पश्चिमी देश ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन एवं वैश्विक, घातक जलवायु परिवर्तन पर इसके प्रभावों को लेकर, अधिकतर बलि के बकरे के रूप में, भारत और चीन की ओर अक्सर उंगली उठाते रहे हैं। पश्चिमी देश वर्षों के अपने सतत विकास की वजह से — मुख्य रूप से बड़े पैमाने पर जीवश्म (फॉसिल) र्इंधन से चलने वाले बिजली संयंत्रों तथा तेल पर आधारित गतिशील बुनियादी ढांचे के विस्तार के जरिये-अधिक कार्बन का उत्सर्जन करते रहे हैं जो 1970 के बाद से वैश्विक उत्सर्जन में आधे से भी अधिक है जबकि भारत और चीन द्वारा आगामी वर्षों में अपना खुद का ऊर्जा सृजन के बुनियादी ढांचे का निर्माण करना तय है। एक अरब से अधिक की आबादी एवं आर्थिक समृद्धि हासिल करने की ललक वाले इन दोनों देशों से निकट भविष्य में बड़े पैमाने पर ऊर्जा सृजन के बुनियादी ढांचे का निर्माण किए जाने की उम्मीद है।
इस पृष्ठभूमि को देखते हुए, भारत और चीन भी पहले 20 संयुक्त राष्ट्रसंघ प्रायोजित जलवायु परिवर्तन संवादों में तर्क देते रहे हैं कि उन पर भी पश्चिमी देशों की ही तरह अपने देश के लोगों को भी आर्थिक संपन्न मुहैया कराने की जिम्मेदारी है।
फिर कौन उत्सर्जन में कमी करने में पहल करने का बीड़ा उठाए? पश्चिमी देश, जिन्होंने पहले ही आर्थिक समृद्धि का आनंद उठा लिया है? या फिर आकांक्षी बड़े देश जो अभी तक विकसित होने की दहलीज पर भी नहीं पहुंचे हैं? 1992 में, जब से ब्राजील में जलवायु परिवर्तन संवाद की शुरुआत हुई है, गतिरोध की आरंभिक वजह का केंद्रीय बिंदु यही रहा है।
फिर कौन उत्सर्जन में कमी करने में पहल करने का बीड़ा उठाए? पश्चिमी देश, जिन्होंने पहले ही आर्थिक समृद्धि का आनंद उठा लिया है? या फिर आकांक्षी बड़े देश जो अभी तक विकसित होने की दहलीज पर भी नहीं पहुंचे हैं?
जलवायु परिवर्तन में कमी का बदलता अर्थशास्त्र
ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोतों से लागत में, खासकर, पिछले छह-सात वर्षों में नाटकीय गिरावट आई है और इसने जलवायु परिवर्तन की स्थिति बदल कर रख दी है। फॉसिल (जीवाश्म) ईंधन आधारित बिजली संयंत्रों के निर्माण में ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोत 10 से 30 प्रतिशत तक सस्ते पड़ते हैं जो देश विशेष पर निर्भर करता है। भारत में नए सौर और पवन स्रोतों से सृजित बिजली की कीमत, पूंजी और वित्तपोषण लागतों को मिला कर भारत की सबसे बडी़ सार्वजनिक क्षेत्र की ताप बिजली उत्पादक कंपनी नेशनल थर्मल पावर कॉरपोरेशन द्वारा उत्पादित थर्मल बिजली की औसत कीमत से 15 से 20 प्रतिशत सस्ती है। चूंकि बिजली उत्पादन में सभी ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन का एक चौथाई हिस्सा उत्सर्जित होता है, बिजली मूल्य श्रृंखला को स्वच्छ करने से कार्बन उत्सर्जन में उल्लेखनीय कमी आएगी जिसकी वजह यह है कि जलवायु शुद्ध करने से संबंधित सभी संभावित कार्यनीतियों में यह एकमात्र स्वतंत्र कदम है।
पेरिस जलवायु सम्मेलन, 2015
आज की तुलना में उस वक्त दुनिया काफी अलग थी। अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपने कार्य काल में जलवायु परिवर्तन को काफी प्राथमिकता दी एवं उत्सर्जन पर अंकुश लगाने पर सहमत होने के लिए देशों को एकजुट करने के लिए उत्तेखनीय प्रयास किए। पेरिस समझौता अपनी तरह का ऐसा पहला समझौता था जिसमें लगभग सभी देशों ने स्वेच्छा से अपने संबंधित उत्सर्जन में कमी लाने पर सहमति जताई जिससे कि वैश्विक औसत तापमान वृद्धि को औद्योगिक समय से पहले के स्तर के 1.5 से 2 डिग्री सेल्सियस के भीतर लाया जा सके।
पेरिस में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की योजना सौर अनुपालन को बढ़ाने, पुराने,निष्क्रिय बिजली संयंत्रों को बंद करने एवं सघन वनीकरण योजनाओं के जरिये उत्सर्जन में उल्लेखनीय मात्रा में कमी लाने की थी। इसे भारत के आर्थिक विकास के पहिये को आगे बढ़ाते रहने के स्व-हित एवं इरादे को सुनिश्चित करने तथा देश के उत्सर्जन में कमी लाने में संतुलन करने के एक बेहतरीन कदम के रूप में देखा गया। सौर और नवीकरणीय ऊर्जा वे ठोस आधार थे जिसे भारत ने दुनिया के सामने प्रस्तुत किया।
देश में, उन्होंने यूपीए कार्यकाल के दौरान निर्धारित 25 गीगावाट के भारत के सौर ऊर्जा के लक्ष्य को चार गुना बढ़ा कर 2022 तक 100 गीगावाट कर दिया था। इसके अतिरिक्त, मोदी ने अपनी सरकार को अधिदेशित किया था कि वह पवन, लघु पनबिजली एवं बायोमास के रूप में 75 गीगावाट अतिरिक्त नवीकरणीय ऊर्जा का निर्माण करे-जिसमें पवन ऊर्जा का योगदान 60 गीगावाट का हो। निश्चित रूप से यह कोई छोटी संख्या नहीं थी। जब मई, 2014 में उन्होंने सत्ता संभाली थी, उस वक्त भारत की संचयी संस्थापित बिजली सृजन क्षमता 240 गीगावाट थी जिसमें कोयले का योगदान दो तिहाई क्षमता से अधिक का था। जब वर्तमान पूरी क्षमता का निर्माण साठ वर्ष से अधिक की अवधि में हुआ, उतनी क्षमता का निर्माण केवल पांच वर्ष की अवधि में करने का लक्ष्य निश्चित रूप से एक निडर कदम था।
उल्लेखनीय है कि किसी महत्वाकांक्षी उद्यम में समाधान योग्य गड़बड़ियों के साथ अभी तक भारतीय नवीकरणीय कार्यक्रम सफल रहा है। सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा का हिस्सा सभी बिजली क्षमता में लगभग 18-19 प्रतिशत है और बिजली सृजन में 6 प्रतिशत के करीब है। 2017 में, भारत ने लगभग 12 गीगावाट नई क्षमता जोड़ी, प्रतिस्पर्धी नीलामियों के माध्यम से निम्न टैरिफ की खोज की और ग्रिड को मजबूत बनाने के लिए कार्य योजनाएं आरंभ कीं।
अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन
देश में नवीकरणीय लक्ष्यों को प्रोत्साहित करने के अतिरिक्त, प्रधानमंत्री ने फ्रांस के तत्कालीन प्रधानमंत्री फ्रैंकोइस होलैंडे के रूप में एक सहयोगी ढूंढने में भी तत्पर रहे जो 2015 में पेरिस वार्ता के मेजबान भी थे और उन्होंने पेरिस सम्मेलन के दौरान फ्रांस के साथ मिल कर दुनिया भर में सौर ऊर्जा के विकास को बढ़ावा देने के लिए अंतरराष्ट्रीय सोलर गठबंधन (आईएसए) भी लांच किया। आईएसए का उद्वेश्य भूमध्यवर्ती उष्णकटिबंधीय क्षेत्र के भीतर स्थित देशों मुख्य रूप से उभरते देशों को सोलर टेक्नोलॉजी एवं उसके उपयोग में सर्वश्रेष्ठ प्रचलनों को साझा करने के लिए एक साथ लाना एवं सौर ऊर्जा का अधिक से अधिक उपयोग करने के लिए सरकारी अनुदान उपलब्ध कराना था।
आईएसए के साथ, प्रधानमंत्री मोदी ने अनिवार्य रूप से ऐसी प्रौद्योगिकी अपनाई जो मुख्य रूप से अर्थशास्त्र से प्रेरित थी और उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि वह इसका उपयोग भारत के भविष्य के अपेक्षित उत्सर्जनों की पश्चिमी देशों की आलोचना का जवाब देने के लिए ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को नियंत्रित करने की भारत की प्रतिबद्धता प्रदर्शित करने के लिए करें।
पेरिस सम्मेलन के बाद के वर्षों में दुनिया में बदलाव आ चुका है — और प्र्रधानमंत्री मोदी की पहल अपना रंग दिखा रही है। ओबामा की विदाई और अमेरिका की आंतरिक राजनीति में रिपब्लिकन के दबदबे ने विश्व भर में जलवायु परिवर्तन के आवेग में एक बड़ी कमी पैदा कर दी है। देशों में नेतृत्व की खोज के लिए संघर्ष हो रहा है और वे उत्सर्जन में कमी करने की उनकी प्रतिबद्धताओं में विघ्न पहुंचाने को लेकर एक दूसरे की आलोचना कर रहे हैं जैसाकि ट्रम्प ने पहले ही इसे मानने से इंकार कर दिया है। यूरोप से भी, यह देखते हुए कि अधिकांश यूरोपीय ऊर्जा प्रणालियां का पहले ही निर्माण हो चुका है और उनके उत्सर्जन स्थिर हो चुके हैं, और ईयू एवं देश दोनों ही स्तरों पर उनकी आंतरिक राजनीति में दरार में वृद्धि हो चुकी है, अमेरिकी शून्यता के बाद इस मुद्वे पर अन्य कोई स्पष्ट वैश्विक नेता उभर कर सामने नहीं आया है।
अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन के साथ, प्रधानमंत्री मोदी ने अनिवार्य रूप से ऐसी प्रौद्योगिकी अपनाई जो मुख्य रूप से अर्थशास्त्र से प्रेरित थी और उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि वह इसका उपयोग भारत के भविष्य के अपेक्षित उत्सर्जनों की पश्चिमी देशों की आलोचना का जवाब देने के लिए ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को नियंत्रित करने की भारत की प्रतिबद्धता प्रदर्शित करने के लिए करें।
प्रधानमंत्री मोदी जलवायु परिवर्तन पर अग्रणी भूमिका निभा रहे हैं
कई प्रकार के आंतरिक एवं बाहरी घटनाक्रमों की वजह से प्रधानमंत्री मोदी देश में भी ऊर्जा मांग की पूर्ति करने का लाभ उठाने तथा जलवायु परिवर्तन नीति में केंद्रीय भूमिका निभाने की स्थिति में हैं। चूंकि यह अवसर स्वयं सामने आ गया है, उन्होंने इस मुद्वे पर भारत के नेतृत्व को प्रदर्शित करने का पूरा लाभ उठाया है एवं अतिरिक्त रूप से आईएसए को भी दिशा दिखा दी है।
भारत के लिए यह भी लाभदायक स्थिति है कि आईएसए का मुख्यालय हमारे अपने गुरुगांव में है जिसका औपचारिक उद्घाटन कुछ ही दिन पूर्व हुआ है। भारत सरकार के नवीन तथा नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय के एक पूर्व सचिव ने 2015 में एक विचार के रूप में इसकी शुरुआत से ही पूरे संगठन के संचालन एवं निर्माण कार्य में शीर्ष भूमिका निभाई है। इस तथ्य ने भी इस क्षेत्र में भारत के वैश्विक नेतृत्व को बल प्रदान किया है।
पिछले सप्ताहांत में, जब आईएसए को औपचारिक रूप से लांच किया गया, भारत ने कई प्रतिबद्धताएं की हैं। इनमें फ्रांस को परियोजनाओं के वित्तपोषण के लिए 700 मिलियन यूरो आवंटित करने के लिए राजी करना, अफ्रीका में सोलर परियोजनाओं के लिए अपनी शक्ति पर वित्तपोषण के लिए 1.4 बिलियन डॉलर की प्रतिबद्धता करना (इस राशि का एक हिस्सा सहायता के पुनआर्वंटन के जरिये आएगा जिसे भारत प्रति वर्ष अफ्रीका के लिए निर्धारित करता है), एवं सोलर परियोजनाओं की योजना एवं उनकी तैनाती के लिए, हमें देश में मिली सफलता के अनुभवों के आधार पर अफ्रीकी सरकारों के लिए एक ‘प्लेबुक’ का सृजन करना शामिल है। इस प्लेबुक को अब ‘दिल्ली एजेंडा’ के नाम से पुकारा जाता है।
अफ्रीका में चीन के प्रभाव का चतुर प्रतिरोध
जिस प्रकार प्रधानमंत्री द्वारा जनवरी में भारत के गणतंत्र दिवस पर सम्मानित अतिथियों के रूप में आसियान के सभी देशों के प्रमुख को आमंत्रित करना कूटनीतिक सफलता थी, जो आंशिक रूप से क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव के प्रतिरोध के रूप में था, प्रधानमंत्री ने इस समय ‘सोलर कूटनीति’ के माध्यम से एक और बड़ी उपलब्धि हासिल कर ली है।
यहां यह तर्क दिया जा सकता है कि चीन नवीकरणीय ऊर्जा कूटनीति के मामले में अधिक केंद्रीय भूमिका निभा सकता था, खासकर यह देखते हुए कि चीन की सरकार सोलर फोटोवोल्टैक मॉड्यूल-जोकि किसी सौर बिजली संयंत्र का सबसे महत्वपूर्ण कंपोनेंट होता है — पर सब्सिडी देती है जिससे वह सबसे बड़े निर्यातक के अलावा, विश्व में सबसे बड़ा सोलर संस्थापक (इंस्टॉलर) भी बन गया है।
बहरहाल, भारत ने अपने लिए एक महत्वपूर्ण स्थान बना लिया है और इस मोर्चे पर वह अनुकूल, दिशानिर्देशक नेता बन गया है।
यह सर्वविदित है कि पूरे अफ्रीका महाद्वीप में सड़कों, राजमार्गों, ट्रांसमिशन लाइनों, बिजली संयंत्रों, बंदरगाहों एवं खदानों के निर्माण के लिए बड़े पैमाने पर बुनियादी ढांचा ऋण देने के जरिये चीन अफ्रीका में अपना प्रभाव बढ़ा रहा है। 2000-2015 के बीच चीन की सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र की कंपनियों ने अफ्रीकी देशों को 90 अरब डॉलर से अधिक का ऋण दिया है।
दूसरी तरफ, अंतरराष्ट्रीय सोलर गठबंधन के जरिये, भारत ने 14 अफ्रीकी देशों के साथ गैर-दमनकारी प्रभाव के एक चैनल — जो अक्सर दमनकारी एवं गैर दमनकारी के बीच सर्वाधिक सम्मानित होता है — का निर्माण किया है। इन 14 अफ्रीकी देशों ने अंतरराष्ट्रीय सोलर गठबंधन समझौते (कुल 30 देशों में से) पर हस्ताक्षर किया है एवं उसे अंगीकार किया है।
वास्तव में, पिछले सप्ताहांत के दौरान, भारत ने इस गठबंधन के सभी अंगीकृत सदस्यों को औपचारिक रूप से आईएसए लांच करने के लिए नई दिल्ली में आमंत्रित किया। इस अवसर पर प्रधानमंत्री ने अफ्रीका महाद्वीप के सभी हिस्सों के अफ्रीकी देशों के राष्ट्राध्यक्षों — एवं टोगो, नाइजर, कोट डी आईवोयॉर, चाड, बुर्किना फासो, माली एवं अन्य देशों के अतिरिक्त गुयाना समेत — आईएसए के अन्य सदस्य देशों के साथ द्विपक्षीय बैठकें कीं। ये बैठकें महत्वपूर्ण हैं क्योंकि प्रधानमंत्री की मुलाकात किसी अन्य देश के नेतृत्व में किसी बहुपक्षीय मंच के दौरान, या अफ्रीका में नहीं हुई थी बल्कि उनकी अपनी पहल पर उनके अपने देश में उन्हें आमंत्रित करने के द्वारा हुई थी।
नवीकरणीय ऊर्जाओं के आर्थिक महत्व को देखते हुए उनका संचालन बाजार की ताकतों द्वारा किया जा सकता था, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी वैश्विक मंच पर असाधारण नेतृत्व का परिचय देते हुए कूटनीतिक रूप से इसका लाभ उठाने में कामयाब रहे हैं। उन्होंने इसका उपयोग चीनी ताकतों के बढ़ते दबदबे को देखते हुए खासकर, अफ्रीका के विकासशील देशों के बीच ठोस प्रभाव हासिल करने के लिए वैश्विक जलवायु बदलाव बातचीतों को मार्गदर्शन देने के रूप में किया है। यह उनका मास्टरस्ट्रोक रहा है।
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