कई महीनों की अटकलों, साज़िशों, विवादों, सलाह-मशविरे, फ़ैसले को प्रभावित करने के लिए सियासतदानों द्वारा ज़ोर लगाने और अंदरूनी खींचतान के बाद, आख़िरकार पाकिस्तान की सूचना मंत्री मरियम औरंगज़ेब ने एलान किया कि जनरल क़मर जावेद बाजवा (Gen Qamar Javed Bajwa) की जगह, लेफ्टिनेंट जनरल आसिम मुनीर (Gen. Asim Munir) , पाकिस्तान के नए आर्मी चीफ (COAS) होंगे. हर तीन साल के बाद पाकिस्तान इसी तरह की अटकलों का शिकार होता है कि मुल्क का अगला सेनाध्यक्ष (army chief) कौन होगा. चूंकि पाकिस्तानी फौज का मुखिया, मुल्क का असली शासक होता है. इसलिए, पाकिस्तान में चलने वाली ऐसी अटकलबाज़ी पर अब हैरानी नहीं होती. भले ही सेनाध्यक्ष की नियुक्त पाकिस्तान के वज़ीर-ए-आज़म करते हों. लेकिन एक बार नियुक्त होने के बाद सेनाध्यक्ष, अगर वज़ीर-ए-आज़म के बॉस नहीं बनते, तो कम से कम पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के बराबर का दर्जा तो हासिल कर ही लेते हैं. फिर वो प्रधानमंत्री के दुश्मन बन जाते हैं. लेकिन, ये साल कुछ ज़्यादा ही असाधारण था. पाकिस्तान इस वक़्त एक साथ कई चुनौतियों जैसे कि तबाही लाने वाली बाढ़, मुल्क को दिवालिया होने के कगार पर ले जाने वाला आर्थिक संकट, और इस्लामिक आतंकवादी संगठन तालिबान के दोबारा सिर उठाने की चुनौती से जूझ रहा है. लेकिन, इनमें से किसी भी भयानक चुनौती ने पाकिस्तान के सियासतदानों, मीडिया या अवाम का ध्यान उस तरह अपनी तरफ़ नहीं खींचा, जितना इस सवाल ने कि देश का अगला आर्मी चीफ कौन होगा. ऐसा लग रहा था कि पाकिस्तान की सियासत बस इसी सवाल के इर्द-गिर्द घूम रही थी. सच तो ये है कि अक्टूबर 2021 में जब ISI चीफ की नियुक्त के विवाद ने इमरान ख़ान और पाकिस्तानी फ़ौज के ‘एक समान नज़रिए’ में दरार डाल दी थी, तब से ही पाकिस्तानियों के ज़हन में ये सवाल मंडरा रहा था कि दुनिया की छठवीं सबसे बड़ी फौज का नया मुखिया कौन होगा.
पाकिस्तान इस वक़्त एक साथ कई चुनौतियों जैसे कि तबाही लाने वाली बाढ़, मुल्क को दिवालिया होने के कगार पर ले जाने वाला आर्थिक संकट, और इस्लामिक आतंकवादी संगठन तालिबान के दोबारा सिर उठाने की चुनौती से जूझ रहा है. लेकिन, इनमें से किसी भी भयानक चुनौती ने पाकिस्तान के सियासतदानों, मीडिया या अवाम का ध्यान उस तरह अपनी तरफ़ नहीं खींचा, जितना इस सवाल ने कि देश का अगला आर्मी चीफ कौन होगा.
इमरान ख़ान के लिए झटका
इस साल मार्च में तत्कालीन प्रधानमंत्री इमरान ख़ान के ख़िलाफ़ संसद में अविश्वास प्रस्ताव लाया गया था. इस अविश्वास प्रस्ताव को लाने के अन्य तमाम कारणों के अलावा एक बड़ी वजह ये भी थी कि इमरान ख़ान को छह महीने पहले ही जनरल बाजवा के उत्तराधिकारी का एलान करने से रोका जाए. आशंका इस बात की थी कि अगर इमरान ख़ान को उनकी मर्ज़ी चलाने दी गई, तो वो ISI के पूर्व प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल फ़ैज़ हमीद को अगला सेनाध्यक्ष नियुक्त कर देंगे. फिर इमरान, जनरल फ़ैज़ की मदद से अपने सारे सियासी विरोधियों का सफ़ाया कर देंगे. इस तरह, इमरान ख़ान के लिए अगला आम चुनाव जीतना बहुत आसान हो जाएगा, क्योंकि मैदान में उनका मुक़ाबला कर पाने वाला कोई होगा ही नहीं. लेकिन, अविश्वास प्रस्ताव की कामयाबी ने इमरान की उन योजनाओं पर पानी फेर दिया. इसके बाद भी, वज़ीर-ए-आज़म की गद्दी से हटने के बाद से इमरान ख़ान लगातार विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. वो शहबाज़ शरीफ़ की हुकूमत पर न सिर्फ़ समय से पहले आम चुनाव कराने (जिसमें इमरान को भारी जीत हासिल होने की उम्मीद है) का दबाव बना रहे हैं, बल्कि इमरान ख़ान ये भी सुनिश्चित करना चाह रहे थे कि मुल्क का नया सेनाध्यक्ष चुनने में भी उनकी ही चले. असल में इमरान ख़ान को डर इस बात का था कि शरीफ़ भाई कहीं किसी ऐसे जनरल को न सेनाध्यक्ष चुन लें, जो उनके पीछे ठीक उसी तरह पड़ जाए, जिस तरह वो ख़ुद अपने सियासी विरोधियों का सफ़ाया करना चाह रहे थे. लेकिन आख़िर में न तो इमरान की जल्दी चुनाव कराने की ख़्वाहिश पूरी हुई (कम से कम अभी तो ऐसा नहीं लग रहा), और न ही वो अपने कट्टर दुश्मन जनरल आसिम मुनीर को, जनरल क़मर जावेद बाजवा का उत्तराधिकारी बनने से रोक पाए.
अगर इमरान ख़ान चतुर होते तो वो जनरल आसिम मुनीर को लेकर अपनी आशंकाओं को अपने दिल में ही छुपाए रखते. लेकिन, इमरान ख़ान बार बार ये कहते रहे कि जनरल मुनीर के अलावा कोई भी आर्मी चीफ बने, उन्हें फ़र्क़ नहीं पड़ता. इसके बाद ये अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं था कि शरीफ़ भाई, सेनाध्यक्ष के रूप में किसका चुनाव करेंगे.
विरोध ने बनाया विकल्प
एक तरह से देखा जाए तो शरीफ़ भाइयों द्वारा जनरल आसिम मुनीर का चुनाव करने, ख़ास तौर से पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ द्वारा उनके नाम पर सहमति जताने का फ़ैसला इमरान ख़ान ने ही लिया. इमरान ख़ान ने जितना ही पुरज़ोर विरोध किया, शरीफ़ भाइयों के लिए जनरल आसिम मुनीर को चुनना उतना ही आसान होता गया. अगर इमरान ख़ान चतुर होते तो वो जनरल आसिम मुनीर को लेकर अपनी आशंकाओं को अपने दिल में ही छुपाए रखते. लेकिन, इमरान ख़ान बार बार ये कहते रहे कि जनरल मुनीर के अलावा कोई भी आर्मी चीफ बने, उन्हें फ़र्क़ नहीं पड़ता. इसके बाद ये अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं था कि शरीफ़ भाई, सेनाध्यक्ष के रूप में किसका चुनाव करेंगे. इस्लामाबाद में चर्चाएं तो ये थीं कि पाकिस्तानी फौज- मतलब जनरल क़मर जावेद बाजवा- अपने उत्तराधिकारी के तौर पर कम विवादित नाम को आगे बढ़ा रहे थे. पाकिस्तानी फौज के जिन छह टॉप के जनरलों में से नए सेनाध्यक्ष का चुनाव किया जाना था, उनमें से एक (जनरल मुनीर) इमरान ख़ान को मंज़ूर नहीं थे और दूसरा (जनरल फ़ैज़ हमीद) इमरान के अलावा बाक़ी किसी और को स्वीकार नहीं थे. इमरान ख़ान के हंगामा खड़ा करने और नए सेनाध्यक्ष की नियुक्ति पर सवाल उठाने की धमकी देने के चलते, पाकिस्तानी फौज नहीं चाहती थी कि नए आर्मी चीफ के नाम पर कोई विवाद खड़ा हो. इसी वजह से फौज के आला अधिकारी चाहते थे कि शरीफ़ हुकूमत, जनरल मुनीर और जनरल फ़ैज़ हमीद को छोड़कर, बाक़ी चार जनरलों- साहिर शमशाद मिर्ज़ा, अज़हर अब्बास, नौमान महमूद और मुहम्मद आमिर- में से किसी एक को नया सेनाध्यक्ष चुन ले. लेकिन, नवाज़ शरीफ़ जनरल आसिम मुनीर के नाम पर अड़ गए. फिर वो हिलने को तैयार नहीं हुए. उनके भाई और मौजूदा वज़ीर-ए-आज़म शहबाज़ शरीफ़ ने लंदन में उनसे मुलाक़ात की और समझौते के तौर पर कई और नाम सुझाए. लेकिन, नवाज़ शरीफ़ किसी और जनरल के नाम पर राज़ी नहीं हुए. नवाज़ शरीफ़ की नज़र में न केवल जनरल आसिम मुनीर का फौज में रिकॉर्ड शानदार था, बल्कि जनरल बाजवा के बाद वो सबसे सीनियर जनरल भी थे. आसिम मुनीर के हक़ में जो आख़िरी बात गई, वो इमरान ख़ान के साथ उनकी तल्ख़ी की तारीख़ थी.
अब नवाज़ शरीफ़ ने जनरल आसिम मुनीर को चुना है. इसके पीछे की वजह वही पुरानी कहावत है कि, ‘दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है.’ लेकिन, क्या जनरल मुनीर, नवाज़ शरीफ़ के दोस्त साबित होंगे?
नवाज़ शरीफ़ की पुरानी ग़लतियां
हालांकि, वज़ीर-ए-आज़म के तौर पर नवाज़ शरीफ़ का रिकॉर्ड हमेशा ही ग़लत जनरल का चुनाव करने वाला रहा है. हर वक़्त सिर पर सवार रहने वाले जनरल मिर्ज़ा असलम बेग़ की जगह नवाज़ शरीफ़ ने जनरल आसिफ़ नवाज़ जंजुआ को सेनाध्यक्ष बनाया था. लेकिन, कुछ महीनों के भीतर ही दोनों में मतभेद हो गए थे. जंजुआ के बाद नवाज़ शरीफ़ ने जनरल अब्दुल वहीद काकड़ को सेनाध्यक्ष बनाया. लेकिन जनरल काकड़ ने पहले ख़ुद नवाज़ शरीफ़ और फिर राष्ट्रपति ग़ुलाम इसहाक़ ख़ान को इस्तीफ़ा देने पर मजबूर कर दिया. इसके बाद नवाज़ शरीफ़ ने जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ को आर्मी चीफ नियुक्त किया. जनरल मुशर्रफ़ एक मोहाजिर थे और नवाज़ शरीफ़ को यक़ीन था कि वो एक लोकप्रिय पंजाबी प्रधानमंत्री के ख़िलाफ़ बग़ावत नहीं करेंगे. लेकिन, मुशर्रफ़ ने नवाज़ शरीफ़ का तख़्तापलट कर दिया और पहले नवाज़ शरीफ़ को जेल में डाला. फिर उन्हें मुल्क बदर कर दिया. इसके बाद, नवाज़ शरीफ़ ने जनरल राहील शरीफ़ को सेनाध्यक्ष बनाया. लेकिन नियुक्ति के कुछ महीनों के भीतर ही जनरल राहील शरीफ़ और नवाज़ शरीफ़ के रिश्ते बेहद तल्ख़ हो गए थे. इसके बाद नवाज़ शरीफ़ ने जनरल बाजवा को आर्मी चीफ बनाया. जिनके बारे में कहा गया कि वो जम्हूरियत पसंद करने वाले जनरल हैं. दावा किया गया कि कोर कमांडर के तौर पर जनरल बाजवा, सियासत में दख़लंदाज़ी के सख़्त ख़िलाफ़ रहे थे. लेकिन, जनरल बाजवा ने अपना ‘प्रोजेक्ट इमरान’ शुरू कर दिया. जिसके तहत पाकिस्तानी फौज ने इमरान ख़ान को एक ऐसे नेता के तौर पर प्रचारित करना शुरू किया, जो पाकिस्तान की सभी मुसीबतों का हल निकालने वाला होगा. जनरल बाजवा के आर्मी चीफ रहने के दौरान ही नवाज़ शरीफ़ को अदालत के ज़रिए, हुकूमत से बेदख़ल कर दिया गया और फिर उन्हें भ्रष्टाचार के आरोप में जेल में डाल दिया गया. अब नवाज़ शरीफ़ ने जनरल आसिम मुनीर को चुना है. इसके पीछे की वजह वही पुरानी कहावत है कि, ‘दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है.’ लेकिन, क्या जनरल मुनीर, नवाज़ शरीफ़ के दोस्त साबित होंगे?
ये एक हक़ीक़त है कि जनरल आसिम मुनीर अगले तीन साल तक फौज के मुखिया रहेंगे. हो सकता है कि वो पांच साल और भी बने रहें. इसका मतलब है कि अगर इमरान ख़ान सत्ता में वापस आना चाहते हैं तो उनके पास कोई और विकल्प है नहीं. हां अगर इमरान को ये यक़ीन है कि वो फ़ौज से पंगा लेकर चुनाव जीत सकते हैं, तो बात अलग है.
इमरान के कट्टर दुश्मन
जनरल आसिम मुनीर भी, पाकिस्तानी फौज के ‘प्रोजेक्ट इमरान’ का ही एक हिस्सा थे. पहले मिलिट्री इंटेलिजेंस और फिर ISI के चीफ के तौर पर जनरल आसिम मुनीर जनरलों के उस गिरोह के सदस्य रहे थे, जो प्रधानमंत्री के तौर पर इमरान ख़ान को फौज की पसंद बता रहा था. लेकिन, बाद में आसिम मुनीर और इमरान ख़ान के बीच मतभेद पैदा हो गए. इसकी सबसे बड़ी वजह, जनरल मुनीर का इमरान ख़ान का सच्चा शैदाई होना थी. जनरल मुनीर को लगता था कि इमरान ख़ान एक अच्छे और सम्मानित नेता हैं. मुनीर ने इमरान ख़ान को ये बताना अपना फ़र्ज़ समझा कि इमरान की नाक के नीचे, उनके घर में, उनकी बीवी यानी पिंकी पीरनी और उसका कुनबा (उसका पहला पति और बच्चे) और उसके क़रीबी लोगों का गिरोह (बदनाम फ़राह गोगी जिसके बारे में मशहूर था कि वो पंजाब सूबे में अधिकारियों की ट्रांसफर और पोस्टिंग के नाम पर पैसों की वसूली करती थी) भ्रष्टाचार कर रहा था. हालांकि इमरान ख़ान ने अपनी बीवी और क़रीबी लोगों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाने को अपनी हतक़ समझा और जनरल आसिम मुनीर को ISI के मुखिया के पद से हटवा दिया. जनरल मुनीर की जगह इमरान ख़ान ने अपने पसंदीदा जनरल फ़ैज़ हमीद को ISI का प्रमुख बनवाया. बाद में ये माना जाता है कि इमरान ख़ान ने लोगों को जनरल मुनीर के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार और वसूली के केस दाख़िल करने के लिए उकसाकर, उन्हें बदनाम करने की भी कोशिश की. निश्चित रूप से अब इमरान ख़ान को एक मुश्किल फ़ैसला करना होगा कि वो जनरल मुनीर को अपने आरोपों का निशाना बनाएं या फिर उन्हें स्वीकार कर लें. ये एक हक़ीक़त है कि जनरल आसिम मुनीर अगले तीन साल तक फौज के मुखिया रहेंगे. हो सकता है कि वो पांच साल और भी बने रहें. इसका मतलब है कि अगर इमरान ख़ान सत्ता में वापस आना चाहते हैं तो उनके पास कोई और विकल्प है नहीं. हां अगर इमरान को ये यक़ीन है कि वो फ़ौज से पंगा लेकर चुनाव जीत सकते हैं, तो बात अलग है.
टकराव तो तय है
सबसे अहम बात तो ये है कि जनरल मुनीर और इमरान एक दूसरे को भले सख़्त नापसंद करते हों. लेकिन, ये भी एक हक़ीक़त है कि जनरल मुनीर, शरीफ़ ख़ानदान के भी मुरीद नहीं हैं. आख़िरकार जनरल मुनीर और उनके साथियों को पाकिस्तान की गंदी सियासत में घसीटा ही जाएगा. अगर सरकार ऐसा नहीं करेगी, तो विपक्ष करेगा या फिर फौज के अपने हित उसे सियासत में दख़ल देने को मजबूर करेंगे. जनरल मुनीर अगर इससे बचना भी चाहें, तो बच नहीं सकेंगे. शरीफ़ भाई निश्चित रूप से ये चाहेंगे कि आर्मी चीफ बनाए जाने के एवज़ में जनरल मुनीर, उन्हें इमरान ख़ान से पीछा छुड़ाने में मदद करें. या कम से कम जब शरीफ़ हुकूमत, इमरान ख़ान के ख़िलाफ़ कार्रवाई करे, तो फ़ौज उनका साथ दे. शरीफ़ भाई, फ़ौज से अगले आम चुनाव में भी समर्थन चाहेंगे. उन्हें ये भी उम्मीद होगी कि पाकिस्तान जैसे मुल्क को चलाने में फौज उनकी मदद करेगी. क्योंकि आज जिस तरह के सियासी, आर्थिक, सुरक्षा संबंधी और कूटनीतिक चुनौतियां पाकिस्तान के सामने खड़ी हैं, वैसे में मुल्क चलाना बहुत बड़ी चुनौती बन चुका है. मिसाल के तौर पर क्या पाकिस्तानी फौज अपने बजट में कटौती के लिए राज़ी होगी, ताकि पाकिस्तान की हुकूमत अपने विशाल वित्तीय घाटे को कम कर सके? क्या पाकिस्तानी फौज इस बात पर रज़ामंद होगी कि रक्षा बजट तो कम कर दिया जाए, लेकिन चुनाव जीतने के लिए शरीफ़ सरकार जनता पर पैसे लुटाए? क्या पाकिस्तानी फौज, अपनी हुकूमत को इस बात की इजाज़त देगी कि वो भारत या अफ़ग़ानिस्तान के साथ रिश्तों से जुड़ी नीतियां ख़ुद बनाए? बड़े नीतिगत मसलों के अलावा, रोज़मर्रा के काम-काज से जुड़ी चुनौतियां भी हैं. मिसाल के तौर पर जनरल मुनीर से ये उम्मीद होगी कि वो फ़ौज के असर और उसकी ताक़त का इस्तेमाल करके अदालतों पर लगाम लगाएं और नवाज़ शरीफ़ की वतन वापसी की ऐसी राह निकालें, जिससे नवाज़ को जेल न जाना पड़े. कुल मिलाकर, ये बस कुछ वक़्त की बात है जब नए सेनाध्यक्ष और शरीफ़ सरकार के बीच तनाव पैदा होगा. सरकार और फ़ौज के बीच टकराव या फिर प्रधानमंत्री और आर्मी चीफ के बीच संघर्ष, पाकिस्तान के सियासी ढांचे का अटूट हिस्सा है. क्योंकि जहां फौज मुल्क की वास्तविक शासक है. वहीं सियासी नेताओं को ये हक़ संविधान से हासिल है. दिक़्क़त ये है कि दोनों के अधिकारों के बीच साफ़ तौर पर अंतर नहीं है. ऐसे हालात में सेनाध्यक्ष कोई भी बने, सत्ता पर शिकंजे को लेकर टकराव होना तय है.
आज जिस तरह के सियासी, आर्थिक, सुरक्षा संबंधी और कूटनीतिक चुनौतियां पाकिस्तान के सामने खड़ी हैं, वैसे में मुल्क चलाना बहुत बड़ी चुनौती बन चुका है. मिसाल के तौर पर क्या पाकिस्तानी फौज अपने बजट में कटौती के लिए राज़ी होगी, ताकि पाकिस्तान की हुकूमत अपने विशाल वित्तीय घाटे को कम कर सके? क्या पाकिस्तानी फौज इस बात पर रज़ामंद होगी कि रक्षा बजट तो कम कर दिया जाए, लेकिन चुनाव जीतने के लिए शरीफ़ सरकार जनता पर पैसे लुटाए?
सियासत से दूर नहीं रह सकते जनरल
अपने विदाई भाषण में जनरल क़मर जावेद बाजवा ने बताया था कि किस तरह पाकिस्तानी फ़ौज ने सियासत में हर तरह की दख़लंदाज़ी बंद कर दी है. लेकिन, बाजवा ने सियासत से दूरी वाली ये बांसुरी तब बजाई, जब वो रिटायर होने वाले थे. पाकिस्तानी फ़ौज को सियासत से दूर रखने की बात करना अलग है और वास्तव में ऐसा कर पाना बेहद मुश्किल. पाकिस्तान में जिस तरह की सियासत उभरी है, उसमें पाकिस्तान का कोई भी जनरल सियासत से अछूता नहीं होता और न ही वो ऐसा रह सकता है. जब भी पाकिस्तानी अवाम में फ़ौज की छवि ख़राब होती है, तो वो फौरी तौर पर सियासी मैदान से पीछे हट जाती है. लेकिन, पाकिस्तानी फ़ौज ऐसा करती भी है तो पर्दे के पीछे से सियासतदानों को तब तक कठपुतलियों की तरह नचाती रहती है, जब तक फ़ौज ख़ुद सामने आकर सियासत के लिए तैयार नहीं हो जाती. कम से कम अभी तो ऐसा कोई बदलाव नहीं आया है, जिसे देखकर ये कहा जाए कि बाजवा के बाद जनरल आसिम मुनीर के कमान संभालने से ये समीकरण बदल गया है. नए आर्मी चीफ के तौर पर जनरल मुनीर अपनी प्राथमिकताएं और नीतियां ख़ुद तय करेंगे. इनमें से बहुत से फ़ैसले ऐसे भी होंगे, जो शहीद दिवस समारोह में जनरल बाजवा द्वारा कही गई बातों से अलग होंगे. सियासत में दख़ल देने का दबाव जनरल मुनीर पर सिर्फ़ सियासतदानों की तरफ़ से नहीं होगा, बल्कि ख़ुद फ़ौज के भीतर से भी हुकूमत के मसलों में हस्तक्षेप करने की मांग उठेगी. इसके अलावा पाकिस्तान के अंतरराष्ट्रीय साझीदार भी यही चाहेंगे कि वो पाकिस्तान की सरकार के बजाय सीधे फ़ौज से ही बात करें, जिससे उन्हें गारंटी हासिल हो सके.
भारत को देखना और इंतज़ार करना होगा
पाकिस्तान की ही तरह भारत भी जनरल आसिम मुनीर के रवैये को समझने के लिए वक़्त गुज़रने का इंतज़ार करेगा. भारत के पास जनरल मुनीर से निपटने का तजुर्बा उस वक़्त का है, जब वो ISI के मुखिया थे. पुलवामा संकट के दौरान, ऐसी ख़बरें आई थीं कि भारत के सुरक्षा तंत्र और जनरल मुनीर के बीच बातचीत हुई थी. अब सेनाध्यक्ष के तौर पर जनरल मुनीर भारत के साथ रिश्ते बेहतर बनाना चाहेंगे या नहीं. जैसा कि जनरल बाजवा के बारे में कहा जाता है कि वो पर्दे के पीछे से भारत से संपर्क में रहे थे, तो क्या जनरल मुनीर भी उसी रास्ते पर चलना चाहेंगे? इन सवालों के जवाब आने वाले वक़्त में ही मिल पाएंगे. ये काफ़ी हद तक मुमकिन है कि जनरल मुनीर, भारत के साथ कोई टकराव पैदा करने से बचें और पाकिस्तान की अंदरूनी और उसके अस्तित्व के सामने खड़ी चुनौतियों से निपटने पर ध्यान लगाएं. ये बात सच है कि पाकिस्तान ऐसे मौक़े पर भारत से टकराव मोल लेकर भला अपने लिए एक और मोर्चा क्यों खोलना चाहेगा, जब अफ़ग़ानिस्तान के मोर्चे पर तनाव बढ़ रहा है और पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था डूब रही है. लेकिन, इस आशंका से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि पाकिस्तान के नए सेनाध्यक्ष कुछ ऐसा करना चाहेंगे, जिससे वो भारत को ये संदेश दे सकें कि पाकिस्तान अभी भी बहुत ताक़तवर है और तमाम संकटों से घिरे होने के बावजूद, उसे हल्के में लेना जोखिम भरा हो सकता है. सियासी मोर्चे पर, ये स्पष्ट नहीं है कि जनरल मुनीर पाकिस्तान की हुकूमत पर इस बात का दबाव बनाएंगे, या उसकी भारत के संवाद शुरू करने और द्विपक्षीय संबंध को सामान्य बनाने के लिए कुछ क़दम उठाने की कोशिशों का समर्थन करेंगे. या फिर कम से कम वो भारत से रिश्ते सुधारने की राह में रोड़ा नहीं बनेंगे. जहां तक भारत के साथ रिश्तों का सवाल है, तो इन सवालों के जवाब हमें आने वाले कुछ हफ़्तों के भीतर ही मिल सकते हैं, अगर पाकिस्तान की तरफ़ से भारत से रिश्ते सुधारने की कोई पहल होती है. इसके संकेत हमें नियंत्रण रेखा पर युद्ध विराम जारी रहने, आतंकवाद को बढ़ावा देने, जिहादी आतंकवादी संगठनों को फिर से खड़ा करने या कम से कम कुछ रियायतें देने और जनरल मुनीर द्वारा पाकिस्तानी फ़ौज के भीतर नियुक्तियां करने के रूप में दिखाई देंगे.
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