Published on May 22, 2023 Updated 0 Hours ago
री-जेनेरेटिव कृषि: मिट्टी का स्वास्थ्य बेहतर करने का उपाय!

 

भूमि का क्षरण

भारत का कृषि क्षेत्र तेज़ी से संकट की ओर बढ़ रहा है. देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र (328.7 मिलियन हेक्टेयर) का 29 प्रतिशत (96.4 मिलियन हेक्टेयर) से अधिक कृषि क्षेत्र तीव्रता के साथ संकट की ओर बढ़ रहा है, जो कि भारत के सबसे बड़े राज्य राजस्थान के आकार का लगभग ढाई गुना है. यह नंबर वर्ष 2030 तक देश को भूमि-निम्नीकरण-तटस्थ (Land-Degradation-Neutral) बनाने के लक्ष्य को हासिल करने के रास्ते में भारत द्वारा सामना की जाने वाली मुश्किल चुनौती को उजागर करता है. ज़ाहिर है कि सितंबर 2019 में यूएन कन्वेंशन टू कॉम्बैट डेजर्टिफिकेशन के दौरान प्रधानमंत्री द्वारा इसकी घोषणा की गई थी. उल्लेखनीय है कि एक इंच की टॉपसॉइल यानी मिट्टी की ऊपरी परत बनने में 500 से 1,000 साल लग सकते हैं. टॉपसॉइल मिट्टी की वो ऊपरी परत होती है, जिसमें सबसे अधिक कार्बनिक पदार्थ और सूक्ष्मजीव (Microorganisms) मौज़ूद होते हैं. मिट्टी का क्षरण हमेशा प्राकृतिक रूप से होता रहा है, लेकिन आज के समय कृषि के कारण कटाव से मिट्टी की ऊपरी परत का होने वाला नुक़सान मिट्टी के निर्माण की तुलना में अधिक होने लगा है.

जैसा कि भारत पानी के गंभीर संकट का सामना कर रहा है, ऐसे में मिट्टी के क्षरण का मामला और बदतर होता जा रहा है. देश के लगभग 17 राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों को 'अति-शोषित' के रूप में चिन्हित किया गया है, जहां वार्षिक भू-जल का दोहन सालाना स्तर पर निकाले जाने योग्य भू-जल संसाधन से अधिक है. फाल्कनमार्क के वाटर स्ट्रेस इंडेक्स के मुताबिक़ लगभग 76 प्रतिशत भारतीय पानी की कमी का सामना करते हैं. पानी की कमी में कृषि का योगदान सबसे अधिक है और यहां तक कि हमारे ताज़े पानी का 91 प्रतिशत एग्रीकल्चर सेक्टर में इस्तेमाल किया जाता है.

इकोलॉजिकल पॉवर्टी और मिट्टी के ऑर्गेनिक कार्बन की क्षति

अब तक, इनकम पॉवर्टी को कम करने को लेकर जो भी उपलब्धियां हासिल की गई हैं, वो बढ़ती इकोलॉजिकल पॉवर्टी की वजह से नष्ट हो सकती हैं. इकोलॉजिकल पॉवर्टी यानी "पारिस्थितिक रूप से समृद्ध और स्वस्थ प्राकृतिक संसाधन बेस की कमी है, जो कि मानव समाज के अस्तित्व और विकास के लिए बेहद ज़रूरी है". भारत के कुल किसानों में सीमांत किसानों या छोटे किसानों की संख्या 86 प्रतिशत है, जिनके पास 1.08 हेक्टेयर औसतन भूमि मौज़ूद है. ये सीमांत किसान पारिस्थितिक ग़रीबी के लिहाज़ से सबसे अधिक कमज़ोर हैं. पिछले दो दशकों में भारत के कृषि सेक्टर को नकारात्मक कुल राजस्व का सामना करना पड़ा है. छोटी जोत वाले खेत और कम आय होने की वजह से छोटे किसान जलवायु परिवर्तन का मुक़ाबला करने के लिए प्रासंगिक तकनीक़ों को लागू करने में सक्षम नहीं होते हैं, इसके बजाए, वे उपज बढ़ाने के लिए वनों की कटाई, अत्यधिक चराई, खेतों की अंधाधुंध जुताई, मोनोकल्चर फसल और खेती के लिए रासायनिक उर्वरकों और बायोसाइड्स पर भारी निर्भरता जैसी गैर-टिकाऊ प्रथाओं को अपनाने के लिए मज़बूर हैं. ये सभी प्रथाएं उन सूक्ष्मजीवों को नुकसान पहुंचाने का काम करती हैं, जो मिट्टी को उपजाऊ और कार्बन समृद्ध बनाते हैं. इंटरगवर्नमेंट पैनल ऑन क्लाईमेट चेंज जैसे वैज्ञानिक संगठन ऐसी प्रथाओं को लेकर चिंतित हैं क्योंकि ये प्रथाएं ग्रीनहाउस गैसों (GHG) के उत्सर्जन को बढ़ाती हैं. वैश्विक स्तर पर कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कृषि का योगदान पहले से ही 25 से 30 प्रतिशत है.

री-जेनेरेटिव कृषि: एक सशक्त उपाय

मिट्टी वैज्ञानिकों के बीच इस बात को लेकर एक राय क़ायम हो रही है कि पुनर्योजी कृषि ही वो माध्यम है, जिसमें बिगड़ी हुई परिस्थितियों में मिट्टी का स्वास्थ्य और उत्पादकता को सुधारने एवं छोटे किसानों को वित्तीय लाभ प्रदान करने की अपार क्षमता है. इतना ही नहीं पुनर्योजी कृषि मिट्टी के स्वास्थ्य और पोषक तत्वों को धारण करने की क्षमता को बढ़ाकर पानी के उपयोग और दक्षता में भी बढ़ोतरी करती है. अध्ययनों के मुताबिक़ प्रति 0.4 हेक्टेयर (हेक्टेयर) मिट्टी के कार्बनिक पदार्थ में 1 प्रतिशत की वृद्धि जल भंडारण क्षमता को 75,000 लीटर से ज़्यादा बढ़ा देती है. अब इसको लेकर वैश्विक स्तर पर लंबे समय तक खेतों पर किए गए प्रयोगों से सबूत भी उपलब्ध हैं, जो यह सिद्ध करते हैं कि पुनर्योजी कृषि पद्धतियां मिट्टी के जैविक कार्बन भंडार को उल्लेखनीय ढंग से बढ़ा सकती हैं. अपनी जलवायु प्रतिबद्धता के हिस्से के रूप में भारत सरकार ने सतत कृषि के लिए नेशनल मिशन फॉर सस्टेनेबल एग्रीकल्चर के माध्यम से विभिन्न पुनर्योजी कृषि सिद्धांतों को बढ़ावा देना शुरू कर दिया है.

री-जेनेरेटिव कृषि की परिभाषा

री-जेनेरेटिव कृषि को आमतौर पर "मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने और सुधारने वाले खेती के एक तरीक़े, वायुमंडलीय कार्बन डाई ऑक्साइड को अलग करने और संग्रहित करने, खेती की विविधता बढ़ाने एवं पानी और ऊर्जा प्रबंधन में सुधार करने" के एक के रूप में परिभाषित किया जाता है. ऑडिट एजेंसियों से थर्ड पार्टी सर्टिफिकेशन की पेशकश करने वाली विभिन्न स्वैच्छिक योजनाओं के साथ पुनर्योजी कृषि का तरीक़ा तेज़ी के साथ मानकीकृत हो रहा है. भारत में मुख्य ऑपरेशनल मानक रेजेनएग्री और री-जेनेरेटिव ऑर्गेनिक सर्टिफाइड® हैं. रेजेनएग्री को दुनिया के सबसे पुराने सस्टेनेबिलिटी ऑर्गेनाइजेशन सॉलिडैरिडैड और वैश्विक प्रमाणन संगठन- कंट्रोल यूनियन द्वारा संयुक्त रूप से विकसित किया गया है. रेजेनएग्री ने अब तक 1.25 मिलियन एकड़ भूमि को पुनर्योजी कृषि की प्रथाओं के अंतर्गत लाने का काम किया है. कई फूड बिजनेस कंपनियां, जैसे कि यूनिलीवर, नेस्ले आदि भी व्यवसाय विशेष पुनर्योजी कृषि मानकों का विकास करने में जुटी हुई हैं.

पुनर्योजी (री-जेनेरेटिव) कृषि के माध्यम से मिट्टी कार्बन क्रेडिट पर बहस

मिट्टी में कार्बन को संग्रहित करने के लिए पुनर्योजी कृषि की क्षमता के मुद्दे पर बहुत चर्चा-परिचर्चा हुई है. कुछ स्टडी सॉइल ऑर्गेनिक कार्बन (SOC) के टिकाऊपन पर संदेह जताती हैं और सैटेलाइट-बेस्ड मापन तकनीक़ों को चुनौती देती हैं. कुछ सुझावों के अनुसार एग्रोफोरेस्ट्री के माध्यम से कार्बन को अलग करना SOC की तुलना में ज़्यादा सरल तरीक़ा है. लेकिन इस तरह के आलोचकों को कई साइंटिफिक पेपर्स पर ध्यान देने की ज़रूरत है, जो वैश्विक स्तर पर क्रॉपलैंड सीक्वेस्ट्रेशन (Cropland sequestration) के लिए प्रति वर्ष 1.5 गीगाटन कार्बन (GtCO2) की अनुमानित क्षमता स्थापित करते हैं, या 35 से 40 वर्षों की मध्य-श्रेणी की संतृप्ति अवधि में लगभग 55 GtCO2 की अनुमानित क्षमता स्थापित करते हैं. कार्बन को हटाने की संभावना तब और बढ़ जाती है, जब इस आकलन में म्युनिसिपल खाद्य अपशिष्ट, ट्री क्रॉपिंग, झाड़ियों और अन्य क्रॉपलैंड बफर्स एवं चरागाह को बहाल करने या बायोचार जैसी प्रथाओं को शामिल किया जाता है. इसलिए, सदी के अंत तक 100-200 GtCO2 को हटाने की क्षमता, जो उत्सर्जन के वर्तमान स्तर से कई गुना अधिक है, के साथ री-जेनेरेटिव कृषि जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से निपटने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है.

पुनर्योजी खेती से भारत के छोटे व सीमांत किसानों को कैसे मिलता है लाभ?

पुनर्योजी कृषि पद्धतियों का उपयोग करके कार्बन सीक्वेस्ट्रेशन यानी वायुमंडलीय कार्बन डाईऑक्साइड के एकत्रीकरण को चुनने वाले भारत के छोटे किसानों के लिए चार तरह के मूलभूत लाभ हैं. सबसे पहला लाभ है कि SOC कम पानी का उपयोग करके खराब हुई मिट्टी को स्वस्थ करने में मदद करता है और उर्वरकों एवं रसायनों के कम उपयोग के चलते लागत को कम करते हुए किसानों की कृषि उत्पादकता में सुधार करता है. दूसरा लाभ है कि जब मिट्टी स्वस्थ होती है, तो वो खेतों को सूखे और भारी वर्षा के प्रति अधिक लचीला बनाती है. तीसरा लाभ है कि यह पूरी प्रक्रिया तेज़ी के साथ बढ़ते स्वैच्छिक कार्बन क्रेडिट बाज़ारों से अतिरिक्त आय उत्पन्न कर सकती है. कार्बन क्रेडिट 1 टन कार्बन के बराबर एक सर्टिफिकेट है, जो प्रति सर्टिफिकेट 1 टन ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन की अनुमति देता है.

सॉलिडैरिडैड द्वारा किए गए फील्ड के विश्लेषण के मुताबिक़ भारत में एक छोटा किसान 1 हेक्टेयर ज़मीन पर पुनर्योजी खेती करके संभावित तौर पर 1 tCO2 (1 टन कार्बन) से 4 tCO2 को कम कर सकता है. आज प्रति टन कार्बन की कीमत 1500 रुपये से 2,500 रुपये (15-20 यूरो) है, ज़ाहिर है कि यह किसानों के लिए कमाई का एक अहम स्रोत हो सकता है. चौथा, कई FMCG कंपनियां उपज की आपूर्ति करने वालों से पुनर्योजी कृषि का उपयोग करके कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लक्ष्यों को अपनाने के लिए कह रही हैं और ऐसे नए आपूर्तिकर्ताओं के साथ साझेदारी को प्राथमिकता दे रही हैं, जो री-जेनेरेटिव एग्रीकल्चर की प्रथाओं को पहले से ही अमल में ला रहे हैं. उल्लेखनीय है कि छोटे किसान जिन्हें परंपरागत रूप से उच्च-मूल्य आपूर्ति श्रृंखलाओं से बाहर रखा गया है, वे री-जेनेरेटिव फार्मर यानी पुनर्योजी किसान बनकर समावेशी रूप से प्रगति करने में सक्षम होंगे.

महाराष्ट्र के विदर्भ में कपास का उत्पादन करने वाले 13,000 से अधिक छोटे किसानों का समर्थन करने वाले सॉलिडैरिडैड एशिया के रीजेनएग्री प्रमाणीकरण के साथ ज़मीनी स्तर पर अनुभव ने इस मिथक को दूर कर दिया है कि पुनर्योजी कृषि उपज को कम करती है. वर्ष 2020-22 में इस प्रोजेक्ट ने उपज में 20 से 30 प्रतिशत की वृद्धि और इनपुट लागत में 30 प्रतिशत की कमी के साथ ही मार्केट से 3 प्रतिशत प्राइस प्रीमियम हासिल किया था. इसी तरह के नतीज़े मलेशिया, इंडोनेशिया और भारत में पॉम ऑयल के छोटे किसानों के साथ किए गए पायलट प्रोजेक्ट में देखने को मिले. इतना ही नहीं भारत में शुगर, सोया और कॉफी के छोटे किसानों एवं बांग्लादेश में आम उत्पादक किसानों के मामले में भी इसी प्रकार के परिणाम सामने आए हैं.

पुनर्योजी कृषि और संभावित समाधानों के समक्ष आने वाली चार बाधाएं

वर्तमान में देखा जाए तो पुनर्योजी कृषि में इतनी दिलचस्पी इस वजह से हैं क्यों कि यूरोपियन यूनियन में कार्बन की क़ीमतें बहुत अधिक हैं. ईयू में कार्बन प्राइज इस वर्ष की शुरुआत में 100 यूरो (106.57 अमेरिकी डॉलर) प्रति टन तक पहुंच गए थे. जितने अधिक कार्बन उत्सर्जकों को उनके द्वारा उत्पादित कार्बन डाइऑक्साइड के प्रत्येक टन को कवर करने के लिए, यूरोपीय संघ के कार्बन परमिट्स के लिए जो भुगतान करना पड़ता है, वह री-जेनेरेटिव खेती जैसी निम्न-कार्बन वाली कृषि विधियों में निवेश करने के लिए प्रोत्साहन देने जितना ही अधिक होगा. "वर्ष 2030 तक भारत में स्वैच्छिक कार्बन क्रेडिट की वार्षिक मांग 500+ मिलियन tCO2 तक पहुंचने की संभावना है".

हालांकि, कुछ संभावित चुनौतियां हैं, जो इस सकारात्मक गतिविधि को पटरी से उतार सकती हैं. सबसे पहले, यह पहचानना बेहद ज़रूरी है कि किसान कार्बन के उत्पादक और स्वामी हैं. SOC में ट्रेडिंग के लिए उचित और निष्पक्ष व्यापार के सिद्धांतों का उपयोग करते हुए एक तंत्र होना चाहिए. यानी एक ऐसा तंत्र, जो एक न्यूनतम मूल्य की गणना करता है, जो कि यह सुनिश्चित करता है कि परियोजनाओं की औसत लागत को कवर किया जाएगा. साथ ही एक अतिरिक्त "फेयरट्रेड प्रीमियम" सीधे स्थानीय समुदाय को उन गतिविधियों हेतु धन उपलब्ध कराने के लिए जाता है, जो पुनर्योजी कृषि के माध्यम से उन्हें अधिक लचीला बनने में सहायता करते हैं.

दूसरी चुनौती है कि अगस्त 2022 में भारत ने कार्बन क्रेडिट्स के निर्यात पर पाबंदी लगाने के लिए अपनी कार्बन क्रेडिट नीतियों में संधोशन किया है. नई पॉलिसी के मुताबिक़ “कार्बन क्रेडिट्स का निर्यात नहीं किया जा रहा है. ये क्रेडिट्स घरेलू कंपनियों द्वारा सृजित करने होंगे, जिन्हें घरेलू कंपनियों को ख़रीदना होगा.” ज़ाहिर है कि ऐसी नीति छोटे किसानों के लिए विकल्पों को सीमित कर देगी. देखा जाए तो उपभोक्ता क़ीमतों को स्थिर रखने के लिए इन किसानों ने दशकों तक अपनी उपज की कम क़ीमत ली है, क्योंकि उन्हें अधिक क़ीमतों पर खाद्यान्न को निर्यात करने की अनुमति नहीं थी. यदि हम छोटे किसानों के उनकी भूमि पर कार्बन का भंडारण करने से रोकते हैं और कार्बन के कम से कम हिस्से को कार्बन क्रेडिट्स के रूप में उच्च क़ीमतों पर निर्यात करते हैं, तो वे फिर से हार जाएंगे, यानी नुक़सान उठाने पर मज़बूर होंगे.

तीसरा, सरकार परंपरागत कृषि विकास योजना जैसी योजनाओं को पुनर्योजी खेती करने वाले किसानों तक विस्तारित करने पर विचार कर सकती है. इसके अलावा पुनर्योजी कृषि और कार्बन सत्यापन के लिए प्रमाणन लागत बहुत उतार-चढ़ाव वाली है. ऐसे में छोटे किसानों के लिए सब्सिडी को क्वालिटी काउंसिल ऑफ इंडिया के साथ पंजीकृत प्रमाणन निकायों तक बढ़ाया जा सकता है. उल्लेखनीय है कि क्वालिटी काउंसिल ऑफ इंडिया भारत में सर्टिफिकेशन के लिए राष्ट्रीय मान्यता निकाय है.

चौथा, विभिन्न प्रकार के पुनर्योजी मानकों का बेतरतीब तरीक़े से सामने आना पुनर्योजी कृषि आंदोलन की विश्वसनीयता को पटरी से उतार सकता है और छोटे सीमांत किसानों पर असर डाल सकता है. ऐसे में किसानों के साथ-साथ जलवायु पर सकारात्मक प्रभाव को ध्यान में रखने के साथ ही पुनर्योजी कृषि मानकों, उसके प्रमाणन प्रोटोकॉल्स, प्रणालियों और उपकरणों के लिए सामान्य मूल्यों वाली एक व्यवस्था को तत्काल प्रभाव से विकसित किए जाने की ज़रूरत है.

निष्कर्ष

जलवायु परिवर्तन में कमी लाना, खाद्य सुरक्षा, जलवायु लचीलापन, जैव विविधता और मिट्टी स्वास्थ्य, ये सभी मुद्दे पारस्परिक तौर पर जुड़े हुए हैं और इन सभी को पुनर्योजी कृषि के माध्यम से सामूहिक रूप से संबोधित किया जा सकता है. कोविड महामारी से प्रभावित इस दशक में भारतीय कृषि हितधारकों को और कृषि को उस तरह से नया स्वरूप देना चाहिए जैसा कि 1960 के दशक में किया गया था, जिसने हरित क्रांति का आगाज़ किया था. हमारे पास अपनी मिट्टी को पुनर्जीवित करने और जल संसाधनों की कमी से बचने के लिए ज़्यादा वक़्त नहीं बचा है. दूसरी तरफ, पुनर्योजी कृषि लोगों के लिए, धरती के लिए और किसानों के फायदे के लिए हर लिहाज़ से बहुत अच्छी है.

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शताद्रु चट्टोपाध्याय सॉलिडैरिडैड एशिया के प्रबंध निदेशक हैं.

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Endnotes-


[i] Renee Cho, “Why Soil Matters”, State of the Planet Journal, Columbia University, April, 2012

[ii] Kayatz, B., Harris, F., Hillier, J., Adhya, T., Dalin, C., Nayak, D., et al. (2019). “More crop per drop”: exploring India's cereal water use since 2005. Sci. Total Environ. 673, 207–217. doi: 10.1016/j.scitotenv.2019.03.304

[iii] Anamika Yadav, Down to Earth, December 2022

[iv] Poeplau, C. & Don, A. (2015). Carbon sequestration in agricultural soils via cultivation of cover crops–A meta- analysis. Agriculture, Ecosystems & Environment 200:33- 41

[v] Roe, S. et al. (2019). Contribution of the land sector to a 1.5 °C world. Nature Climate Change. 9, pp. 817–828

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