दुबई में कॉप28 (संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन) ख़त्म होने के साथ दूसरी बैठकों की तरह ही सम्मेलन हॉल और मीडिया के तबकों ने थोड़ी हताशा के साथ उपलब्धि की भावना साझा की. ऐसा लगता है कि नतीजों से ख़ुश होना तो दूर वास्तव में कोई संतुष्ट भी नहीं था.
ये ज़रूर हुआ कि अपरिवर्तनीय जलवायु नुकसान से पार पाने के उद्देश्य से असुरक्षित देशों की मदद करने के लिए एक फंड को आख़िरकार शुरू किया गया लेकिन इसमें योगदान ज़रूरत से कम था. साथ ही कब और कैसे पैसे की मदद पहुंचाई जाएगी ये अभी भी एक सवाल बना हुआ है. वैसे तो जीवाश्म ईंधन को लेकर नई परिभाषा पर आख़िरकार सहमति बन गई है लेकिन कई विश्लेषक इसे कमज़ोर और खामियों से भरी हुई मानते हैं. इसकी वजह ये है कि बड़े स्तर पर तेल, गैस और कोयले के परिचालन को जारी रखने और अनिश्चित समय तक विस्तार की अनुमति दी गई है. अलग-अलग देश जलवायु परिवर्तन के असर को कम करने और अनुकूलन के लिए अधिक जलवायु वित्त की आवश्यकता पर सहमत हैं लेकिन तरीके, उपयोगिता और यहां तक कि परिमाणित अनुकूलन लक्ष्य (क्वांटिफाइड एडेप्टेशन गोल) अभी भी तय नहीं हैं. वहीं दुबई में आख़िरी समय में नाकामी के बाद कार्बन बाज़ार- एक महत्वपूर्ण वित्तीय साधन- की नियति अधर में लटकी हुई है.
भले ही ये समझौते संतुलित हों लेकिन ये शायद ही कोई खुलासा है कि पेरिस समझौते के लक्ष्यों- जलवायु परिवर्तन को कम करना, अनुकूलन और वित्त मुहैया कराना- को पूरा करने के मामले में ये असर नहीं छोड़ते हैं.
कोई भी वार्ताकर कहेगा कि अगर हर कोई समान रूप से नाराज़ है तो समझौता संतुलित है. भले ही ये समझौते संतुलित हों लेकिन ये शायद ही कोई खुलासा है कि पेरिस समझौते के लक्ष्यों- जलवायु परिवर्तन को कम करना, अनुकूलन और वित्त मुहैया कराना- को पूरा करने के मामले में ये असर नहीं छोड़ते हैं.
विज्ञान की बढ़ती चिंता और जलवायु संकट से निपटने के लिए अर्थव्यवस्थाओं और समाज को बहुत बड़े बदलाव से होकर गुज़रने के बढ़ते एहसास के विपरीत प्रगति बेहतरीन हालात में भी धीमी हो रही है. इसका एक प्रमुख कारण है विकसित और विकासशील देशों के बीच अविश्वास की बढ़ती खाई जो UNFCCC (यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेंट चेंज) और G20 की प्रक्रियाओं में सबसे स्पष्ट रूप से दिखती है. घटते विश्वास की वजह से वार्ताकार दूसरे पक्ष के द्वारा प्रस्तावित हर चीज़ में छिपा हुआ एजेंडा देखते हैं जिससे हालात बिगड़ते हैं और वास्तविक रूप से कठिन मुद्दों को छिपाया जाता है.
बहुत ज़्यादा शत्रुता
जब कभी भी दुनिया जलवायु को लेकर और कदम उठाने पर सहमत होने के लिए एक साथ आती है, उस समय कोई छोटा मतभेद भी आपसी शिकायतों की बाढ़ ला देता है. अगर इसे चरम पर ले जाया जाए तो आरोप कुछ इस तरह सुनाई देते हैं- ग्लोबल नॉर्थ (विकसित देश) अहंकारी और स्वार्थी है, वो कार्बन कम करने की ग्लोबल साउथ (विकासशील देश) की कोशिशों को खारिज करता है और ग्लोबल साउथ को विकसित होने एवं गरिमापूर्ण जीवन यापन का स्तर हासिल करने का सुयोग्य अवसर नहीं देता है. आरोप ये भी लगता है कि ग्लोबल नॉर्थ नहीं चाहता कि ग्लोबल साउथ समृद्ध बन सके. दूसरी तरफ ये आरोप भी लगते हैं कि ग्लोबल साउथ सुस्त है और बिना कोशिश के आगे बढ़ना चाहता है. साथ ही वो अपने मौजूदा और बढ़ते उत्सर्जन के लिए ज़िम्मेदारी नहीं लेना चाहता है.
विकसित देश जलवायु वित्त को लेकर 100 अरब अमेरिकी डॉलर के अपने दायित्व को व्यवस्थित रूप से कम पूरा कर रहे हैं और अपनी ज़िम्मेदारी निभाने को लेकर हर मोड़ पर शर्त थोप रहे हैं.
इनमें से ज़्यादातर शिकायतें पूरी तरह बेबुनियाद नहीं हैं. तोड़े गए वादे विश्वास के लिए बेहद ख़राब होते हैं. विकसित देश जलवायु वित्त को लेकर 100 अरब अमेरिकी डॉलर के अपने दायित्व को व्यवस्थित रूप से कम पूरा कर रहे हैं और अपनी ज़िम्मेदारी निभाने को लेकर हर मोड़ पर शर्त थोप रहे हैं. तकनीक़ को अपनाने और क्षमता के मामले में वो फायदेमंद हालात में हैं. इससे उन्हें तेज़ी से कार्बन कम करने में मदद मिलती है और उच्च जीवन यापन का स्तर जलवायु को लेकर जागरूकता को एक किफायती विलासिता (लग्ज़री) बनाता है.
इसके साथ-साथ विकासशील देश जलवायु संकट को कम करने की महत्वाकांक्षा को अपनाने के मामले में जल्दबाज़ी नहीं कर रहे हैं जिसके बारे में विज्ञान हमें बताता है कि जलवायु परिवर्तन के सबसे ख़राब असर को रोकने के लिए ये ज़रूरी है. वैसे तो प्रमुख विकासशील देशों में नवीकरणीय ऊर्जा का अभूतपूर्व इस्तेमाल हो रहा है और उत्सर्जन की तीव्रता और चरम सीमा के लिए महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं लेकिन वातावरण केवल संपूर्ण उत्सर्जन और ग्रीन हाउस गैस (GHG) की एकाग्रता (कंस्ट्रेशन) की परवाह करता है. विकास के लिए कार्बन की गुंजाइश होना और शून्य उत्सर्जन (नेट ज़ीरो) के लिए आवश्यक वित्तीय समर्थन हासिल करना न्याय के मामले में पूरी तरह से समझ में आता है लेकिन उस समय बिल्कुल भी नहीं जब विकासशील देशों के द्वारा जीवन यापन के स्तर तक पहुंचने की कीमत सभी देशों को जलवायु त्रासदी के रूप में चुकानी पड़े.
एक और बड़ा मामला वो व्यवस्था और मंच हैं जहां इन मुद्दों पर चर्चा की जाती है. विकसित देश अपनी सभी संस्थागत विरासत के साथ बहुपक्षीय संस्थानों में अपने ऐतिहासिक एवं राजनीतिक प्रभाव के साथ-साथ तकनीक़ एवं क्षमता का लाभ उठा रहे हैं. इसकी वजह से विकासशील देशों को महसूस होता है कि बातचीत की प्रक्रिया में धांधली हुई है. इसमें बातचीत की प्रक्रिया में अभी भी अंग्रेज़ी का बोलबाला होने से लेकर एक कम या मध्यम आमदनी वाले देश पर अंतर्राष्ट्रीय बैठक में उचित प्रतिनिधिमंडल को भेजने की लागत शामिल है.
एक-दूसरे से मेलजोल के दूसरे रास्ते
भले ही विकासशील और विकसित देशों के बीच की दरार सबसे ज़्यादा दिखती हो लेकिन ये इकलौती नहीं है और न ही ये दीर्घकालीन समीकरण को परिभाषित कर सकती है. विकासशील देशों के भीतर- जैसा कि 1992 के सम्मेलन के कुख्यात अनुबंधों से समझा जाता है- प्रमुख अर्थव्यवस्थाएं हैं जो बुनियादी ढांचे से जुड़ी बड़ी परियोजनाओं को बनाए रखने, ख़ास वैश्विक बाज़ार में हावी होने, लोगों को अंतरिक्ष तक भेजने और ग़रीब देशों में विकास के काम के लिए फंड मुहैया कराने में सक्षम हैं. इसके अलावा कमज़ोर, छोटे द्वीप, लैंड-लॉक्ड (समुद्र से दूर) और कम विकसित अर्थव्यवस्थाएं भी हैं जो जलवायु संकट को लेकर सबसे ज़्यादा कदम उठाने की मांग करती हैं क्योंकि उनका अस्तित्व इस पर निर्भर करता है.
‘विकसित’ के व्यापक उपनाम के तहत हमारे सामने बेहद उन्नत देश हैं, जो प्रति व्यक्ति आय के मामले में अमीर हैं और अपनी कार्बन ख़त्म करने की यात्रा में काफी आगे हैं. लेकिन हमारे सामने बड़ी अर्थव्यवस्थाएं भी हैं, जो आंतरिक रूप से विविध हैं और अक्सर जीवाश्म ईंधन के उत्पादन एवं खपत पर निर्भर करती हैं. इसके अलावा वो वर्कफोर्स परिवर्तन के मामले में राजनीतिक और सामाजिक चुनौतियों का सामना कर रही हैं और वहां काफी हद तक बड़ी उभरती अर्थव्यवस्थाओं की तरह मज़बूत हित समूह हैं.
हालांकि, बातचीत करने वाले पक्षों के बीच मतभेद, जो कि अंतर-सरकारी प्रक्रिया के लिए महत्वपूर्ण साबित हो रहे हैं, जलवायु परिवर्तन से निपटने के उद्देश्य से व्यापक दीर्घकालिक प्रयासों को शायद परिभाषित न करे. वैश्वीकरण के साथ-साथ बंटवारा, इकट्ठा असंतुलन और असमानता के इस अजीबोगरीब युग में दूसरे आकारों पर ध्यान देना होगा.
दुनिया जलवायु आपदा को टालने में सफल हो या नहीं लेकिन ये तय है कि कुलीन वर्ग बेहतर स्थिति में रहेगा. सबसे ज़्यादा मार कमज़ोर देशों पर नहीं पड़ेगी बल्कि सभी देशों में वंचित लोगों पर सबसे ख़राब असर होगा. मुंबई, सैन पाओलो और रियाद के पैसे वाले लोग उसी तरह सुरक्षित रहेंगे जैसे कि लंदन, टोक्यो और मेलबर्न के पैसे वाले. वहीं सैन डिएगो, मॉस्को और ब्रुसेल्स के हाथ से काम करने वाले मज़दूर उसी तरह असुरक्षित होंगे जैसे कि किंशासा, जकार्ता या बोगोटा के मज़दूर.
विश्लेषण के हर स्तर पर नुकसान और लागत को अलग-अलग किया जाएगा. जो बेहद अमीर हैं वो दूर-दराज के पहाड़ पर बंकर की भी कीमत चुकाने में सक्षम होंगे जबकि सामान्य तौर पर अमीर लोग पूरा दिन एयरकंडीशन में बिता सकेंगे. अपेक्षाकृत ग़रीब लोग शायद असहनीय गर्मी या समुद्र के बढ़ते स्तर से दूर जाने का खर्च उठा पाने में सक्षम होंगे लेकिन जो लोग अत्यधिक ग़रीबी का सामना कर रहे हैं उन्हें मुसीबतों को झेलना जारी रखना होगा, उनके सामने बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं होगा.
क्या किया जाना चाहिए
इन बंटवारों से निपटने के कुछ तरीके क्या हो सकते हैं?
केवल वादों को निभाना एक अच्छी शुरुआत हो सकती है लेकिन अलग-अलग देशों को इसके आगे जाना चाहिए और सबसे पहले बेहतर एवं ज़्यादा ईमानदार प्रस्तावों के बारे में सोचना शुरू करना चाहिए. निर्णय के शब्दों, आपत्तियों (कैविएट) और शब्दावली को हल्का करने का मतलब है कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सहमत जलवायु नीति के दस्तावेज़ों, चाहे वो कॉप के फैसले हों या G20 घोषणापत्र, को अक्सर ख़ुद वार्ताकारों और उनके देश/संस्थानों के द्वारा संदेहपूर्ण मुस्कान के साथ देखा जाता है. वैश्विक जलवायु संकट को लेकर प्रगति के मामले में ऊपर बताया गया कॉप का निर्णय पूरे दस्तावेज़ में 18 बार संयुक्त राष्ट्र के द्वारा ‘जैसा उचित हो’ तारांकन (एस्टेरिस्क) लगाता है- एक ही अनुच्छेद (पैराग्राफ) में एक बिंदु पर तीन बार. वहीं राष्ट्रीय परिस्थितियों के संदर्भ में 16 अन्य बयानों की शर्त लगाता है. एक अलग पैराग्राफ तो ‘राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान की राष्ट्रीय स्तर पर तय प्रकृति की पुष्टि’ भी करता है.
ये राष्ट्रीय परिस्थितियों के महत्व को कम आंकने के लिए नहीं है, जो कि कुशल जलवायु कार्रवाई के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि सामान्य समझ की अपील के लिए है. राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित तत्व पेरिस समझौते में गहराई से जुड़े हैं और इस बात की संभावना कम है कि कोई देश स्थानीय संदर्भ के स्वभाव के विरोध में कुछ करेगा. हालांकि, हर मोड़ पर इन प्रतिबद्धताओं और संकल्पों को पूरा करना पढ़ने वालों के लिए ये समझना असंभव बनाता है कि अलग-अलग पक्ष क्या वादा कर रहे हैं और क्या वो कुछ करने का इरादा रखते हैं. इस तरह की बारीकियां सिर्फ भरोसे को और कमज़ोर करती हैं.
दोनों पक्षों के लिए विश्वास बहाल करने का एक और अच्छा रास्ता है धरती पर अपने प्रभाव की ज़िम्मेदारी लेना और इसके लिए दूसरे पक्ष का इंतज़ार नहीं करना. भरोसा बनाने के लिए न्याय महत्वपूर्ण है लेकिन इसके साथ साख भी ज़रूरी है.
दोनों पक्षों के लिए विश्वास बहाल करने का एक और अच्छा रास्ता है धरती पर अपने प्रभाव की ज़िम्मेदारी लेना और इसके लिए दूसरे पक्ष का इंतज़ार नहीं करना. भरोसा बनाने के लिए न्याय महत्वपूर्ण है लेकिन इसके साथ साख भी ज़रूरी है. जब तक अलग-अलग पक्ष ज़िम्मेदारी से परहेज करते हैं, चाहे वो इकट्ठा, प्रति व्यक्ति या वर्तमान संपूर्ण उत्सर्जन, जलवायु वित्त या स्थानीय अनुकूलन, व्यापार किए जाने वाले कार्बन या ख़पत के तरीके के लिए हो और इसका इस्तेमाल कार्रवाई रोकने के लिए किया जाता है, दुनिया ये संदेह करती रहेगी कि जलवायु परिवर्तन बहुत बड़ी समस्या है. अगर विज्ञान के बताने के बावजूद अलग-अलग सरकारें दूसरों के कदम उठाने का इंतज़ार कर सकती हैं तो ख़तरा शायद अस्तित्व का नहीं है. सही कहा ना?
हठधर्मिता और फॉर्मूलाबद्ध दोहराव के विकल्प के रूप में तीसरा नज़रिया सच्ची व्यावहारिकता हो सकता है. ‘1.5 को पहुंच के भीतर रखने’ का वास्तविक अर्थ क्या है? हमें कितने जलवायु वित्त की आवश्यकता है? हम इसे किस तरह से खर्च करने जा रहे हैं और हम ये कहां पा सकते हैं? विकास से जुड़ी किन चुनौतियों को हम जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़ प्राथमिकता देने का इरादा रखते हैं? अगर उत्सर्जन में कमी पूरी दुनिया के कल्याण के लिए है तो क्या हमें वास्तव में हर चीज़ को विश्वव्यापी बहुपक्षीय मंच पर लाने की आवश्यकता है?
ये नादान उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि जलवायु नीति तय करने में अहम देश सामूहिक और व्यक्तिगत रूप से उस बिंदु तक प्रतिबद्ध, जागरूक, ज़िम्मेदार और ईमानदार बन जाएंगे जहां विश्वास का संचार होगा. आख़िरकार, हम वैश्विक राजनीति और अर्थशास्त्र के सदैव अधूरे माध्यम से एक अस्तित्व से जुड़े मुद्दे का समाधान करने की कोशिश कर रहे हैं. गैर-सरकारी किरदारों को ज़्यादा-से-ज़्यादा ज़िम्मेदारी लेते हुए क्षैतिज (हॉरिज़ॉन्टल) गठबंधन और एकजुटता का निर्माण करना होगा.
लेकिन अलग-अलग देशों के लिए यही एक चुनौती है और सामूहिक तौर पर लाभकारी परिणाम के लिए ये आवश्यक होगा कि वो ख़ुद को पीड़ित के रूप में पेश करने से पार पाएं और दूसरों के साथ भरोसा स्थापित करने के लिए नियंत्रण की भावना को गले लगाएं.
एंटन स्वेटोव अंतर्राष्ट्रीय जलवायु नीति सलाहकार और UNFCCC एवं G20 में पूर्व वार्ताकार हैं.
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