पाकिस्तान में मतदान ख़त्म होने और वोटों की गिनती शुरू होने के बाद भी, वहां का चुनाव आयोग, अवामी असेंबली की उन 265 में से लगभग आधी सीटों के नतीजे ही घोषित कर पाया था, जहा 8 फ़रवरी को चुनाव हुए थे. लेकिन, ये आधे नतीजे भी ऐसे थे, जिनको देखकर न सिर्फ़ पाकिस्तान के लोगों को, बल्कि पाकिस्तान में दिलचस्पी रखने वाले दुनिया भर पर्यवेक्षकों में से किसी को सदमा लगा, तो किसी को हैरानी हुई. ये कहना हालात को कमतर करके पेश करना होगा कि इन नतीजों ने न केवल सारे के सारे पूर्वानुमानों को ग़लत साबित कर दिया (इनमें से ज़्यादातर पूर्वानुमान तो पारंपरिक सोच और पुराने अनुभवों पर आधारित थे), बल्कि नतीजों ने पाकिस्तानी फौज, उसके पसंदीदा सियासी साझीदारों, चापलूसों और मोहरों की उस योजना पर भी पानी फेर दिया, जो उन सबने बहुत सावधानी से तैयार की थी. 1970 में हुए चुनाव, जिनकी वजह से पाकिस्तान का बंटवारा हुआ, उनके बाद पाकिस्तान में 2024 के आम चुनाव उसके इतिहास में मील का ऐसा पत्थर हैं, जो उसके भविष्य का फ़ैसला करेंगे. अगर पाकिस्तान की जनता द्वारा दिए गए संदेश को ग़लत पढ़ा जाता है, उससे ठीक से निबटा नहीं जाता, और अगर मुल्क का सैन्य और सियासी तंत्र पूरी बेशर्मी से इस नतीजे की अनदेखी करता है, तो इससे पाकिस्तान में अकल्पनीय उथल-पुथल देखने को मिल सकती है. लेकिन, अगर इन नतीजों को स्वीकार करके, इनके साथ तालमेल भी बिठाया जाता है, तो ऐसा कैसे किया जाएगा, इसकी कोई स्पष्ट रूप-रेखा दिखाई नहीं पड़ रही है.
पाकिस्तान के आम चुनाव से उम्मीद थी कि इससे मुल्क में कुछ स्थिरता और निश्चितता आएगा, ताकि उसके अस्तित्व के लिए ख़तरा बन चुकी आर्थिक, राजनीतिक और सुरक्षा संबंधी चुनौतियों का मुक़ाबला किया जा सके.
पाकिस्तान के आम चुनाव से उम्मीद थी कि इससे मुल्क में कुछ स्थिरता और निश्चितता आएगा, ताकि उसके अस्तित्व के लिए ख़तरा बन चुकी आर्थिक, राजनीतिक और सुरक्षा संबंधी चुनौतियों का मुक़ाबला किया जा सके. लेकिन, हुआ ये कि चुनाव के नतीजों ने पहले से अस्थिर और अनिश्चित हालात को और बिगाड़ने का काम किया है. दांव पर सिर्फ़ ये नहीं लगा है कि अगली हुकूमत कौन बनाएगा, बल्कि ये भी है कि क्या उस हुकूमत के पास अपने पांव पर खड़े होने लायक़ ताक़त भी होगी? क्या नई सरकार के पास वो राजनीतिक पूंजी और आत्मविश्वास होंगे कि वो बेहद मुश्किल कहे जाने वाले फ़ैसले ले सके, जिसका देश को इंतज़ार है? क्या इमरान ख़ान की पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ का सियासी विरोध, नई सरकार को इत्मीनान से काम करने देगा? क्या पाकिस्तानी सेना पूरी तरह से अपने प्रमुख जनरल आसिम मुनीर और उनकी मंडली के पीछे मज़बूती से खड़ी होगी, या फिर वो ये चाहेंगे कि जनरल मुनीर और उनकी चौकड़ी अपने पद छोड़े और नए नेतृत्व को अपनी जगह लेने दे? जनरल आसिम मुनीर और इमरान ख़ान के बीच जितनी तल्ख़ी आ चुकी है, उसके बाद सवाल ये भी है कि क्या जनरल आसिम मुनीर इमरान को मिले जनमत के साथ काम कर सकेंगे? क्योंकि, पाकिस्तानी फौज के मौजूदा नेतृत्व ने साफ़ कर दिया है कि उनकी नज़र में पाकिस्तान की सियासत में इमरान ख़ान के लिए कोई जगह नहीं है. बहुत साफ़ है कि पाकिस्तान में चुनाव के नतीजे तो मुसीबतों की नई शुरुआत भर हैं.
किंग ख़ान
पाकिस्तान में आम चुनाव के अब तक जो नतीजे और रुझान आए हैं, उससे बिल्कुल साफ़ है कि इसके सबसे बड़े विजेता, क़ैद में बंद इमरान ख़ान हैं. पाकिस्तान की नेशनल असेंबली में उनके समर्थन वाले उम्मीदवारों के 100 से ज़्यादा सीटें जीतने की संभावना है. इस चुनाव में सबसे बुरी हार, पाकिस्तान के आर्मी चीफ जनरल आसिम मुनीर की हुई है, जिन्होंने इमरान ख़ान को सियासी तौर पर पूरी तरह ख़त्म करने में अपनी सारी ताक़त लगा दी थी. इमरान ख़ान की पार्टी से जुड़े उम्मीदवारों को जनता का जिस क़दर समर्थन मिला, उससे उनका सफ़ाया करने के लिए जनरल आसिम मुनीर की बनाई हुई सारी योजनाएं मिट्टी में मिल गईं. किसी भी पर्यवेक्षक ने अपने पूर्वानुमान में तहरीक-ए-इंसाफ़ को 40-50 से ज़्यादा सीटें नहीं दी थीं, और कुछ को तो शक था कि इमरान की पार्टी को इतनी भी सीटें मिलेंगी या नहीं. सच तो ये है कि लोग यही सोच रहे थे कि इमरान ख़ान की पार्टी अगर 20 सीटें भी जीत ले, तो ये चमत्कार होगा. पार्टी के लिए हालात तो ऐसे ही थे. पार्टी के नेता इमरान ख़ान को सज़ा देकर जेल में डाल दिया गया था; तहरीक-ए-इंसाफ़ के ज़्यादातर नेता या तो छुपे हुए थे, या फिर जेल में थे; फौज ने तहरीक-ए-इंसाफ़ के चुनाव जीत सकने वाले लगभग सारे उम्मीदवारों को तोड़कर इस्तेहकाम-ए-पाकिस्तान पार्टी (IPP) और PTI-पार्लियामेंटेरियन नाम के दो नए दल खड़े कर दिए थे (फौज समर्थित इन दोनों ही दलों का चुनाव में सफाया हो गया); इमरान की पार्टी के ज़्यादातर उम्मीदवार नए और नातजुर्बेकार चेहरे थे; पार्टी का चुनाव चिह्न भी छीन लिया गया था. जिसकी वजह से उसके उम्मीदवारों को निर्दलीय के तौर पर मैदान में उतरना पड़ा था और उनके मतदाताओं के ऐसे उम्मीदवारों के चुनाव चिह्न पहचान पाने की संभावना न के बराबर थी. समर्थकों को तहरीक-ए-इंसाफ के समर्थन वाले उम्मीदवारों से परिचित कराने की कोशिशों को पार्टी की वेबसाइट और सोशल मीडिया हैंडल हैक करके नाकाम कर दिया गया.
इस चुनाव में सबसे बुरी हार, पाकिस्तान के आर्मी चीफ जनरल आसिम मुनीर की हुई है, जिन्होंने इमरान ख़ान को सियासी तौर पर पूरी तरह ख़त्म करने में अपनी सारी ताक़त लगा दी थी.
PTI के कार्यकर्ताओं को सताया गया और उनमें से कई को जेल में डाल दिया गया; उसके उम्मीदवारों के घर और दफ़्तरों पर छापे मारे गए; तहरीक-ए-इंसाफ़ के समर्थन वाले प्रत्याशियों को अक्सर चुनाव प्रचार करने से रोक दिया गया; प्रशासन पूरी ताक़त से उनके ख़िलाफ़ खड़ा था; मतदाताओं को साफ़ साफ़ बता दिया गया था कि PTI को वोट देना अपने वोट की बर्बादी करना होगा; और अगर ये सारी कोशिशें नाकाफ़ी थीं, तो चुनाव वाले दिन इंटरनेट को बंद कर दिया गया था. ऊपरी तौर पर तो इसका मक़सद सुरक्षा बताया गया था. लेकिन, सच तो ये है कि ये क़दम, PTI के समर्थकों को एकजुट और संगठित होने से रोकना था. इन सबके बावजूद अगर, तहरीक-ए-इंसाफ़ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है, तो इसका मतलब ये है कि अगर उसको दूसरी पार्टी की तरह चुनाव लड़ने का बराबरी से मौक़ा दिया गया होता, तो इमरान ख़ान तीन चौथाई सीटें जीत जाते.
तहरीक-ए-इंसाफ़ ने ख़ैबर पख़्तूनख़्वा सूबे (K-P) में विधानसभा और नेशनल असेंबली, दोनों में क्लीन स्वीप किया. पंजाब में इमरान ख़ान की पार्टी ने शानदार प्रदर्शन किया. सच्चाई तो ये है कि अगर चुनाव के बाद धांधली नहीं की गई होती- मतलब फौज के दबाव में चुनाव अधिकारियों द्वारा अगर नतीजे नहीं बदले गए होते, तो PTI ने पंजाब में भी भारी जीत हासिल की होती. ऐसे विश्वसनीय इल्ज़ाम लगे हैं कि पाकिस्तान के चुनाव आयोग ने नतीजों का एलान करना बंद कर दिया है. ये पाकिस्तान में एस्टैब्लिशमेंट द्वारा चुनाव के नतीजे बदलने का पुराना नुस्खा है. क्योंकि शुरुआती नतीजों से संकेत मिल रहे थे कि इमरान ख़ान की सुनामी ने फौज या फिर उसके समर्थन वाली सियासी पार्टियों के लिए कुछ भी नहीं बचने वाला था. लेकिन, ऐसा लगता है कि नतीजों में इतनी हेरा-फेरी तो कर ली गई है कि इनको सही बताया जा सके और PTI को पाकिस्तान के सबसे ताक़तवर सूबे पंजाब में बहुमत हासिल करने से भी रोका जा सके.
एक नाकाम वापसी
सियासी मोर्चे पर देखें, तो इन चुनावों के सबसे बड़े लूज़र निश्चित रूप से नवाज़ शरीफ़ और उनकी पाकिस्तान मुस्लिम लीग नवाज़ (PML-N) पार्टी है. इस पार्टी के नेशनल असेंबली में लगभग 80 सीटें जीतने की उम्मीद है. चुनाव से ठीक पहले PML-N ने मुल्क के सारे बड़े अख़बारों के पहले पन्ने पर इश्तिहार निकालकर नवाज़ शरीफ़ के प्रधानमंत्री होने का एलान किया था. इंटरनेशनल मीडिया में भी नवाज़ को ज़बरदस्त वापसी करने वाले नेता के तौर पर पेश किया जा रहा था. उनकी मुस्लिम लीग को भी भरोसा था कि वो पंजाब की 141 में से 100 सीटें जीत लेगी. हक़ीक़त ये है कि पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज़ के कुछ वफ़ादार नेताओं ने तो अपनी पार्टी के 115 से 120 सीटें जीतने की भी भविष्यवाणी की थी. PML-N को ये उम्मीद भी थी कि वो अन्य सूबों से नेशनल असेंबली की 10-15 सीटें जीत लेगी और इनमें अगर रिज़र्व सीटों को भी जोड़ दें, तो वो बड़ी आसानी से अगली हुकूमत बना लेगी. जंग अख़बार में एक पत्रकार ने और आगे बढ़ते हुए ये भी दावा कर दिया था कि अगली हुकूमत बनाने के बाद PML-N अगले दस साल तक सत्ता में रहेगी, ताकि वो तथाकथित बांग्लादेश मॉडल अपनाते हुए अर्थव्यवस्था को स्थिर बना सके.
नवाज़ शरीफ़ ने अभी भी अगली सरकार बनाने की उम्मीदें नहीं छोड़ी हैं. वो दूसरे दलों से समर्थन लेकर और कुछ निर्दलीय उम्मीदवारों (90 प्रतिशत से ज़्यादा निर्दलीय PTI समर्थक उम्मीदवार हैं) को तोड़कर सरकार बनाने की कोशिश में है.
नवाज़ शरीफ़ ने अभी भी अगली सरकार बनाने की उम्मीदें नहीं छोड़ी हैं. वो दूसरे दलों से समर्थन लेकर और कुछ निर्दलीय उम्मीदवारों (90 प्रतिशत से ज़्यादा निर्दलीय PTI समर्थक उम्मीदवार हैं) को तोड़कर सरकार बनाने की कोशिश में है. हालांकि, नवाज़ शरीफ़ के लिए दूसरे दलों से जीते हुए प्रत्याशी तोड़ना आसान नहीं होगा, क्योंकि किसी हारने वाली पार्टी के जीते हुए प्रत्याशियों को तोड़ना अलग बात है और किसी जीती हुई पार्टी के नेताओं को तोड़ना एक दूसरी बात है. इससे भी बड़ी बात ये है कि PTI के जीते हुए उम्मीदवार अगर इमरान ख़ान से दग़ा करते हैं, तो उनको भीड़ के हाथों पीट-पीटकर मारे जाने का जोखिम भी मोल लेना होगा. वैसे तो PML-N द्वारा सरकार बनाने के प्रयास अभी भी कामयाब हो सकते हैं. लेकिन, ये सियासी तौर पर एक टिकाऊ और वाजिब सरकार नहीं होगी. ये भी साफ़ नहीं है कि नवाज़ शरीफ़, ऐसी गठबंधन सरकार की अगुवाई करने के लिए तैयार होंगे या नहीं. अगर वो ऐसा करते हैं तो ये सियासी ख़ुदकुशी से कम नहीं होगा. वहीं, इसके उलट, पाकिस्तान मुस्लिम लीग- नवाज़ अब गुज़रे ज़माने की पार्टी हो चुकी है. उसके पास कोई नया आइडिया नहीं है. नए नेताओं का जोश नहीं है. न तो उसके पास देश के लिए कोई नई योजना है, न कोई नया संदेश और न ही कोई नया नैरेटिव. नवाज़ की पार्टी के पास जनता से जुड़ने की क्षमता भी नहीं है. ये कुछ ‘थके हुए’ ऐसे बुज़ुर्ग नेताओं की पार्टी है, जो अभी भी पिछली सदी में जी रहे हैं. इसलिए, वो शायद आख़िरी बार हुकूमत में होंगे और वो इस आख़िरी मौक़े का भरपूर फ़ायदा उठाना चाहेंगे.
दूसरे सियासी खिलाड़ी
इन चुनावों में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (PPP) ने उम्मीद से कहीं बेहतर प्रदर्शन किया है. ख़ास तौर से सिंध सूबे में, जहां PPP ने नेशनल और प्रांतीय असेंबली, दोनों में ज़बरदस्त जीत हासिल की. सिंध में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी लगातार चौथी बार सरकार बनाएगी. लेकिन, केंद्र और पंजाब सूबे की सरकारें बनाने में भी PPP की भूमिका महत्वपूर्ण होगी, क्योंकि दोनों जगह उसके समर्थन के बग़ैर कोई सरकार नहीं बन सकती. बलोचिस्तान में भी पूरी संभावना है कि पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी नई गठबंधन सरकार का हिस्सा बनेगी और ये भी हो सकता है कि वो इस हुकूमत की अगुवाई करे.
लेकिन, ये देखना दिलचस्प होगा कि केंद्र में सरकार बनाने के लिए PPP को इमरान ख़ान की पार्टी का समर्थन मिलता है या नहीं. पाकिस्तान के सियासी जानकार ये मानते हैं कि PPP, नवाज़ शरीफ़ के साथ गठबंधन बनाने को प्राथमिकता देगी. क्योंकि, इमरान ख़ान के साथ जाने का मतलब होगा, फौजी तंत्र को चिढ़ाना. पूर्व राष्ट्रपति आसिफ़ अली ज़रदारी ऐसा करने से बचना चाहेंगे. पार्टी के वारिस बिलावल भुट्टो शायद विपक्ष में बैठना पसंद करें. लेकिन उनके पिता आसिफ़ अली ज़रदारी ऐसे नेता हैं, जो सत्ता की सियासत करना और ऐसे हालात में जो भी मुमकिन हो, वैसा फ़ायदा उठाना चाहेंगे. ऐसी भी चर्चाएं हैं कि ज़रदारी, राष्ट्रपति पद के लिए दावेदारी करें (जिससे उन्हें पूरे पांच साल का कार्यकाल मिलेगा), और प्रधानमंत्री का पद नवाज़ शरीफ़ को ले जाने दें. क्योंकि किसी को भी ये उम्मीद नहीं है कि अगला प्रधानमंत्री अगर बना भी, तो वो एक या दो साल से ज़्यादा टिकने वाला है. वैकल्पिक तौर पर कुछ ऐसी चर्चाएं भी चल रही हैं कि PML-N या फिर PTI के समर्थन से पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी शायद प्रधानमंत्री पद पर भी अपना दावा ठोके.
कराची में मुत्तहिदा क़ौमी मूवमेंट (MQM) ने कुछ हद तक अपनी खोई हुई ज़मीन हासिल की है. लेकिन, इसकी बड़ी वजह ये है कि वो जगह PTI को निशाना बनाए जाने की वजह से ख़ाली हुई है, न कि MQM का जनता में प्रभाव बढ़ने की वजह से. पर, हो सकता है कि केंद्र और शायद सिंध की सरकार बनाने में मदद के बदले में सत्ता के कुछ टुकड़े MQM को भी मिल जाएं. लेकिन, वो ऐसी पार्टी नहीं है जिसका भविष्य बहुत शानदार दिखता हो. जिस और सियासी दल को इन चुनावों में बड़ा झटका लगा है, वो मौलाना फज़्ल उर रहमान और उनकी जमीयत उलेमा इस्लाम (JUI-F) है. मौलाना की ये उम्मीद वाजिब ती कि वो अच्छी तादाद में सीटें जीतेंगे. क्योंकि ख़ैबर पख़्तूनख़्वा और बलोचिस्तान में तहरीक-ए-इंसाफ़ की स्थिति ख़राब थी. लेकिन, JUI-F को बलोचिस्तान की विधानसभा में तो कुछ सीटें मिल गई हैं और हो सकता है कि वो वहां की सरकार में शामिल हो. लेकिन, देवबंदी विचारधारा वाले मुल्लों के लिए ये चुनाव तगड़ा झटका साबित हुए हैं. पाकिस्तान की सियासत में जमीयत अब कोई कद्दावर और गंभीर खिलाड़ी नहीं रह गई है. फौज समर्थक बलोचिस्तान अवामी पार्टी (BAP) को भी गंभीर चुनावी झटके लगे हैं. कट्टरपंथी सुन्नी बरेलवी पार्टी तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान (TLP) कोई ज़्यादा सीटें तो जीतती नहीं दिख रही. लेकिन, ये देखना दिलचस्प होगा कि TLP के वोट 2018 की तुलना में बढ़े हैं या नहीं. पिछले चुनावों में TLP, पाकिस्तान की सबसे बड़ी मज़हबी और पांचवीं बड़ी सियासी पार्टी के तौर पर उभरी थी.
पाकिस्तान की राजनीति में एक नए दौर की शुरुआत?
पाकिस्तान ने अपने इतिहास में ऐसे कई मौक़े देखे हैं, जब उम्मीदों का सूरज उगा, मगर वो जल्दी ही ढल भी गया. क्या 2024 के आम चुनाव भी ऐसे ही हैं, जहां जनता की शक्ति ने पाकिस्तानी फौज और इसकी सियासी दलों द्वारा बहुत सावधानी से तैयार की गई योजनाओं पर पानी फेरा और ऐसी नई उम्मीदें जगाईं, पर वो पूरी नहीं होने वाली हैं? या फिर, ये पाकिस्तान की सियासत में क्रांतिकारी बदलाव और इसके साथ साथ फौज और सियासी दलों के बीच नए रिश्तों शुरुआत हैं? क्योंकि, ये दोनों ही अब तक मुल्क पर एक बोझ साबित हुए हैं, जिन्होंने पाकिस्तान के राजनीतिक विकास को रोककर रखा है. एक बात जो साफ़ तौर पर दिख रही है कि जो दल, या तो फौज से दोस्ती की पींगे बढ़ा रहे थे, या जिन्हें फौज का मोहरा (IPP, PTI-P, BAP वग़ैरह) माना जा रहा था, उन्हें जनता ने बुरी तरह बेइज़्ज़त करके ख़ारिज कर दिया है. दूसरी बड़ी बात ये है कि पाकिस्तान में डीप स्टेट और सैन्य तंत्र की बुनियाद कहे जाने वाले दो सूबों- पंजाब और खैबर पख्तूनख्वा- ने बग़ावत कर दी है और फौज के नैरेटिव को अस्वीकार कर दिया है. ये बात तो बिल्कुल साफ़ है कि इस बार चुनाव में सबसे बड़ा झटका तो पाकिस्तानी फौज को लगा है. पाकिस्तानी फौज के बारे में कहा जाता है कि उसने कोई जंग नहीं जीती और कोई चुनाव नहीं हारा. लेकिन, इस बार तो फौज चुनाव भी हार गई है.
ये बात तो बिल्कुल साफ़ है कि इस बार चुनाव में सबसे बड़ा झटका तो पाकिस्तानी फौज को लगा है. पाकिस्तानी फौज के बारे में कहा जाता है कि उसने कोई जंग नहीं जीती और कोई चुनाव नहीं हारा. लेकिन, इस बार तो फौज चुनाव भी हार गई है.
पाकिस्तान के जनादेश का एक तीसरा और बेहद महत्वपूर्ण पहलू ये है कि वक़्त बदल गया है और पुराने ज़माने के जो नुस्खे और दांव-पेंच कारगर थे, वो न तो अब काम आ रहे हैं और न ही जनता उनको स्वीकार कर रही है. दुनिया भर के दूसरे सत्ता तंत्रों की तरह पाकिस्तान की फौज को भी ये समझना होगा कि सूचना को अब उस तरह नियंत्रित नहीं किया जा सकता है, जिस तरह पहले के ज़माने में किया जाता था. वो सरकारें और वो तंत्र जो ख़ुद को इन नई सच्चाइयों के हिसाब से नहीं ढाल पा रहे हैं और पुराने ढर्रे पर ही चल रहे हैं, उनको अपनी हार अपनी आंखों के सामने होती देखनी होगी. इसी तरह, सियासी दलों को भी ख़ुद को नई परिस्थितियों के मुताबिक़ ख़ुद को नया बनाना होगा, ताकि वो प्रासंगिक बनी रहें. पुरानी मिसालों और बर्तावों पर चलते रहना, भविष्य में सियासी तौर पर अप्रासंगिक होने का नुस्खा है.
अंतिम बात तो ये है कि इस जनादेश की व्यापकता और ऐतिहासिकता को नहीं स्वीकार करना और आज जो कुछ हुआ है, उसको गुज़रे हुए कल के हिसाब से देखना, विशाल भूल होगी. पाकिस्तान इस वक़्त दुधारी तलवार पर है, और अब ये देखना होगा कि ‘ख़तरनाक मूर्ख़’- पाकिस्तान की पूर्व मानवाधिकार कार्यकर्ता असमा जहांगीर फौजी जनरलों को यही कहकर पुकारती थीं- ऐसे फ़ैसले लेंगे, जो उन्हें सत्ता के गलियारों से दूर हटाएं, और उनके साथ साथ मुल्क को भी उन मुश्किल हालात से बाहर निकालें, जिनमें दोनों फंसे हैं. या फिर, वो एक बार फिर इस दोधारी तलवार पर चलते हुए, अपने देश को लहू-लुहान करेंगे.
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