अतीत में स्वास्थ्य संकट की वजह से अक्सर शहरों ने ख़ुद को फिर से गढ़ा है और महामारी को रोकने में शहरी इलाक़े जो रुकावट खड़ी करते हैं, उसका मूल्यांकन होता है. कोलोरा फैलने की वजह से लंदन का ‘मेट्रोपॉलिटन बोर्ड ऑफ वर्क्स’ और 19वीं शताब्दी के मध्य की सैनिटेशन व्यवस्था विकसित हुई. 2014-2015 की इबोला महामारी के दौरान गिनी, लाइबेरिया और सियरा लियोन के शहरी इलाकों को ये बात समझ में आई कि एक बड़ी आबादी को ज़्यादा सेवाओं और सभी क्षेत्रों के बीच अच्छे समन्वय की ज़रूरत पड़ेगी. बॉम्बे में 1896 से 1899 के बीच प्लेग की वजह से मिल मज़दूरों को बेहतर घर मुहैया कराने पर पर चर्चा शुरू हुई.
शहरों की योजना बनाने में किस कमी का पर्दाफ़ाश कोविड-19 ने किया ? कैसे भविष्य में महामारी से लड़ाई में शहरी योजना का सिस्टम ख़ुद को तैयार कर सकता है ? ये लेख महामारी और शहरी घनत्व, अनौपचारिक बस्तियों, सामाजिक ढांचा और रक्षात्मक डिज़ाइनिंग के बीच साझेदारी का पता लगाएगा ताकि शहरी योजना बनाने में संभावित दिशा प्रदान की जा सके.
कोविड-19 और शहरी भीड़-भाड़
कोविड19 के बाद शहरी योजना को लेकर ज़्यादातर चर्चा से संकेत मिलता है कि वायरस के फैलने की रफ़्तार शहरों की भीड़-भाड़ से जुड़ी है. एक तरफ़ अमेरिका में न्यूयॉर्क सिटी, भारत में मुंबई और यूके में लंदन जैसे शहर हैं जिन्हें अपने-अपने देश में भीड़-भाड़ वाला शहर माना जाता है और जो कोविड-19 के हॉटस्पॉट भी हैं. दूसरी तरफ़ सिंगापुर, सियोल और हॉन्गकॉन्ग हैं जो भीड़-भाड़ वाले शहर तो हैं लेकिन इन्होंने कोविड-19 से लड़ाई में कम आबादी वाले शहरों को पीछे छोड़ दिया है जैसा कि टेबल 1 में दिखाया गया है.
टेबल 1: 28 मई 2020 तक अंतर्राष्ट्रीय शहरों में मामलों और मौतों की संख्या
जैसा कि टेबल 1 से पता चलता है सिंगापुर, सियोल और हॉन्गकॉन्ग में भीड़-भाड़ वाले दूसरे शहरों के मुक़ाबले न सिर्फ़ कोविड-19 के मरीज़ कम हैं बल्कि मृत्यु दर भी काफ़ी कम है. विश्व बैंक ने एक अध्ययन के तहत चीन के 284 शहरों का आंकड़ा इकट्ठा किया. इन आंकड़ों का आधार 10 हज़ार की आबादी पर कोविड-19 के मामले और शहरों में आबादी घनत्व थे. इस अध्ययन से पता चला कि काफ़ी ज़्यादा जनसंख्या घनत्व वाले शहर जैसे शंघाई, बीजिंग, शेंझान और झुहाई में 10 हज़ार की आबादी पर काफ़ी कम मामले थे. इसकी वजह ये है कि भीड़-भाड़ वाले शहरों में लोगों के पास पैसा बहुत ज़्यादा है और इसकी वजह से वो बेहतर ढंग से महामारी से लड़ने की हालत में हैं. नतीजतन यहां इन्फेक्शन रेट कम है. भारत में मुंबई, दिल्ली, चेन्नई, अहमदाबाद और इंदौर जैसे भीड़-भाड़ वाले शहर सबसे ज़्यादा प्रभावित 5 शहरों में शामिल हैं लेकिन राज्यों में भीड़-भाड़ वाले सभी शहरों में सबसे ज़्यादा मामले नहीं हैं. उदाहरण के तौर पर उत्तर प्रदेश में लखनऊ (343) के मुक़ाबले आगरा (873) में ज़्यादा मामले हैं.[1] ओडिशा में भीड़-भाड़ वाले शहर खुर्दा (110) के मुक़ाबले गंजाम (394) में ज़्यादा मामले हैं.
शहरों में ज़रूरी नहीं कि भीड़-भाड़ नकारात्मक लक्षण हो. एक रिपोर्ट के मुताबिक़ शहरों में भीड़-भाड़ से अर्थव्यवस्था का विकास होता है. जितनी ज़्यादा भीड़ होती है, कामगारों, कारोबार और सप्लाई चेन के हिस्से में उतनी कम दूरी होती है.
इस तरह जनसंख्या घनत्व और वायरस के फैलने के बीच एकतरफ़ा संबंध स्थापित नहीं किया जा सकता. अंतर्राष्ट्रीय कनेक्टिविटी, ख़राब सामाजिक और भौतिक ढांचा जो महामारी के फैलने में मददगार बनता है और अहम संस्थानों के बीच आंकड़ों और समन्वय में कमी- ये ऐसे पहलू हैं जिनकी वजह से कुछ शहरों में दूसरे शहरों के मुक़ाबले महामारी ज़्यादा फैली है.
शहरों में अवैध बस्तियों की देखभाल करना
पश्चिमी अफ्रीका में इबोला से प्रभावित शहरों के बारे में विश्लेषण से पता चलता है कि महामारी के फैलने से पहले भीड़-भाड़ वाली अवैध बस्तियों के घरों और उसकी सीमा के बारे में काफ़ी कम जानकारी थी. जानकारी के अभाव की वजह से न सिर्फ़ क्वॉरंटीन के उपायों पर असर पड़ा बल्कि संक्रमण की दर कम करने के लिए टेस्टिंग और स्वास्थ्य सुविधाओं की योजना बनाने पर भी प्रभाव पड़ा. इन बस्तियों में ख़राब आधारभूत ढांचा और WASH (वॉटर, सैनिटेशन और हाइजीन) की कमी ने यहां रहने वाले लोगों को वंचित किया और उन्हें बीमारी का आसान शिकार बनाया.
दुनिया भर के शहरों में एक अरब से ज़्यादा लोग अवैध बस्तियों और झुग्गियों में बिना उचित WASH सुविधाओं के रह रहे हैं. एक अनुमान के मुताबिक़ 3 अरब लोगों को 2030 तक सस्ते घरों की ज़रूरत पड़ेगी. वॉटरऐड की 2016 की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ शहरी घरों में व्यक्तिगत शौचालय के बिना रहने वाले लोगों के मामले में भारत पहले नंबर पर है. शहरों में 38.10 करोड़ की आबादी में 15.70 करोड़ लोगों के पास शौचालय की सुविधा नहीं है और अनुमानित 4.10 करोड़ लोगों के पास खुले में शौच करने के अलावा कोई चारा नहीं है.
महामारी का जवाब शहरी योजना के सिस्टम की बुनियाद पर तैयार होना चाहिए जिसमें लोगों की संख्या, घरों की संख्या, इलाक़े और ख़तरे वाले क्षेत्र का आंकड़ा होने के साथ-साथ WASH सुविधाओं की उपलब्धता शामिल हो. तैयारी और जवाब देने की योजना तब तक नहीं बनाई जा सकती जब तक ये पता न हो कि इलाक़े में कितने लोग रहते हैं और उनके लिए क्या सुविधाएं उपलब्ध हैं. शहरों में वैध-अवैध बस्तियों का ताज़ा आंकड़ा जुटाने के लिए मुहिम चलाना ज़रूरी है ताकि ये पता लगाया जा सके कि पर्याप्त खाने-पीने के सामान, घर, साफ़-सफ़ाई की सुविधाएं और वित्तीय सेवा मुहैया कराने में कितने फंड की ज़रूरत होगी. आधारभूत ढांचों के पहले से तैयार आंकड़े संकट के समय किसी इलाक़े को बेहतर ढंग से समझने के लिए भी महत्वपूर्ण हैं.
कार्यक्षेत्र में संपूर्ण बदलाव की वजह से शहरी इलाक़ों में अनौपचारिक श्रम के विशिष्ट रूप पर भी असर पड़ेगा. व्यावसायिक शहरों में ‘स्ट्रीट वेंडर्स’ होते हैं. उदाहरण के तौर पर मुंबई में नरीमन प्वाइंट और लोअर परेल के व्यावसायिक इलाक़ों में ‘स्ट्रीट वेंडर्स’ वाले इलाक़े हैं जहां आस-पास काम करने वाले लोग खाना खाने के लिए आते हैं. ऑफिस स्पेस में कमी और सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों की वजह से भविष्य में वर्क फ्रॉम होम की नीतियों के कारण ऐसे ‘स्ट्रीट वेंडर्स’ की संख्या में कमी होगी.
मौजूदा समय में भारत में क़रीब 1 करोड़ हॉकर हैं. स्ट्रीट वेंडर्स (प्रोटेक्शन ऑफ लाइवलीहुड एंड रेगुलेशन ऑफ स्ट्रीट वेंडिंग) एक्ट में इन गतिविधियो को क़ानूनी रूप दे दिया गया है. इस क़ानून के तहत अस्थायी वेंडिंग ज़ोन बनेंगे जहां ये हॉकर अपना काम कर सकेंगे. भविष्य में इस तरह की शहरी योजना में सोशल डिस्टेंसिंग के विषय को भी शामिल करना होगा. हालांकि कुछ अनौपचारिक हॉकर को काम-काज से हाथ धोना पड़ेगा लेकिन रोज़गार के व्यापक नुक़सान से बचने के लिए सोशल डिस्टेंसिंग और सुरक्षा उपायों को मानने वाले सुरक्षित वेंडिंग ज़ोन की शुरुआत की जा सकती है.
शहरों में सामाजिक आधारभूत ढांचा
सर्विस इंडस्ट्री पर कोविड के असर को लेकर मैकेंज़ी की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ जहां एयरलाइंस इंडस्ट्री को प्लेन बंद करने पड़े, हैंडलिंग और देखभाल की गतिविधियां कम करनी पड़ी वहीं इस दौरान उनके कस्टमर केयर सेंटर काफ़ी व्यस्त रहे. इसी तरह जहां बैंकों की ब्रांच ने अपने काम-काज के घंटे घटाए वहीं उनके कॉल सेंटर का काम बढ़ गया.
इससे संकेत मिलता है कि कोविड-19 की वजह से एक नये तरह के जॉब की शुरुआत होगी जो सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों में फिट हों. हेल्थ प्रोफेशनल के लिए हेल्पलाइन, मानवीय संपर्क पर निर्भर उद्योगों के लिए साफ़-सफ़ाई की समिति और प्रवासियों के प्रबंधन के लिए नये विभाग शहरों में पहले ही शुरू हो चुके हैं. महामारी के नकारात्मक असर पर रोक लगाने के लिए ये जॉब ज़रूरी होंगे.
रक्षात्मक डिज़ाइनिंग का भविष्य
शहरों की रक्षात्मक डिज़ाइनिंग पहले से प्रचलन में है. इसका मक़सद लोगों की असुविधा और कष्ट को ध्यान में रखते हुए ‘रक्षात्मक आधारभूत ढांचे’ की डिज़ाइनिंग करना है ताकि मटरगश्ती पर रोक लगे, अपराध कम हो और सार्वजनिक संपत्ति को नुक़सान से बचाया जा सके. भविष्य में इस तरह की डिज़ाइनिंग में ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ को भी शामिल किया जाएगा.
पूरे न्यूयॉर्क में पार्क की बेंच में हाथ रखने के लिए अटपटी जगह, स्ट्रीट फर्नीचर में पीछे कम जगह और झुकने का स्थान देखा जा सकता है. वहीं लंदन में ‘कैमडेन बेंच’ हैं जो कंक्रीट की एकतरफ़ा बेंच होती हैं. भविष्य की महामारी से बेहतर ढंग से बचने के लिए सोशल डिस्टेंसिंग की बढ़ती ज़रूरत को देखते हुए ये डिज़ाइन आने वाले समय में काम आ सकते हैं. लेकिन इन डिज़ाइन के साथ-साथ शहरों की बेघर आबादी को जगह देने की योजना पर भी काम करना होगा. अमेरिका के आवास और शहरी विकास विभाग के मुताबिक़ न्यूयॉर्क में फुटपाथ पर क़रीब 80 हज़ार बेघर रहते हैं.
2011 की जनगणना के मुताबिक़ भारत में 17.70 लाख बेघर हैं जिनमें से 57,416 मुंबई में रहते हैं. अगर शहरी योजना बनाने वाले और प्रशासनिक अधिकारी चाहते हैं कि सार्वजनिक जगह बेघर लोगों से मुक्त रहे तो ज़रूरी है कि इन लोगों को बुनियादी सुविधा के साथ घर मुहैया कराया जाए.
शहरों में विशाल अवैध बस्तियों की समस्या का निपटारा काफ़ी मुश्किल काम है जो तुरंत नहीं सुलझेगा. इसलिए शहरों की योजना बनाते वक़्त बेहतर डाटा मैनेजमेंट को शामिल किया जाना चाहिए ताकि भविष्य की महामारियों के घातक असर को कम किया जा सके. असरदार समन्वय के साथ ये जानकारी ज़रूरतमंद लोगों के लिए अनिवार्य सेवाओं की तैनाती में अहम होंगे.
[1] Coronavirus cases as of 28th May 2020
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