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इस महीने संयुक्त अरब अमीरात (UAE) ने अपने इतिहास में दूसरी बार तालिबान सरकार को मान्यता दे दी. उसने मान लिया कि काबुल में तालिबान ही वर्तमान में सत्ता संभालने वाला अधिकृत खिलाड़ी है. तालिबान की अगुवाई में चल रही अंतरिम सरकार ख़ुद को कथित इस्लामिक अमीरात ऑफ अफ़गानिस्तान की शासक बताती है. अब उसने अबु धाबी में बदरुद्दीन हक़्कानी को अपना नुमाइंदा बनाकर भेजा है. उसके प्रतिनिधि के रूप में हक़्कानी को मिली मान्यता को तालिबान के लिए बड़ी कूटनीतिक जीत बताया जा रहा है. लेकिन सवाल यह है कि आखिर ऐसा क्या है कि अबु धाबी अब सार्वजनिक रूप से तालिबान तक पहुंच बनाता दिखाई दे रहा है.
तालिबान ने जब पहली बार अफ़गानिस्तान पर सन् 1996 से अपना शासन शुरू किया था तो संयुक्त राष्ट्र (UN) के केवल तीन सदस्य देशों ने उसे मान्यता दी थी. इसमें सऊदी अरब, पाकिस्तान के अलावा UAE शामिल था.
तालिबान ने जब पहली बार अफ़गानिस्तान पर सन् 1996 से अपना शासन शुरू किया था तो संयुक्त राष्ट्र (UN) के केवल तीन सदस्य देशों ने उसे मान्यता दी थी. इसमें सऊदी अरब, पाकिस्तान के अलावा UAE शामिल था. यह मान्यता अमेरिका की ओर से 9/11 के बाद अफ़गानिस्तान पर किए गए हमले तक बने रहे तालिबान के शासनकाल तक चली थी. अगस्त 2021 में काबुल के पराजित होने के कुछ दिनों बाद यूनाइटेड स्टेट्स (US) का अंतिम सैनिक अफ़गानिस्तान से एक अराजक और तेज़ी से दिशाहीन हो रहे युद्ध को छोड़कर वापस लौट गया. इसके लंबे समय बाद तक भी अधिकांश राष्ट्रों ने तालिबान शासन से दूसरी बनाए रखी थी. उस वक़्त यह तर्क दिया जा रहा था कि पहले यह देखा जाएगा कि हृदय से वैचारिक विद्रोही तालिबान कैसे नई राजनीतिक व्यवस्था स्थापित करता है. यह व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए जो न केवल आबादीद पर राज करें बल्कि अब इस क्षेत्र में वह स्थिरता भी लाने की कोशिश करें जो तालिबान ख़ुद ही लाना चाहता था.
तीन वर्षों के पश्चात क्षेत्रीय शक्तियां जैसे कि UAE, उज़्बेकिस्तान, कज़ाकिस्तान, ईरान, रूस, चीन समेत अन्य अब तालिबान तक पहुंचने के लिए रचनात्मक मार्ग अपनाना चाहते है. इसका अर्थ यह है कि ये शक्तियां तालिबान से मिलने के लिए एक पैर दरवाज़े में और दूसरा दरवाज़े के बाहर रखना चाहती हैं. भारत भी काबुल में 2022 से एक ‘तकनीकी दफ्तर’ चलाने के साथ दोनों देशों की राजनधानियों के बीच सीधी फ्लाइट भी संचालित कर रहा है. अबु धाबी की ओर से तालिबान के प्रतिनिधि को मान्यता देने का फ़ैसला अनेक वास्ताविकताओं को प्रतिबिंबित करता है. ये वास्ताविकताएं क्षेत्रीय तथा वैचारिक स्तर पर मौजूद हैं. अब तालिबान इन भूराजनीतिक दरारों का लाभ उठाने की स्थिति में दिखाई दे रहा है.
व्यवहारिकता की पहल
पिछले कुछ महीनों में तालिबान ने विश्व को अपनी स्थिति को लेकर कुछ स्पष्टता उपलब्ध करवाई है. यह स्पष्टता दिखाई देने की वजह से अब वैश्विक स्तर पर भी अनेक देशों को यह अवसर मिला है कि वे काबुल से छोटे से मध्यम अवधि में कैसे संबंध बनाए इसे लेकर विचार कर सकें. आंतरिक मामलों यानी गृह विभाग के मंत्री सिराजुद्दीन हक़्कानी ने अपने भाई अनस हक़्कानी के साथ मिलकर अबु धाबी तक पहुंच बनाने की शुरुआत कुछ दिन पहले की थी. निश्चित ही इस तरह की कोशिश जनता की नज़रों से दूर ख़ुफ़िया तौर पर ही की गई थी. 1970 के दशक में हक़्कानी नेटवर्क के संस्थापक जलालुद्दीन हक़्कानी को न केवल वित्तीय बल्कि निजी सहायता देने वाले अनेक लोग और देश थे. इसमें प्रमुखता से भले ही पाकिस्तान शामिल था, लेकिन अरब देश तथा US भी उसे सहायता देकर काबुल में सोवियत समर्थित राजनीतिक पारिस्थितिकी तंत्र का मुकाबला करने में मदद करते थे. यही सहायता बाद में अफ़गानिस्तान पर हुए सोवियत हमले के दौरान दी जाती रही. जलालुद्दीन हक़्कानी की 2018 में मृत्यु हो गई. अब उनके बेटे सिराजुद्दीन इस पूर्ववर्ती नेटवर्क और साम्राज्य के मुखिया हैं. यह नेटवर्क तालिबान की आंतरिक राजनीति में एक नाजुक संतुलन साधने में विलीन हो गया है.
पिछले कुछ महीनों में तालिबान ने विश्व को अपनी स्थिति को लेकर कुछ स्पष्टता उपलब्ध करवाई है. यह स्पष्टता दिखाई देने की वजह से अब वैश्विक स्तर पर भी अनेक देशों को यह अवसर मिला है कि वे काबुल से छोटे से मध्यम अवधि में कैसे संबंध बनाए इसे लेकर विचार कर सकें.
विगत कुछ दशकों में इस तरह के समूहों और पश्चिमी देशों के इतिहास से सबक लेकर ही अब इस्लामिक अमीरात के नए अवतार तक पहुंच बनाने की कोशिश हो रही है. उदाहरण के तौर पर अरब दुनिया ने इस्लामिक दुनिया तक तालिबान की पहुंच स्थापित करने में जेद्दा स्थित ऑर्गनाइजेशन ऑफ इस्लामिक को-ऑपरेशन (OIC) का प्राथमिक साधन के रूप में उपयोग किया है. मसलन, तालिबान के अंतरिम विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी ने हाल ही में अफ्रीका के कैमरुन का दौरा कर वहां आयोजित OIC की बैठक में हिस्सा लिया था. OIC इसके पहले भी कंधार पहुंचकर तालिबान के साथ बातचीत कर चुका है. कंधार में तालिबान आंदोलन के अमीर-उल-मोमिनीन हिबतुल्लाह अखुंदज़ादा का निवास स्थान है. कंधार ही तालिबान आंदोलन का वैचारिक शक्तिस्थल है. OIC की कोशिश है कि वह तालिबान समूह को उसकी रुढ़ीवादी वैचारिक सोच से बाहर निकाले. लेकिन अब यह दिखाई देता है उसके इन प्रयासों को काफ़ी कम सफ़लता मिली है. तालिबान ने अपने नैतिक दुर्बलता एवं उच्च नैतिकता कानून को और भी कड़ा कर दिया है. हाल ही में अखुंदज़ादा ने कंधार से निकलकर फारयाब प्रांत तक का सफ़र किया था. यह यात्रा दुर्लभ ही कह जाएगी. उन्होंने देश की तुर्कमेनिस्तान से सटी सीमा पर पहुंचकर वहां के प्रांतीय मुखियाओं को तालिबान के नैतिक दुर्बलता और उच्च नैतिकता कानून को कड़ाई से लागू करने का आदेश दिया था. उनके अनुसार देश में एकता लाने के लिए यह कानून लागू करना बेहद ज़रूरी है. अन्य शब्दों में शरिया का उपयोग करते हुए तालिबान अपने यहां मौजूद अंतर-आदिवासी और जातीय मतभेदों को संचालित करने की कोशिश कर रहा है. ऐसा करते हुए वह महिलाओं के अधिकार, मानवाधिकार, समावेशीकरण को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उठ रही मांगों को अनदेखा करता जा रहा है.
अन्य शब्दों में शरिया का उपयोग करते हुए तालिबान अपने यहां मौजूद अंतर-आदिवासी और जातीय मतभेदों को संचालित करने की कोशिश कर रहा है. ऐसा करते हुए वह महिलाओं के अधिकार, मानवाधिकार, समावेशीकरण को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उठ रही मांगों को अनदेखा करता जा रहा है.
OIC को धर्मशास्त्र एवं विचारधारा के इर्द-गिर्द बातचीत का एक साधन बनाकर आगे बढ़ाने का सीमित परिणाम ही मिल रहा है. हालांकि यही रास्ता सबसे सही रास्ता दिखाई दे रहा है. क्योंकि US पहले ही साफ़ कर चुका है कि वह इस देश में सशस्र संघर्ष किसी भी सूरत में लौटने नहीं देना चाहता. ऐसे में अफ़गानिस्तान के पड़ोसियों के लिए तालिबान एक ऐसी हकीकत है जिसको ध्यान में रखकर ही नीति निर्धारण किया जाना चाहिए. ऐसा होने पर ही आने वाले बदलाव और चुनौतियों से रास्ता निकाला जा सकेगा.
काबुल को लेकर अबु धाबी का दृष्टिकोण
अनेक विश्लेषकों का मानना है कि इस इलाके में नए इस्लामिक अमीरात को संभालने में पाकिस्तान की अहम भूमिका होगी. सत्ता में बैठे अनेक नेताओं का भी यही मानना है. लेकिन तालिबान को लेकर इस्लामाबाद में भी मतभिन्नता है. ऐसे में पाकिस्तान को लेकर उपरोक्त परिकल्पना, जो UAE, सऊदी अरब समेत कुछ अन्य देशों में प्रचलित है पर नए सिरे से विचार करना ज़रूरी हो गया है.
UAE ने अफ़गानिस्तान में मौजूद राजनीतिक दरारों का लाभ उठाना शुरू कर दिया है. अफ़गानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति अशरफ गनी सार्वजनिक निगाहों से दूर अबु धाबी में रहते हैं. तालिबान को ख़ुश करने के लिए UAE ने कथित रूप से अपनी धरती यानी UAE से अफ़गानिस्तान के भीतर कोई भी राजनीतिक अभियान चलाने पर गनी पर रोक लगा दी है. यह छोटी सी रियायत देकर तालिबान के एक धड़े तक पहुंच को आसान बना दिया है.
लेकिन यहां कुछ ऐसे मुद्दे भी है जो काफ़ी पुराने हैं. पहला मुद्दा तो सुरक्षा को लेकर है, जिसका प्रबंधन किया जाना बेहद आवश्यक है. तालिबान चाहता है कि उसे सामान्य तौर पर अफ़गानिस्तान का राजनीतिक शासक मान लिया जाना चाहिए. ऐसी स्थिति आने के लिए यह बेहद आवश्यक है कि तालिबान क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर अपने दायित्वों का सही ढंग से निर्वहन करते हुए इन पर खरा उतरें. तालिबान के शासन में अल क़ायदा जैसे संगठनों को सुरक्षा मिली हुई है. इसके अलावा ओसाबा बिन लादेन की विरासत पर रोक लगाने में तालिबान सरकार को विफ़लता मिली है. ऐसे में अल क़ायदा की मध्य पूर्व में भारी मौजूदगी चिंता का विषय बन गई है. अल क़ायदा प्रमुख अयमान अल-जवाहिरी को US ने काबुल में 2022 में एक ड्रोन हमले में मौत के घाट उतार दिया था. उसके बाद से अल क़ायदा ने उसके उत्तराधिकारी की घोषणा नहीं की है. ऐसे में इस बात को अल क़ायदा के साथ तालिबान के प्रभाव के स्तर को दर्शाने वाला भी माना जा रहा है. इतना ही नहीं तालिबान को इस क्षेत्र में इस्लामिक स्टेट खुरासान (ISKP) के साथ भी दो-दो हाथ करने पड़ रहे हैं. इसे भी अच्छा ही माना जा रहा है. इसके अलावा वर्तमान में चल रहे गाज़ा संघर्ष जैसे मुद्दों में अल क़ायदा जैसे संगठन को पुनर्जीवित करने की ताकत है. यही बात राजनीतिक इस्लाम को भी विचारधारा के रूप में मज़बूती प्रदान करेगी. इसे देखते हुए ख़तरे की आशंका बढ़ती जा रही है.
दूसरा मुद्दा यह है कि इस क्षेत्र में UAE के लिए यह ज़रूरी है कि वह अफ़गानिस्तान में मजबूत आर्थिक और राजनीतिक दख़ल रखें. ऐसा करना इसलिए ज़रूरी है कि इस क्षेत्र में पहले भी हुए शक्ति प्रदर्शन के दौरान सऊदी, अमीराती, तुर्क और कतारी एक-दूसरे के सामने खड़े दिखाई दे चुके है. दोहा तो लंबे समय तक US की तालिबान के साथ बातचीत का गवाह बन चुका है. दोहा में ही ‘एक्जिट एग्रीमेंट’ पर 2020 में हस्ताक्षर किए गए थे. दूसरी ओर क़तर तथा तुर्किए का अफ़गानिस्तान में बढ़ रहा एकाधिकार भी अब पसंद नहीं किया जा रहा है. 2022 में UAE तथा तालिबान के बीच अनेक समझौते हुए. इसमें तय किया गया कि अफ़गानिस्तान में मौजूद मुख़्य हवाई अड्डों का संचालन UAE करेगा. ऐसे में UAE की अफ़गानिस्तान में मौजूदगी बढ़ने के साथ-साथ अमेरिका पश्चात वाले काबुल में इस सहयोग के कारण उसका प्रभाव भी बढ़ा है. यह तथ्य कि नागरी उड्डयन क्षेत्र में क़तर तथा तुर्किए भी प्रमुख दावेदार थे इस बात को साफ़ करने के लिए काफ़ी है कि इस इलाके में छोटा लेकर उल्लेखनीय शक्ति संघर्ष चल रहा है.
निष्कर्ष
अफ़गानिस्तान में UAE की बढ़ती मौजूदगी के साथ तालिबान नियुक्त राजदूत को दी गई स्वीकृति इस क्षेत्र में देखे जा रहे ट्रेंड यानी रुझान से हटकर नहीं है. अनेक क्षेत्रीय देशों, विशेषत: मध्य एशियाई देशों ने, तालिबान के साथ व्यवहारिकता को ध्यान में रखकर बातचीत करते हुए अपनी सीमाओं पर सुरक्षा को पुख़्ता करने और वैचारिक सुरक्षा को सीमा के पार रखने का प्रयास किया है. सवाल यह उठता है कि क्या तालिबान इन मुद्दों पर लंबी अवधि में अपनी बात पर कायम रहकर परिणाम दे सकता है. UAE जैसे देशों ने पिछले कुछ दशकों में दुबई तथा अबु धाबी जैसे अपनी आर्थिक सफ़लताओं की कहानियां खड़ी की है. UAE ने ख़ुद को एक आर्थिक शक्ति के साथ-साथ स्थिरता के द्वीप के रूप में अपनी विरासत को स्थापित कर लिया है. इस स्थिति को लंबी अवधि तक बनाए रखने और भविष्य में देश की सुरक्षा व्यवस्था को बनाए रखने के लिए व्यवहारिकता एवं चपलता बेहद ज़रूरी है.
अंतत: तालिबान के लिए स्थिरता का यह दौर और बड़ी शक्ति स्पर्धा उसके लिए अवसरों का पिटारा लेकर आए हैं. वह इन सभी के साथ बातचीत करते हुए बाहरी खिलाड़ियों के परे रहकर उनका समर्थन हासिल कर सकता है.
अंतत: तालिबान के लिए स्थिरता का यह दौर और बड़ी शक्ति स्पर्धा उसके लिए अवसरों का पिटारा लेकर आए हैं. वह इन सभी के साथ बातचीत करते हुए बाहरी खिलाड़ियों के परे रहकर उनका समर्थन हासिल कर सकता है. उसे इस बात का भी लाभ मिलेगा कि पश्चिम में अब युद्ध को लेकर एक थकान महसूस की जा रही है. अफ़गानिस्तान के अधिकांश पड़ोसी और सहयोगी अपनी ज़रूरतों को हासिल करने के लिए बातचीत कर रहे है. बड़ा सवाल यह है कि क्या तालिबान अपनी अंदरुनी कमियों को प्रबंधित करते हुए विश्व को सुरक्षा मुहैया करवा सकता है. ऐसा उसके ख़ुद के अस्तित्व के लिए बेहद ज़रूरी हो गया है.
(कबीर तनेजा, ऑर्ब्जवर रिसर्च फाउंडेशन के स्ट्रैटेजिक स्टडीज प्रोग्राम में फेलो हैं.)
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