भारत क्षेत्रीय व्यापार समझौतों (आरटीए) के क्षेत्र में एक नवागंतुक या नया खिलाड़ी रहा है। इसने वर्ष 1991 में भारत में आर्थिक सुधारों को लागू किए जाने के बाद ही शेष विश्व के साथ एकीकरण की प्रक्रिया का आगाज किया। आरटीए पर एशियाई विकास बैंक के डेटाबेस के मुताबिक, भारत ने अभी तक 13 आरटीए पर हस्ताक्षर कर उन्हें बाकायदा लागू कर दिया है। आरटीए के तहत हस्ताक्षरकर्ता देशों के बीच शुल्क दरों में कटौती या उन्मूलन, गैर-सदस्य देशों के लिए एक मानक भेदभावपूर्ण शुल्क व्यवस्था की स्थापना, क्षेत्र के भीतर उत्पादन के कारकों की लचीली आवाजाही, एक साझा बाजार की स्थापना और अंत में, आर्थिक एवं मौद्रिक एकीकरण के जरिए हस्ताक्षरकर्ता देशों के एकीकरण का उल्लेख किया जाता है। इनमें से प्रत्येक कदम हस्ताक्षरकर्ता देशों के बीच एकीकरण के निरंतर बढ़ते स्तर को दर्शाता है।
भारत ने सफलतापूर्वक मुख्य रूप से पहले दो प्रकार के आरटीए के लिए बातचीत या सौदेबाजी की है जिनमें मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) और तरजीही व्यापार समझौते शामिल हैं। हालांकि, कई देशों/क्षेत्रों के साथ आर्थिक सहयोग हेतु व्यापक समझौते के लिए भी वार्ताएं जारी हैं। उदाहरण के लिए, भारत एवं आसियान और एशिया-प्रशांत क्षेत्र के छह अन्य देशों के बीच क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आरसीईपी) के लिए वार्ताएं निरंतर जारी हैं। उल्लेखनीय है कि एशिया-प्रशांत क्षेत्र के इन देशों के साथ आसियान ने फिलहाल ‘एफटीए’ कर रखे हैं। निम्नलिखित तालिका भारत द्वारा हस्ताक्षरित व्यापार समझौतों की सूची दर्शाती है:
समझौता |
स्थिति |
वर्ष |
आसियान-भारत व्यापक आर्थिक सहयोग समझौता |
हस्ताक्षरित और लागू |
2010 |
एशिया-प्रशांत व्यापार समझौता |
हस्ताक्षरित और लागू |
1976 |
भारत-अफगानिस्तान तरजीही व्यापार समझौता |
हस्ताक्षरित और लागू |
2003 |
भारत-भूटान व्यापार समझौता |
हस्ताक्षरित और लागू |
2006 |
भारत-चिली तरजीही व्यापार समझौता |
हस्ताक्षरित और लागू |
2007 |
भारत-मर्कोसुर तरजीही व्यापार समझौता |
हस्ताक्षरित और लागू |
2009 |
भारत-सिंगापुर व्यापक आर्थिक सहयोग समझौता |
हस्ताक्षरित और लागू |
2005 |
भारत-श्रीलंका मुक्त व्यापार समझौता |
हस्ताक्षरित और लागू |
2001 |
भारत- [गणराज्य] कोरिया व्यापक आर्थिक साझेदारी समझौता |
हस्ताक्षरित और लागू |
2010 |
भारत-नेपाल व्यापार संधि |
हस्ताक्षरित और लागू |
2002 |
जापान-भारत व्यापक आर्थिक साझेदारी समझौता |
हस्ताक्षरित और लागू |
2011 |
मलेशिया-भारत व्यापक आर्थिक सहयोग समझौता |
हस्ताक्षरित और लागू |
2011 |
दक्षिण एशियाई मुक्त व्यापार क्षेत्र |
हस्ताक्षरित और लागू |
2006 |
तालिका 1.1
स्रोत: एशियाई विकास बैंक, एशिया क्षेत्रीय एकीकरण केंद्र
इस क्षेत्र में देरी से कदम रखने के बावजूद भारत दुनिया के सभी कोनों में अवस्थित राष्ट्रों के साथ व्यापार समझौतों पर हस्ताक्षर करने के लिए एक नवागंतुक जैसा जबरदस्त उत्साह दिखा रहा है। यूरोपीय संघ, रूस, मर्कोसुर (ब्राजील, अर्जेंटीना, उरुग्वे, वेनेजुएला एवं पराग्वे), खाड़ी सहयोग परिषद (बहरीन, कुवैत, ओमान, कतर, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात), आइसलैंड, लिकटेंस्टीन, नॉर्वे एवं स्विट्जरलैंड (भारत-यूरोपीय मुक्त व्यापार क्षेत्र आर्थिक साझेदारी समझौते के तहत), मिस्र, चीन और चिली के साथ व्यापार समझौते करने की तैयारियां जोरों पर हैं। व्यापार समझौतों की संख्या में बड़ी तेजी से इतनी ज्यादा वृद्धि ‘वर्ष 2014 तक भारत से वस्तुओं एवं सेवाओं के निर्यात को दोगुना करने के उद्देश्य और फिर समुचित नीतिगत सहायता के जरिए वर्ष 2020 के आखिर तक विश्व व्यापार में भारत की हिस्सेदारी दोगुनी करने संबंधी वाणिज्य मंत्रालय के दीर्घकालिक उद्देश्य’ पर आधारित थे। (वाणिज्य विभाग, 2011)।
इस तरह की बुलंद महत्वाकांक्षाओं से जुड़ी आर्थिक दलील को जैकब वाइनर (1951) ने सीमा शुल्क संघ पर अपने अग्रगामी कार्यों के तहत जोर-शोर से प्रचारित किया था। वाइनर के सिद्धांत के अनुसार, आरटीए के ‘व्यापार सृजन’ प्रभावों से समूचे क्षेत्र में बेहतरी सुनिश्चित होगी। ‘व्यापार सृजन’ से आशय यह है कि व्यापार के मार्ग में बाधाएं कम होने के परिणामस्वरूप संबंधित क्षेत्र के भीतर व्यापार काफी बढ़ जाएगा। हालांकि, इस तरह के आरटीए संबंधित क्षेत्र में बेहतरी या कल्याण में कमी होने का कारण भी बन सकते हैं। यदि व्यापार समझौतों के परिणामस्वरूप इस तरह के समझौते से पहले की स्थिति की तुलना में अब संबंधित व्यापार क्षेत्र (ब्लॉक) के भीतर घटिया सामान आयात किए जा रहे हैं, तो उत्पादों की गुणवत्ता में गिरावट के चलते ‘उपभोक्ता अधिशेष’ निश्चित रूप से काफी घट जाएगा। इसे आरटीए के ‘व्यापार विचलन या अव्यवस्था’ प्रभाव के रूप में जाना जाता है। जाने-माने अर्थशास्त्री जगदीश भगवती ने यह दर्शाया है कि प्रतिकूल व्यापार विचलन प्रभावों के बावजूद आरटीए अब भी बेहतर दक्षता के जरिए ज्यादा उपभोक्ता कल्याण सुनिश्चित कर सकता है, जैसे कि किसी उत्पाद में हासिल तुलनात्मक बढ़त के जरिए संबंधित देश अपनी विशेषज्ञता के बल पर उस वस्तु की उत्पादकता बढ़ा सकता है। इसी तरह सस्ते उत्पादों तक पहुंच के जरिए ज्यादा उपभोक्ता कल्याण का मार्ग प्रशस्त हो सकता है (भगवती, 1971)। इन दलीलों से ‘आरटीए’को काफी बढ़ावा मिला है। विश्व बैंक के एक अध्ययन (2005) के तहत यह अनुमान लगाया गया है कि डब्ल्यूटीओ का प्रत्येक सदस्य देश औसतन छह आरटीए का हिस्सा है। भारत इस मामले में कोई अपवाद नहीं है।
विश्व व्यापार में भारत की सापेक्ष अहमियत को निम्नलिखित ग्राफ से अच्छी तरह समझा जा सकता है। एशियाई विकास बैंक के एक एशिया क्षेत्रीय एकीकरण केंद्र के अनुमान से पता चला है कि वर्ष 2016 में भारत का अधिकांश व्यापार मध्य पूर्व (35%) और अफ्रीका (32%) के साथ हुआ था।
ग्राफ 1.1
हालांकि, ज्यादातर व्यापार समझौते एशियाई देशों के साथ हस्ताक्षरित किए गए हैं। ऐसा संभवतः एशिया की आर्थिक एवं राजनीतिक अहमियत को बढ़ाने और यूरोपीय संघ का सबसे महत्वपूर्ण प्रतिद्वंद्वी बनने के मकसद से किया गया था। भारत पहले ही जापान, दक्षिण कोरिया, मलेशिया, सिंगापुर, थाईलैंड और श्रीलंका के साथ पहले ही एफटीए पर हस्ताक्षर कर चुका है। प्रस्तावित व्यापार समझौतों की संख्या भी अभूतपूर्व ढंग से बढ़ रही है। हालांकि, कुछ और व्यापार समझौतों पर हस्ताक्षर करने की दिशा में सरकार के और आगे बढ़ने से पहले इस बात का विश्लेषण किया जाना चाहिए कि क्या इन समझौतों से ‘व्यापार सृजन’ और ज्यादा कल्याण या बेहतरी सुनिश्चित होने का उद्देश्य हासिल हो गया है। इसे ध्यान में रखते हुए हम अब कुछ ऐसे आंकड़ों पर गौर कर रहे हैं जिससे इन आरटीए के जरिए संबंधित देशों के बीच हासिल एकीकरण के स्तर का आकलन करने में मदद मिलती है। व्यापार गहनता सूचकांक (टीआईआई) से इस तथ्य का आकलन किया जाता है कि क्या दो देशों के बीच हो रहे व्यापार का कुल मूल्य विश्व व्यापार में उनकी अहमियत के आधार पर अपेक्षित व्यापार से अधिक है या कम। निम्नलिखित तालिका छह देशों के साथ भारत के टीआईआई को दर्शाती है। जब भी टीआईआई 1 से अधिक रहता है तो उससे यह संकेत मिलता है कि संबंधित दोनों देशों के बीच व्यापार संबंध गहन या अत्यंत मजबूत हैं।
श्रीलंका को छोड़ किसी भी देश में टीआईआई मूल्य 1 से काफी अधिक नहीं रहा है। इसके अलावा, वर्ष 1990 से लेकर वर्ष 2016 तक की लंबी अवधि के दौरान कमोबेश यही स्थिति रही है। अत: आरटीए पर हस्ताक्षर करने के बावजूद भारत और इन देशों के बीच एकीकरण का स्तर नहीं बढ़ पाया है। यह आरटीए के पक्ष में दी गई दलीलों के ठीक विपरीत है। ऐसे में यह निष्कर्ष निकालना बिल्कुल उचित है कि इन आरटीए की बदौलत व्यापार सृजन उस हद तक नहीं हो पाया है जितनी परिकल्पना की जाती रही है।
इस अनचाही स्थिति के लिए इन व्यापार समझौतों पर हस्ताक्षर करते समय भारत द्वारा ‘बाजार पहुंच’ पर विशेष जोर दिए जाने को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। यह उम्मीद की गई थी कि ‘बाजार पहुंच’ व्यापक रहने से विश्व व्यापार में भारत की हिस्सेदारी बढ़ जाएगी। हालांकि, इस तरह की नीति आपूर्ति पक्ष से जुड़े कारकों के साथ-साथ गैर-शुल्क बाधाओं (एनटीबी) को समाप्त किए जाने पर अत्यधिक निर्भर रहती है। लेकिन डब्ल्यूटीओ के मानकों के विपरीत छह देशों में एनटीबी सर्वव्यापी हैं। भाषाई और जातीय समानताओं के बावजूद दक्षिण-पूर्व एशियाई क्षेत्र भू-राजनीतिक तनाव से जूझ रहा है। भू-राजनीतिक तनाव के अलावा कई ऐसी एनटीबी के बारे में पता चला है जो इन छह देशों के साथ भारत के पूर्ण एवं समुचित एकीकरण में रोड़े अटका रही हैं। प्रमाण पत्रों की आपसी मान्यता में सहयोग का अभाव, बदलती पैकेजिंग एवं लेबलिंग आवश्यकताएं, निर्धारित राशि से ज्यादा शुल्क या फीस वसूलना (पैरा-टैरिफ), अपर्याप्त सुविधाएं एवं संगरोध तथा गोदाम संबंधी इंतजाम के लिए अधिक शुल्क लेना, व्यापार का वित्तपोषण जटिल तरीके से होना, जानकारी संबंधी विषमताएं और प्रक्रियाओं में अपर्याप्त सामंजस्य एवं आधुनिकीकरण कुछ ऐसी एनटीबी हैं जिनकी पहचान दुनिया के इस हिस्से में व्यापार करने के मार्ग में बाधाओं के रूप में की गई है (प्रसाई, 2015)।
आरटीए से संबंधित आंकड़ों से एक और दिलचस्प जानकारी यह मिली है कि श्रीलंका जैसे कुछ देशों को छोड़कर भारत से सदस्य देशों को निर्यात अपर्याप्त रहा है। तालिका 1.3 पर गौर करने पर यह पता चलता है कि आरटीए से भारत के बजाय साझेदार देश ही ज्यादा लाभान्वित हुए हैं। यह साझेदार देशों के साथ अपनी निर्यात क्षमता का विस्तार करने में भारत की असमर्थता को दर्शाता है। अत: ऐसी स्थिति में यदि मुक्त व्यापार से लाभ होने की दलील को मजबूत मान भी लिया जाए तो भी इसके नतीजे साझेदार देशों के पक्ष में ही काफी हद तक रहेंगे। वैसे तो इस सिद्धांत के तहत ‘विजेताओं’ द्वारा ‘हारने वालों’ को मुआवजा देने की एक समुचित प्रणाली स्थापित करने का सुझाव दिया जाएगा, लेकिन इस तरह का मुआवजा वास्तविक दुनिया में व्यवहार्य या संभव नहीं है। अत: कुल मिलाकर मुक्त व्यापार और बाद में ‘परेटो’ सुधार या बेहतरी होने के पक्ष में दी जाने वाली पूरी दलील विफल ही साबित होती है।
उपर्युक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए सरकार यदि नए व्यापार समझौतों पर हस्ताक्षर करने की दिशा में सावधानी बरतती है तो यह समझदारी भरा कदम होगा। सरकार को एक ‘बहु-हितधारक समिति’ का गठन कर किसी भी आरटीए के नतीजों का गहन विश्लेषण अवश्य ही करना चाहिए। इस तरीके पर अमल करके उपभोक्ताओं और उत्पादकों दोनों के ही हितों की रक्षा करना संभव है।
लेन-देन लागत को कम करके देश की निर्यात क्षमता बढ़ाना एक और ऐसा प्रमुख क्षेत्र है जहां हमें अपेक्षा के अनुरूप कामयाबी नहीं मिल पाई है। विश्व बैंक द्वारा जारी ‘कारोबार में सुगमता’ सूचकांक में भारत की रैंकिंग में सुधार होना यानी वर्ष 2017 में 130वें पायदान से सुधर कर वर्ष 2018 में 100वें पायदान पर पहुंच जाना सही दिशा में एक अहम कदम है। एक निवेश गंतव्य के रूप में भारत जितना आकर्षक नजर आएगा वही विदेशी निवेश के प्रवाह को निर्धारित करेगा। बुनियादी ढांचागत क्षेत्र, अनुसंधान और विकास में विदेशी निवेश का सकारात्मक असर अन्य क्षेत्रों पर भी पड़ेगा जिससे अर्थव्यवस्था की समग्र उत्पादकता बढ़ाने में मदद मिलेगी तथा इसकी बदौलत निर्यात और अधिक प्रतिस्पर्धी होगा।
‘आरटीए’ पर अंधाधुंध ढंग से हस्ताक्षर करने के बजाय सरकार को घरेलू संसाधनों का सर्वोत्तम उपयोग सुनिश्चित करने के लिए इनका दोहन करने की अपनी क्षमता अवश्य ही बढ़ानी चाहिए। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए बाह्य सहायता की आवश्यकता हो सकती है, इसलिए ‘कारोबार में सुगमता’ सूचकांक से संबंधित पैमानों के साथ-साथ प्रतिस्पर्धी क्षमता से जुड़े संकेतकों को भी बेहतर करने पर विशेष जोर दिया जाना चाहिए। विशेष कर दुनिया के सबसे बड़े एफडीआई गंतव्य के रूप में चीन के उभर कर सामने आने के तथ्य को ध्यान में रखते हुए एक एफडीआई गंतव्य के रूप में भारत का आकर्षण निश्चित तौर पर बढ़ाया जाना चाहिए। दूसरे शब्दों में, अकेले आरटीए की बदौलत ही विश्व व्यापार में भारत की स्थिति बेहतर करने या भारत की हिस्सेदारी बढ़ाने में मदद नहीं मिलेगी।
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