Published on Oct 05, 2021 Updated 0 Hours ago

वॉशिंगटन और नई दिल्ली को समूह की सफ़लता के लिए कुछ मुख्य मतभेदों को दूर करना होगा

क्वॉड का ‘लिट्मस’ परीक्षण है भारत-अमेरिका संबंध

पिछले हफ्ते, अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने क्वॉडिलेट्रल सिक्योरिटी डायलॉग या क्वॉड के पहले व्यक्तिगत शिख़र सम्मेलन के लिए ऑस्ट्रेलिया, भारत और जापान के नेताओं की व्हाइट हाउस में मेज़बानी की थी. चारों नेताओं ने एक महत्वकांक्षी साझा बयान जारी किया- पहले की तरह अलग-अलग नहीं. उनका एजेंडा मुख्य रूप से वैश्विक चुनौतियों जैसे जलवायु परिवर्तन और वैक्सीन प्राप्त करने के समाधान पर केंद्रित था, जो इस बात का संकेत था कि क्वॉड केवल एक भू-राजनीतिक समूह नहीं है जैसा कि चीन ने दावा किया है.

फिर भी भूराजनीति अब भी महत्वपूर्ण है क्योंकि संयुक्त राज्य अमेरिका ने एशिया में विदेश नीति में बदलाव किया है. छह महीने से भी कम समय में, क्वॉड ‘समान सोच वाले भागीदारों के व्यावहारिक समूह’ से भी कुछ बढ़कर बन चुका है, जैसा कि चारों नेताओं ने मार्च में लिखा था कि इसके दायरे में ताइवान जलसंधि में शांति और सुरक्षा जैसे मुद्दों को निर्भीकता से शामिल किया जाएगा. पिछले सप्ताह शिखर सम्मेलन अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका की वापसी के साये में हुआ जिससे वॉशिंगटन के प्रति यूरोप का भरोसा कम हुआ है.

छह महीने से भी कम समय में, क्वॉड ‘समान सोच वाले भागीदारों के व्यावहारिक समूह’ से भी कुछ बढ़कर बन चुका है, जैसा कि चारों नेताओं ने मार्च में लिखा था कि इसके दायरे में ताइवान जलसंधि में शांति और सुरक्षा जैसे मुद्दों को निर्भीकता से शामिल किया जाएगा. 

पिछले हफ्त़े क्वॉड शिखर सम्मेलन से पहले बाइडेन ने भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाक़ात की थी. भारत ख़ास तरीके से पश्चिमी क्षेत्र, जहां से अमेरिका पीछे हटते हुए प्रतीत हो रहा है, और दक्षिण पूर्वी क्षेत्र, जहां वह नये-नये वायदे कर रहा है, के बीच अवस्थित है. यूरोप में सहयोगियों के विपरीत, वॉशिंगटन से मिल रहे मिश्रित संकेतों ने नई दिल्ली के भरोसे को प्रभावित नहीं किया है.

यूएस-भारत संबंध क्वॉड का लिट्मस टेस्ट हो सकता है. हाल ही में समूह ने मज़बूत बंधन के लिए लोकतांत्रिक आदर्शों का आह्वान किया है जिससे तीन मुख्य चुनौतियों का समाधान किया जा सके, जैसा इसके कार्यकारी समूहों ने संकल्प किया है: कोविड 19 टीकों का वितरण, जलवायु परिवर्तन और उभरती प्रौद्योगिकी. हर क्षेत्र में भारत को महत्वपूर्ण भूमिका निभागी है, लेकिन उसके अमेरिका के साथ कई अनसुलझे मतभेद भी हैं, जैसे वैक्सीन आपूर्ति चेन का मामला, जलवायु नीति पर दृष्टिकोण और ताइवान और पाकिस्तान को लेकर विरोधाभासी प्राथमिकताएं.

अमेरिका के प्रतिबंध से भारत के फार्मेसी उद्योग को नुकसान

लंबे समय से विश्व की फार्मेसी की रूप में विख्यात, भारत का विशिष्ट वैश्विक वैक्सीन वितरण कार्यक्रम मई में आयी कोविड 19 की विनाशकारी लहर के दौरान अचानक रुक गया और वैक्सीन बनाने के लिए आवश्यक कच्चे माल पर अमेरिका के प्रतिबंध से इसका उत्पादन प्रभावित हुआ. शुरुआत में बाइडन प्रशासन कोविड 19 टीकों के लिए पेटेंट छूट की मंज़ूरी को लेकर संकोच कर रहा था, जिसे भारत का समर्थन हासिल था, हालांकि अंत में व्हाइट हाउस को झुकना पड़ा. अगर विश्व व्यापार संगठन मंत्रिस्तरीय सम्मेलन ने नवंबर में प्रस्ताव को स्वीकृत कर दिया, तो इससे क्वॉड के 1.2 बिलियन वैक्सीन दान करने के लक्ष्य को प्रोत्साहन और विश्व स्वास्थ्य संगठन की अगुवाई वाले कोवैक्स टीकाकरण पहल को सहयोग मिलेगा.

जलवायु परिवर्तन पर भारत का रिकॉर्ड क्वॉड के तीनों भागीदारों से बेहतर है: भारत अकेली जी-20 अर्थव्यवस्था है जो पेरिस समझौते के तहत अपने उत्सर्जन में कमी के लक्ष्य को हासिल करने की राह पर अग्रसर है. 

जैसा कि अब 800 मिलियन से अधिक टीके लग चुके हैं, भारत की योजना अक्टूबर में वैक्सीन निर्यात को दोबारा शुरू करने की है, जिसकी आपूर्ति कोवैक्स के ज़रिए की जाएगी. भारत अपने वैश्विक आपूर्ति अभियान की तैयारी कर रहा है, अमेरिका को भारतीय निर्माताओं के लिए ज़रूरी कच्चे माले की निरंतर आपूर्ति सुनिश्चित करनी चाहिए.

इस बीच, जलवायु परिवर्तन पर भारत का रिकॉर्ड क्वॉड के तीनों भागीदारों से बेहतर है: भारत अकेली जी-20 अर्थव्यवस्था है जो पेरिस समझौते के तहत अपने उत्सर्जन में कमी के लक्ष्य को हासिल करने की राह पर अग्रसर है. हालांकि अमेरिकी नीति निर्माताओं ने भारत पर- जो दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जक है- नेट ज़ीरो प्लेज करने का दबाव बनाया, एक दीर्घावधि योजना जिसे भारतीय राजनेता बिना तत्काल उपायों का “पाई इन द स्काई” कह रहे हैं. संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में ट्रंप प्रशासन के दौरान रणनीतिक सहयोग लगभग स्थिर हो गया था.

अगर बाइडेन प्रशासन अमेरिका और भारत के बीच जलवायु परिवर्तन न्यूनीकरण के लिए दोबारा उत्साह पुनर्जीवित करना चाहता है जैसा कि उनके पूर्ववर्ती बराक ओबामा के नेतृत्व के दौरान देखा गया था, तो उसे नवीकरणीय और नागरिक परमाणु ऊर्जा, स्वच्छ ऊर्जा वित्त, ऊर्जा कुशल प्रौद्योगिकी, क्षमता निर्माण और जलवायु लचीलापन को लेकर पहल करने के लिए रणनीति बनानी होगी.

अमेरिकी सरकार को उनके नीतियों से बचना चाहिए जो इस राह पर उसके भागीदार को नुकसान पहुंचाए. भारत के प्रयासों को मज़बूती प्रदान करने के लिए कुछ संयम बरतना और इलेक्ट्रॉनिक्स में उसकी मानव प्रतिभा का फायदा उठाना एक विजयी रणनीति होगी.

पिछले हफ्ते, क्वॉड के सदस्यों ने प्रौद्योगिकीय विकास के लिए मार्गदर्शक सिद्धांतों का अनावरण किया और वो सेमीकंडक्टर चिप के लिए चीन पर निर्भरता को कम करना चाहते हैं. भारत के पास खुद का ढलईखाना नहीं है, लेकिन वो ताइवान से सहयोग मिलने की उम्मीद के साथ चिप्स की वैश्विक आपूर्ति चेन का हिस्सा बनने के लिए उत्सुक है. स्मार्ट फोन उत्पादन में दूसरे सबसे बड़े खिलाड़ी भारत ने हाल ही में आपूर्ति चेन में आये व्यवधान से लाभ उठाने में दिलचस्पी दिखाई है. वो हर कंपनी को वहां अपना कारख़ाना स्थापित करने के लिए एक बिलियन से भी अधिक पारितोषिक देकर निर्माणकर्ताओं को प्रोत्साहित करने के लिए तैयार है.

संयुक्त राज्य अमेरिका चिप निर्माण में अपनी बादशाहत दोबारा कायम करना चाहता है और भारत बाज़ार में प्रवेश करने का प्रयास कर रहा है, दोनों देशों के व्यावसायिक खिलाड़ी इससे होने वाले लाभ का हिस्सा पाने की होड़ में शामिल ज़रूर होंगे. अमेरिकी सरकार को उनके नीतियों से बचना चाहिए जो इस राह पर उसके भागीदार को नुकसान पहुंचाए. भारत के प्रयासों को मज़बूती प्रदान करने के लिए कुछ संयम बरतना और इलेक्ट्रॉनिक्स में उसकी मानव प्रतिभा का फायदा उठाना एक विजयी रणनीति होगी.

लंबे समय में, क्वॉड का अनकहा इरादा आर्थिक और सामरिक रूप में चीन के उदय का समाधान करना है. यद्यपि समूह के नेताओं ने “एशियाई नाटो” के नाम का विरोध किया है, क्वॉड के मीटिंग नोट्स में ताइवान का ज़िक्र इस बुनियादी मक़सद को बल देता है. इस संदर्भ में, अमेरिका और भारत में भी कुछ प्रमुख मतभेद हैं. कुछ पर्यवेक्षक अपनी सैन्य क्षमता और दक्षिण चीन सागर और ताइवान जलसंधि पर बीजिंग का सामना करने में प्रतिबद्धता ज़ाहिर न करने के कारण नई दिल्ली को एक कमज़ोर कड़ी के तौर पर देखते हैं.

चीन, ताइवान बन सकते हैं महत्वपूर्ण सहयोगी

इसमें कोई शक नहीं कि चीन के उदय का मुक़ाबला करना एक साझा मक़सद है, लेकिन भारत वर्तमान में ताइवान में शांति को संदेहपूर्ण मानता है. नई दिल्ली की प्राथमिकता अपनी सरहदों की सुरक्षा करते हुए आर्थिक विकास को बढ़ावा देना है. कुछ विश्लेषकों का तर्क है कि भारत  की कथित दुविधा के कारण भारत को मिलने वाला अमेरिकी समर्थन कम होना चाहिए और इसके बदले इंडोनेशिया या वियतनाम के साथ सहयोग करना चाहिए.  लेकिन उन देशों ने इस बात का संकेत नहीं दिया है कि बीजिंग के ख़िलाफ़ वे वॉशिंगटन का साथ देंगे. भारत भले ही ताइवान के साथ राजनीतिक और आर्थिक संबंधों का विस्तार कर रहा है, लेकिन उसका मुखर सैन्य सहयोग ऑटोमैटिक नहीं होगा. भारत का आगे का रणनीतिक झुकाव चीन के रवैये और नई दिल्ली के प्रति अमेरिका की सहनशीलता पर निर्भर करेगा.

भारत भले ही ताइवान के साथ राजनीतिक और आर्थिक संबंधों का विस्तार कर रहा है, लेकिन उसका मुखर सैन्य सहयोग ऑटोमैटिक नहीं होगा. भारत का आगे का रणनीतिक झुकाव चीन के रवैये और नई दिल्ली के प्रति अमेरिका की सहनशीलता पर निर्भर करेगा. 

अमेरिकी विधि निर्माताओं ने लिए अन्य चुनौतीपूर्ण मामला हथियारों के लिए भारत का रूस पर भरोसा है. रूसी इंवेन्ट्री क्वॉड देशों की मिलकर काम करने की क्षमताओं को बाधित कर सकता है. नई दिल्ली के मॉस्को के एस-400 मिसाइल रक्षा प्रणाली की खरीद पर प्रतिबंध का साया मंडरा रहा है, जिसका उद्देश्य मुख्य रूप से ज़मीन पर चीनी कार्रवाई को रोकना है.

लेकिन जैसा अमेरिकी सेनेटर टोड यंग का तर्क है, प्रतिबंध क्वाड के एजेंडे को पटरी से उतार सकती है, विशेषकर जब भारत, अमेरिका और उसके सहयोगियों से हथियारों की खरीद को लगातार बढ़ा रहा है. अब जब क्वॉड अपने समुद्री सहयोग को मज़बूत बनाना चाहता है, अमेरिका की समझदारी इसी में होगी कि रूसी मंच के आयात को नज़रअंदाज़ करे, न कि इसे टकराव का केंद्र बनाए. इसी तरह भारत, पाकिस्तान को लेकर अमेरिका के नरम रुख को लेकर चिंता में है. वॉशिंगटन में अफ़गानिस्तान की पराजय में पाकिस्तानी सैन्य भूमिका को लेकर बनी सहमति और प्रतिबंधों की मांग के बावजूद, पाकिस्तान की लोकेशन अमेरिका के लिए अब भी महत्वपूर्ण साबित हो सकती है, ख़ासकर काउंटर टेररिज़्म के लिए. लेकिन भारत की नज़र में अमेरिका, भारत विरोधी आतंकवादी समूहों को पाकिस्तान के समर्थन को नज़रअंदाज़ कर रहा है और उसकी सहायता कर रहा है. अफ़ग़ानिस्तान से वापसी ने भारत विरोधी जिहाद को पाकिस्तान का सहयोग मिलने के भारत के डर को और भी गहरा किया है- जिस तरह से वो तालिबान को क्षमादान के पक्ष में खड़ा है.

पाकिस्तान अब भी भारत के लिए ख़तरा बना हुआ है और नई दिल्ली उससे सैन्य तरीके से खुद निपटने की उम्मीद रखता है. हालांकि, भारत पश्चिमी मोर्चे पर जितना मशगूल रहेगा, उतना ही कम वो अपने पूर्वी और समुद्री मोर्चे पर ध्यान केंद्रित कर पायेगा, जहां क्वॉड एक साझा खतरा देखता है. लेकिन नई दिल्ली की क्षमताओं का ऐसा मूल्यांकन वॉशिंगटन की नीतिगत सोच में यदा-कदा ही सम्मिलित होता है, जो अफ़ग़ानिस्तान-पाकिस्तान मोर्चे पर आवश्यकताओं के आधार पर सीमित हो जाता है.

पाकिस्तान अब भी भारत के लिए ख़तरा बना हुआ है और नई दिल्ली उससे सैन्य तरीके से खुद निपटने की उम्मीद रखता है. 

यह सब क्वॉड के भीतर नई दिल्ली के लिए एक सवाल खड़ा करती है: अगर भारत की चिंताओं पर विचार किये बग़ैर पाकिस्तान के प्रति अमेरिका की नीति अपने संकीर्ण तार्किक ज़रूरतों के अनुसार तय की जाती रही, तो भारत को ताइवान के लिए बिना किसी अपेक्षित लाभ के लिए कितना आगे बढ़ना चाहिए? पिछले हफ्ते अमेरिका-भारत का साझा बयान सीमा पार से आतंकवाद से निपटने के मुद्दे पर पहले की अपेक्षा ज़्यादा साहसिक था, लेकिन यह तो वक्त ही बतायेगा कि पाकिस्तान के प्रति निरंतर क्षमाशील रहने की अपनी इमेज को सुधारने में अमेरिका का प्रयास पर्याप्त होगा या नहीं.

अमेरिका और भारत के बीच राजनीतिक मतभेद को संवेदनशीलता और धैर्य के साथ संभालने, क्वॉड के व्यापक लक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए पारस्परिक चिंताओं को दूर करने वाले व्यावहारिक समाधानों की ज़रूरत है. दोनों देशों के बीच रचनात्मक और उदार कूटनीति भविष्य में क्वॉड  की सफलता को प्रबल करेगा- एक परीक्षा जिसमें दोनों विफल नहीं होना चाहेंगे.

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