वैसे तो 2030 के एजेंडे और पेरिस समझौते का मक़सद साझा वैश्विक चुनौतियों से निपटना है. लेकिन, इन चुनौतियों का अधिकतम समाधान हासिल करने के लिए स्थानीय परिस्थितियों के मुताबिक़ ढालने की ज़रूरत है. शहर, दुनिया की 70 प्रतिशत GDP में योगदान देते हैं तो इतनी ही ग्रीनहाउस गैसों (GHGs) के उत्सर्जन के लिए भी ज़िम्मेदार हैं. विकास के मॉडल में जो सुधार लाने की कोशिश की जा रही है, उसमें आख़िरकार टिकाऊ शहरीकरण और स्थायी शहरों के लिए भी एक कार्य योजना बनानी ही होगी. संयुक्त राष्ट्र के अनुमानों (2005) के मुताबिक़, दुनिया की लगभग 55 प्रतिशत आबादी शहरों में रहती है और 2050 तक इसके 68 फ़ीसद पहुंच जाने का अंदाज़ा है. 2011 में शहरी केंद्रों में भारत के 37.7 करोड़ लोग रहते थे. 2031 तक ये आंकड़ा 56 करोड़ पहुंचने का अनुमान है. ऐसे में ये बिल्कुल सही होगा कि टिकाऊ विकास के लक्ष्यों (SDGs) और जलवायु परिवर्तन से निपटने के उपायों को लागू करने के केंद्र में योजनाबद्ध शहरीकरण और प्रगति करते नगर होने चाहिए. शहरी लचीलेपन के कई पहलू होते हैं. ये किसी भयंकर झटके या फिर उन पर पड़ने वाले किसी भारी दबाव की स्थिति में किसी शहरी इकोसिस्टम और उसके भागीदारों मसलन, व्यक्तियों, समुदायों, संस्थानों, कारोबारियों और सिस्टम के झटका खाने, बचाने, बने रहने, तरक़्क़ी करने, बहाल होने, अनुकूलन करने, नई दिशा में बढ़ने या फिर परिवर्तित होने की क्षमता रखते हैं.
जलवायु परिवर्तन के प्रति शहरों का लचीलेपन में इसकी वजह से पैदा हुए जोखिमों को कम करना या फिर ऐसे ख़तरों के मुताबिक़ ख़ुद को ढालना या फिर दोनों ही शामिल होते हैं.
जलवायु परिवर्तन शहरी जीवन के सबसे फ़ौरी और सबसे बड़े ख़तरे हैं. जलवायु परिवर्तन के प्रति शहरों का लचीलेपन में इसकी वजह से पैदा हुए जोखिमों को कम करना या फिर ऐसे ख़तरों के मुताबिक़ ख़ुद को ढालना या फिर दोनों ही शामिल होते हैं. जलवायु परिवर्तन के मुताबिक़ अनुकूलन में ऐसे उपाय शामिल होते हैं, जो जलवायु परिवर्तन के मौजूदा या आने वाले नतीजों के सामने शहरों के झटके सहने लायक़ होना, अस्तित्व बचाना, अपने आपको बनाए रखना, फलना फूलना, झटकों से उबरना या फिर ख़ुद को ढालना शामिल होता है. जलवायु परिवर्तन के मुताबिक़ अनुकूलन की मिसालों में रक्षा के निर्माण करना और आपदा के जोखिम घटाने के लिए पूर्व चेतावनी देने वाली व्यवस्था स्थापित करना, नए बिल्डिंग कोड बनाने समेत संस्थागत बदलाव लाना, बीमा की नई योजनाएं बनाना, सहायक नियम और नीतियां बनाना और पर्यावरण के प्रति संवेदनशील जीवनशैलियां और रोज़गार की रणनीतियां जैसे कि पौधों पर आधारित खान-पान को अपनाना शामिल होता है. जलवायु परिवर्तन के ख़तरे कम करने के उपायों में ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ने से रोकना भी शामिल होता है, जिससे जलवायु परिवर्तन से जुड़े नकारात्मक प्रभाव कम होते हैं. जलवायु परिवर्तन के ख़तरे कम करने के उपायों में, हरित परिवर्तन और उससे जुड़े संस्थागत परिवर्तनों को अपनाने की क्षमता भी शामिल होते हैं. इनमें नवीनीकरण योग्य ऊर्जा संसाधनों की स्थापना और हरित तकनीकों का उपयोग और औद्योगिक प्रक्रियाओं एवं शहरीकरण से पर्यावरण को होने वाले नुक़सान कम करना शामिल होता है.
चौथी औद्योगिक क्रांति (4IR) की आमद के साथ ही अकुशल या कम हुनरमंद कामगारों के रोज़गार के लिए ख़तरे भी बढ़ गए हैं, जिनकी जगह अब तकनीक के लेने की संभावना है. इस मामले में शहरों के लचीलेपन का कौशल विकास या दोबारा हुनर सीखकर श्रम बाज़ार की ज़रूरतों के हुनर सीखना शामिल होता है, ताकि नई परिस्थितियों की दिशा में बदलाव लाया या आगे बढ़ा जा सके. ऐसा लचीलापन शिक्षा और कौशल विकास की एक ऐसी व्यवस्था पर आधारित होता है, जो इतना लचीला हो, जो कौशल विकास या दोबारा हुनर सीखने के लिए ज़रूरी संसाधन और अवसर उपलब्ध करा सके.
शहरों का लचीलापन बढ़ाने में शहरी स्थानीय निकायों (ULBs) की भूमिका
भारत में शहरी स्थानीय निकायों के कार्यों और पूंजी के बीच ग़लत तालमेल ने इन प्रशासनिक संस्थाओं के संस्थागत लचीलेपन को बिगाड़ने का काम किया है. शहरी निकायों के काम के क्षेत्र स्पष्ट रूप से निर्धारित नहीं हैं और अक्सर इनके और राज्यों की ज़िम्मेदारियों के बीच टकराव होता है. शहरी निकाय अपने ख़ुद के स्रोत वाले राजस्वों (OSR) पर बहुत अधिक निर्भर होते हैं. इन स्रोतों में संपत्ति कर और यूज़र चार्ज भी शामिल हैं. राजस्व के पर्याप्त स्रोत न होने और राज्यों और केंद्र की सरकार द्वारा इन निकायों के टैक्स लगाने, टैक्स की दर तय करने और पूंजी बाज़ार तक पहुच बनाने की क्षमता पर कड़ा नियंत्रण रखने की वजह से उनकी वित्तीय स्वायत्तता कमज़ोर हो गई है और फिर इस वजह से उनकी कार्यकारी क्षमता भी कम हो गई है.
सामाजिक सुरक्षा और काम-काज के सम्मानजनक माहौल का अभाव होता है. ग़ैर योजनाबद्ध शहरीकरण का लचीलेपन पर अनजाने में जो दुष्प्रभाव पड़ता है, वो अभी कुछ साल पहले ही कोविड-19 महामारी के दौरान खुलकर नज़र आया था.
बिना योजना के शहरीकरण अपने आप में शहरों के लचीलेपन को चोट पहुंचाता है. शहरीकरण का बिना योजना वाला मिज़ाज शहरों में उच्च स्तर की ग़रीबी और आमदनी में असमानता के रूप में नज़र आता है; इससे मौजूदा मूलभूत ढांचे पर भयंकर दबाव पड़ता है; शहरों में रहने वाले स्वास्थ्य, शिक्षा, आवास, साफ़-सफ़ाई और पीने के साफ पानी जैसी बुनियादी सुविधाएं हासिल करने से वंचित रहते हैं; इसके अलावा, एक असंगठित अर्थव्यवस्था विकसित हो जाती है, जिसमें काम करने वालों को बहुत कम, अनियमित और अनिश्चित मज़दूरी मिलती है. सामाजिक सुरक्षा और काम-काज के सम्मानजनक माहौल का अभाव होता है. ग़ैर योजनाबद्ध शहरीकरण का लचीलेपन पर अनजाने में जो दुष्प्रभाव पड़ता है, वो अभी कुछ साल पहले ही कोविड-19 महामारी के दौरान खुलकर नज़र आया था. इस महामारी ने शहरी लचीलेपन की कमज़ोर कड़ियों जैसे कि सामाजिक मूलभूत ढांचे और आर्थिक लचीलेपन को उजागर कर दिया था और अभूतपूर्व परिस्थितियों में इसकी तैयारी पर सवाल खड़े कर दिए थे.
अब एक ऐसी कार्य योजना बनाने की ज़रूरत है जो शहरों के सामने खड़े तमाम तरह के जोखिमों की बारीक और व्यापक समझ और उनके आपस में जुड़ाव पर आधारित हों, और इस कार्ययोजना में शहरों के लचीलेपन के तमाम आयामों को मज़बूत बनाने की कोशिशें शामिल हों. शहरी लचीलेपन की कोई भी कार्ययोजना ऐसी वित्तीय रणनीति से अलग करके नहीं बनाई जा सकती, जो संसाधनों को इकट्ठा करने और ऐसी कार्य योजना को लागू करने के लिए आवंटन से अलग थलग हो. इस संदर्भ में शुरुआती ज़रूरी क़दमों में शहरी स्थानीय निकायों के कार्य क्षेत्र का स्पष्ट रूप से निर्धारण करना और उन्हें इसके लिए ज़रूरी वित्तीय स्वायत्तता देना शामिल है. ये दोनों क़दम ULBs को शहरी प्रशासन सुधारने की रणनीति बनाने का मौक़ा देंगे. शहरी निकाय तब एक ख़ास वित्तीय संसाधन की मदद से शहरी प्रशासन के विशेष हिस्से में सुधार लाने की रणनीति बना सकेंगे. ये स्पष्टवादिता आने से शहरी निकाय प्रशासनिक और संचालन की रणनीतियां और शहरी योजनाएं और परियोजनाएं तैयार कर सकेंगे, जो प्रभावी हों और शहरी लचीलापन लाने के मामले में कुशल भी हों. नगरीय अधिकारियों के लिए अपने स्वयं के स्रोतों से शहरी लचीलेपन की कोशिशों को वित्तीय स्तर पर बढ़ावा देने के लिए वित्तीय स्वायत्तता आवश्यक है.
शहरी लचीलेपन के लक्ष्यों का बारीक़ी से अध्ययन करने पर पता चलता है कि वो आख़िरकार स्थायी विकास के अन्य लक्ष्यों (SDGs) से किसी न किसी तरह जुड़ जाते हैं.
यही नहीं, शहरी स्थानीय निकाय पूंजी बाज़ार तक पहुंच बनाने के लिए एक कार्य योजना तैयार कर सकते हैं और शहरी लचीलापन बढ़ाने के लिए संसाधन जुटाने के लिए अच्छे से काम करने वाले विकसित म्युनिसिपल बॉन्ड बाज़ार विकसित कर सकेंगे. स्थानीय निकायों को चाहिए कि वो जवाबदेही और वित्तीय प्रबंधन के मज़बूत प्रोटोकॉल बनाएं. नगरीय अधिकारी टैक्स के ऐसे प्रोत्साहन दे सकते हैं, जो ख़ुद के राजस्व वाले स्रोतों की क्षमता पर असर न डालें. भारतीय रिज़र्व बैंक, वैधानिक लिक्विडिटी का अनुपात (SLR) की जरूरतें पूरी करने के लिए म्युनिसिपल बॉन्ड में निवेश को बढ़ावा दे सकता है. शहरी निकाय ऐसे उपाय भी अपना सकते हैं, जिससे वित्तीय पारदर्शिता बढ़े (मिसाल के तौर पर एक ऐसा डिजिटल पोर्टल जो ऐसी ताज़ातरीन जानकारी दे, जिससे संबंधित शहरी निकाय की वित्तीय सेहत का पता चल सके) और निवेशकों का भरोसा बढ़ सके. म्युनिसिपल बॉन्ड को जारी करने में तकनीकी सहायता के लिए एक प्रतिबद्ध संस्था की स्थापना भी की जा सकती है. संस्थागत निवेशकों के लिए ये ज़रूरी किया जा सकता है कि वो अपने कुल निवेश का एक ख़ास हिस्सा म्युनिसिपल बॉन्ड में निवेश करें.
शहरी लचीलेपन के लक्ष्यों का बारीक़ी से अध्ययन करने पर पता चलता है कि वो आख़िरकार स्थायी विकास के अन्य लक्ष्यों (SDGs) से किसी न किसी तरह जुड़ जाते हैं. हरित, सामाजिक, स्थायित्व (GSS+) के बॉन्ड का इस्तेमाल शहरी लचीलेपन के लिए पूंजी जुटाने में किया जा सकता है. इसके बावजूद अगर शहरी लचीलापन के लक्ष्यों को SDG के मौजूदा लक्ष्यों और सूचकांकों की रूप-रेखा में शामिल कर लिया जाए, तो हमें ये पता चलता है कि जहां स्थायी विकास के लक्ष्य पूर्वनियोजित, सक्रिय और पूर्वानुमान वाले तरीक़ों से मेल खाते हैं, वहीं सूचकांक बहुत सीमित और प्रतिक्रियात्मक मिज़ाज के हैं. जब SDG के सूचकांकों की रूप-रेखा की ये कमी दूर कर ली जाएगी, तो ये शहरी लचीलेपन और उससे संबंधित प्रभाव के मूल्यांकन की निगरानी और आकलन का आधार बन सकते हैं.
उप-राष्ट्रीय प्रशासन के वित्तीय समाधान के तौर पर हाल के दिनों में ज़मीन पर आधारित वित्त (LBF) काफ़ी तवज्जो दी जा रही है. चूंकि ये विकल्प संस्थागत और सांस्कृतिक संदर्भों के मुताबिक़ ढाला जा सकता है. इसका निजी निवेश पर कम दुष्प्रभाव पड़ता है, और इससे कई सामाजिक आर्थिक और क्षेत्रीय लाभ मिलते हैं. ऐसे में LBF का इस्तेमाल भी शहरी लचीलेपन के लक्ष्य हासिल करने के लिए किया जा सकता है, हालांकि, इसके लिए शहरी निकायों की प्रशासनिक और तकनीकी (मूल्यांकन) व्यवस्था की क्षमताओं को मज़बूत बनाना होगा और सरकार के अन्य स्तरों के साथ उनके तालमेल में भी सुधार लाना होगा. LBF को लागू करने और उनके उपयोग के दौरान ये सुनिश्चित करना ज़रूरी होगा कि वो, वितरणवादी न्याय और समता के सिद्धांतों का उल्लंघन न करें.
निजी क्षेत्र और सार्वजनिक क्षेत्र की साझीदारी (PPPs) की भूमिका
मिले जुले वित्त के रूप में निजी क्षेत्र की भागीदारी का भी इस तरह लाभ उठाया जा सकता है, जिससे नगर निकायों के अपर्याप्त संसाधनों में निजी क्षेत्र के निवेश और निजी एवं सार्वजनिक क्षेत्र की साझेदारियों (PPPs) से योगदान दिया जा सके. इससे परियोजनाओं की वित्तीय, तकनीकी और क्रियान्वयन की कुशलताओं को बढ़ाने में मदद मिलती है, जो निजी निवेश के ज़रिए शहरी लचीलेपन को बढ़ाती हैं.
शहरी लचीलेपन को सही तरीक़े से लागू करने का एक अहम हिस्सा जलवायु परिवर्तन के मुताबिक़ अनुकूलन के लिए पूंजी जुटाने की चुनौतियों से संबंधित हैं. ये चुनौतियां अनुकूलन की पूंजी की ज़रूरत और वास्तविक वित्तीय प्रवाह के बीच काफ़ी असमानता के तौर पर नज़र आती हैं. अनुकूलन की परियोजनाओं को लागू करने के लिए पूंजी जुटाने को डेटा और जानकारी देने, सूचना की असमान स्थितियों, जोखिमों और लाभ आकलन के एक साझा मानक के अभाव, वित्त जुटाने की जटिल प्रक्रियाओं और भरोसा कर पाने की व्यावहारिकता संबंधी चुनौतियों से काफ़ी चोट पहुंचती है. वित्त के प्रवाह और उनके नतीजों और प्रभाव की प्रगति पर नज़र रखने, उनकी निगरानी और मूल्यांकन के लिए एक मज़बूत और स्पष्ट रूप से परिभाषित प्रक्रिया तैयार करने की ज़रूरत है. किसी परियोजना के अनुकूलन की संभावनाओं, मक़सदों और जलवायु के जोखिम से निपटने की क्षमताओं के दस्तावेज़ तैयार करके ज़रूरी जानकारी मुहैया कराने से निवेशकों का भरोसा बढ़ाया जा सकता है. अनुकूलन की परियोजनाओं की केस स्टडीज़ के भंडारण से भी वित्त जुटाने में मदद मिल सकती है, क्योंकि इससे किसी परियोजना के सफल क्रियान्वयन का उदाहरण उपलब्ध होता है. जोखिमों का मूल्यांकन और परिस्थितियों का आकलन करने और तकनीकी विशेषज्ञों और नीति निर्माताओं के बीच आदान-प्रदान को बढ़ावा देने की शहरी निकायों की क्षमता निर्मित करने से अनुकूलन की परियोजनाओं के लिए वित्तीय प्रवाह को और प्रभावी ढंग से लागू किया जा सकता है. अनुकूलन की बड़ी परियोजनाएं तैयार होने और उनकी कारोबारी तौर पर उपयोगी बनने में काफ़ी समय लगता है. ऐसे नए समाधान, जिनमें वित्त जुटाने के ढांचे और जोखिम कम करने के उपाय शामिल हों और जो ऊपर लिखित चुनौतियों से निपट सकते हों, उन्हें तैयार किया जा सकता है.
भारत को लचीलेपन की चिंताओं को, टिकाऊ शहरी विकास की व्यापक अवधारणा की मुख्यधारा में लाने की फ़ौरी ज़रूरत को समझना होगा, और ऐसे उचित क़दम उठाने होंगे जो इन चिंताओं से निपट सकें और ऐसा करने के लिए आवश्यक पूंजी जुटा सकें.
विश्व बैंक के एक अध्ययन के मुताबिक़ 2050 तक, भारत के शहरों के शहरीकरण की उचित योजना और प्रबंधन के अभाव की वजह से भारत पर ख़र्च का बोझ काफ़ी अधिक बढ़ सकता है. इसके सालाना 2.6 अरब डॉलर से 13 अरब डॉलर और GDP के 1.2 प्रतिशत से 6.3 फ़ीसद के बीच रहने की संभावना है. इसीलिए, भारत को लचीलेपन की चिंताओं को, टिकाऊ शहरी विकास की व्यापक अवधारणा की मुख्यधारा में लाने की फ़ौरी ज़रूरत को समझना होगा, और ऐसे उचित क़दम उठाने होंगे जो इन चिंताओं से निपट सकें और ऐसा करने के लिए आवश्यक पूंजी जुटा सकें.
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