Expert Speak Digital Frontiers
Published on Mar 08, 2024 Updated 3 Days ago
#CyberSpace: पैनिक रूम बनी साइबर की दुनिया महिलाओं के लिए सुरक्षित कैसे बनाएं?

ये लेख अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस सीरीज़ का हिस्सा है.  


2002 में आई डेविड फिंचर की थ्रिलर फ़िल्म पैनिक रूम में एक मां और बेटी को उस वक़्त दीवार में चुनी एक वॉल्ट जैसे ‘पैनिक रूम’ में पनाह लेने को मजबूर होना पड़ता है, जब घुसपैठ करने वाले न्यूयॉर्क में उनके घर में घुस आते हैं. उनके लिए तीन मर्दों से टकराने का मतलब हमला या फिर मौत भी हो सकता था. लेकिन, ख़ुद को ऐसे कमरे में क़ैद कर लेना जहां कोई घुस न सके और फिर कैमरों के ज़रिए ही बाहरी दुनिया को देख पाना भी एक भयावाह तजुर्बा हो सकता है.

 एक वैश्विक सर्वे में पता चला है कि 60 प्रतिशत लड़कियों और महिलाओं ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर उत्पीड़न का सामना किया है, और इनमें से लगभग 20 प्रतिशत ने इसके चलते या तो सोशल मीडिया को अलविदा कह दिया या फिर उसका इस्तेमाल कम कर दिया.

आज जब साइबर क्षेत्र में महिलाओं के लिए ख़तरे कई गुना बढ़ गए हैं, तो ऐसा कोई सुरक्षित ठिकाना नहीं बचा है, जहां वो छुप सकें और न ही कोई कड़ी सुरक्षा वाला इलाक़ा है, जहां बैठकर वो अपने सम्मान पर डाका डालने वाले साइबर ख़तरों के ख़त्म होने का इंतज़ार कर सकें. एक वैश्विक सर्वे में पता चला है कि 60 प्रतिशत लड़कियों और महिलाओं ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर उत्पीड़न का सामना किया है, और इनमें से लगभग 20 प्रतिशत ने इसके चलते या तो सोशल मीडिया को अलविदा कह दिया या फिर उसका इस्तेमाल कम कर दिया. इसी तरह यूएन विमेन ने पाया है कि दुनिया भर में 58 प्रतिशत महिलाएं और लड़कियों को किसी न किसी तरह के ऑनलाइन शोषण का शिकार होना पड़ा है. इनमें ट्रोलिंग, पीछा करने, डॉक्सिंग और लैंगिकता पर आधारित दूसरे तरह के ऑनलाइन हिंसक बर्ताव  (OGBV) हैं, जो डिजिटिल युग के नए ख़तरों के तौर पर उभर रहे हैं. 

 

भारत की स्थिति

 

भारत में दुनिया की सबसे ज़्यादा युवा आबादी है और यहां की जनसंख्या ऑनलाइन दुनिया में सबसे ज़्यादा सक्रिय है. इंटनेट इस्तेमाल करने वाली स्त्रियों की बढ़ती तादाद एक सकारात्मक बदलाव है. लेकिन, इसने और अधिक संख्या में महिलाओं को वर्चुअल दुनिया में ख़तरों के जोखिम में डाल दिया है. हां, ऐसा लग रहा है कि महिलाओं के प्रति ऑनलाइन अपराध की घटनाएं बढ़ रही हैं. इनमें यौन उत्पीड़न, धमकाने, डराने बलात्कार या जान से मार देने की धमकियां देने, साइबर दुनिया में पीछा करने और बिना सहमति के तस्वीरें और वीडियो शेयर करने जैसी वारदातें शामिल हैं.

 मिसाल के तौर पर 2000 का सूचना प्रौद्योगिकी (IT) क़ानून नागरिकों और विशेष रूप से महिलाओं को सुरक्षित रखने का प्रयास करता है. इस क़ानून में किसी की शारीरिक निजता का इलेक्ट्रॉनिक तरीक़े से उल्लंघन करने और अश्लील या फिर ज़ाहिर तौर पर सेक्सुअल और अश्लील कृत्यों वाले मैटीरियल का प्रसारण करना दंडनीय अपराध बनाया गया है.

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के मुताबिक़, दर्ज कराए महिलाओं के प्रति साइबर अपराधों की संख्या 2017 में 4,242 से बढ़कर 2019 में 8,730 पहुंच गई. लेकिन, ये कोविड-19 महामारी का दौर और उसकी वजह से लॉकडाउन लगने का नतीजा था कि महिलाओं से होने वाले ऑनलाइन अपराधों में विस्फोट हो गया. लॉकडाउन के लंबे महीनों के दौरान, भारत में इंटरनेट का इस्तेमल 50 से 70 प्रतिशत तक बढ़ गया था और 2021 के अंत तक भारत के इंटरनेट बेस में 37 प्रतिशत तक की बढ़ोत्तरी हो चुकी थी. महिलाएं और लड़कियां पहले से कहीं ज़्यादा समय तक ऑनलाइन रह रही थीं, और उनसे ऑनाइलन हिंसक अपराध (OGBV) की घटनाओं में भी बहुत अधिक इज़ाफ़ा देखा गया था. कोविड-19 महामारी की शुरुआत के चार साल बाद, महिलाओं के लिए ये भयानक ख़तरे कम नहीं हुए हैं.

 

संकट का मुक़ाबला

 

भारत सरकार ने महिलाओं से साइबर अपराधों की रोकथाम के लिए कई अलग अलग स्तरों पर क़दम उठाए हैं. इनमें सख़्त क़ानूनी ढांचा खड़ा करना, शिकायत करने की व्यवस्था करना, क़ानून और व्यवस्था की एजेंसियों के लिए क्षमता का निर्माण और तकनीक़ी कंपनियों पर नियमों का पालन करने का दबाव बनाने के साथ साथ महिलाओं की ऑनलाइन सुरक्षा और भागीदारों के लिए जागरूकता के कार्यक्रम चलाना भी शामिल है.

 

मिसाल के तौर पर 2000 का सूचना प्रौद्योगिकी (IT) क़ानून नागरिकों और विशेष रूप से महिलाओं को सुरक्षित रखने का प्रयास करता है. इस क़ानून में किसी की शारीरिक निजता का इलेक्ट्रॉनिक तरीक़े से उल्लंघन करने और अश्लील या फिर ज़ाहिर तौर पर सेक्सुअल और अश्लील कृत्यों वाले मैटीरियल का प्रसारण करना दंडनीय अपराध बनाया गया है. इसी तरह, साइबर दुनिया को अधिक सुरक्षित, भरोसेमंद और जवाबदेह बनाने के लिए IT (इंटरमीडियरी गाइडलाइंस और डिजिटल मीडिया एथिक्स कोड) रूल्स 2021 में मध्यस्थ कंपनियों की ये ज़िम्मेदारी तय की गई है कि उसके यूज़र किसी तरह की अश्लील सामग्री को न तो पोस्ट करें, न अपने एकाउंट में जोड़ें, और न ही शेयर करें, ‘जो किसी और की निजता का उल्लंघन करती हो’ या फिर ‘लैंगिक आधार पर अपमानजनक या उत्पीड़न करने वाली हो’. इन नियमों में ऐसे प्रावधान भी रखे गए हैं, जो रेवेंज पोर्न से प्रभावी  ढंग से निपट सकें. इसके लिए मध्यस्थों (सोशल मीडिया कंपनियों) की ये ज़िम्मेदारी तय की गई है कि वो प्रभावित इंसान से शिकायत प्राप्त करने के 24 घंटों के भीतर, वो अपमानजनक कंटेंट अपने प्लेटफॉर्म से हटा दें.

क़ानून व्यवस्था संभालने वाली एजेंसियों (LEAs) को जांच की शुरुआत में तेज़ी लाने के लिए, ऐसे अपराधों की शिकायत दर्ज कराने की व्यवस्था काफ़ी मददगार साबित होती है. इसके लिए नेशनल साइबरक्राइम रिपोर्टिंग पोर्टल बनाया गया है. इस पोर्टल के शुरुआती दिनों में पीड़ितों और मुख्य रूप से महिलाओं और बच्चों के यौन शोषण से जुड़े कंटेंट की जानकारी देने का ये पहला ठिकाना था. हाल ही में इस पोर्टल का दायरा बढ़ाया गया है और इसके साथ एक हेल्पलाइन भी खोली गई है, जिस पर सभी तरह के साइबर अपराधों की शिकायत दर्ज कराई जा सकती है. ऑनलाइन दुनिया में लैंगिकता पर आधारित हिंसा (OGBV) और संबंधित अपराधों के प्रति लोगों के बीच जानकारी बढ़ाने के लिए सरकार, ‘साइबर क्राइम प्रिवेंशन अगेंस्ट विमेन ऐंड चिल्ड्रेन’ (CCPWC) योजना भी चलाती है. इसके अलावा क़ानून व्यवस्था की एजेंसियों को ट्रेनिंग देने और साइबर फोरेंसिक क्षमताओं में बढ़ोत्तरी के प्रयास भी किए गए हैं. इस पर ज़ोर देने और क्षमता निर्माण को अक्सर तकनीक़ी कंपनियों और नागरिक संगठनों (CSOs) की मदद से किया जाता है, जो महिलाओं की ऑनलाइन सुरक्षा को बढ़ावा देने के सरकार के प्रयासों का मुख्य बना हुआ अंग है.

 

वैसे तो केंद्र और राज्यों की सरकारों के स्तर पर ऐसी कोशिशें, महिलाओं के प्रति ऑनलाइन हिंसा (OGBV) से सुरक्षा का पहला मोर्चा तैयार करते हैं. लेकिन, इनको सख़्ती से लागू करने की ज़िम्मेदारी पूरी तरह से तकनीक़ी कंपनियों की होती है. आज ज़्यादातर तकनीक़ी कंपनियों ने कंटेंट के मानक और सामुदायिक दिशानिर्देश तैयार कर लिए हैं, जो ऐसे मैटेरियल की रोकथाम करते हैं, जिनका मक़सद महिलाओं का उत्पीड़न करना और उनकी सुरक्षा से खिलवाड़ करना है. सोशल मीडिया के प्लेटफॉर्म अपमानजनक कंटेंट का पता लगाने और उसे अपने यहां से हटाने के लिए अक्सर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) और मशीन लर्निंग (ML) का सहारा लेते हैं. मिसाल के तौर पर इंस्टाग्राम ने आज से छह साल पहले 2018 में ही महिलाओं के प्रति हिंसक और गाली गलौच वाली भाषा के कंटेंट का पता लगाने के लिए मशीन लर्निंग (ML) का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था; और लगभग हर प्रमुख सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म- जैसे कि फेसबुक, X (पहले ट्विटर), टिकटॉक, इंस्टाग्राम और यू-ट्यूब ने कंटेंट की शिकायत करने की व्यवस्थाएं और यूज़र्स द्वारा ब्लॉक करने के औज़ार मुहैया कराने लगे हैं.

 

बड़ी तकनीक़ी कंपनियां नागरिक समूहों के साथ भी भागीदारी बढ़ा रही हैं, ताकि महिलाओं की सुरक्षा को मज़बूत बना सकें. हाल ही में जो एक ख़ास पहल की गई है, वो भारत में मेटा की StopNCII.org पहल है, जो उसने कई नागरिक संगठनों के साथ मिलकर की है. ये एक अनूठा मंच है, जिसे बिना सहमति वाली अंतरंग तस्वीरों का प्रसार रोकने की लड़ाई लड़ने के लिए बनाया गया है. इसके साथ साथ मेटा ने विमेन्स सेफ्टी हब की शुरुआत भी की है, जो कई भारतीय भाषाओं में उपलब्ध है. ये हब महिलाओं को ऐसे औज़ार और संसाधन उपलब्ध कराता है, जिससे वो ऑनलाइन दुनिया में ख़ुद को महफ़ूज़ रख सकें.

 

अगला क़दम क्या हो?

 

महिलाओं के सम्मान को बरक़रार रखने के लिए सुरक्षित ऑनलाइन माहौल का निर्माण करना ज़रूरी है. इससे उनकी डिजिटल बेहतरी सुनिश्चित होगी और उनको इंटरनेट कृा बुनियादी अधिकार हासिल करने में भी मदद की जा सकेगी. ये एक चतुराई भरा अर्थशास्त्र भी है. जैसा कि इंटरनेशनल टेलीकम्युनिकेशन यूनियन ने बताया है कि 60 करोड़ महिलाओं को ऑनलाइन दुनिया में लाकर और इससे जुड़ा रखने से दुनिया की GDP में 18 अरब डॉलर का इज़ाफ़ा किया जा सकता है. 

 यही नहीं, इल्ज़ाम है कि भारत की अदालतें, महिलाओं के प्रति ऑनलाइन अपराधों की तुलना में ऑफलाइन जुर्मों को ज़्यादा अहमियत देती हैं. जिन मामलों में आरोपी इंसान पर ऑनलाइन के साथ साथ ऑफलाइन अपराध करने के इल्ज़ाम भी लगे हों, वहां कहा जाता है कि ऐसा चलन है कि आरोपी के ऑफलाइन जुर्मों को तवज्जो दी जाती है.

भारत में महिलाओं से ऑनलाइन हिंसा (OGBV) और इससे जुड़े जोखिमों का मुक़ाबला करने की बुनियाद तो मोटा-मोटी तैयार हो चुकी है. हालांकि, मौजूदा क़ानूनों और नीतियों को लागू करने में मज़बूती लाइ जा सकती है; और निजी क्षेत्र, ख़ास तौर से बिग टेक को ऑनलाइन नुक़सान से निपटने के अपने प्रयासों के साथ साथ नियामक शर्तों का पालन करने में और सक्रियता दिखानी होगी.

 

वैसे तो भारतीय दंड संहिता, 2000 का IT क़ानून और 2021 के IT रूल्स ऐसे अपराधियों से निपटने के लिए कड़े उपायों उपलब्ध कराते हैं. लेकिन, अब शायद समय आ गया है कि इनडीसेंट रिप्रेज़ेंटेशन ऑफ विमन (प्रोहिबिशन) एक्ट 1986 में भी संशोधन किया जाए और वर्चुअल दुनिया को भी इस क़ानून के दायरे में लाया जाए. ये प्रस्ताव पिछले एक दशक से संसद के सामने पड़ा है. यही नहीं, इल्ज़ाम है कि भारत की अदालतें, महिलाओं के प्रति ऑनलाइन अपराधों की तुलना में ऑफलाइन जुर्मों को ज़्यादा अहमियत देती हैं. जिन मामलों में आरोपी इंसान पर ऑनलाइन के साथ साथ ऑफलाइन अपराध करने के इल्ज़ाम भी लगे हों, वहां कहा जाता है कि ऐसा चलन है कि आरोपी के ऑफलाइन जुर्मों को तवज्जो दी जाती है. अगर ऐसा कोई असंतुलन है, तो उसको भी दुरुस्त किया जाना चाहिए और अपराध किसी भी क्षेत्र में किया गया हो, पीड़ित को बराबरी से इंसाफ मिलना चाहिए. 

 

इसके साथ साथ तकनीक़ी प्लेटफॉर्म और इंटरनेट की मध्यस्थ कंपनियां, जहां महिलाओं से लैंगिकता पर आधारित हिंसा होती है, उन्हें अधिक जवाबदेही दिखाने की ज़रूरत है. जैसा कि संयुक्त राष्ट्र के ब्रॉडबैंड आयुक्त ने इशारा किया था कि मध्यस्थ कंपनियों को चाहिए कि वो ‘ऑनलाइन दुनिया में महिलाओं की सुरक्षा का पालन करने के लिए उच्च स्तर के मानक और स्पष्ट प्रतिबद्धताएं तय करें.’ इन प्रतिबद्धताओं को संस्थागत तरीक़े से वो औज़ार बेहतर बनाकर लागू किया जाना चाहिए, जिनसे ‘ऑनलाइन हिंसा की रोकथाम, पता लगाने, उनसे निपटने और निगरानी’ बेहतर हो सके और ‘जब भी ज़रूरत पड़े तो, अवैध कंटेंट को फिल्टर, ब्लॉक किया जा सके या फिर हटाया जा सके […]’.  आख़िर में नागरिक संगठनों (CSOs) को भी इस काम में अहम भूमिका निभानी होगी. उन्हें सरकारों और कारोबारी कंपनियों के साथ डिजिटल साक्षरता बढ़ाने, जागरूकता के विशेष अभियानों का प्रबंधन करने और ऑनलाइन सुरक्षा को बढ़ावा देने के लिए संसाधन विकसित करने में सहयोग करना चाहिए. इन सभी उपायों को लागू करने से महिलाओं के लिए सुरक्षित साइबर दुनिया के निर्माण में काफ़ी मदद मिल सकेगी.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.