हाल में नए इंटरनेट ग्राहकों के बढ़ने से इस साल अगस्त में, भारत में ब्रॉडबैंड कनेक्शनों की संख्या 808 मिलियन को पार कर गई. साफ़ तौर पर भारत अपने “सभी के लिए इंटरनेट” के लक्ष्य को पूरा करने की ओर एक कदम आगे बढ़ चुका है. हालांकि इस उपलब्धि पर खुशियां मनाना डिजिटल क्वालिटी ऑफ लाइफ इंडेक्स 2021 यानी डीक्यूएल (Digital Quality of Life Index, DQL) के अनुसार थोड़ी जल्दबाज़ी होगी. डीक्यूएल एक वार्षिक वैश्विक रैंकिंग है, जो इस साल सितंबर में जारी हुई है.
इस साल डीक्यूएल के सूचकांक में भारत का स्थान 110 देशों में 59वां है, जो कि पिछले साल की तुलना में दो स्थान नीचे है. इंटरनेट की गुणवत्ता मापने के कई पैमानों में, भारत के संदर्भ में देखें तो ब्रॉडबैंड की स्पीड और उसकी स्थिरता ख़ासतौर पर परेशानी का सबब हैं. सूचकांक के अनुसार, देश में ब्रॉडबैंड की कनेक्टिविटी सापेक्ष रूप से स्थिर है लेकिन उसकी स्पीड अब भी कमज़ोर है. कुल मिलाकर, यह भारत की ‘इंटरनेट गुणवत्ता’ (जो एक डीक्यूएल सूचकांक का एक प्रमुख संकेतक है) 67वें स्थान पर है, और इस प्रकार, भारत सर्वेक्षण किए गए देशों के निचले आधे हिस्से में शामिल है.
इस साल डीक्यूएल के सूचकांक में भारत का स्थान 110 देशों में 59वां है, जो कि पिछले साल की तुलना में दो स्थान नीचे है. इंटरनेट की गुणवत्ता मापने के कई पैमानों में, भारत के संदर्भ में देखें तो ब्रॉडबैंड की स्पीड और उसकी स्थिरता ख़ासतौर पर परेशानी का सबब हैं.
पारंपरिक रूप से, भारत के इंटरनेट सेवा प्रदाताओं ने ब्रॉडबैंड की अधिक स्पीड को अपनी खूबी बताते हुए प्रचार किया है लेकिन, लेकिन ब्रॉडबैंड की स्पीड अभी भी एक बड़ी समस्या है और लगातार हो रही जांच का विषय है. हालांकि ब्रॉडबैंड कनेक्शन के बाज़ार में तमाम हितधारकों को ये बात समझ आने लगी है कि उन्हें इंटरनेट की गुणवत्ता, विश्वसनीयता और उपभोक्ताओं के अनुभवों को प्राथमिकता देने की आवश्यकता है. उदाहरण के लिए ब्रॉडबैंड इंडिया फोरम ने घोषणा की है कि 2025 तक भारत को विश्व में उन 10 सर्वश्रेष्ठ देशों में शामिल होना चाहिए, जो ब्रॉडबैंड उपभोक्ता अनुभवों के मामले में बेहतरीन हों. यह प्राथमिकताओं में ज़रूरी और सामयिक बदलाव हैं. अगर इन्हें एक साथ लागू किया जाए तो ब्रॉडबैंड की उच्च उपलब्धता और उच्च गुणवत्ता भारत के सतत विकास लक्ष्यों यानी एसडीजी (Sustainable Development Goals) को हासिल करने की दिशा में बहुत बड़ी जीत हो सकती है.
ब्रॉडबैंड, सामाजिक और आर्थिक वृद्धि व सतत विकास लक्ष्य
ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी का सामाजिक और आर्थिक वृद्धि से एक मज़बूत संबंध है. जैसा कि विश्व बैंक की एक रिपोर्ट, जिसका उदाहरण बार-बार दिया जाता है, के अनुसार किसी देश में ब्रॉडबैंड सुविधा के विस्तार में प्रति दस प्रतिशत वृद्धि होने पर देश की जीडीपी वृद्धि दर में भी 1.38 प्रतिशत की वृद्धि होती है. इसलिए सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) का लक्ष्य 9.सी ‘संचार प्रद्यौगिकी (आईसीटी: इन्फॉर्मेशन एंड कम्युनिकेशंस टेक्नोलॉजी) तक पहुंच में उल्लेखनीय वृद्धि करने और 2020 तक न्यूनतम विकसित या अविकसित देशों में सार्वभौमिक और सस्ते इंटरनेट तक पहुंच प्रदान करने के प्रयास’ के लिए देशों पर दबाव डालने के लिहाज़ से रणनीतिक है. एसडीजी के सभी लक्ष्यों के पूरा होने की समय-सीमा (2030) की तुलना में इस लक्ष्य की सीमावधि काफ़ी कम है. इससे ये स्पष्ट होता है कि लोगों को जल्दी ही इंटरनेट से जोड़ना एसडीजी के अन्य लक्ष्यों को पूरा करने के दृष्टिकोण से बेहद ज़रूरी है.
तमाम अंतर्राष्ट्रीय अनुसंधानों के हवाले से, अब इस दावे की सत्यता काफ़ी हद तक संदेह से परे है कि भारत में ब्रॉडबैंड का विस्तार सामाजिक विकास में क्रांतिकारी बदलाव लाएगा, ख़ासकर प्रशासन, शिक्षा, स्वास्थ्यसेवा के क्षेत्र में. इसके अलावा आर्थिक विकास की दर में वृद्धि भी ब्रॉडबैंड के विस्तार के साथ जुड़ी हुई है, विशेष रूप से रोजगार वृद्धि और सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) और ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था के निर्माण के लिए. इन विचारों और लक्ष्य 9.सी से जुड़ी प्रमुख मान्यताओं ने भारत की राष्ट्रीय डिजिटल संचार नीति यानी एनडीसीपी (National Digital Communications Policy, NDCP) को जन्म दिया है. एनडीसीपी एक ऐसा प्रगतिशील खाका है, जो सामाजिक-आर्थिक विकास के एक उपकरण के तौर पर 2022 तक उच्च गुणवत्ता वाली सार्वभौमिक ब्रॉडबैंड सुविधाओं के विस्तार के ज़रिए ‘कनेक्ट इंडिया यानी भारत जोड़ो’ के अपने लक्ष्य को हासिल करना चाहता है.
शिक्षा, निश्चित रूप से, ख़राब कनेक्टिविटी की समस्या से सबसे बुरी तरह से प्रभावित क्षेत्रों में से एक रही है क्योंकि बड़े पैमाने पर शिक्षक और छात्र ऑनलाइन शैक्षिक गतिविधियों की तरफ़ मुड़ गए हैं.
अगर ब्रॉडबैंड आधारित परिवर्तन को हमें साकार करना है तो सेवा गुणवत्ता से जुड़े सिद्धांतों पर जोर देना होगा और उसे क्रियान्वित करना होगा. लेकिन भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) ने ब्रॉडबैंड की गुणवत्ता में सुधार के लिए कई सिफारिशें की हैं, लेकिन उसकी अधिकांश सिफारिशों को अभी तक लागू नहीं किया गया है या फिर विकास के लिए आईसीटी पर चर्चा को अभी प्रमुखता से नहीं लिया जा रहा है.
प्रमुख नियामक ढांचे भी कई अनियमितताओं से ग्रस्त हैं. वैश्विक संकेतक ढांचे, जो सतत विकास लक्ष्यों का भाग है, में भी आईसीटी और ब्रॉडबैंड से जुड़ाव के ज़रिए समुदायों के अनुभवों को बेहतर करने की जरूरत पर किसी चर्चा का अभाव है. लक्ष्य 9.सी में अंतर्निहित संकेतक केवल ‘मोबाइल नेटवर्क और तकनीक से जुड़ी जनसंख्या का अनुपात’ भर है. राष्ट्रीय स्तर पर भी नीति आयोग द्वारा अपनाए गए एसडीजी से जुड़े कुछ संकेतकों को भी इसी तरह परिभाषित किया गया है. लक्ष्य 9.सी के लिए भारतीय संकेतक ‘प्रति सौ लोगों पर इंटरनेट कनेक्शनों की संख्या’ और ‘प्रति सौ लोगों पर मोबाइल कनेक्शनों की संख्या’ है.
केवल इन्हीं आंकड़ों के आधार पर हम नागरिकों की डिजिटल पहुंच के बारे में ठीक-ठीक अनुमान नहीं लगा सकते.
निम्न गुणवत्ता की ब्रॉडबैंड सुविधा से जुड़ी मानवीय लागत
कोरोना महामारी की शुरुआत के बाद से ही ब्रॉडबैंड की भारी मांग और इसके उपयोग में हुई अतिशय वृद्धि ने इंटरनेट की ख़राब गुणवत्ता को रेखांकित किया है, जबकि इंटरनेट उपयोगकर्ताओं की संख्या में वृद्धि जारी है. सभी क्षेत्रों में, खराब कनेक्टिविटी की मानवीय लागत स्पष्ट रूप से स्पष्ट हो गई है.
शिक्षा, निश्चित रूप से, ख़राब कनेक्टिविटी की समस्या से सबसे बुरी तरह से प्रभावित क्षेत्रों में से एक रही है क्योंकि बड़े पैमाने पर शिक्षक और छात्र ऑनलाइन शैक्षिक गतिविधियों की तरफ़ मुड़ गए हैं. गुजरात में 2,200 शिक्षकों के बीच किए गए सर्वे, जिसका लक्ष्य ऑनलाइन शिक्षा के अच्छे और बुरे प्रभावों की जांच करना था, में पाया गया कि करीब 56 प्रतिशत शिक्षकों का मानना था कि ख़राब इंटरनेट कनेक्टिविटी शिक्षा में बाधा डालने वाली प्रमुख समस्या थी. भारत से आने वाली तमाम ख़बरों के बीच, ये बात प्रमुख रूप तब सामने आई थी, जब मीडिया ने मिजोरम के एक गांव में छात्रों द्वारा ऑनलाइन क्लास लेने में आ रही मुश्किलों और जंगल में एक पहाड़ी पर बैठकर परीक्षा देने संबंधी मीडिया रिपोर्ट को प्रकाशित किया था. चूंकि वो पहाड़ी ही उस क्षेत्र में इकलौती ऐसी जगह थी, जहां उनके मोबाइल का ब्रॉडबैंड कनेक्शन कुछ हद तक काम कर रहा था.
शिक्षा, निश्चित रूप से, ख़राब कनेक्टिविटी की समस्या से सबसे बुरी तरह से प्रभावित क्षेत्रों में से एक रही है क्योंकि बड़े पैमाने पर शिक्षक और छात्र ऑनलाइन शैक्षिक गतिविधियों की तरफ़ मुड़ गए हैं.
इंटरनेट की गुणवत्ता ने स्थानीय प्रशासन को भी प्रभावित किया है. स्वास्थ्य क्षेत्र में, ग्रामीण क्षेत्रों में कोरोना के विरुद्ध टीकाकरण की गतिविधियां भी ख़राब इंटरनेट कनेक्टिविटी और इंटरनेट सुविधाओं तक पहुंच के अभाव के चलते प्रभावित हुईं. भारत-नेट, जो एक फ्लैगशिप यानी अग्रणी परियोजना है, जिसके तहत 2.5 लाख ग्राम पंचायतों को ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी प्रदान करना है, उनमें से आधे से भी कम ग्राम पंचायत ही वाईफाई हॉटस्पॉट से जुड़े हैं और उनमें भी केवल 65000 हॉटस्पॉट काम कर रहे हैं. जैसा कि रायबरेली के एक ग्राम प्रधान ने बताया, कुछ समय पहले उनके गांव में एक हॉटस्पॉट लगाया गया था, लेकिन यह अब काम नहीं कर रहा है.
विडंबना यह है कि सरकार के लक्ष्य 9.सी से जुड़े संकेतक इन समुदाय के कई सदस्यों को सभी के लिए ब्रॉडबैंड प्रदान करने के राष्ट्रीय प्रयासों के लाभार्थियों के रूप में गिनेंगे, भले ही वे इन सुविधाओं का लाभ उठाने में विफल हों.
आगे की दिशा
भारत में ब्रॉडबैंड कनेक्शनों की संख्या 900 मिलियन तक पहुंचने के साथ, देश सार्वभौमिक ब्रॉडबैंड सेवा प्रदान करने की ओर अग्रसर है. हालांकि ये आंकड़ें उत्साह बढ़ाने वाले जरूर हैं, लेकिन विभिन्न स्तरों पर डिजिटल विभाजन से प्रभावित हैं. जैसे कि भौगोलिक, आर्थिक और लैंगिक आधार पर डिजिटल विभाजन सर्वाधिक है. इन असमानताओं में सुधार करना महत्त्वपूर्ण है.
उसके साथ ही, ब्रॉडबैंड सुविधाओं की गुणवत्ता के मुद्दे को सीधे तौर पर निपटाना होगा. ट्राई ने हाल ही में भारत में इंटरनेट डाउनलोड स्पीड के लिए न्यूनतम अनिवार्य सीमा को 512 केबीपीएस से संशोधित करते हुए 2 एमबीपीएस कर दिया है. ये एक उपयोगी प्रथम चरण है लेकिन ये देखते हुए कि अधिकांश इंटरनेट सुविधा प्रदाता इस न्यूनतम सीमा से कहीं अधिक स्पीड पर काम कर रहे हैं, शायद ये समय आ गया है कि हम ब्रॉडबैंड की परिभाषा को पुनर्मूल्यांकन करें और इंटरनेट की गति को और अधिक बढ़ाने की आवश्यकता के बारे में आम सहमति बनाएं. महामारी के बाद की दुनिया में इंटरनेट की बढ़ती मांग को देखते हुए अपलोड क्षमता को लेकर भी पुनर्विचार की आवश्यकता है. इंटरनेट सेवा प्रदाताओं के साथ ‘सेवा गुणवत्ता (क्यूओएस: क्वालिटी ऑफ सर्विस)’ को मजबूत करने संबंधी समझौतों को मजबूत करने के लिए एक अहम नीतिगत फैसला लिया जा सकता है, जिससे सेवा गुणवत्ता से जुड़े मानकों को पूरा करने और उनकी निगरानी करने संबंधी एक मजबूत प्रणाली का निर्माण किया जा सकता है, और इस तरह से सुनिश्चित किया जा सकता है कि उपभोक्ताओं को बेहतर एवं ज़रूरी सुविधाएं मिलेंगी.
सबसे महत्त्वपूर्ण बात ये है कि गुणवत्ता में सुधार के लिए जान-आधारित दृष्टिकोण को अपनाए जाने की ज़रूरत है. स्थानीय समुदायों की ज़रूरतों और उनके अनुभवों को बेहतर ढंग से समझे जाने की आवश्यकता है और इसी आधार पर ब्रॉडबैंड सुविधाओं के विस्तार और उसके मूल्यांकन को बढ़ावा दिया जाना चाहिए.
सबसे महत्त्वपूर्ण बात ये है कि गुणवत्ता में सुधार के लिए जान-आधारित दृष्टिकोण को अपनाए जाने की ज़रूरत है. स्थानीय समुदायों की ज़रूरतों और उनके अनुभवों को बेहतर ढंग से समझे जाने की आवश्यकता है और इसी आधार पर ब्रॉडबैंड सुविधाओं के विस्तार और उसके मूल्यांकन को बढ़ावा दिया जाना चाहिए. इसलिए समुदाय-केंद्रित संस्थाओं और सामुदायिक विकास से जुड़े विभिन्न अभिकर्ताओं के साथ व्यापक भागीदारी का निर्माण किया जाना चाहिए, साथ ही ऐसे मंचों की स्थापना होनी चाहिए, जहां से सामुदायिक प्रतिक्रियाएं हासिल की जा सकें, ताकि ब्रॉडबैंड नेटवर्क डिजाइन, नीति-निर्माण प्रक्रियाओं और मौजूदा ढांचे में सुधार को प्रभावित किया जा सके.
लक्ष्य 9.सी को पूरा करने की सीमावधि (2020 तक) बीत चुकी है. लेकिन तमाम अन्य महत्त्वपूर्ण बिंदु हमारे सामने हैं. जैसा कि भारत 2022 तक एनडीसीपी के अनुमानित परिणामों और 2025 तक ब्रॉडबैंड आयोग द्वारा अनुशंसित लक्ष्यों की दिशा में काम कर रहा है, ताकि वह 2030 तक अपने सतत विकास लक्ष्यों को पूरा कर सके, ऐसे में वह ब्रॉडबैंड की गुणवत्ता के ऊपर उसके उपयोगकर्ताओं की संख्या को तरजीह नहीं दे सकता है. इंटरनेट तक केवल पहुंच को नहीं, बल्कि उसके ज़रिए सशक्तिकरण को केंद्र में रखकर काम करना होगा.
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