Published on Nov 11, 2021 Updated 0 Hours ago

सीमा पर चीन से सामना करने के लिए भारत को और अधिक सक्रिय होना चाहिए

भारतीय सेना की ‘टैंक’ से जुड़ी समस्या और दो मोर्चों पर चुनौती

मोदी सरकार के नेतृत्व में रक्षा मंत्रालय ने भारतीय सेना के लिए 118 अर्जुन मार्क – 1 A मेन बैटल टैंक (एमबीटी) खरीदने का ऑर्डर दिया है ऐसे में पाठकों को यह समझना बेहद ज़रूरी है कि आखिर वो कौन सी परिस्थितियां हैं जिसके चलते सरकार ऐसे भारी जंगी टैंकों को इतना महत्व दे रही है और ये टैंक भारत के लिए क्यों ज़रूरी हैं. लेकिन, इसे लेकर आज जो बहस चल रही है वह इससे संबंधित एक पहलू को ही बताती है जो भारतीय सेना के बख़्तरबंद कोर क्षमताओं से जुड़ा है. यह कॉन्ट्रैक्ट 7,523 करोड़ रुपए का है और अर्जुन  मार्क – 1 A मेन बैटल टैंक (एमबीटी) पर मौजूदा बहस बढ़ती ही जा रही है. प्रमुख तर्क जो इसे लेकर दिया जा रहा है वह यह है कि क्या रक्षा मंत्रालय को भारतीय सेना को मजबूत और ताकतकवर बनाने में  क्या मंत्रालय को हस्तक्षेप करना चाहिए और एमबीटी की खरीद के तहत अधिक वजन वाले टैंकों का एक सेट खरीदना क्यों अनावश्यक बताया जा रहा है. रक्षा मंत्रालय ने ख़ुद ही अपने फैसले को इस आधार पर न्यायसंगत बताया कि इससे करीब 8000 नई नौकरियां पैदा होंगी और मोदी सरकार के फ्लैगशिप आत्मनिर्भर परियोजना के तहत स्वदेशी के लक्ष्य को ज़्यादा से ज़्यादा पूरा करेगी और एमके -1 के मुकाबले इसमें 72 नई ख़ासियतों को जोड़ सकेगी. अर्जुन टैंक एमके -1 A के विकास को लेकर इन फायदों के बारे में बढ़ चढ़ कर बताया जा रहा है लेकिन कुछ बुनियादी समस्याएं हैं जो बख़्तरबंद हथियारों के विकास को लेकर भारत के पहल से जुड़ी हैं.

मुख्य सवाल यह नहीं है कि भारत को भारी जंगी टैंक या हल्के जंगी टैंक की ज़रूरत है. बख़्तरबंद हथियार दो तरह के होते हैं – हल्के और भारी, और भारत के दो मोर्चों पर सैन्य चुनौती के लिए दोनों ही तरह – हल्के और भारी बख़्तरबंद हथियारों की आवश्यकता है. सच में भारतीय सेना की बख़्तरबंद वाहनों की समस्या ज़्यादातर लक्ष्णात्मक है जो भारतीय सुरक्षा योजना को प्रभावित करती है – मतलब किसी समस्या को तब तक ठीक करने के लिए हाथ-पांव मारना जब तक वह वास्तव में सामने ना आ जाए. प्रमुख तौर पर यह दो मुख्य चुनौतियां हैं. अनुमान के मुताबिक दूसरी जो बड़ी चुनौती है, वह अधिग्रहण क्षमताओं के अभाव की है जो भारतीय सेना के चीन और पाकिस्तान के ख़िलाफ़ ऑपरेशनल और भौगोलिक ज़रूरतों के संदर्भ को लेकर है.

मुख्य सवाल यह नहीं है कि भारत को भारी जंगी टैंक या हल्के जंगी टैंक की ज़रूरत है. बख़्तरबंद हथियार दो तरह के होते हैं – हल्के और भारी, और भारत के दो मोर्चों पर सैन्य चुनौती के लिए दोनों ही तरह – हल्के और भारी बख़्तरबंद हथियारों की आवश्यकता है.

पहली चुनौती के मामले में, भारतीय सेना अचानक से हल्के जंगी टैंक (एलबीटी) के महत्व को पहचानने लगी है जिसकी बड़ी वजह मई 2020 से भारत-चीन सरहद  पर जारी सीमा विवाद है. ऐसे में भारतीय सेना के लिए 2020 से पहले ही इस खरीदारी को पूरा कर लिया जाना चाहिए था. दो राय नहीं कि अर्जुन टैंक का फायदा केवल पाकिस्तान के ख़िलाफ़ परिचालन आकस्मिकताओं तक ही सीमित हैं  और इसकी तैनाती या फिर इस्तेमाल पाकिस्तान को लेकर रेगिस्तान या फिर अर्ध-रेगिस्तानी मैदान तक ही सीमित हैं. निस्संदेह इस टैंक के विकास की ज़रूरत है लेकिन इसे प्राप्त करने में ज़रूरत से ज़्यादा समय और कोशिश ज़ाया हो चुकी है और चीन के ख़िलाफ़ ज़्यादा ऊंचाई वाले जंग के मैदानों में हल्के बख़्तरबंद हथियारों के निर्माण को लेकर निवेश को यह जोख़िम में डाल रहा है. दरअसल भारतीय रणनीतिक और सैन्य योजना का एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तान को लेकर समर्पित है.

चीन की तरफ़ से लगातार बढ़ता ख़तरा

चीन के संदर्भ में भारतीय नेतृत्व ने कम से कम विरोध का रास्ता अख़्तियार किया हुआ है. जब तक दोनों देशों के बीच सीमा विवाद का मामला सुप्त अवस्था में है – जैसा कि जुलाई-अगस्त 2017 में डोकलाम विवाद से पहले तक यह था – और उसके बाद मई 2021 के बाद जो परिस्थितियां बनीं – भारतीय नेतृत्व ने यह दर्शाया कि चीन से सामना करने लिए क्षमताओं पर निवेश करने को लेकर उनके पास कोई प्रोत्साहन नहीं है. ना ही चीन की सैन्य चुनौतियों के ख़िलाफ़ कोई योजना या फिर आगे की सोच है, जैसा की मौजूदा समय में चीन की तरफ से ख़तरों में लगातार इजाफ़ा होता जा रहा है. जिस तरीके से भारतीय सेना की दिलचस्पी बख़्तरबंद वाहिनी को लेकर है उसे छोड़कर यह प्रेरणा कहीं नहीं दिखती है – जो भारी मेन बैटल टैंक की तरफ झुका हुआ दिखता है. भारतीय सेना फिलहाल जल्दबाजी में स्वचालित के-9 वज्र हॉवित्ज़र बंदूकों को शामिल करने को विवश है, जिसे ट्रैक्ड प्लेटफ़ॉर्म के ऊपर तैनात किया गया है जो इसे पहाड़ों में ऑपरेशन के संचालन के लिए गतिशीलता प्रदान करती है. इसके बाद भी भारतीय सेना एक विश्वसनीय लाइट बैटल टैंक (एलबीटी) की कमी से जूझ रही है.

भारतीय नेतृत्व ने यह दर्शाया कि चीन से सामना करने लिए क्षमताओं पर निवेश करने को लेकर उनके पास कोई प्रोत्साहन नहीं है. ना ही चीन की सैन्य चुनौतियों के ख़िलाफ़ कोई योजना या फिर आगे की सोच है, जैसा की मौजूदा समय में चीन की तरफ से ख़तरों में लगातार इजाफ़ा होता जा रहा है.

वास्तव में ऊंचाई पर जंग के मैदान में के-9 वज्र की सफलता के बावजूद भारतीय सेना ने साल 2017 में 4500 करोड़ रुपए की कीमत पर जो 100 वज्र हथियारों का ऑर्डर दिया था वह पाकिस्तान के रेगिस्तानी इलाके के लिए था. हथियारों का यह ऑर्डर फिर भी चीन और भारत के बीच पड़ने वाले पहाड़ी इलाकों के लिए नहीं दिया गया था. यह इस बात की ओर संकेत देता है कि चीन और भारत के बीच सीमा विवाद के भड़कने से पहले तक भारत सरकार की प्राथमिकता क्या थी.

एलबीटी के लिए, भारतीय सेना और रक्षा मंत्रालय अभी भी स्प्रट एसडीएम1 एलबीटी की पहली खेप पाने का इंतज़ार कर रही है, जिसका ट्रायल अभी रूस में होना बाकी है. इसके अलावा अप्रैल 2021 में रक्षा मंत्रालय ने 25 टन की कैटेगरी में 350 लाइट बैटल टैंक को लेकर सूचना की अपील जारी की थी लेकिन अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में सिवाय रूस के स्पर्ट एसडीएम 1 के ऐसे कोई हथियार मौजूद नहीं थे जो आरएफआई के 25 टन वजन सीमा वाले हथियारों के मानक को पूरा करते हों. स्पर्ट एलबीटी की खरीदारी और उससे संबंधित कॉन्ट्रैक्ट पर हस्ताक्षर करने में अभी कम से कम कई महीने और अधिकतम एक साल से ज़्यादा का वक़्त लग सकता है. अभी मौजूदा समय में भारत ने कम कीमत वाले वज्र के नए वर्ज़न के विकल्प का चुनाव किया है जिसे डिफेंस रिसर्च एंड डेवलपमेंट ऑर्गेनाइजेशन (डीआरडीओ) और लारसन एंड टुब्रो (एलएंडटी) साझा तौर पर विकसित कर रही है. इस साझा प्रयास के तहत के-9 वज्र के 155 मिमी बंदूक को 105 और 82 एमएम बंदूक से बदल कर वज्र को ज़्यादा हल्का बनाया जा  रहा है जिससे कि ऊंचाई पर जंग के मैदान में चीन की चुनौतियों का सामना किया जा सके.

वास्तव में के-9 वज्र की तैनाती, जिसे कभी भी पहाड़ी इलाकों में ऑपरेशन करने के लिए डिज़ाइन या फिर विकसित नहीं किया गया था, इस बात को साबित करता है कि चीन की सैन्य चुनौतियों को लेकर ख़ासतौर पर भारत की सैन्य योजना कितनी ख़स्ताहाल है.

वास्तव में के-9 वज्र की तैनाती, जिसे कभी भी पहाड़ी इलाकों में ऑपरेशन करने के लिए डिज़ाइन या फिर विकसित नहीं किया गया था, इस बात को साबित करता है कि चीन की सैन्य चुनौतियों को लेकर ख़ासतौर पर भारत की सैन्य योजना कितनी ख़स्ताहाल है. हालांकि, उम्मीद की किरण बस इतनी भर दिख रही है कि चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी की चुनौतियों का सामना करने के लिए भारतीय सेना, रक्षा मंत्रालय और भारतीय सरकार ज़रूरी निवेश करने के लिए तैयार है और अपनी कोशिशों को लेकर काफी केंद्रित है. भारत के सुरक्षा योजनाकारों को इस क्रूर वास्तविकता को लेकर कोई भ्रम नहीं पालना चाहिए कि वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर सैन्य रूप से सक्रिय रहने को सुनिश्चित करने के लिए भारत की शांति पहल को लेकर आने वाले  वर्षों में चीन शांत बैठने वाला है.

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