संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद, वैश्विक सुरक्षा के प्रबंधन का सबसे बड़ा मंच कही जाती है. मगर, दुनिया के सामने कोविड-19 की महामारी के रूप में जो चुनौती खड़ी हुई है, इसे इक्कीसवीं सदी में मानवता के लिए सबसे बड़ा संकट कहा जा रहा है.
सुरक्षा परिषद के सदस्य,मानवता के सामने खड़े इस महासंकट के दौरान भी आपस में ही झगड़ रहे हैं. जबकि चाहिए तो ये था कि ये सभी देश मिल कर कोविड-19 की महामारी से लड़ने के लिए साझा प्रयास करते
और ऐसे अवसर पर जब संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद से संकट को समाप्त करने में सक्रिय भूमिका की अपेक्षा थी, तो परिषद ख़ुद ही विवश और अशक्त हो गई है. जैसा कि हाल ही में आई एक रिपोर्ट में कहा गया था, सुरक्षा परिषद के सदस्य,मानवता के सामने खड़े इस महासंकट के दौरान भी आपस में ही झगड़ रहे हैं. जबकि चाहिए तो ये था कि ये सभी देश मिल कर कोविड-19 की महामारी से लड़ने के लिए साझा प्रयास करते. जिस समय संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंतोनियो गुटेरस ने ही आपस में संघर्ष करने वाले देशों से अपील की कि वो फिलहाल युद्ध विराम कर दें, क्योंकि अभी मानवता ही संकट में है. लेकिन, उनकी अपील के बावजूद, जिस तरह संकट के इस वैश्विक परिदृश्य से सुरक्षा परिषद अनुपस्थित है, वो वाक़ई बेहद चिंताजनक तस्वीर है. हालांकि, वैश्विस स्वास्थ्य से जुड़े मसलों के लिए संयुक्त राष्ट्र का एक और अंग यानी विश्व स्वास्थ्य संगठन बना हुआ है. लेकिन, इससे पहले भी संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद ने वैश्विक स्वास्थ्य से जुड़ी आपात परिस्थितियों पर परिचर्चाएं की हैं. ख़ास तौर से एड्स, सार्स और इबोला जैसी संक्रामक बीमारियों को लेकर.
अब जबकि कोरोना वायरस से पैदा हुई महामारी को लेकर सुरक्षा परिषद के सदस्यों ने आंखें मूंदी हुई हैं, तो सवाल ये है कि क्या कोविड-19 की महामारी को वैश्विक सुरक्षा का मसला निर्धारित करने से परिषद के सदस्य साथ आकर, इस महामारी से निपटने में सहयोग का बुद्धिमत्तापूर्ण क़दम उठाने को राज़ी होंगे? ताकि, इस महामारी से निपटने की कार्य योजना पर वैश्विक सहमति बन सके. कोविड-19 की महामारी तीन अप्रैल तक 206 देशों को अपनी चपेट में ले चुकी थी. आज इस महामारी से संक्रमित लोगों की संख्या पच्चीस लाख को पार कर चुकी है. जबकि मरने वालों का आंकड़ा भी दो लाख के क़रीब पहुंच चुका है. हाल ये है कि सुरक्षा परिषद के जो पांच स्थायी सदस्य देश हैं, उनमें ही इस वैश्विक महामारी के लगभग चालीस प्रतिशत संक्रमित लोग हैं. वायरस के प्रकोप के इस मुद्दे को अगर सुरक्षा का मसला सुनिश्चित किया जाता है, तो इससे तमाम देश मिलकर अधिक कार्यकुशलता से वैश्विक संसाधन इकट्ठा करने में जुटेंगे. साथ ही साथ सुरक्षा के ऐसे क़दम उठाए जा सकेंगे, जिन्हें अभी पारंपरिक सुरक्षा के ख़तरों के लिए ही उठाया जाता रहा है.
आज बिना संकोच के ये बात कही जा सकती है कि पश्चिम की प्रभुत्ववादी ताक़तें ही विश्व स्वास्थ्य संगठन को चलाती हैं. क्योंकि इसे उन्हीं देशों से फंड मिलता है. इसीलिए, ये संगठन पश्चिमी देशों के दृष्टिकोण से ही स्वस्थ विश्व की कल्पना करता है और उस दिशा में आगे बढ़ता है
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद और वैश्विक स्वास्थ्य व्यवस्था
स्वास्थ्य को आम तौर पर व्यक्तिगत और विभिन्न देशों का घरेलू विषय माना जाता रहा है. ख़ास तौर से तब तक, जब तक स्वास्थ्य से जुड़ी कोई चुनौती कई देशों में एक साथ न उठ खड़ी हो. इस सदी की शुरुआत में हमने देखा था कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में HIV/एड्स का मुद्दा उठा था. ये पहला मौक़ा था जब सुरक्षा परिषद में किसी बीमारी को सुरक्षा के दृष्टिकोण से देखा गया था और उस पर वैश्विक प्रशासन के सबसे बड़े सिक्योरिटी प्लेटफ़ॉर्म पर परिचर्चा हुई थी. सुरक्षा परिषद के इस मुद्दे पर चर्चा करने का नतीजा ये निकला था कि अफ्रीका में युद्धरत देशों में शांति स्थापना के प्रयासों में एड्स की बीमारी को भी शामिल करने पर सहमति बन गई थी. वर्ष 2000 में संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद ने एलान किया था कि एड्स की बीमारी सुरक्षा का मुद्दा है. इसके लिए सुरक्षा परिषद ने प्रस्ताव 1308 को मंज़ूरी दी थी. इसके अंतर्गत इस बात पर ज़ोर दिया गया था कि एड्स/HIV की महामारी की अगर रोकथाम न की गई, तो इससे पूरे अफ्रीका की स्थिरता और सुरक्षा को ख़तरा है. इसी तरह, वर्ष 2014 में जब पश्चिमी अफ्रीका में इबोला वायरस की महामारी फैली, तो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने इसपर एक प्रतिक्रियात्मक क़दम उठाया था. और अपने शांति अभियानों के अंतर्गत इस महामारी से निपटने का लक्ष्य भी शामिल किया था. इसी के बाद सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव 3177 में इस बात पर ज़ोर दिया गया था कि, ‘इबोला वायरस की महामारी की रोकथाम के लिए संयुक्त राष्ट्र के सभी अनुषांगिक संगठनों को आपसी समन्वय के साथ काम करना चाहिए. जो अपने अपने निर्धारित क्षेत्र में कार्य करते हुए इस महामारी से निपटने के लिए किए जा रहे प्रयासों में सहयोग दें. इस संदर्भ में आवश्यकता के अनुसार राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय प्रयास किए जाएं.’ लेकिन, कोविड-19 की महामारी के बीच संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के किसी भी सदस्य देश ने इस तरह का कोई प्रस्ताव नहीं सामने रखा है. जबकि ज़रूरत ये थी कि महामारी से निपटने के लिए तमाम देशों में आपसी सहमति बनाने की कोशिश की जाए.
कोविड-19 की महामारी का राजनीतिक परिदृश्य
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में एक दूसरे को पछाड़ने वाली राजनीति के चलते ही, नए कोरोना वायरस की महामारी से निपटने के लिए किसी प्रस्ताव पर सदस्य देशों में सहमति बननी मुश्किल हो रही है. अमेरिका और चीन इस वायरस की उत्पत्ति के मुद्दे पर एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगा रहे हैं. जबकि, इन दोनों ही देशों को ये करना चाहिए था कि वो दुनिया के अन्य देशों को इस महामारी से निपटने के लिए एकजुट करते. चीन की सरकारी व्यवस्था को इस बात के लिए कोई रियायत नहीं दी जानी चाहिए कि उसने नए कोरोना वायरस के प्रकोप के शुरुआती दौर में इससे जुड़ी जानकारी को दबाने का प्रयास किया. साथ ही साथ चीन की सरकार ने ये झूठ भी बोला कि ये वायरस एक इंसान से दूसरे इंसान में नहीं फैलता है. कोविड-19 वायरस की उत्पत्ति चीन में ही हुई. और ये वायरस चीन में 17 नवंबर 2019 से ही लोगों को संक्रमित करना आरंभ कर चुका था. लेकिन, इस पर दुनिया का ध्यान तभी गया, जब इस वायरस के प्रकोप का असर कई अन्य देशों पर भी पड़ने लगा था. ख़ुद विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस वायरस के प्रकोप को बड़ी देर के बाद जाकर 11 मार्च को वैश्विक महामारी घोषित किया था. ग़लत जानकारी के इस प्रचार प्रसार ने अन्य देशों को अपने नागरिकों की सुरक्षा के लिए ज़रूरी क़दम उठाने से रोका. वो अपने यहां के समुदायों के बीच वायरस का प्रकोप नहीं रोक सके. मज़े की बात ये है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद भी उस समय निष्क्रिय ही रही. क्योंकि, मार्च 2020 में सुरक्षा परिषद की अध्यक्षता चीन के ही पास थी.
लेकिन, अब जबकि कई पश्चिमी देश बुरी तरह से इस वायरस के क़हर के शिकार हो गए हैं. तब भी उनके अंदर वो निर्णय क्षमता नहीं दिख रही है जिससे वो इस महामारी के उचित प्रबंधन के लिए आवश्यक क़दम उठा सकें. फिर चाहे घरेलू स्तर की बात हो, या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहल करने की. अपनी तमाम सफलताओं और नाकामियों के बावजूद, आज भी विश्व स्वास्थ्य संगठन पश्चिमी देशों पर केंद्रित संगठन ही है. और, इसे संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों से ही शक्ति मिलती है. आज बिना संकोच के ये बात कही जा सकती है कि पश्चिम की प्रभुत्ववादी ताक़तें ही विश्व स्वास्थ्य संगठन को चलाती हैं. क्योंकि इसे उन्हीं देशों से फंड मिलता है. इसीलिए, ये संगठन पश्चिमी देशों के दृष्टिकोण से ही स्वस्थ विश्व की कल्पना करता है और उस दिशा में आगे बढ़ता है. स्वस्थ विश्व की हमारी परिकल्पना, ऐसी राजनीतिक समस्याओं के आधार पर ही बनती है. जब तक वैश्विक स्वास्थ्य के मुद्दों को अंतरराष्ट्रीय समाज में व्यक्तिगत चुनौती के तौर पर पेश नहीं किया जाता, तो अंतरराष्ट्रीय ताक़तों को लगता है कि स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों पर न चर्चा की ज़रूरत है. न इससे जुड़ी समस्याओं का हल तलाशने की ही आवश्यकता है.
कोविड-19 महामारी को सुरक्षा का विषय बनाया जाए
आज संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को ऐसे उपाय अपनाने की आवश्यकता है, जिससे इस ख़तरे से निपटने की सुरक्षा के केंद्र में अंतरराष्ट्रीय सहयोग शामिल हो. इसके अलावा निर्णय लेने से लेकर उसके क्रियान्वयन का चक्र भी सुनिश्चित किया जाए. इस चुनौती का एक संभावित समाधान ये हो सकता है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद एक ऐसे प्रस्ताव को सर्वसम्मति से पास करे, जो ऐसी चुनौतियों से निपटने के नियम क़ायदे तय कर दे. साथ ही वायरस से किस देश को कितना ख़तरा है, इस आधार पर देशों का वर्गीकरण किया जाए. फिर हर देश की मदद के लिए ख़ास उपाय किए जाएं. ताकि इस वैश्विक स्वास्थ्य संकट से दुनिया को उबारा जा सके. तमाम देशों के पास विशाल सैन्य शक्तियां हैं, जिन्हें इस वायरस के प्रकोप की रोकथाम के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है. फिर चाहे वो घरेलू स्तर पर हो या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ही क्यों न हो. पिछले कुछ हफ़्तों में हमने देखा है कि भारत, अमेरिका और चीन जैसे देशों ने अपनी अंतरराष्ट्रीय क्षमताओं को विश्व के सामने रखा है. इन देशों की सरकारें, जिस तरह अपने-अपने यहां इस वायरस के प्रकोप से निपट रही हैं, उससे ही ये सुनिश्चित हो रहा है कि ये देश इस नई महामारी से निपटने की कितनी शक्ति रखते हैं. इसी तरह, संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद ने पूरी दुनिया को अपनी चपेट में लेने वाली इस महामारी का संज्ञान न ले कर ये ज़ाहिर किया है कि वैश्विक सुरक्षा के प्रशासन का मौजूदा ढांचा अब ज़्यादा दिनों तक चलने वाला नहीं है. आज ज़रूरत है कि सुरक्षा परिषद, उन देशों में मध्यस्थ की भूमिका निभाए, जहां युद्ध चल रहे हैं, जैसे कि लीबिया और सीरिया. और उसे चाहिए कि वो इन देशों में भी यमन से सीख लेते हुए तुरंत युद्ध विराम की घोषणा करे. अगर सुरक्षा परिषद ऐसा करने में नाकाम रहती है, तो ये महामारी और फैल जाएगी. क्योंकि जिन देशों में युद्ध चल रहा है वहां पर स्वास्थ्य कर्मियों और ज़रूरी सामान की आपूर्ति मुमकिन नहीं है. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को चाहिए कि वो शांति के अभियानों में लगे सुरक्षा बलों को तुरंत टेस्ट करने वाली किट मुहैया कराए. सैनिकों की सुरक्षा के उपकरण उपलब्ध कराए. साथ ही साथ युद्ध वाले इलाक़ों में वेंटिलेटर भी पहुंचाए, ताकि संघर्ष की विभीषिका झेल रहे लोगों को तुरंत मदद मिल सके.
संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद ने पूरी दुनिया को अपनी चपेट में लेने वाली इस महामारी का संज्ञान न ले कर ये ज़ाहिर किया है कि वैश्विक सुरक्षा के प्रशासन का मौजूदा ढांचा अब ज़्यादा दिनों तक चलने वाला नहीं है
वैश्विक प्रशासन से अपेक्षाएं
ये सोचना बचकाना होगा कि अगर महामारी के विषय को सुरक्षा का मुद्दा बना कर राज्य की शक्तियों का केंद्रीकरण कर दिया जाए, तो सभी समस्याओं का समाधान हो जाएगा. अगर हम इस बीमारी को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखें, तो हम पाते हैं कि प्लेग और इससे जुड़ी समस्याओं को तमाम समुदायों ने किस तरह से हल किया. ये आम तौर पर इस बात पर निर्भर करता है कि कोई समुदाय किस बीमारी को किस नज़रिए से देखता है. ऐसे में हो सकता है कि कोई बीमारी किसी सामाजिक ग़लती का नतीजा न भी हो, तो भी बीमारी को लेकर कोई समाज कैसा रुख़ अपनाता है, इसी से तय होता है कि इंसान किसी बीमारी पर कैसे नियंत्रण पाता है. दुनिया भर में फैली कोविड-19 की महामारी, इस आख़िरी बिंदु को और विस्तार से समझाती है. पूरी दुनिया में सुरक्षा कर्मी पहले ही स्वास्थ्य कर्मियों की मदद का बोझ उठा रहे हैं. ताकि बिना किसी भूल के क्वारंटीन सुनिश्चित किया जा सके. जबकि उन्हें तो इस बात की उचित ट्रेनिंग भी नहीं मिली है. कई देशों में तो पूरी की पूरी सरकारी मशीनरी इस अकेली समस्या का समाधान करन में लगा दी गई है. जबकि अभी तक दुनिया इस समस्या को पूरी तरह से समझ भी नहीं सकी है.
ऐसे संकट के समय, एक तीव्र वैश्विक प्रतिक्रिया का अभाव स्पष्ट रूप से देखने को मिल रहा है. जबकि दुनिया भर में आम जनता वैश्विक प्रशासन के लिए ज़िम्मेदार संस्थानों की जवाबदेही सुनिश्चित करने की मांग कर रहे हैं. अमेरिका अपने राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के नेतृत्व में इस महामारी का सामना करने में लड़खड़ा रहा है. जबकि यूरोपीय संघ के सदस्य देश आज अलग अलग दिशाओं में चल रहे हैं. महामारी को हराने के लिए अलग नीतियां अपना रहे हैं. चीन और रूस जैसे तानाशाही देश अपने अपने देश की प्रशासनिक व्यवस्था को बचाने में जुटे हुए हैं. जबकि उन्हें चाहिए था कि वो इस महामारी से निपटने के लिए विश्व स्तर पर प्रयास करते. लेकिन, अब कोविड-19 की महामारी जिस स्तर पर फैल चुकी है, उसमें ये साफ है कि सभी देशों के अलग अलग इससे लड़ने का समय समाप्त हो चुका है. आज ज़रूरत इस बात की है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद इस महामारी से जुड़ी चुनौती को तुरंत अपने हाथ में ले. सुरक्षा परिषद को चाहिए कि वो वैश्विक समुदाय को एकजुट करके इस महामारी से निपटने के लिए आपसी सहयोग के लिए बाध्य करे. इसे अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा का विषय बनाए. वैश्विक प्रशासन के भागीदार देश यानी सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य देशों को चाहिए कि वो इस चुनौती का सामना करने के लिए आगे आएं. और दुनिया के सामने ऐसा समाधान पेश करें, जिससे कोविड-19 के मसले को अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा का विषय मान कर पूरी दुनिया इसे सही समय पर विश्व को तबाह होने से रोक ले.
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