Published on Nov 03, 2023 Updated 0 Hours ago
कूलिंग करने के ‘विरोधाभास’

1.गर्म होती दुनिया में गर्मी से आराम की विडम्बना

जैसे जैसे दुनिया का तापमान बढ़ रहा है, वैसे वैसे एयर कंडीशनिंग की मांग भी बढ़ रही है. ठंडा करने वाले रेफ्रिजरेंट्स, और तापमान कम करने में खपने वाली ऊर्जा को मिला दें, तो कूलिंग की सुविधा का उपभोग करने वालों से हमारी आब-ओ-हवा को सबसे ज़्यादा ख़तरा मालूम होता है.

भारत इस समस्या के केंद्र में है, क्योंकि देश की ज़्यादातर आबादी भयंकर गर्मी वाले इलाक़ों में रहती है. भारत के 2021-2022 के आर्थिक सर्वेक्षण में अनुमान लगाया गया है कि 2030 तक भारत में गर्मी और उससे जुड़े कारणों से 5.8 प्रतिशत कामकाजी घंटों का नुक़सान होगा, जो 3.4 करोड़ फुल टाइम रोज़गार के बराबर है. इसके अलावा, सर्वेक्षण में कहा गया है कि कुल बिजली की मांग में कूलिंग के लिए इस्तेमाल होने वाली बिजली की हिस्सेदारी 2020 में सात प्रतिशत से बढ़कर 2030 में लगभग 20 फ़ीसद तक पहुंच जाएगी. इसी तरह, संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) और अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी की एक हालिया रिपोर्ट के मुताबिक़, भारत में कूलिंग की मांग से 800 गीगावाट (GW) का अतिरिक्त बिजली उत्पादन करना पड़ेगा, जो इस वक़्त भारत में बिजली उत्पादन की स्थापित क्षमता के दो गुने से भी ज़्यादा है.

भारत में ठंडा करने की व्यवस्थाओं को और कुशल बनाना एक ज़रूरत है. इससे उत्पादकता बढ़ेगी. सेहत पर सकारात्मक असर पड़ेगा और हमारी धरती का तापमान और बिजली ग्रिड पर दबाव बढ़ाए बग़ैर आर्थिक विकास की गति तेज़ हो सकेगी.

बिजली उत्पादन में इस बढ़ोत्तरी से जलवायु परिवर्तन के प्रभावों पर क़ाबू पाने के प्रयासों को नुक़सान पहुंच सकता है. भारत में ठंडा करने की व्यवस्थाओं को और कुशल बनाना एक ज़रूरत है. इससे उत्पादकता बढ़ेगी. सेहत पर सकारात्मक असर पड़ेगा और हमारी धरती का तापमान और बिजली ग्रिड पर दबाव बढ़ाए बग़ैर आर्थिक विकास की गति तेज़ हो सकेगी. फिर भी अधिक कुशल और वातावरण के अनुकूल कूलिंग व्यवस्थाओं को अपनाने का काम बहुत धीमी गति से चल रहा है. बिजली की कम खपत वाली तकनीकें स्थापित करने की शुरुआती लागत ही लोगों को इन्हें अपनाने से रोक रही हैं. वहीं, बाज़ार की संरचनाएं इस बात को अक्सर समझ नहीं पातीं, जिससे नई तकनीकों की क़ीमत ज़्यादा रहती है और इसीलिए, पारंपरिक तरीक़े से ऊर्जा के इस्तेमाल की क़ीमत पर्यावरण को चुकानी पड़ती है.

हैरान करने वाली हक़ीक़त ये है कि हमारे भविष्य को अधिक टिकाऊ तरीक़े से ठंडा करने वाली तकनीकें पहले से ही मौजूद हैं. मगर, बाज़ार की नाकामी की वजह से उनका इस्तेमाल बहुत कम हो रहा है. उनको प्रोत्साहन देने के तरीक़ों में भी ख़ामियां हैं और लागत को लेकर पुरानी सोच भी इसके लिए ज़िम्मेदार है.

वैसे तो भारत सरकार ने इंडिया कूलिंग एक्शन प्लान (ICAP) जारी करके तारीफ़ के क़ाबिल प्रयास किया है, जिसका मक़सद 2037-38 तक ऊर्जा की मांग 40 फ़ीसद तक कम करना है. लेकिन, इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए जितने बड़े पैमाने पर समाधान उपलब्ध कराना चाहिए, बाज़ार उस रफ़्तार से आगे नहीं बढ़ रहा है. इसकी मुख्य वजह, कारोबार के मौजूदा मॉडलों में निहित है, जो कूलिंग की कम लागात में अपेक्षित सेवा देने के बजाय, उपकरणों की बिक्री पर केंद्रित हैं. बिज़नेस का ये मॉडल कूलिंग की व्यवस्थाओं के हर चरण में अकुशलता को बढ़ावा देता है:

  1. डिज़ाइन और इंजीनियरिंग: सलाहकार अक्सर कूलिंग व्यवस्था की ज़रूरत को बढ़ा-चढ़ाकर बताते हैं, क्योंकि उनको इसी आधार पर पैसे मिलते हैं कि उन्होंने उपकरणों के निर्माताओं को कितने टन की कूलिंग व्यवस्था बेचने में मदद की. चूंकि, उनकी फ़ीस का कूलिंग व्यवस्था के वास्तविक प्रदर्शन से कोई ताल्लुक़ नहीं होता है. तो, ये सलाह देने वाले सावधानी से पड़ताल करके ऐसी डिज़ाइन के बारे में नहीं सोचते कि कूलिंग सिस्टम को कुशल बनाने से कितने फ़ायदे हो सकते हैं.
  2. ख़रीदारी और ठेके पर देना: जानकारी के अभाव और फ़ैसला लेने की सटीक प्रक्रिया न होने होने की वजह से कारोबारी अक्सर कूलिंग सिस्टम के इस्तेमाल के पूरे ख़र्च पर ध्यान देने के बजाय लगाने की क़ीमत को प्राथमिकता देते हैं, जिससे वो बेहतरीन तकनीक ख़रीदने के बजाय ऐसे अकुशल उपकरण ख़रीद लेते हैं, जिसकी भारी क़ीमत उन्हें बरसों तक चुकानी पड़ती है.
  3. संचालन और रखरखाव: इसके बाद ये कूलिंग सिस्टम संचालन और रख-रखाव के दुष्चक्र में पंस जाते हैं. मौक़े पर संचालित करने वाली टीमें हमेशा मरम्मत और ब्रेकडाउन से निपटने में लगी रहती हैं और कूलिंग सिस्टम के काम को डेटा के आधार पर विश्लेषण करने के बजाय बस अनुभव के आधार पर चलाते रहते हैं. इस दौरान बिजली की खपत, आराम और भीतर की हवा की क्वालिटी बिना चेतावनी के बढ़ती घटती रहती है. जिससे मालिक ही नहीं कूलिंग सिस्टम का इस्तेमाल करने वालों को भी वित्तीय नुक़सान और तनाव का सामना करना पड़ता है.

इन कमियों की वजह से पर्यावरण पर बहुत कम दुष्प्रभाव डालने वाली कूलिंग की नई तकनीकें जैसे कि रेडिएंट एंड इवेपरेटिव कूलिंग सिस्टम, प्राकृतिक रेफ्रिजरेंट का इस्तेमाल करने वाले प्रीमियम एफिशिएंसी चिलर्स और थर्मल एनर्जी स्टोरेज सिस्टम अपने लगाने की भारी शुरुआती क़ीमत की वजह से बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किए जाने की राह में चुनौतियां झेलते हैं. इसका नतीजा ये होता है कि कूलिंग सिस्टम इस्तेमाल करने वाले संस्थान 30 प्रतिशत या इससे भी ज़्यादा ऊर्जा बर्बाद करते हैं और कारोबारी, न्यूनतम हरित परिवर्तन की शर्त पूरी करने के लिए भी संघर्ष करते रहते हैं.

2.स्मार्ट जूल्स के समाधान: टिकाऊ कूलिंग व्यवस्था को स्वाभाविक विकल्प बनाना

जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने के साथ साथ सेहत, उत्पादकता और बेहतरी में सुधार लाने के लिए स्मार्ट जूल्स, कूलिंग उद्योग के लिए एक नए प्रभावी बिज़नेस मॉडल तैयार करने में अग्रणी भूमिका निभा रही है, जिसका नाम: कूलिंग ऐज़ एस सर्विस या फिर ‘CaaS’ है. CaaS बड़े स्तर पर कूलिंग के क्षेत्र में सेवा की परिकल्पना (यानी उत्पाद पर ज़ोर देने के बजाय सेवा पर केंद्रित बिज़नेस मॉडल) पर ज़ोर देती है. CaaS मॉडल के तहत कूलिंग के क्षेत्र में महारत रखने वाली स्मार्ट जूल्स जैसी सेवा कंपनियां उपभोक्ताओं को टिकाऊ, कम लागत वाली, सुविधाजनक और उच्च स्तर की कूलिंग सेवाएं प्रति टन प्रति घंटे की कूलिंग की खपत के आधार पर देती हैं. CaaS के ग्राहकों को सिर्फ़ उसी कूलिंग के पैसे देने पड़ते हैं, जिसका वो उपभोग करती हैं. वहीं इसकी सेवा देने वाला, कूलिंग व्यवस्था की डिज़ाइन, लागत, प्रोजेक्ट लागू करने, संचालन और रख-रखाव की पूरी ज़िम्मेदारी उठाता है.

कूलिंग सिस्टम इस्तेमाल करने वाले संस्थान 30 प्रतिशत या इससे भी ज़्यादा ऊर्जा बर्बाद करते हैं और कारोबारी, न्यूनतम हरित परिवर्तन की शर्त पूरी करने के लिए भी संघर्ष करते रहते हैं.

कूलिंग की सेवा देने वाली संस्था की लागत और मुनाफ़ा, लंबी अवधि के ठेके वाली कूलिंग सर्विस की फ़ीस से वसूली होती है. इस मॉडल से बिजली की बर्बादी ख़त्म हो जाती है. क्योंकि कूलिंग व्यवस्था लागू करने की शुरुआती लागत के बजाय, सेंट्रल कूलिंग सिस्टम की कुल आयु के दौरान ज़ोर मालिकाना हक़ की लागत पर केंद्रित हो जाता है, जो 15 साल से अधिक होती है. सिस्टम की कुशल डिज़ाइन और कम से कम कार्बन उत्सर्जन करने वाली तकनीकों के इस्तेमाल और लगातार डेटा पर आधारित संचालन को डि जूल के ज़रिए हासिल बिजली की खपत में काफ़ी कमी लाने और कार्बन उत्सर्जन में कमी करने में मदद मिलती है. डि जूल, स्मार्ट जूल का जीने और सीखने का एक सिस्टम है, जो इंटरनेट ऑफ थिंग्स (IoT) और आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस प्लेटफॉर्म की तकनीकों का इस्तेमाल करता है.

स्मार्ट जूल्स CaaS के मॉडल को नए केंद्रों (जिन्हें JouleCOOL कहा जाता है) के साथ साथ मौजूदा केंद्रों ( जिन्हें JoulePAYS कहा जाता है) को उपलब्ध कराते हैं. इससे अस्पताल, होटल, मॉल, ऑफिस की इमारतें या कारखानों जैसे अधिक कूलिंग व्यवस्था इस्तेमाल करने वाली इमारतों को कम बजली खपत वाले उत्पादन अपनाने के जोखिम कम करके जलवायु परिवर्तन से निपटने के उपायों से मुनाफ़ा कमाने का मौक़ा मिलता है. ये मॉडल ठीक उसी तरह के हैं जिस तरह बिजली ख़रीद के समझौते (PPA) या फिर OpEx के मॉडल जिन्होंने सौर ऊर्जा के मूलभूत ढांचे के उद्योग को बढ़ावा दिया है.

स्मार्ट जूल की तकनीक का ‘वास्तविक दुनिया’ पर बहुत व्यापक और गहरा असर देखने को मिल रहा है. अपोलो अस्पताल दुनिया का सबसे बड़ा आपस में जुड़ा सेवा प्रदाता इसकी मिसाल है. अपोलो ने 2033 तक 2 लाख 90 हज़ार टन कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए स्मार्ट जूल्स से साझेदारी की है. 10 साल की इस पहल के दायरे में पूरे भारत में 18 अस्पताल हैं, जिनमें कम बिजली खाने वाली कूलिंग और ऑटोमेशन के क्षेत्र में स्मार्ट जूल्स की महारत का इस्तेमाल किया जा रहा है. JoulePAYS समाधान को अपोलो अस्पतालों में लागू करने के सीमित समय के दौरान, बिजली बचाने के 235 उपाय लागू किए जा चुके हैं, जिससे 2030 तक 23.5 करोड़ किलोवाट घंटे (kWh) और दो अरब रुपयों की बचत होगी. अगर हम इस तकनीक को ज़्यादा कूलिंग का बोझ उठाने वाले तमाम उद्योगों में लागू करें, तो इस बात की पर्याप्त संभावना है कि एक दशक के भीतर कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) का उत्सर्जन 2.9 करोड़ टन तक कम किया जा सकता है.

3. स्मार्ट जूल्स के उपायों को व्यापक स्तर पर लागू करे में चुनौतियां

टिकाऊ ऊर्जा की ओर परिवर्तन केवल तकनीकी या आर्थिक बदलाव नहीं. ये एक सामाजिक परिवर्तन है.’

बदलाव के प्रतिकार ने स्मार्ट जूल्स के समाधानों को तेज़ी से बड़े स्तर पर लागू करने में बाधाएं खड़ी की हैं. इसके अतिरिक्त, बड़ी कंपनियों में फ़ैसले लेने की प्रक्रिया बड़ी लंबी और जटिल होती है. इस प्रक्रिया में किसी नई तकनीक को अपनाने के लिए हर विभाग से मंज़ूरी लेनी होती है. अगर सारे लोग हामी भरते हैं, तब तो नई तकनीक को मंज़ूरी मिल जाती है. मगर, कोई एक विभाग भी ना कहता है, तो स्मार्ट समाधान की राह बाधित हो जाती है. बाज़ार की इन बाधाओं के अलावा, स्टार्ट-अप के सामने जो एक सामान्य बाधा खड़ी होती है, वो पूंजी की होती है. ग्राहकों के क़र्ज़ लेने की क्षमता को लेकर अनिश्चितता , ठेके लागू करने की शर्तों में अंतर और न्यायिक व्यवस्था की धीमी गति से भुगतान का समय चक्र लंबा होने का ख़तरा रहता है. इसके अलावा, मूलभूत ढांचे या फिर परियोजना के स्तर पर, ख़ास तौर से छोटे स्तर के प्रोजेक्ट जैसे किसी एक संस्थान में सेंट्रलाइज़्ड कूलिंग सिस्टम लगाने के लिए पूंजी बेहद कम उपलब्ध है और बेहद महंगी भी है.

बाज़ार की इन बाधाओं के अलावा, स्टार्ट-अप के सामने जो एक सामान्य बाधा खड़ी होती है, वो पूंजी की होती है.

फिर भी, हर चुनौती के साथ स्मार्ट जूल्स ने सबक़ सीखा है, ख़ुद में सुधार किया है और अलग अलग भागीदारों को नई तकनीक लागू करने की हिचक को दूर करने में मदद की है. हमने अपने ग्राहकों को कार्बन उत्सर्जन कम करने के साथ साथ परियोजना से अच्छा रिटर्न हासिल करने में लगातार अभूतपूर्व सफलताएं हासिल की हैं.

4.अहम भागीदारों के लिए सुझाव

भारत में कूलिंग से कार्बन उत्सर्जन उत्सर्जन कम करने के सकारात्मक प्रयासों से प्रेरित होकर स्मार्ट जूल्स न केवल निजी क्षेत्र से बल्कि सरकारी मंत्रालयों और अलाभकारी संगठनों के साथ भी सक्रियता से संवाद कर रही है. हमने भारत के कूलिंग उद्योग में बड़ा बदलाव लाने के लिए उठाए जाने वाले क़दमों के लिए सुझाव विकसित किए हैं. ये सुझाव हमने एलायंस फॉर एन एनर्जी एफिशिएंट इकॉनमी (AEEE), दि सस्टेनेबिलिटी इंजन फाउंडेशन (उर्फ़ SusMafia), इंडियन इलेक्ट्रिकल ऐंड इलेक्ट्रॉनिक्स मैन्यूफैक्चरिंग एसोसिएशन (IEEMA) में अपनी अग्रणी स्थिति और ब्यूरो ऑफ एनर्जी एफिशिएंसी (BEE) और ऊर्जा मंत्रालय के साथ सीधे बातचीत करके विकसित किए हैं. इसके अलावा, हमने CaaS को तेज़ी से लागू करने और कूलिंग के अधिक टिकाऊ समाधानों की तरफ़ परिवर्तन के लिए हमने कुछ अहम भागीदारों के लिए ख़ास तौर से सुझाव तैयार किए हैं.

मिसाल के तौर पर, केंद्र सरकार की एजेंसियों को हमारा सुझाव ये है कि वो CaaS को अपने इंडिया कूलिंग एक्शन प्लान (ICAP) लागू करने की रणनीति का हिस्सा बनाएं, जिससे पूरे देश में कूलिंग के टिकाऊ नज़रिए को अपनाया जा सके. इसके अलावा, CaaS को केंद्र सरकार की किसी आगामी बड़ी योजना में लागू करने से उसके प्रभावी होने का ताक़तवर प्रदर्शन होगा, जिससे अन्य लोगों को भी इसे अपनाने की प्रेरणा मिलेगी. इसके साथ साथ, सरकार द्वारा तय एजेंसियां भी CaaS को अपनाने में अहम भूमिका निभा सकती हैं. CaaS के सहयोग को अपनी रणनीतिक योजनाओं में शामिल करने और उसको अपने नेटवर्क के ज़रिए सक्रियता से प्रचारित करने से इसके प्रभाव को अधिक प्रचार मिल सकेगा. इसके अलावा, थिंक टैंक और उद्योग से जुड़े संगठनों को भी CaaS को अपनी कूलिंग की पहलों का केंद्रबिंदु बनाना चाहिए. CaaS की परिकल्पना से जुड़ी बातों और कामयाबी की कहानियों को को बड़े स्तर पर साझा करने से तमाम सेक्टरों में इसे अपनाने को बढ़ावा दिया जा सकेगा.

पूंजी उपलब्ध कराने वाली एजेंसियां भी नॉन रिकोर्स क़र्ज़ों के ज़रिए CaaS को लागू करने में मदद कर सकती हैं. इससे इसे अपनाने की राह में आने वाली वित्तीय बाधाएं दूर होंगी. इसके अलावा, अन्य कारोबारियों को क़र्ज़ देने की शर्तों में ऊर्जा कुशलता को हिस्सा बनाने से ऊर्जा को लेकर संवेदनशील रुख़ वाले बर्तावों को बढ़ावा मिलेगा, जो CaaS की टिकाऊ सोच को बढ़ावा देंगे. आख़िर में रियल एस्टेट के डेवेलपर्स भी अपने कम से कम एक प्रोजेक्ट में प्रयोग के तौर पर CaaS को लागू करके इसमें अहम योगदान दे सकते हैं. इससे पर्यावरण के लिए मुफ़ीद विकल्पों को लेकर उनकी प्रतिबद्धता उजागर होगी और निर्माण के क्षेत्र में कूलिंग की टिकाऊ व्यवस्था अपनाने के लिए वो एक मिसाल क़ायम कर सकते हैं.

5.आगे की राह

ये कहने की ज़रूरत नहीं है कि बढ़ती ग्लोबल वार्मिंग के इस युग में अब कूलिंग कोई शाही ख़र्च नहीं, बल्कि एक बुनियादी ज़रूरत बन चुकी है. ख़ास तौर से भारत जैसे उन देशों में जहां अधिक तापमान का संकट अक्सर पैदा होता है, स्मार्ट जूल्स की तकनीक कूलिंग के ऐसे समाधान मुहैया कराती है, जो सरल हैं, व्यापक हैं, मुनाफ़े वाले और आसानी से उपलब्ध हैं, जिससे ऊर्जा कुशलता को लेकर ये विचार हक़ीक़त में तब्दील हो सकता है कि इससे पर्यावरण को टिकाऊ बनाने, आर्थिक बचत करने और समाज का भला करने में योगदान दिया जा सकता है.

स्मार्ट जूल्स की शुरुआती सफलता इस बात का प्रतीक है कि आने वाले समय में ऊर्जा की खपत कम करने की क्रांति आने वाली है, जहां एक कंपनी की आमदनी उसकी वास्तविक ऊर्जा बचत करने से जुड़ी होगी. ये बड़ा बदलाव न केवल आर्थिक प्रोत्साहन को पर्यावरण के लक्ष्यों से जोड़ता है, बल्कि अधिक कुशल तकनीकों को अपनाने की शुरुआती भारी क़ीमत की बाधा को भी दूर करता है. हम ये उम्मीद करते हैं कि ऊर्जा के भविष्य को बदलने की क्षमता विकसित करके हम, धीरे धीरे कामयाबी की ओर बढ़ते हुए, ऊर्जा कुशलता को एक सहज विकल्प बनाएंगे.


The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.