Author : Hari Seshasayee

Published on Dec 29, 2022 Updated 0 Hours ago

पांच वर्षों में पेरू ने छह राष्ट्रपतियों का कार्यकाल देखा हैं. अगर पेरूवासियों को इस ‘महाभियोग फंदे’ से बचना है, तो उन्हें कुछ सुधारों को लागू करना होगा. 

पेरू का ‘महाभियोग फंदा’

यह केवल समय की बात थी कि पेरू के राष्ट्रपति पेड्रो कैस्टिलो के खिलाफ महाभियोग चलाया जाता और उन्हें सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया जाता. 2021 के चुनावों में बेहद कम 0.2 प्रतिशत के अंतर से अपना कार्यकाल शुरू करने के बाद से ही कैस्टिलो का कार्यकाल कच्चे धागे से ही लटका हुआ था. लीमा के राजनीतिक अभिजात वर्ग ने कार्यकाल शुरू होने से पहले ही सार्वजनिक रूप से कैस्टिलो को लेकर अपनी नापसंदगी को व्यक्त कर दिया था. और उधर पेरू की कांग्रेस ने भी पदभार ग्रहण करने के तुरंत बाद महाभियोग को लेकर कार्यवाही की दिशा में कदम बढ़ा दिए थे. इन बातों को देखते हुए इसे आश्चर्य ही कहा जाएगा कि कैस्टिलो लगभग 500 दिनों तक सत्ता में बने रहने में सफल रहे.  कैस्टिलो ने भी कांग्रेस को भंग करते हुए अधिक शक्तियां हासिल करने की कोशिश की थी. उनकी इस कोशिश को ‘सेल्फ कू’ अर्थात ‘आत्म-तख्तापलट’ ही कहा जा सकता है. लेकिन हकीकत में उनका यह पैंतरा राजनीतिक आत्महत्या से कुछ ज्यादा करने जैसा ही था. उन्हें अपनी खुद की पार्टी या मंत्रियों, सशस्त्र बलों या न्यायपालिका का समर्थन तक हासिल नहीं था. और इसके बगैर कैस्टिलो की योजना को खुद के ही खिलाफ गोल दागने वाली योजना ही कहा जाएगा.

उधर पेरू की कांग्रेस ने भी पदभार ग्रहण करने के तुरंत बाद महाभियोग को लेकर कार्यवाही की दिशा में कदम बढ़ा दिए थे. इन बातों को देखते हुए इसे आश्चर्य ही कहा जाएगा कि कैस्टिलो लगभग 500 दिनों तक सत्ता में बने रहने में सफल रहे.

पेरू के ग्रामीण हाइलैंड्स अर्थात संपन्न इलाके से आने वाले एक स्कूली शिक्षक के रूप में, कैस्टिलो कभी भी महत्वाकांक्षी नहीं थे. और न ही उन्हें संपूर्ण सत्ता की प्यास ही थी. भले ही कैस्टिलो के ख़िलाफ़ लगे भ्रष्टाचार के आरोप सही हो, लेकिन उनकी सबसे बड़ी ख़ामी यह थी कि वह एक ऐसे राजनीतिक नौसिखिया है, जो पेरू की चालाक कांग्रेस को संभालने के लिए आवश्यक दांच-पेंच नहीं जानते थे. ऐसे में पूरे देश को अकेले चलाने की बात के बारे में सोचना भी मुश्किल ही कहा जाएगा. ऐसे में अब कैस्टिलो एक ऐसी लंबी सूची का हिस्सा बन गए हैं, जिसमें भ्रष्टाचार के आरोप झेल रहे पेरू के विभिन्न राष्ट्रपति शामिल हैं. अत: उन्हें अब मामला चलने से पहले लंबी अवधि तक कारावास झेलना होगा. पेरू के बदनाम पूर्व राष्ट्रपति अल्बर्टे फुजिमोरी का हाल भी कुछ इसी तरह का हैं. दुर्भाग्यवश पेरू की नई राष्ट्रपति डिना बोलुआर्ट को विरासत में अब एक टिंडरबॉक्स अर्थात विस्फोटक स्थिति वाला देश मिला है, जहां तेजी से हिंसक विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं. इसकी वजह से ही डिना बोलुआर्ट को राष्ट्रव्यापी आपातकाल घोषित करने पर मजबूर होना पड़ा है.

पेरू में महाभियोग

कैस्टिलो तो केवल टिप ऑफ द आइसबर्ग अर्थात हिमशैल का सिरा ही है. पेरू के अनगिनत राजनीतिक संकट, वहां की राजनीतिक दल की प्रणालियों के टूटने, राष्ट्रपतियों और कांग्रेस के बीच तनातनी के साथ पूरे राजनीतिक वर्ग के ख़िलाफ़ नागरिकों के मन में संपूर्ण अवमानना का परिणाम हैं. पेरू के अधिकांश लोग राजनीतिक वर्ग को भ्रष्ट मानते हैं. उपरोक्त तीनों बातों को ही पेरू के ‘महाअभियोग फंदे’ के पीछे का असल कारण कहा जा सकता है. और इसी वज़ह से पेरू को पांच वर्षों में छह राष्ट्रपति का कार्यकाल देखने पर मजबूर होना पड़ा है.

पेरू का  ‘महाभियोग फंदा’ 1990 के दशक में ही अल्बर्टे फुजिमोरी की अगुवाई में राजनीतिक दलों के टूटने के साथ कसना शुरू हो गया था. अल्बर्टे फुजिमोरी ने लोकतांत्रिक संस्थानों और पार्टियों, विशेष रूप से पेरू की एपीआरए पार्टी और पॉपुलर एक्शन को बेहद कमजोर करने में अहम भूमिका अदा करते हुए लोकतंत्र के लिए जरूरी नियंत्रण और संतुलन को हटा दिया था. फुजिमोरी ने 1828 से देश में चल रही पेरू की विधायिका को एक द्विसदनीय प्रणाली, जिसमें चेंबर ऑफ डेप्युटी और सीनेट होते हैं, से बदलकर एक सभा वाली कांग्रेस बना दिया, क्योंकि एक सभा वाली कांग्रेस को नियंत्रित करना आसान होता है. आज, पेरू में अधिकांश राजनीतिक दलों की स्थापना जनता के साथ प्रतिध्वनित होने वाले विश्वासों और नीतिगत मुद्दों के स्थान पर व्यक्तित्व को आधार बनाकर स्थापित की गई है.

पेरू में ‘महाभियोग फंदे’ का दूसरा सबसे अहम पहलू वहां देश की विधायिका तथा कार्यकारी शाखाओं के बीच निरंतर चलने वाले मनमुटाव को कहा जा सकता है. 21 वीं सदी में किसी भी राष्ट्रपति के पास कांग्रेस में बहुमत नहीं रहा है. कुछ के पास कांग्रेस की केवल एक-तिहाई सीटों पर ही प्रबंधन करने का अधिकार था. महाभियोग शुरू करने के लिए 130 सीटों वाली कांग्रेस में से केवल 52 मतों की ही जरूरत होती है. इतना ही नहीं दो-तिहाई बहुमत से राष्ट्रपति को ‘‘नैतिक अक्षमता’’ जैसे अस्पष्ट आधार पर भी हटाया जा सकता है. 2016 से ही पेरू के सभी राष्ट्रपति कांग्रेस के खिलाफ लड़ाई में कमजोर ही दिखाई दिए हैं. पेरू के अधिकांश नागरिकों का तो मानना है कि राष्ट्रपति के मुकाबले कांग्रेस ही ज्यादा भ्रष्ट है.

पेरू के ‘महाभियोग फंदे’ का सबसे अंतिम पहलू यह है कि वहां के लोगों के बीच राजनीतिक दलों को लेकर संपूर्ण अवमानना का भाव हैं. पेरू में राजनीतिक वर्ग की अस्वीकृति का जो स्तर है, उसे दुनिया भर में चुनावी लोकतंत्र के इतिहास में कहीं नहीं देखा जा सकता है. हाल में मिली जानकारी इस बात की पुष्टि भी करती है: 2021 में हुए राष्ट्रपति चुनाव में सभी उम्मीदारों से कहीं ज्यादा वोट, ब्लैंक अर्थात खाली एंड नल अर्थात शून्य वोट्स (इन्हें ‘विरोध’ वोट के रूप में देखा जाता है) को मिले थे. इससे भी ताजा जानकारी के अनुसार, जब लोगों से यह पूछा गया कि पेरू का अगला राष्ट्रपति कौन होना चाहिए, तो 50 प्रतिशत का जवाब था, ‘कोई नहीं’ अथवा ‘मुझे नहीं पता’. चुनाव में पहले दो स्थानों पर रहने वाले उम्मीदवार या तो राइट अर्थात दक्षिणपंथी या फिर लेफ्ट अर्थात वामपंथी विचारों का समर्थन करने वाले चरमपंथी थे. लेकिन दोनों को 10 प्रतिशत से कम समर्थन ही प्राप्त हुआ था. ऐसे में पेरू के राष्ट्रपति पद संभालने वाले व्यक्तियों की विशाल अलोकप्रियता के कारण ही कांग्रेस के लिए ऐसे नेताओं पर महाभियोग चलाना और भी आसान हो जाता है.

अगर पेरूवासियों को इस ‘महाभियोग फंदे’ से बचना हैं, तो उन्हें कुछ सुधार लागू करने होंगे. सबसे पहले तो पेरू को मजबूत राजनीतिक दल चाहिए. चुनावी सुधार, पेरूवासियों को एक व्यक्ति पर केंद्रित राजनीतिक दलों की बजाय कुछ मान्यताओं पर स्थापित राजनीतिक दलों को बनाने और ऐसे दलों को बचाए रखने के लिए प्रोत्साहित कर सकते हैं. दूसरी बात यह है कि पेरू को एक सीनेट और चेंबर ऑफ डेप्युटी के साथ एक द्विसदनीय विधायिका को बहाल करने की दिशा में सुधार को अपनाना चाहिए. इसके साथ ही पेरू के नागरिकों को दबाव बनाकर राष्ट्रपति के खिलाफ महाभियोग चलाने के लिए ‘नैतिक अक्षमता’ से जुड़े प्रावधान को हटाना चाहिए. ऐसा होने पर ही कार्यकारी और विधायिका के बीच लगातार चलने वाला मनमुटाव दूर होगा. लेकिन अभी यह देखना बाकी है कि क्या बोलुआर्ट या उनके उत्तराधिकारी इस तरह के चुनाव सुधारों को लागू करने की क्षमता और इच्छाशक्ति दिखा पाएंगे.

इतनी राजनीतिक उठापटक के बावजूद पेरू की अर्थव्यवस्था आश्चर्यजनक रूप से स्थिर है. ऐसा लगता है मानो पेरू की राजनीतिक स्थिति और वहां की अर्थव्यवस्था के बीच कोई संबंध ही नहीं है. 21 वीं सदी में पेरू की मुद्रास्फीती औसतन 2.7 प्रतिशत रही है, जो लैटिन अमेरिका में सबसे कम हैं. इसके अलावा उसका विदेशी मुद्रा भंडार, पेरू के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 30 प्रतिशत के बराबर हैं. पेरू की व्यापक आर्थिक स्थिरता का एक अहम कारण वहां के केंद्रीय बैंक की स्वायत्ता हैं. 2006 से एक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री देश की कार्यकारी शाखा के किसी भी हस्तक्षेप के बिना बैंक का नेतृत्व कर रहा है. लेकिन पेरू का वर्तमान संकट, 21वीं सदी का सबसे बुरा संकट कहा जाएगा, जिसकी वजह से वहां की अर्थव्यवस्था पर भी इसका नकारात्मक प्रभाव होने की संभावना है. वहां के सकल घरेलू उत्पाद का अनुमान पहले ही गिर गया है, भले ही यह गिरावट मामूली क्यों ना हो. यदि खदानों के साथ महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे को लेकर हो रहा विरोध और नाकेबंदी जारी रहती है, तो क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां भी वहां की अर्थव्यवस्था के संभावित डाउनग्रेड अर्थात उसके दर्ज़े को घटाने पर गंभीरता से विचार करने पर मजबूर हो जाएंगी.

इनोवेशन और डिजिटलीकरण.सबसे अहम बात यह होगी कि अब पेरू के नागरिक अगले चुनाव में किसे पसंद करते हैं. अब तक तो पेरू, राजनीति के उस कट्टरपंथीकरण से बचने में कामयाब रहा है, जिसने लैटिन अमेरिका में उसके पड़ोसियों को परेशान कर रखा है.

आगे की राह

ऐसे में पेरू की प्रथम महिला राष्ट्रपति बोलुआर्ट को काफी मुश्किल चुनौतियों का सामना करना होगा. एक ओर उन्हें प्रदर्शनकारियों को संतुष्ट और शांत करना होगा, जबकि दूसरी ओर उग्र कांग्रेस के साथ बातचीत करते हुए अर्थव्यवस्था को भी संतुलित बनाए रखना होगा. 71 प्रतिशत लोग अभी से बोलुआर्ट को अस्वीकार कर चुके हैं, जबकि पेरू के आधे से ज्यादा नागरिकों को लगता है कि कांग्रेस को भंग करने की कैस्टिलो की कोशिशें सही थी. अब वे उस समय तक सत्ता में बनी रहेंगी या नहीं इसे लेकर तो केवल कयास ही लगाया जा सकता है. लेकिन सबसे अहम बात यह होगी कि अब पेरू के नागरिक अगले चुनाव में किसे पसंद करते हैं. अब तक तो पेरू, राजनीति के उस कट्टरपंथीकरण से बचने में कामयाब रहा है, जिसने लैटिन अमेरिका में उसके पड़ोसियों को परेशान कर रखा है. लेकिन यह स्थिति बदल भी सकती है. वर्तमान में पेरू के लोकतंत्र को उसके अन्य पड़ोसियों के यहां मौजूद लोकतंत्र से ज्यादा मजबूत अथवा अधिक लचीला तो नहीं कहा जा सकता. पेरू के कट्टर दक्षिणपंथ अथवा कट्टर वामपंथ से जुड़े चरमपंथी, अभी तो लैटिन अमेरिका में अपने समकक्षों की तुलना में कम सक्षम ही साबित हुए हैं. राष्ट्रपति पद के कुछ उम्मीदवारों की तो ‘पेरूवियन ट्रम्प’ अथवा वेनेजुएला के स्व. ह्यूगो शावेज़ से तुलना की जाने लगी है. अब वे अपने मौके का इंतजार कर रहे हैं. यदि बोलुआर्ट देश में बढ़ रही अस्थिरता को काबू में करने में सफल नहीं हुई, तो सेना जल्द ही स्थिति को अपने हाथ में लेने के लिए कदम आगे बढ़ा सकती है.

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