नेट-ज़ीरो (शून्य उत्सर्जन) अर्थव्यवस्था की तरफ बदलाव में वन एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. ज़रूरी कार्बन सिंक (कार्बन को सोखने वाले) के रूप में वन वैश्विक तापमान को 1.5°C की सीमा के भीतर बरकरार रखने और आधी शताब्दी तक नेट-ज़ीरो उत्सर्जन के लक्ष्य को हासिल करने में अनिवार्य हैं. भारत के संदर्भ में समानता पर आधारित बदलाव को बढ़ावा देने में वनों की भूमिका को व्यापक तौर पर स्वीकार किया गया है. सरकार ने पेड़ों और वन के क्षेत्र के विस्तार के माध्यम से 2.5 से 3 अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) के बराबर कार्बन पृथक्करण (कार्बन सिक्वेशट्रेशन) बढ़ाने की महत्वाकांक्षी प्रतिबद्धता जताई है. लेकिन इस वादे की सफलता बहुत हद तक वन विनियमन (फॉरेस्ट रेगुलेशन) के प्रभाव पर निर्भर करती है.
भारत में वन संरक्षण को नियंत्रित करने वाली कानूनी रूप-रेखा कई जटिलताओं के माध्यम से विकसित हुई है जो नीतिगत सुधारों, कानूनी संशोधन और महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णयों की वजह से है. वन संरक्षण अधिनियम में पिछले दिनों के संशोधन विशेष रूप से विवादित हैं जो भारत के न्यायसंगत परिवर्तन की यात्रा को मुश्किल बनाते हैं.
ये लेख भारत में वन संरक्षण की जटिलताओं की खोज-बीन करता है और इस तरह कानूनी लक्ष्यों और न्यायिक निगरानी के बीच नाज़ुक परस्पर क्रिया को उजागर करता है.
ये लेख भारत में वन संरक्षण की जटिलताओं की खोज-बीन करता है और इस तरह कानूनी लक्ष्यों और न्यायिक निगरानी के बीच नाज़ुक परस्पर क्रिया को उजागर करता है. हाल के कानूनी संशोधनों और ऐतिहासिक न्यायिक फैसलों का विश्लेषण करते हुए ये लेख वनों के प्रशासन (फॉरेस्ट गवर्नेंस) में मुश्किलों और अवसरों को साफ करता है. इसका लक्ष्य एक न्यायसंगत परिवर्तन में योगदान करना है जो वनों में रहने वाले समुदायों के अधिकारों और आजीविका को बरकरार रखते हुए पारिस्थितिक अखंडता (इकोलॉजिकल इंटीग्रिटी) को सुनिश्चित करता है.
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वन (संरक्षण) संशोधन अधिनियम, 2023: इरादे और गैर-इरादतन नतीजे
वन (संरक्षण) संशोधन अधिनियम, 2023 का उद्देश्य संरक्षण के प्रयासों को बढ़ाना, 2070 तक भारत के नेट-ज़ीरो उत्सर्जन के लक्ष्य को प्राप्त करने में वनों की महत्वपूर्ण भूमिका को स्वीकार करना और सतत विकास को बढ़ावा देना है. हालांकि आलोचनात्मक पड़ताल इसके दृष्टिकोण में महत्वपूर्ण कमियों को उजागर करती है, विशेष रूप से भारत के जलवायु तटस्थता उद्देश्यों के संबंध में. 2023 के अधिनियम का कथित उद्देश्य “वन” भूमि की परिभाषा में “स्पष्टता” लाना है जो संयुक्त संसदीय समिति की रिपोर्ट में बताई गई है. लेकिन लगता है कि स्पष्टता की आड़ में संरक्षण के प्रयासों को कमज़ोर किया गया है.
2023 का संशोधन 1980 के वन (संशोधन) अधिनियम के तहत संरक्षित वन भूमि के दायरे को काफी सीमित करता है और गैर-वानिकी (नॉन-फॉरेस्ट्री) गतिविधियों की गुंजाइश पैदा करता है. संशोधन में वन भूमि की परिभाषा इस तरह से बताई गई है “(i) भारतीय वन अधिनियम, 1927 या अन्य किसी कानून के तहत वन के रूप में घोषित/अधिसूचित भूमि” या “(ii) पहली श्रेणी में नहीं आने वाली लेकिन सरकारी दस्तावेज़ों में 25 अक्टूबर 1980 को या उसके बाद वन के रूप में अधिसूचित भूमि”.
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कानूनी और न्यायिक समीकरण: सीमित परिभाषाएं और व्यापक परिणाम
“वन” शब्द की अदूरदर्शी व्याख्या दो कारणों से चिंता पैदा करती है:
पहला, इसमें बिना रिकॉर्ड वाले या अवर्गीकृत वन के एक बड़े क्षेत्र को संरक्षण और रेगुलेशन के दायरे से बाहर रखा गया है. वन भूमि की सीमित परिभाषा ऐतिहासिक रिकॉर्ड और विशेष मानदंड पर निर्भर करती है. इसकी वजह से बिना रिकॉर्ड वाले और सामुदायिक वनों का एक विस्तृत क्षेत्र संरक्षण से बाहर रह जाता है जो 2023 के अधिनियम के संरक्षण उद्देश्यों के विपरीत है. ये चिंताजनक है क्योंकि इससे और अधिक वन क्षेत्रों की संभावित बर्बादी का रास्ता खुलता है. 3,00,000 हेक्टेयर वन भूमि का इस्तेमाल वन से अलग उद्देश्यों जैसे कि खनन और इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए और लगभग 7,50,000 वर्ग किलोमीटर जंगल के 2030 तक जलवायु के हिसाब से संवेदनशील बनने के अनुमान को देखते हुए तेज़ गति से वन क्षेत्र खोने का जोखिम है.
ऊर्जा उत्पादन की वजह से वन भूमि के एक बड़े हिस्से- कुल वन क्षेत्र का लगभग 20-25 प्रतिशत- का उपयोग बदल जाता है. इसमें अकेले कोयला खनन का लगभग आधा योगदान है.
इसके अलावा 2023 का अधिनियम जलवायु परिवर्तन से जुड़ी पहल में रुकावट डालता है. ऊर्जा उत्पादन के लिए भारत कोयले पर लगातार निर्भर है जो कि जंगल की ज़मीन के उपयोग को बदलने का एक महत्वपूर्ण कारण है, विशेष रूप से ओपनकास्ट कोयला खनन के लिए. ऊर्जा उत्पादन की वजह से वन भूमि के एक बड़े हिस्से- कुल वन क्षेत्र का लगभग 20-25 प्रतिशत- का उपयोग बदल जाता है. इसमें अकेले कोयला खनन का लगभग आधा योगदान है. 2023 के संशोधन ने अनजाने में जंगल और पेड़ से भरे क्षेत्र में पर्यावरण को स्थायी नुकसान का ख़तरा बढ़ा दिया है.
दूसरा, प्रस्तावित व्याख्या न्यायिक उदाहरणों की अवहेलना करती है जिसके मुताबिक वनों की एक “व्यापक और सम्मिलित” परिभाषा अनिवार्य बनाई गई है. हालांकि पिछले दिनों अपने एक आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने इसमें ये कहते हुए फेरबदल किया कि “वन” शब्द को डिक्शनरी की परिभाषा के अनुसार अपना व्यापक, सम्मिलित और सर्व समावेशी अर्थ बनाए रखना चाहिए. इस फैसले से लगभग 1.97 लाख वर्ग किलोमीटर अघोषित वन भूमि कानून के दायरे में आ गई है. ये न्यायिक हस्तक्षेप संरक्षण के प्रयासों को कमज़ोर करने की विधायी (लेजिस्लेटिव) कोशिशों के ख़िलाफ एक कड़े रुख के बारे में बताता है.
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छूट, शासन व्यवस्था और सामुदायिक अधिकार: आगे की चुनौतियां
संशोधन अधिनियम वन भूमि के दूसरे इस्तेमाल के लिए विशेष छूट प्रदान करता है. इनमें सरकारी रेल लाइन या सार्वजनिक सड़क के नज़दीक, राष्ट्रीय सुरक्षा परियोजनाओं के लिए अंतर्राष्ट्रीय सीमा या नियंत्रण रेखा (LoC) या वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) जैसे सामरिक क्षेत्रों के 100 किलोमीटर के भीतर और सुरक्षा के बुनियादी ढांचे के लिए निर्धारित 10 हेक्टेयर तक के क्षेत्र शामिल हैं. छूट के ये प्रावधान वन भूमि के उपयोग पर किसी तरह की पाबंदी के बिना कुछ विशेष विकास के काम की अनुमति देते हैं.
2023 के संशोधन अधिनियम में ये छूट वन से अलग उद्देश्यों के लिए वन भूमि के उपयोग की वैज्ञानिक समीक्षा को खोखला करती हैं. वन संरक्षण नियम 2003 के अनुसार उपयोगकर्ता एजेंसियों को एक विस्तृत लागत-लाभ का विश्लेषण (कॉस्ट-बेनिफिट एनेलिसिस), रोज़गार सृजन और विस्थापित परिवारों, विशेष रूप से अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST), पर असर का पता लगाना ज़रूरी है. इसके अलावा ये नियम पर्यावरण संरक्षण अधिनियम (EPA) के तहत पर्यावरण से जुड़ी अनुमति लेना आवश्यक बनाते हैं जिसके तहत एक व्यापक पर्यावरण पर प्रभाव का आकलन (EIA) शामिल है. ये छूटें इस तरह की अनुमति की ज़रूरत को ख़त्म करती हैं और इस तरह पर्यावरण के संरक्षण को कमज़ोर बनाती हैं.
न्यायसंगत परिवर्तन की राजनीति में हितधारकों को शामिल करना उचित परिवर्तन की रणनीतियों को लागू करने और सभी स्तरों पर संप्रभुता, लोकतंत्र और संघवाद के बुनियादी सिद्धांतों के पालन को आवश्यक बनाने के लिए महत्वपूर्ण है.
संशोधन में राज्य सरकारों के निर्णय लेने के अधिकारों में कटौती करने, सामुदायिक भूमि पर अधिकार को कमज़ोर करने और ग्राम परिषदों को चुप कराने का भी ख़तरा है. न्यायसंगत परिवर्तन की राजनीति में हितधारकों को शामिल करना उचित परिवर्तन की रणनीतियों को लागू करने और सभी स्तरों पर संप्रभुता, लोकतंत्र और संघवाद के बुनियादी सिद्धांतों के पालन को आवश्यक बनाने के लिए महत्वपूर्ण है. लेकिन संशोधन ने राज्य सरकारों की वन प्रबंधन स्वायत्तता में अतिक्रमण करके इन सिद्धांतों के साथ समझौता किया है. ये पूर्वोत्तर के राज्यों के लिए विशेष रूप से परेशान करने वाला है जो अपने व्यापक वन क्षेत्र के लिए जाने जाते हैं और जो अंतर्राष्ट्रीय सीमा साझा करते हैं जहां व्यावसायिक वृक्षारोपण (कॉमर्शियल प्लांटेशन) जंगल की जगह ले सकते हैं. इस तरह ये संविधान निर्माताओं के द्वारा जिस शासन व्यवस्था की संरचना के बारे में सोचा गया था, उसे ख़तरे में डालता है. ये चिंता इस तथ्य से और बढ़ जाती है कि पूर्वोत्तर के राज्य हाल की समीक्षाओं में पहले ही जंगल के क्षेत्र में काफी नुकसान का अनुभव कर चुके हैं. ये क्षेत्रीय पर्यावरण से जुड़ी अखंडता और शासन व्यवस्था पर इन संशोधनों के संभावित प्रभावों को उजागर करता है.
न्यायसंगत परिवर्तन की धारणा सभी आवश्यक हितधारकों की सक्रिय भागीदारी की मांग करती है. 2017 के संशोधन नियमों ने परियोजनाओं के लिए ग्राम सभाओं की मंज़ूरी को ज़रूरी बनाया था ताकि लोगों की भागीदारी को सुनिश्चित किया जा सके. लेकिन हाल के फेरबदल में इस प्रावधान को ख़त्म कर दिया गया है और इस तरह स्थानीय शासन निकायों को चुप करा दिया गया है और लोगों की भागीदारी को कमज़ोर किया गया है. संशोधित वन संरक्षण अधिनियम अब गैर-वर्गीकृत वन भूमि के लिए सीमित संरक्षण प्रदान करता है और इस तरह जंगल की ज़मीन पर निर्भर लोगों की आजीविका को ख़तरे में डालता है. सुरक्षित भूमि अधिकारों के बिना आदिवासी और जंगल में रहने वाले समुदाय विस्थापन, ज़मीन से जुड़े संघर्षों और आजीविका के नुकसान के मामले में अधिक कमज़ोर स्थिति में हैं. इस तरह का परिदृश्य न्यायसंगत परिवर्तन के सिद्धांतों के ख़िलाफ़ है जो मौजूदा क़ानूनी और नीतिगत रूप-रेखा के भीतर जमी हुई असमानता का समाधान करना चाहते हैं.
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न्यायसंगत परिवर्तन के लिए आगे बढ़ना
न्यायसंगत परिवर्तन की खोज के लिए आर्थिक ज़रूरत के साथ पारिस्थितिक (इकोलॉजिकल) संरक्षण को संतुलित करना आवश्यक है. इस संतुलन को हासिल करने के लिए भारत की वन संरक्षण रणनीतियों का फिर से संपूर्ण मूल्यांकन ज़रूरी है जो पर्यावरण से जुड़ी स्थिरता की तरफ न्यायपूर्ण और समावेशी दृष्टिकोण की ज़रूरत पर ज़ोर देता है. इसका एक अभिन्न पहलू न केवल संरक्षण के प्रयासों के तकनीकी और आर्थिक आयामों को बल्कि उनके सामाजिक-आर्थिक परिणामों और वितरणात्मक (डिस्ट्रीब्यूशनल) प्रभावों को भी आंकना है. लेकिन हाल के विधायी संशोधन 2030 तक 2.6 करोड़ हेक्टेयर परती भूमि को ठीक करने के भारत के महत्वाकांक्षी लक्ष्य को पूरा करने में चुनौती का संकेत देते हैं.
समुदाय आधारित पहल जैसे कि सामुदायिक वानिकी (कम्यूनिटी फॉरेस्ट्री) और साझा वन प्रबंधन (ज्वाइंट फॉरेस्ट मैनेजमेंट) वनवासी समुदायों और संरक्षण के प्रयासों के बीच साझेदारी को बढ़ावा देने के लिए महत्वपूर्ण हैं. भारत, जहां बड़ी संख्या में लोग वन क्षेत्र में रहते हैं, में वन संरक्षण की एक ऐसे संबंध के रूप में नए सिरे से संकल्पना आवश्यक है जो पर्यावरण और वनों में रहने वाले लोगों- दोनों के अधिकारों का सम्मान करता है. सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों समेत न्यायिक हस्तक्षेपों के बावजूद कानून से जुड़ी खामियों का समाधान करने में इन उपायों के असर को लेकर अभी भी चिंताए हैं.
एक प्रमुख मुद्दा वन भूमि पर अतिक्रमण का है जहां संरक्षण की प्राथमिकताएं अक्सर जंगल पर निर्भर समुदायों के सामाजिक-आर्थिक अधिकारों पर हावी हो जाती हैं. सर्वोच्च न्यायालय की तरफ से बेदखल करने का निर्देश, जो अपनी आजीविका के लिए जंगल पर निर्भर लाखों स्थानीय लोगों पर असर डालता है, इस भेदभाव को उजागर करता है. वैसे तो इसका मक़सद वन्य जीवन (वाइल्ड लाइफ) का संरक्षण है लेकिन ये आदेश अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006- जिसका उद्देश्य वनवासियों और अनुसूचित जातियों के वन अधिकारों को स्वीकार करके सदियों के अन्याय को ठीक करना था- जैसे महत्वपूर्ण कानूनों की संवैधानिक वैधता को नज़रअंदाज़ करते हैं. इस तरह के फैसले वन प्रबंधन को लेकर तकनीकी दृष्टिकोण (टेक्नोक्रैटिक अप्रोच) पर ज़ोर देते हैं जहां सामुदायिक अधिकारों और सामाजिक-आर्थिक न्याय की कीमत पर वित्तीय हितों और वृक्षारोपण को प्राथमिकता दी जाती है.
जलवायु लक्ष्यों को प्राप्त करने में अपने असर के लिए वन शासन व्यवस्था (फॉरेस्ट गवर्नेंस) की भी फिर से मूल्यांकन की आवश्यकता है. उदाहरण के लिए, कंपनसेटरी एफॉरेस्टेशन फंड मैनेजमेंट एंड प्लानिंग अथॉरिटी (CAMPA) की स्थापना विकास परियोजनाओं की वजह से जंगल को नुकसान की भरपाई करने के लिए की गई थी. हालांकि CAMPA पर्याप्त ढंग से इकोसिस्टम के सामर्थ्य का समाधान नहीं करती है. जैव विविधता, जो लंबे समय में विकसित होती है, पुराने जंगलों में सबसे समृद्ध है. फिर भी विश्लेषण समय बीतने के साथ नुकसान के बारे में बताता है. परिपक्व वनों को नए पौधों से बदलने का जैव विविधता, जलवायु नियमन (रेगुलेशन), कार्बन स्टोरेज और जल संसाधनों पर असर पड़ता है.
जैव विविधता, जो लंबे समय में विकसित होती है, पुराने जंगलों में सबसे समृद्ध है. फिर भी विश्लेषण समय बीतने के साथ नुकसान के बारे में बताता है. परिपक्व वनों को नए पौधों से बदलने का जैव विविधता, जलवायु नियमन (रेगुलेशन), कार्बन स्टोरेज और जल संसाधनों पर असर पड़ता है.
इसके परिणामस्वरूप इकोसिस्टम के सामर्थ्य से समझौता करना पड़ता है. अक्टूबर 2023 में शुरू ग्रीन क्रेडिट स्कीम प्राइवेट एंटरप्राइजेज़ या सरकारी निकायों जैसी इकाइयों को वृक्षारोपण करने और कार्बन क्रेडिट कमाने की अनुमति देती है. हालांकि इस योजना से साझा ज़मीनों के संरक्षण की जगह लाभ को प्राथमिकता देकर इकोसिस्टम के सामर्थ्य को कमज़ोर करने का ख़तरा है. ये योजना इस बात को समझने में नाकाम है कि वृक्षारोपण प्राकृतिक जंगल की जटिल जैव विविधता को दोहरा नहीं सकता है.
असरदार ढंग से वनों के संरक्षण के लिए सरकार को पर्यावरण की रक्षा और सतत विकास के अधिकार पर आधारित दृष्टिकोण अपनाना चाहिए. इसमें ये सुनिश्चित करना चाहिए कि संरक्षण के प्रयास वास्तव में इकोसिस्टम और इस पर निर्भर लोगों को लाभ पहुंचाएं और राष्ट्र निर्माण में योगदान करें.
निशांत सिरोही ट्रांज़िशन्स रिसर्च में लॉ एंड सोसायटी फेलो हैं.
लियाने डिसूज़ा ट्रांज़िशन्स रिसर्च के लो कार्बन सोसायटी प्रोग्राम में रिसर्च असिस्टेंट हैं.
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