एक समाजवादी देश था. पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के ‘मानवीय चेहरे के साथ सुधार’ की नीति भी समाजवादी सोच वाली ही है. जिसे मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने और विस्तार ही दिया है, ताकि एक समानता वाला समाज विकसित किया जा सके. भारत की ये नीति पड़ोस के वामपंथी दलों को भी स्वीकार्य होनी चाहिए थी. लेकिन, ऐसा नहीं हुआ है. ऐसे में यही संकेत मिलता है कि भारत विरोध के इस माहौल में जो ऊपरी तौर पर दिख रहा है, उसके कारण वही नहीं हैं. इसके पीछे वजह कुछ और भी है.

आज़ादी के बाद भारत के लोकतंत्र ने ये सुनिश्चित किया है कि अगर देश में राजनीतिक नेतृत्व बदलता है, तो भी सत्ता के संस्थानों पर उसका उतना असर नहीं होता. ये बात विदेश नीति पर तो ख़ास तौर से लागू होती है.

असल में इन देशों में भारत विरोध की ये बयानबाज़ी घरेलू राजनीति और प्राथमिकताओं का नतीजा है. जहां पर ये भी हो सकता है कि ख़ुद भारत ने भी इन देशों में ऐसा संकेत दिया हो कि वो किसी ख़ास दल या नेता को तरज़ीह देते हैं. भारत के इन बातों को हल्के में लेने की एक वजह ये सोच भी हो सकती है कि आख़िरकार संबंध तो दो सरकारों के बीच होते हैं, जो किसी राजनीतिक दल या व्यक्ति से परे होते हैं. कुछ ख़ास लोगों की अहमियत रिश्तों को मज़बूत बनाने में होती ज़रूर है, मगर उसकी भी एक सीमा होती है. अगर दो पड़ोसी देशों के राष्ट्रीय नेताओं के बीच का ‘निजी तालमेल’ कारगर नहीं भी साबित होता है, तो भी सरकारें आपसी रिश्ते निभाना जारी रखती हैं.

इसकी एक बड़ी मिसाल श्रीलंका है, जहां पर मौजूदा प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे ने 2015 का राष्ट्रपति चुनाव हारने के बाद एक मीडिया इंटरव्यू में कहा था कि किस तरह एक भारतीय एजेंसी पश्चिमी देशों के साथ मिलकर उनके देश में ‘सत्ता परिवर्तन’ के लिए काम कर रही थी. ये आरोप तब लगे थे, तब प्रधानमंत्री का पद संभालने के कुछ दिनों बाद ही नरेंद्र मोदी ने, महिंदा राजपत्रे को खुलकर आने वाले चुनाव में जीत की शुभकामनाएं दी थीं. मोदी ने 2014 में काठमांडू में हुए सार्क सम्मेलन के दौरान मंच से खुलेआम राजपक्षे को शुभकामनाएं दी थीं. हालांकि, कुछ महीनों बाद राजपक्षे अपने बयान से पलट गए थे. आज उनके भाई गोटाबाया राजपक्षे, श्रीलंका के राष्ट्रपति हैं, और दोनों देशों के बीच रिश्ते इतने बेहतर हुए हैं, जैसे इक्कीसवीं सदी में इससे पहले कभी नहीं हुए थे. भारत और श्रीलंका के जितने मधुर संबंध आज हैं, वो शायद तब ही रहे होंगे जब अगस्त 1947 में भारत आज़ाद हुआ और उसके बाद फ़रवरी 1948 में श्रीलंका को स्वतंत्रता हासिल हुई थी.

समझ की समस्या

पड़ोसी देशों में भारत को लेकर ऐसी सोच की समस्या का एक कारण शायद भारत की तुलना में इन देशों में अलग सियासी माहौल होना है. आज़ादी के बाद भारत केf लोकतंत्र ने ये सुनिश्चित किया है कि अगर देश में राजनीतिक नेतृत्व बदलता है, तो भी सत्ता के संस्थानों पर उसका उतना असर नहीं होता. ये बात विदेश नीति पर तो ख़ास तौर से लागू होती है.

इन देशों की ख़ामी ही है कि वो इस एकरूपता का फ़ायदा नहीं उठा सके और उसकेदलदल में और फंस गए. श्रीलंका में जनता विमुक्ति पेरामुना का आतंकवाद इसी की एकमिसाल है.

यहां तक कि जब भारत में मज़बूत प्रधानमंत्री होते हैं, जैसे कि आज नरेंद्र मोदी हैं या फिर अपने ज़माने में इंदिरा गांधी थीं और राजीव गांधी जिनके पास सबसे ज़्यादा लोकसभा सांसद थे, तो भी भारत का ‘स्टील फ्रेम’ कही जाने वाली नौकरशाही पर बहुत ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ा था. नीतियों के निर्माण और उन्हें लागू करने के मामले में भारत की अफ़सरशाही ने अपनी पकड़ बनाए रखी है.

चूंकि नीतिगत मामले बड़े पेचीदा रहते हैं, ऐसे में तमाम राजनेताओं ने भी सरकार चलाने के अलिखित नियमों का पालन किया है. क्योंकि इन नियमों से छेड़खानी करने से जटिल हालात पैदा हो सकते हैं और अपने साथ साथ वो सियासी नेतृत्व को भी डुबो सकते हैं. भारत में राजनीतिक नेताओं ने भी ऊपर से थोप देने या सत्ता के तंत्र में वैसी एकरूपता लाने की कोशिश नहीं की है, जैसी स्थिति हम भारत के ज़्यादातर पड़ोसी देशों में देखते हैं. ये सभी देश एकरूपता वाले हैं. इसी वजह से इन देशों को एकरूपता वाला प्रशासन लागू करने से फ़ायदा भी हो सकता है.

ऐसे में ये इन देशों की ख़ामी ही है कि वो इस एकरूपता का फ़ायदा नहीं उठा सके और उसके दलदल में और फंस गए. श्रीलंका में जनता विमुक्ति पेरामुना का आतंकवाद इसी की एक मिसाल है. जेवीपी अपने आतंकवाद को सामाजिक आर्थिक असमानता के हवाले से जायज़ ठहराता है. जो कुछ तो साम्राज्यवादी शासकों से विरासत में मिला और कुछ जातीय संघर्ष, युद्ध, और हिंसा का नतीजा है. ऐसे में भारत को लेकर जेवीपी की सोच मुद्दों को अलग अलग नज़रिए से देखने से बनी है. गणराज्य बनने के बाद नेपाल अब तक उसी समस्या से जूझ रहा है और अब तक नेपाल भी अपनी भीतरी असमानतों से जुड़े तमाम मुद्दों का जवाब नहीं हासिल कर सका है. शुक्र है कि वक़्त वक़्त पर ये मुद्दे सियासी तौर पर उबाल मारते रहते हैं.

बांग्लादेश ने ख़ास तौर से पिछले एक दशक के दौरान तुलनात्मक रूप से राजनीतिक शांति और समृद्धि लंबे दौर को देखा है. हालांकि, मौजूदा प्रधानमंत्री 74 बरस की शेख़ हसीना के दौर की ये स्थिरता कितने लंबे समय तक टिकी रहेगी, ये फिलहाल नहीं कहा जा सकता है. शेख़ हसीना ने अपने सियासी विरोधियों को कुचल डाला है. हालांकि उन्होंने अपनी सियासी विरासत की योजना को सामने नहीं रखा है और बांग्लादेश के इतिहास को देखते हुए हमें इसे भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया ही मानना चाहिए.

इसके बावजूद, धार्मिक कट्टरपंथी और शेख़ हसीना के विरोधी मुख्यधारा के दल जैसे कि बांग्लादेश नेशनल पार्टी (BNP) ख़ुद को कट्टरपंथी जमात-ए-इस्लामी के साथ जोड़कर देखते हैं और उन्होंने अभी तक हार नहीं मानी है. दोनों ही ये सोचते हैं कि शेख़ हसीना को भारत का समर्थन हासिल है और इसीलिए वो भारत विरोधी राजनीति करते हैं. ये इस हक़ीक़त के बावजूद है कि 2012 में भारत ने बेग़म ख़ालिदा ज़िया की मेज़बानी उस वक़्त की थी, जब वो विपक्ष की नेता थीं. इसके कुछ महीनों बाद जब 2013 में भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी बांग्लादेश के दौरे पर गए थे, तो बेग़म ख़ालिदा ज़िया ने उनके साथ अपनी मुलाक़ात ये कहते हुए रद्द कर दी थी कि उस दिन उनकी अपनी पार्टी और उसके जमात सहयोगी ने शेख़ हसीना की सरकार के ख़िलाफ़ बंद बुलाया था, ताकि ‘बड़े पैमाने पर हो रही हत्याओं’ पर विरोध जता सकें. दिलचस्प ये है कि जब प्रणब मुखर्जी राष्ट्रपति थे, तो उन्होंने दिल्ली आने पर राष्ट्रपति भवन में बेग़म ख़ालिदा ज़िया की अगवानी की थी.

घरेलू राजनीति ही अहम है

इन सभी बातों का एक ही सार निकलता है और वो ये कि भारत के पड़ोसी देशों में अक्सर भारत विरोधी बयानबाज़ी की वजह वहां की घरेलू राजनीति होती है, जिसमें भारत के लिए कोई बड़ी भूमिका निभाने की गुंजाइश नहीं होती है. हालांकि, माना यही जाता है कि वहां की राजनीति में भारत का हाथ होता है. मिसाल के तौर पर, भारत ने मौजूदा राष्ट्रपति इब्राहिम सोलिह के राज में मालदीव के विकास में भारी पैमाने पर निवेश किया है. जबकि उनके पहले राष्ट्रपति रहे अब्दुल्ला यामीन की सरकार ने ख़ुद को भारत से दूर कर लिया था. इसकी तुलना में ऐसा लगता है कि श्रीलंका अब एक संतुलन बनाने की कोशिश कर रहा है. इसकी वजह न सिर्फ़ वहां पैदा हुआ भयंकर आर्थिक संकट है, बल्कि अब श्रीलंका को त्रिपक्षीय और बहुपक्षीय समीकरण बेहतर ढंग से समझ में आए हैं.

इनसभी बातों का एक ही सार निकलता है और वो ये कि भारत के पड़ोसी देशों में अक्सरभारत विरोधी बयानबाज़ी की वजह वहां की घरेलू राजनीति होती है, जिसमें भारत के लिएकोई बड़ी भूमिका निभाने की गुंजाइश नहीं होती है. हालांकि, माना यही जाता है किवहां की राजनीति में भारत का हाथ होता है

वहीं, राष्ट्रीय स्तर पर भारत की भूमिका को लेकर कोई बड़ी बहस या समझ न होने के कारण, मालदीव ऐसे हालात का सामना कर रहा है, जहां अब्दुल्ला यामीन की अगुवाई वाले PPM-PNC गठबंधन ने अपने सारे सियासी मोहरे इस आधार पर भारत विरोध में लगा दिए हैं कि मौजूदा सत्ताधारी MDP को भारत का समर्थन हासिल है. यही बात श्रीलंका के विपक्षी दल SJB के बारे में भी कही जा सकती है. क्योंकि राजपक्षे विरोध की उनकी राजनीति भारत विरोधी बयानबाज़ी में तब्दील हो चुकी है.

जहां तक मालदीव की बात है तो वहां राजाओं और फिर सुल्तानों के हज़ार साल से ज़्यादा वक़्त तक चले राज ने भी बड़ी भूमिका निभाई है. मालदीव में स्थापित लोकतांत्रिक नियम और सिद्धांत न होने के कारण ऐसा लगता है कि वहां की राजनीति व्यक्ति आधारित है और इसका असर वहां के संस्थानों पर भी पड़ता है. यही कारण है कि सत्ता में कोई भी दल या नेता हो, मालदीव का सियासी माहौल कम-ओ-बेश ऐसा ही बना रहता है.

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