Author : Amrita Narlikar

Expert Speak Raisina Debates
Published on Feb 19, 2025 Updated 0 Hours ago

म्यूनिख सिक्योरिटी कांफ्रेंस में अमेरिका के उप-राष्ट्रपति जे डी वैंस के भाषण से पूरा यूरोप ग़ुस्से से उबल तो पड़ा. लेकिन, उनकी तक़रीर ने कई मूल्यवान दृष्टिकोण भी सामने रखे हैं, जिन पर तवज्जो देने की ज़रूरत है.

जर्मनी के म्यूनिख कॉफ्रेंस में जेडी वैंस के भाषण के बाद भड़का विवाद!

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दावोस में होने वाली विश्व आर्थिक मंच की बैठक के बाद, एक और सम्मेलन जर्मनी के म्यूनिख शहर में होता है. आम तौर पर दोनों ही आयोजनों के प्रमुख किरदार एक ही होते हैं. इसके अलावा, इन सम्मेलनों में वही जाने माने और भरोसेमंद लोग नज़र आते हैं, जो पिछले कई वर्षों से (और कई मामलों में तो कई दशकों से) आमंत्रित किए जाते रहे हैं. इन सम्मेलनों को आयोजित करने में ख़र्च होने वाली भारी रक़म और इनको मीडिया में मिलने वाले प्रचार को देखें, तो दोनों ही आयोजन बड़े मामूली और संयमित नज़र आते हैं, जहां महंगे महंगे लिबास पहनकर आने वाले वक्ता बड़ी विनम्रता से सिस्टम को सुधारने की वकालत करते हैं और फिर पहले जैसे काम में जुट जाते हैं. ऐसे में 14 फरवरी को म्यूनिख सिक्योरिटी कांफ्रेंस में अमेरिका के उप-राष्ट्रपति जे डी वैंस ने जो भाषण दिया, उसने दुनिया के शासक वर्ग के एक बड़े तबक़े को भीतर तक हिलाकर रख दिया.

 जर्मनी के रक्षा मंत्री बोरिस पिस्टोरियस ने वैंस की तक़रीर को ‘अस्वीकार्य’ करार दिया. वहीं यूरोपीय संघ के विदेश नीति की प्रमुख काहा कल्लास को वैंस का भाषण ऐसा लगा, जैसे ‘…वो हमसे जान-बूझकर झगड़ा करना चाहते हैं…’.

वैंस के भाषण को लेकर यूरोप में तो खुलकर नाराज़गी का इज़हार किया गया. जर्मनी के रक्षा मंत्री बोरिस पिस्टोरियस ने वैंस की तक़रीर को ‘अस्वीकार्य’ करार दिया. वहीं यूरोपीय संघ के विदेश नीति की प्रमुख काहा कल्लास को वैंस का भाषण ऐसा लगा, जैसे ‘…वो हमसे जान-बूझकर झगड़ा करना चाहते हैं…’. जर्मनी के चांसलर ओलाफ शाल्त्स ने भी अमेरिकी उप-राष्ट्रपति के भाषण का विरोध किया और कहा कि न तो जर्मनी और न ही यूरोप किसी बाहरी दख़लंदाज़ी को क़बूल करेगा, ख़ास तौर से दोस्तों और साथियों के दख़ल को तो क़तई नहीं. सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों पर वैंस के ख़िलाफ़ ग़ुस्से का उबाल आया हुआ है. आख़िर क्या वजह है कि वैंस की तक़रीर ने इतने सारे लोगों को नाराज़ कर दिया है?

 

पहली बात तो ये कि जे डी वैंस ने अपना भाषण बड़े संयम और शानदार तरीक़े से दिया. उन्होंने ऐसा नज़रिया सामने रखने का दुस्साहस किया, जो बहुत कम लोग ही खुलकर कहते हैं कि, ‘लोकतंत्र का पतन (ग्लोबल साउथ में नहीं, जैसा कि पश्चिमी देशों के बहुत से लोग दु:ख से कहते हैं, बल्कि) यूरोप में हो रहा है.’ यूरोप का राजनीतिक तंत्र बाक़ी दुनिया में लोकतंत्र के हालात, बहुलतावाद और उदारवाद के हालात की आलोचना मुखर होकर करता है. लेकिन, जब ख़ुद यूरोप में इन्हीं मूल्यों के कमज़ोर होने की बात कही जाती है, तो यूरोप को ये आलोचना बर्दाश्त नहीं हो पाती.

 

दूसरी बात ये कि वैंस तो इससे भी एक क़दम आगे बढ़ गए: उन्होंने अपने भाषण को अटलांटिक के आर-पार के साझा मूल्यों के संदर्भ में पेश किया. इस बात की वाजिब चिंताएं हैं कि ट्रंप का इस हाथ ले, उस हाथ दे वाले रवैये से वैश्विक नियमों की अनदेखी हो सकती है; पर, ट्रंप के उप-राष्ट्रपति मूल्यों की भाषा बोलते हैं, इस बात का तो खुली बांहों से स्वागत होना चाहिए था. लेकिन ‘यथास्थितिवादी शक्ति यूरोप’ शायद ये सोचता है कि अकेले वो ही मूल्यों पर एकाधिकार रखता है और उनकी नुमाइंदगी करता है.

 

रूस-यूक्रेन युद्ध

तीसरा, जे डी वैंस ने अपने भाषण में सिर्फ़ एक बार रूस और यूक्रेन के युद्ध का बस नाम के लिए ज़िक्र किया, वो भी दोनों देशों के बीच ‘उचित समझौता’ कराने के हवाले से और उन्होंने यूरोप से अपील की कि वो ‘अपनी रक्षा के लिए आगे आकर ज़्यादा बड़ी ज़िम्मेदारी निभाए.’ वैसे तो यूरोप के बहुत से नेता नेटो के सदस्य के तौर पर मिलकर बोझ उठाने की अहमियत को स्वीकार करते हैं. लेकिन, म्यूनिख सिक्योरिटी कांफ्रेंस में मौजूद ज़्यादातर लोग इस बात से हैरान और निराश दिखे कि वैंस की तक़रीर में यूरोप की सरहद में चल रहे युद्ध का बस नाम के लिए ज़िक्र हुआ. यहां हम यूरोप के दोहरे रवैये की मिसाल साफ़ तौर पर देख सकते हैं, जिसकी तरफ़ भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने 2023 में ही ये कहते हुए इशारा किया था कि, ‘यूरोप की सोच ये है कि उसकी समस्याएं तो पूरी दुनिया का सिरदर्द हैं, मगर बाक़ी दुनिया की परेशानियों से यूरोप को कोई मतलब नहीं है.’ अब जबकि अमेरिका में आख़िरकार ऐसी सरकार है, जो यूरोप और अमेरिका के बीच ज़िम्मेदारियों का उचित बंटवारा चाहती है और अपना ध्यान हिंद प्रशांत क्षेत्र में चीन की चुनौती से निपटने पर केंद्रित करना चाहती है, तो यूरोप अपने आप को बेहद असहज स्थिति में पा रहा है.

 यहां हम यूरोप के दोहरे रवैये की मिसाल साफ़ तौर पर देख सकते हैं, जिसकी तरफ़ भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने 2023 में ही ये कहते हुए इशारा किया था कि, ‘यूरोप की सोच ये है कि उसकी समस्याएं तो पूरी दुनिया का सिरदर्द हैं

आख़िर में, अमेरिकी उप-राष्ट्रपति ने यूरोप में ‘बड़े पैमाने पर अप्रवास’ की चुनौतियों का ज़िक्र करते हुए बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया और ख़ुद को स्वघोषित नैतिकतावादियों और उदारवादियों के नैतिकतावादी ग़ुस्से का आसान निशाना बना लिया. वैसे तो वैंस- बहुत से लोगों के लिए अस्तित्व से जुड़े और ख़ास तौर से जान जोख़िम में डालकर सुरक्षित ठिकानों और बेहतर अवसरों वाले देशों तक पहुंचने और फिर नस्लवाद का शिकार होने वालों के लिए अहम-  इस मुद्दे पर शायद और संतुलित तरीक़े से अपनी बात रख सकते थे. लेकिन, यूरोप में वैध और अवैध दोनों तरह के अप्रवास पर गंभीर परिचर्चा करने की ज़रूरत है. सिर्फ़ आंख मूंदकर ये सोचने से कि ऐसी समस्याओं का अस्तित्व ही नहीं है और वैंस को उनके भाषण की वजह से विलेन के तौर पर देखने से इस समस्या का अस्तित्व समाप्त नहीं होना.

 

वैंस ने यूरोप के लोकतंत्र की कमज़ोरियों का ज़िक्र करके यूरोप की कमज़ोर नस पर हाथ रख दिया है. यूरोप के बड़े बड़े नेताओं को वैंस का ये सुझाव नागवार गुज़रा है कि ‘यूरोप पहले अपने गिरेबां में झांके’. ख़ास तौर से इसलिए और भी क्योंकि, इससे यूरोप के सत्ताधारी तबक़े के लिए अपने देश की घरेलू समस्याओं से ध्यान भटकाना मुश्किल हो गया है.

 

नया नज़रिया

यूरोप के बाहर से देखें, तो वैंस की तक़रीर ने कई तरोताज़ा नज़रिए सामने रखे हैं. बाक़ी दुनिया को परे रखकर एक दूसरे की तारीफ़ करने वाले यूरोप और अमेरिका के गठबंधन वाले क्लब की सालाना बैठक के बजाय, वैंस के भाषण ने दिखाया है कि आगे चलकर बहुत से दिलचस्प बदलाव देखने को मिल सकते हैं. ये अमेरिका नहीं है जो यूरोप या फिर नेटो को तबाह करना चाह रहा है (जैसा कि सोशल मीडिया पर कुछ लोगों ने जताने की कोशिश की). बल्कि एक समझदार शक्ति द्वारा किया गया इशारा है जो अटलांटिक के आर-पार की इस साझेदारी की अहमियत और कमज़ोरियों, दोनों को बख़ूबी समझती है. ग्लोबल साउथ से अक्सर उठने वाली मांग के मुताबिक़ अगर यूरोपीय संघ (EU) आत्मनिरीक्षण करने के लिए तैयार हो, तो वो अमेरिका के साथ ज़्यादा ईमानदार और स्थायी गठबंधन कर सकेगा और इसके साथ साथ भारत जैसे समान विचारधारा वाले साझेदारों को भी अपने साथ जोड़ सकेगा.

 

ग्लोबल साउथ से अक्सर उठने वाली मांग के मुताबिक़ अगर यूरोपीय संघ (EU) आत्मनिरीक्षण करने के लिए तैयार हो, तो वो अमेरिका के साथ ज़्यादा ईमानदार और स्थायी गठबंधन कर सकेगा और इसके साथ साथ भारत जैसे समान विचारधारा वाले साझेदारों को भी अपने साथ जोड़ सकेगा.

वैंस की तक़रीर ने हमें ये भरोसा दिलाया है कि अमेरिका, अभी भी मूल्यों के साथ खड़ा हुआ है. अमेरिका, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के साथ अगर अपने संबंधों में और गहराई लाना चाहेगा, तो मूल्यों का समर्थन एक बड़ी वजह होगी. लेकिन, वैंस के भाषण और उस पर आई प्रतिक्रियाओं ने यूरोप के राजनीतिक मंज़र पर से भी पर्दा उठा दिया है. म्यूनिख सिक्योरिटी कांफ्रेंस में अपने भाषण के ज़रिए जे डी वैंस ने यूरोप को आईना दिखाया है. यूरोप और दूसरे देशों में इसको लेकर जो ग़ुस्सा भड़का है, वो असल में अपना ही कुरूप चेहरा देखकर घबरा जाने वाले किरदार की मिसाल है.

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