पापुआ न्यू गिनी (PNG) पिछले कुछ हफ्तों से अंतरराष्ट्रीय सुर्खियों में है, जहां भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यात्रा को लेकर बड़ा उत्साह देखने को मिला. 22 मई को प्रधानमंत्री मोदी पापुआ न्यू गिनी पहुंचे, जहां उनका ज़ोरदार स्वागत किया गया, क्योंकि पहले किसी भारतीय प्रधानमंत्री ने इस द्वीपीय देश की यात्रा नहीं की है.
पापुआ न्यू गिनी के प्रधानमंत्री जेम्स मरापे के खुशी-खुशी नरेंद्र मोदी के पैर छूने की तस्वीरों से यह साफ़-साफ़ पता चलता है कि प्रधानमंत्री जेम्स मरापे ऐसा करके अपने अतिथि के प्रति व्यक्तिगत सम्मान का प्रदर्शन करना चाहते थे, जिन्हें उन्होंने "वैश्विक दक्षिण के नेता" के रूप में संबोधित किया. अपने औपचारिक संबोधन में उन्होंने उन्हें "वैश्विक उत्तर के समक्ष एक तीसरी बड़ी आवाज़" बनने के लिए अनुरोध किया.
भारतीय प्रधानमंत्री के स्वागत में इतनी गर्मजोशी का प्रदर्शन करना यही दर्शाता है कि भारत इस द्वीपीय देश के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि एक पूर्व उपनिवेश और विकासशील देश के रूप में उसके पास ऐसी "विशिष्ट क्षमताएं" हैं, जो वह इस क्षेत्र और उसके लोकतांत्रिक भागीदारों को प्रदान करता है. क्योंकि चीन की बढ़ती उग्रता की तुलना में भारत ने आपसी सहयोग की अपनी मंशा का प्रदर्शन किया है. प्रधानमंत्री मोदी की इस यात्रा से भारत ने इस बात का स्पष्ट संकेत दिया है कि वह इन प्रयासों का समर्थन करता है और हिंद महासागर और दक्षिण-पूर्व एशिया क्षेत्र से परे अपनी रणनीतिक पहुंच का विस्तार करना चाहता है. सबसे पहले ये रुझान तब देखने को मिला था जब 2014 में प्रधानमंत्री मोदी ने फिजी में पहले शिखर सम्मेलन की मेजबानी की थी.
भारत की ताकत
प्रशांत क्षेत्र भारत को एक ऐसे ताक़तवर देश के रूप में देखता है, जो क्षेत्र से सांस्कृतिक जुड़ाव रखता है और जिसकी विकास-यात्रा उसके लिए प्रेरणादायी है, ऐसे में भारत अगर जलवायु परिवर्तन, सुरक्षा और सतत विकास को लेकर क्षेत्र में स्थित देशों के साथ मज़बूत भागीदारी करता है, तो वह इस क्षेत्र में बेहद महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है. और फोरम फॉर इंडिया-पैसेफिक आइलैंड्स कोऑपरेशन (FIPIC III) के तीसरे शिखर सम्मेलन में प्रधानमंत्री मोदी ने अपने इस इरादे का स्पष्ट संकेत दिया, जिसका उन्होंने पापुआ न्यू गिनी के अपने दौरे में आयोजन किया था.
पैसिफिक आइलैंड फोरम (PIF) के सदस्य देशों और क्षेत्रों के 14 नेताओं ने इस सम्मेलन में हिस्सा लिया, जहां प्रधानमंत्री मोदी ने उनसे कहा कि भारत उनके विकास में साझीदार होने की अपनी भूमिका पर गर्व करता है और एक "मुक्त, खुले और समावेशी" हिंद-प्रशांत के लिए प्रतिबद्ध है. उन्होंने पलाऊ में एक सम्मलेन केंद्र, नौरू में अपशिष्ट प्रबंधन कार्यक्रम, फ़िजी में कृषि कार्यक्रम और किरिबाती में सोलर प्रोजेक्ट जैसी कुछ विशिष्ट भारतीय विकास परियोजनाओं के बारे में की. उन्होंने फ़िजी में यूनिवर्सिटी ऑफ साउथ पैसेफिक के सस्टेनेबल कोस्टल एंड ओसेन रिसर्च इंस्टीट्यूट के बारे में भी बात की, जो प्रशांत क्षेत्र के इन द्वीपीय देशों के साथ साझेदारी के लिए सतत विकास में भारत के अनुभवों का लाभ उठाने का उद्देश्य रखता है. प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि भारत डिजिटल और अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी, स्वास्थ्य और खाद्य सुरक्षा, जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण संरक्षण जैसे क्षेत्रों में भी सहयोग करना चाहता है.
सम्मेलन में पैसिफिक आइलैंड फोरम के कुछ सदस्य देशों (ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, और फ्रांस के नियंत्रण वाले प्रशांत क्षेत्र) को आमंत्रित न करने के भारत के फ़ैसले पर यह सवाल उठने लगे हैं कि वह क्षेत्रीय संस्थानों के साथ मिलकर काम करने के लिए कितना प्रतिबद्ध है. लेकिन न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री और ऑस्ट्रेलिया के सीनेटर कॉनरॉय (क्षेत्र में अमेरिका द्वारा आयोजित सम्मेलन में ये दोनों देश शामिल थे) को समूह के साथ दोपहर के भोज के लिए आमंत्रित किया गया था, और मुख्य सम्मेलन में उनकी अनुपस्थिति शायद सभी के लिए रणनीतिक रूप से फायदेमंद रही है. अगर इस क्षेत्र के "पारंपरिक" भागीदार चाहते हैं कि भारत इस क्षेत्र में एक महत्त्वपूर्ण एवं सकारात्मक भूमिका निभाए, तो शायद यहां यह बात समझनी होगी कि अगर वे क्षेत्र के साथ अपनी पुरानी भागीदारी का विस्तार कर रहे हैं तो इससे हिंद-प्रशांत सम्मेलन का महत्त्व कम नहीं हो जाता है.
प्रधानमंत्री की मौजूदगी का फ़ायदा उठाते हुए, पापुआ न्यू गिनी और फ़िजी, दोनों ने उन्हें अपने देश के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कारों से सम्मानित किया. गवर्नर-जनरल ने उन्हें ग्रैंड कम्पेनियन ऑफ द ऑर्डर ऑफ लोगोहू से सम्मानित किया, जो व्यक्ति को "चीफ़" की उपाधि प्रदान करता है. और फ़िजी के प्रधानमंत्री सित्विनी राबुका ने अपने भारतीय समकक्ष को कंपैनियन ऑफ द ऑर्डर ऑफ फ़िजी से सम्मानित किया.
अमेरिका की दिलचस्पी
प्रधानमंत्री मोदी की यात्रा के दौरान अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन भी पापुआ न्यू गिनी के दौरे पर आए थे, जो राष्ट्रपति बाइडेन की अनुपस्थिति में अमेरिका का प्रतिनिधित्व कर रहे थे. अमेरिकी कांग्रेस में देश की ऋण सीमा बढ़ाने के मुद्दे पर संकट की स्थिति पैदा हो गई थी, जिसके बाद राष्ट्रपति बाइडेन की पापुआ न्यू गिनी की बहुप्रतीक्षित यात्रा और उसके तुरंत बाद ऑस्ट्रेलिया दौरे की योजना को रद्द कर दिया गया था. ब्लिंकन और पापुआ न्यू गिनी के उनके समकक्षों ने एक नए रक्षा सहयोग समझौते और अवैध अंतर्राष्ट्रीय समुद्री गतिविधियों पर लगाम लगाने संबंधी एक समझौते पर हस्ताक्षर किए.
प्रधानमंत्री मोदी की यात्रा से ज़रूर मरापे को राहत हुई होगी क्योंकि इससे उन्हें अमेरिका के साथ समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए आवश्यक राजनीतिक बल मिला है. इन समझौतों में कथित रूप से पारदर्शिता की कमी को लेकर छात्रों ने विरोध प्रदर्शन किया और यह चिंता जताई कि इससे देश पर अमेरिका का और ज्य़ादा नियंत्रण बढ़ जाएगा और इससे उसकी स्वतंत्रता ख़तरे में पड़ जाएगी. कुछ विपक्षी नेताओं ने चीन के नाराज़गी के ख़तरे के बारे में भी आगाह किया, और इसके कारण पापुआ न्यू गिनी की आर्थिक सुरक्षा पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है. मरापे सरकार अपने पक्ष को लेकर अड़ी रही, जहां प्रधानमंत्री ने तर्क दिया है कि इन समझौतों का "चीन से कोई लेना-देना" नहीं है और देश की संप्रुभता बरक़रार है. उन्होंने बीजिंग के साथ उनकी सरकार के "स्वस्थ" संबंधों का भी हवाला दिया और चीन को पापुआ न्यू गिनी का एक महत्त्वपूर्ण व्यापारिक साझेदार बताया.
ऑस्ट्रेलिया से तुलना करें तो पापुआ न्यू गिनी के विकास में चीन ने बेहद सीमित योगदान दिया है और उसके निवेश की मात्रा भी बेहद कम है, वहीं आर्थिक गतिविधियों, विकास और सुरक्षा के संदर्भ ऑस्ट्रेलिया उसका सबसे बड़ा साझेदार है. लेकिन व्यापारिक भागीदार के तौर पर चीन ऑस्ट्रेलिया से आगे है, और अब चीन के सरकारी उद्योगों की पापुआ न्यू गिनी में मौजूदगी, विशेष रूप से निर्माण क्षेत्र में काफ़ी बढ़ गई है.
अमेरिका और पापुआ न्यू गिनी के बीच रक्षा संबंधों में हुए विस्तार, अमेरिका और प्रशांत क्षेत्र के बीच उच्च स्तरीय राजनीतिक वार्ता की वर्तमान परंपरा, क्षेत्रीय विकास में अमेरिकी सहायता में हुई हालिया वृद्धि, और देश के क्षेत्रीय कूटनीतिक नेटवर्क में विस्तार जैसे घटनाक्रम यह दर्शाते हैं कि अमेरिका प्रशांत क्षेत्र से किए गए अपने पुराने वादों को अब पूरा कर रहा है. अगर राष्ट्रपति बाइडेन का दौरा रद्द नहीं होता, तो यह किसी अमेरिकी राष्ट्रपति का प्रशांत द्वीपीय देश में पहला दौरा होता और इससे इस संदेश को सांकेतिक बल मिल जाता. और निश्चित रूप से इस दौरे के रद्द होने से यह अवसर हाथ से निकल गया है.
ये दोनों दौरे, जो लगभग एक ही समय पर हुए थे, पापुआ न्यू गिनी के बाहरी संपर्कों में हुए विस्तार को प्रदर्शित करते हैं. ब्रिटेन के विदेश मंत्री जेम्स क्लेवरली भी अप्रैल में दौरे पर आए थे, और उन्होंने एक डिफेंस फ्रेमवर्क एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर किए. और जून में इंडोनेशिया के राष्ट्रपति जोकोवी दौरे पर आएंगे. फ्रांस ने भी पापुआ न्यू गिनी के साथ हाल ही में एक सैन्य समझौता किया है, और ऑस्ट्रेलिया के साथ एक सुरक्षा समझौते पर बातचीत चल रही है, जिस पर अगर सहमति बन जाती है तो यह पुराने रक्षा सहयोग समझौते को काफ़ी बाद तक परिवर्तित कर देगा.
इन सभी गतिविधियों से यही पता चलता है कि ताकतवर लोकतांत्रिक देशों के लिए प्रशांत क्षेत्र के द्वीपीय देशों का रणनीतिक महत्त्व बढ़ता जा रहा है, क्योंकि इसी दौरान क्षेत्र में चीन के प्रभुत्व का विस्तार हुआ है और अमेरिका-चीन के बीच तनाव भी बढ़ गया है. पापुआ न्यू गिनी (इस क्षेत्र में सबसे बड़ा देश) के मामले में यह विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है, जो ऑस्ट्रेलिया से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर स्थित है और एशिया और प्रशांत की सीमा रेखा के क़रीब है. यह भी स्पष्ट है कि ऑस्ट्रेलिया के सहयोगी देश यह समझने लगे हैं कि प्रशांत क्षेत्र में लोकतांत्रिक मानकों को बनाए रखने का सारा भार वे ऑस्ट्रेलिया के कंधों पर नहीं छोड़ सकते.
पापुआ न्यू गिनी अपनी विदेश नीति के इस दृष्टिकोण, "सभी से मित्रता, शत्रुता किसी से नहीं" के प्रति प्रतिबद्ध रहेगा. हालिया वर्षों में, प्रशांत क्षेत्र के बाकी देशों की तरह पापुआ न्यू गिनी भी इस बात को लेकर चिंतित है कि इस क्षेत्र में उनके बाहरी सहयोगियों के बीच प्रतिद्वंदिता बढ़ती जा रही है और इसके कारण क्षेत्र में भारी सैन्यीकरण को बढ़ावा मिला है. इसलिए, वैश्विक मुद्दों पर भारत का स्वतंत्र रुख इस क्षेत्र में उसे एक मॉडल के रूप में पेश करता है.
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