Author : Sarral Sharma

Expert Speak Raisina Debates
Published on Oct 16, 2025 Updated 0 Hours ago

नए सिरे से पाकिस्तान से संबंध सुधारने की अमेरिका की कोशिश का कुछ समय के लिए फायदा तो होगा लेकिन पाकिस्तान की वफादारी और रणनीतिक निर्भरता पूरी तरह से चीन पर टिकी हुई है. 

अमेरिका-पाकिस्तान की नई नज़दीकियाँ और चीन की चुनौती

पिछले कुछ महीनों के दौरान अमेरिका-पाकिस्तान के बीच रिश्तों में गर्मजोशी आई है. पाकिस्तानी अधिकारियों के उच्च-स्तरीय दौरे, नए आर्थिक वादे, दुर्लभ खनिज पर समझौते, पसनी बंदरगाह के विकास की योजनाएं एवं ऊर्जा संसाधन की ख़बरें और मध्य पूर्व में सहयोग इसकी गवाही देते हैं. ये घटनाक्रम इस बात का इशारा हो सकते हैं कि अमेरिका से कई वर्षों के तनाव और अनदेखी झेलने के बाद पाकिस्तान एक बार फिर अमेरिका के नज़दीक जा रहा है. हालांकि नज़दीक से देखने पर पता चलता है कि ये मेल-जोल चालबाज़ी और अस्थायी है जो दोनों देशों को कुछ समय के लिए तो लाभ प्रदान करता है लेकिन लंबे समय के रणनीतिक सहयोग की संभावनाएं सीमित हैं. पाकिस्तान की वफादारी चीन के प्रति बनी हुई है जो उसका ‘सदाबहार’ रणनीतिक साझेदार और भारत के साथ निपटने में एक जांचा-परखा बाहरी मददगार है. 

पाकिस्तान की वफादारी चीन के प्रति बनी हुई है जो उसका ‘सदाबहार’ रणनीतिक साझेदार और भारत के साथ निपटने में एक जांचा-परखा बाहरी मददगार है. 

पाकिस्तान की बात करें तो अमेरिका के साथ नए सिरे से उसके संबंधों से जुड़े फायदों में तुरंत लाभ जैसे कि दुनिया के मंच पर अधिक दिखाई देना, निवेश और कम टैरिफ दर शामिल हैं. इसके बदले में ट्रंप प्रशासन मध्य पूर्व, इज़रायल-ग़ज़ा के हालात और ईरान के संबंध में अपनी नीतियों पर पाकिस्तान का समर्थन चाहता है. इसके साथ-साथ अमेरिका महत्वपूर्ण खनिजों एवं क्रिप्टो जैसे अपने निवेश पर ठोस मुनाफा और आतंकवाद विरोध को लेकर सहयोग भी चाहता है. लेकिन ये लाभ कम समय तक ही रहने की उम्मीद है और चीन पर बहुत ज़्यादा निर्भरता के साथ-साथ दोनों तरफ से खेलने की पाकिस्तान की प्रवृत्ति अमेरिका के साथ टिकाऊ सहयोग को असंभव बना देती है. 

  • ट्रंप प्रशासन के दौरान जब अमेरिका और पाकिस्तान के रिश्ते बेहतर हो रहे हैं, तो पाकिस्तानी नेतृत्व को लगता है कि उन्हें चीन के प्रति अपनी निष्ठा और मज़बूती से दिखानी पड़ेगी.
  • अमेरिका का पाकिस्तान के साथ फिर से घनिष्ठ होना भारत के साथ उसकी महत्वपूर्ण रणनीतिक साझेदारी के लिए चुनौती बन सकता है.

चीन-अमेरिका-पाकिस्तान समीकरण 

जैसे-जैसे ट्रंप प्रशासन के तहत अमेरिका-पाकिस्तान संबंधों में सुधार हो रहा है, वैसे-वैसे पाकिस्तानी नेतृत्व चीन के प्रति अपनी वफादारी का प्रदर्शन करने के लिए और ज़्यादा मजबूर होने का एहसास कर रहा है. हाल ही में एक इंटरव्यू में पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ख्वाजा आसिफ ने अमेरिका के साथ पाकिस्तान के रिश्तों को “लेन-देन पर आधारित या चुलबुलेपन से भरपूर” बताया था. वो ये बताना चाह रहे थे कि ये रिश्ता कभी भी विश्वसनीयता पर आधारित नहीं था. इसके अलावा उन्होंने ये ज़ोर भी दिया कि चीन, पाकिस्तान का भरोसेमंद साझेदार रहा है और आगे भी रहेगा क्योंकि चीन ने लगातार पाकिस्तान को ज़रूरत के हिसाब से मदद मुहैया कराई, विशेष रूप से रक्षा क्षेत्र में. प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ ने इस नज़रिए का समर्थन/पुष्टि की. उन्होंने बयान दिया कि पाकिस्तान, अमेरिका के साथ बेहतर संबंध तो चाहता है लेकिन संबंधों में ये सुधार कभी भी चीन के साथ उसके रिश्तों की क़ीमत पर नहीं होगा. इसी तरह फील्ड मार्शल सैयद आसिम मुनीर ने भी कहा है कि चीन के साथ पाकिस्तान के रिश्ते “अनूठे, भरोसेमंद और असाधारण रूप से मज़बूत” हैं.  

चीन-पाकिस्तान के बीच इस गहरी साझेदारी के सबूत दोनों देशों के बीच रक्षा सहयोग में सबसे ज़्यादा मिलते हैं. स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (SIPRI) के अनुसार 2020 और 2024 के बीच पाकिस्तान दुनिया में हथियारों का पांचवां सबसे बड़ा आयातक था, उसके रक्षा आयात का 80 प्रतिशत से ज़्यादा हिस्सा चीन से आता था. चीन की तुलना में अमेरिका ने इस अवधि के दौरान लगभग कुछ भी महत्वपूर्ण सप्लाई पाकिस्तान को नहीं की. चीन ने पाकिस्तान को J-10C समेत आधुनिक लड़ाकू विमान मुहैया कराए हैं. इसके अलावा JF-17, हथियारबंद ड्रोन, युद्धपोत, पनडुब्बी और टैंक के सह-उत्पादन की सुविधा दी भी दी है. इसके नतीजतन पाकिस्तान की सेना अब चीन के स्पेयर पार्ट्स, सॉफ्टवेयर और ट्रेनिंग पर बहुत ज़्यादा निर्भर हो गई है. 

पाकिस्तान की इस निर्भरता का चीन बहुत ज़्यादा फायदा उठाता है क्योंकि चीन के समर्थन के बिना पाकिस्तान अपनी सैन्य तैयारी बरकरार नहीं रख सकता है. 

पाकिस्तान की इस निर्भरता का चीन बहुत ज़्यादा फायदा उठाता है क्योंकि चीन के समर्थन के बिना पाकिस्तान अपनी सैन्य तैयारी बरकरार नहीं रख सकता है. ख्वाजा आसिफ ने इंटरव्यू में दावा किया कि अपनी रक्षा ज़रूरतों के लिए चीन की तरफ पाकिस्तान इसलिए मुड़ा क्योंकि अमेरिका अतीत में “अविश्वसनीय” साबित हुआ था. ख्वाजा आसिफ के मुताबिक जब कभी भी दोनों पक्षों के बीच राजनीतिक असहमति पैदा हुई, अमेरिका ने पाकिस्तान को सहायता और हथियारों की सप्लाई रोक दी. दूसरी तरफ इस मामले में चीन अधिक भरोसेमंद रहा है क्योंकि पाकिस्तान और चीन दोनों का साझा दुश्मन एक यानी कि भारत है. ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के दौरान चीन ने पाकिस्तानी सेना को परिचालन से जुड़ी महत्वपूर्ण सहायता मुहैया कराई. चीन और अमेरिका के बीच बढ़ती रणनीतिक दुश्मनी को देखते हुए अमेरिका और पाकिस्तान के बीच इस तरह का घनिष्ठ रक्षा और सुरक्षा से जुड़ा द्विपक्षीय समझौता अब मुश्किल लगता है. इसके अलावा, इस तरह का सहयोग पाकिस्तान के इरादों को लेकर चीन में शक पैदा कर सकता है और भारत-अमेरिका साझेदारी को भी ख़तरे में डाल सकता है. रक्षा पहलू को छोड़ दें तो चीन को पाकिस्तान का आर्थिक बोझ अमेरिका के साथ साझा करने में बुरा नहीं लगेगा. इस तरह वो अमेरिका और पाकिस्तान के बीच पिछले दिनों हस्ताक्षरित कुछ द्विपक्षीय समझौतों को स्वीकार सकता है. 

पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति 

60 अरब अमेरिकी डॉलर से ज़्यादा की चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर (CPEC) परियोजना की प्रगति को लेकर चीन हताश है. 2015 में जब आधिकारिक रूप से इसकी शुरुआत हुई थी तो इसे दोनों देशों के लिए गेम-चेंजर समझा गया था. लेकिन CPEC के तहत ज़्यादातर परियोजनाएं समय से पीछे चल रही हैं और 2024 में शुरू किया गया दूसरा चरण योजना के मुताबिक आगे नहीं बढ़ पाया है. भ्रष्टाचार के मामले में ख़राब ट्रैक रिकॉर्ड और दूसरी तकनीकी खामियों के साथ आंतरिक रूप से पाकिस्तान की राजनीतिक, आर्थिक और सुरक्षा से जुड़ी उथल-पुथल CPEC की धीमी प्रगति के प्रमुख कारणों में से है. वित्तीय नुकसान, प्रोजेक्ट पूरा होने में देरी और समय पर कर्ज़ का भुगतान नहीं होने के बावजूद पाकिस्तान पर चीन निर्भर बना हुआ है. चीन के हिसाब से देखें तो हिंद महासागर तक सीधी पहुंच प्रदान करने में पाकिस्तान एक विश्वसनीय साझेदार बना हुआ है और वो पारंपरिक एवं गैर-पारंपरिक तरीकों के माध्यम से पश्चिमी मोर्चे पर भारत पर दबाव बनाता है. साथ ही चीन के रक्षा और सैन्य उपकरणों का पाकिस्तान एक बड़ा आयातक है. इसके अलावा, हिंद प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका के बढ़ते प्रभाव का मुकाबला करने में भी पाकिस्तान उपयोगी साबित हो सकता है. 

इस बात की संभावना कम है कि पाकिस्तान अपने महत्वपूर्ण खनिज के भंडारों को पूरी तरह से अमेरिकी कंपनियों को सौंप देगा क्योंकि चीन इसकी अनुमति नहीं देगा. 

इसके विपरीत, पाकिस्तान में अमेरिका की आर्थिक भागीदारी बहुत कम रही है. पिछले दिनों पाकिस्तान में दुर्लभ खनिजों के खनन के लिए यूएस स्ट्रैटेजिक मेटल (USSM) के साथ 500 मिलियन अमेरिकी डॉलर निवेश करने का समझौता चीन के कुल निवेश की तुलना में बहुत कम है. इससे भी महत्वपूर्ण बात ये है कि पाकिस्तान की कथित खनिज संपदा अतीत में बार-बार नतीजा देने में नाकाम रही है और उसकी अर्थव्यवस्था को सुधारने में उसने कोई योगदान नहीं दिया है. उदाहरण के लिए, 2019 में तेल के लिए एक ऑफशोर ड्रिलिंग की कवायद (जिसमें अमेरिकी कंपनी एग्जॉनमोबिल शामिल थी) ने बड़ी खोज की उम्मीद जगाई लेकिन इससे कुछ नहीं निकला. इसके अलावा, चीन पहले से ही पाकिस्तान के खनिज निकालने के उद्योग में गहराई से शामिल है. बलूचिस्तान में चीन सैंदक तांबा-सोना खदान को चला रहा है और रेको डिक़ तांबा और सोना के भंडार में एक हिस्सा हासिल करने की कोशिश कर रहा है. पाकिस्तान में अलग-अलग परियोजनाओं में चीन के लगभग 30,000 नागरिक काम कर रहे हैं. इस तरह इन क्षेत्रों में चीन की सीधी हिस्सेदारी है. इस बात की संभावना कम है कि पाकिस्तान अपने महत्वपूर्ण खनिज के भंडारों को पूरी तरह से अमेरिकी कंपनियों को सौंप देगा क्योंकि चीन इसकी अनुमति नहीं देगा. 

पाकिस्तान की विदेश निति 

यहां तक कि ख्वाजा आसिफ ने भी स्वीकार किया कि हाल के दिनों में अमेरिका से पाकिस्तान की घनिष्ठता को लेकर चीन चिंतित नहीं है क्योंकि चीन-पाकिस्तान संबंध ‘समय की कसौटी पर खरा’ उतरा है और कोई दूसरा देश इसकी जगह नहीं ले सकता है. वैसे पाकिस्तान में अमेरिका का प्रस्तावित निवेश परोक्ष रूप से चीन को लाभ पहुंचाएगा क्योंकि वित्तीय समर्थन मिलने से पाकिस्तान के लिए चीन के कर्ज़ को चुकाना आसान हो जाएगा और बलूचिस्तान जैसी जगहों में नागरिक अशांति से CPEC की परियोजनाओं की सुरक्षा होगी. स्थानीय लोगों में CPEC परियोजनाओं और प्रांत में चीन के नागरिकों की मौजूदगी को लेकर पहले से ही चीन के ख़िलाफ़ बहुत ज़्यादा नाराज़गी है. बलूचिस्तान और ख़ैबर पख्तूनख्वा में कुछ स्थानीय प्रतिनिधियों ने इन प्रांतों में महत्वपूर्ण खनिजों और ऊर्जा को लेकर पाकिस्तान के बढ़ा-चढ़ाकर किए गए दावों को लेकर पहले ही अमेरिका को सावधान किया है. इसके परिणामस्वरूप अमेरिकी कंपनियां को इन समझौतों से लाभ हासिल करने में मुश्किल हो सकती है और कोई आर्थिक लाभ होगा तो वो चीन को होगा. 

इसके अलावा, पाकिस्तान एक अविश्वसनीय साझेदार रहा है जो कहता कुछ और है और करता कुछ और है. 25 सितंबर 2025 को वॉशिंगटन में राष्ट्रपति ट्रंप के साथ प्रधानमंत्री शरीफ और फील्ड मार्शल मुनीर की बैठक के बाद पाकिस्तान के विदेश मंत्री इशाक डार ने संयुक्त राष्ट्र महासभा (UNGA) के दौरान चीन, रूस और ईरान के विदेश मंत्रियों के साथ बैठक की. चारों देशों ने अफ़ग़ानिस्तान के मौजूदा हालात को लेकर एक साझा बयान जारी किया जिसमें उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान में या उसके आसपास किसी सैन्य अड्डे की फिर से स्थापना का ज़ोरदार विरोध किया. इस बात की संभावना है कि ये प्रतिक्रिया ट्रंप प्रशासन की तरफ से बगराम एयरबेस को फिर से हासिल करने की ख़बरों को लेकर दी गई. पाकिस्तान की तरफ से ये साफ तौर पर दोहरा रवैया था जहां एक तरफ उसने अमेरिका से निवेश के वादों का स्वागत किया लेकिन दूसरी तरफ इस क्षेत्र में अमेरिका की सुरक्षा योजनाओं का विरोध करने के लिए चीन और रूस के साथ हाथ मिला लिया.

पाकिस्तान के विरोधाभास का हाल के दिनों में एक और उदाहरण ग़ज़ा में युद्ध समाप्त करने के लिए राष्ट्रपति ट्रंप की 20 सूत्रीय योजना की शुरुआत में तारीफ है. आधिकारिक रूप से योजना का समर्थन करने के दो दिनों के भीतर पाकिस्तान के विदेश मंत्री इशाक़ डार ने ये कहते हुए सफाई दी कि ट्रंप की योजना “हमारा दस्तावेज नहीं” है और उनका देश इसका समर्थन नहीं करता है. इस तरह के कूटनीतिक ‘डबल गेम’ का व्यवहार पाकिस्तान के लिए असामान्य नहीं है और ये उदाहरण संकेत देते हैं कि अमेरिका-पाकिस्तान के संबंधों में आने वाले महीनों में रुकावटें आ सकती हैं और भरोसे के संकट का सामना करना पड़ सकता है. 

पाकिस्तान की सैन्य, आर्थिक और विदेश नीति की संरचना चीन से इतने करीब से जुड़ी हुई है कि अमेरिका के साथ किसी भी तरह का रणनीतिक मेल-जोल संभव नहीं लगता. चीन के हथियारों पर रक्षा निर्भरता, CPEC परियोजनाएं, नियमित रूप से चीन से वित्तीय मदद और पाकिस्तान के नेतृत्व की तरफ से समर्थन के बार-बार के बयान इस बात की पुष्टि करते हैं कि पाकिस्तान के लिए चीन बेहद महत्वपूर्ण है. अमेरिका-पाकिस्तान के संबंधों में सुधार से पाकिस्तान को कुछ समय के लिए राहत, नए निवेश और वित्तीय सहायता मिल सकती है. इससे भारत-अमेरिका संबंधों में कुछ समय के लिए दरार भी पैदा हो सकती है. लेकिन पाकिस्तान में चीन की भागीदारी की गहराई और पैमाने के साथ अमेरिका मुकाबला नहीं कर सकता है. 

निष्कर्ष

अमेरिका के लिए ये पेचीदा स्थिति है. ये सोच काफी हद तक गुमराह करने वाली है कि पाकिस्तान एक बार फिर से एक वफादार प्रमुख गैर-नेटो सहयोगी (MNNA) हो सकता है. पाकिस्तान अपना फायदा उठाना जारी रखेगा. वो अमेरिका के साथ सहयोग का ढोंग करेगा जबकि रणनीतिक मुद्दों पर चीन और उसके साझेदारों के साथ खड़ा रहेगा. इसलिए पाकिस्तान के साथ नए सिरे से अमेरिका का जुड़ाव भारत के साथ अधिक महत्वपूर्ण रणनीतिक साझेदारी को ख़तरे में डाल सकता है. पिछले 25 वर्षों के दौरान अमेरिका और भारत ने सावधानीपूर्वक संबंध बनाए हैं जो साझा लोकतांत्रिक मूल्यों, व्यापक रक्षा एवं सुरक्षा सहयोग, सभी दलों के समर्थन और हिंद प्रशांत में स्थिरता के लिए एक समान दृष्टिकोण पर आधारित है. ये साझेदारी इस क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए अहम है. अमेरिका के लिए ये बेहतर होगा कि वो कुछ समय के लिए फायदा उठाने के मक़सद से एक अविश्वसनीय साझेदार से संबंध बढ़ाने की कोशिश के बदले किसी रणनीतिक साझेदार के साथ संबंधों को बढ़ाकर लंबे समय के लिए सोचे. 


सरल शर्मा दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में डॉक्टरेट कैंडिडेट हैं. इससे पहले वो राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के सचिवालय में काम कर चुके हैं.

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