Published on Jun 11, 2021 Updated 0 Hours ago

वैसे तो असम और बंगाल, दोनों ही राज्यों में ध्रुवीकरण की फ़सल काटने की उर्वर ज़मीन तैयार है. फिर भी, दोनों ही राज्यों के चुनाव के नतीजे बिल्कुल ही अलग आए. 

ध्रुवीकरण की प्रासंगिकता: बंगाल और असम में चुनाव के नतीजों का विश्लेषण

हाल ही में हुए बंगाल और असम विधानसभा चुनाव की सबसे प्रमुख बात इसमें प्रचार के लिए ध्रुवीकरण का इस्तेमाल और उसकी अलग-अलग स्तर पर सफलता रही है. दोनों ही राज्यों में राजनीतिक प्रचार में बड़े पैमाने पर विभाजनकारी बयानबाज़ी का हो-हल्ला रहा. चुनाव में जीत के लिए, मज़हबी और जातीय राजनीति के नुस्खों और राजनीतिक हिंसा के कॉकटेल को आज़माया गया. पर चूंकि, दोनों ही राज्यों में ध्रुवीकरण के लिए बिल्कुल उचित ज़मीन पहले से ही तैयार थी- जैसे कि बड़ी संख्या में अल्पसंख्यक आबादी का होना, सीमा पार से अप्रवासियों और शरणार्थियों की अवैध घुसपैठ का लंबा इतिहास, लंबे समय से चले आ रहे जातीय पहचान और सांप्रदायिक संघर्ष के मुद्दे- ऐसे में सभी को ये जानने की उत्सुकता थी कि ध्रुवीकरण को प्रचार अभियान का प्रमुख हथियार बनाना कितना प्रभावी होता है.

यहां ये बात ध्यान देने लायक़ है कि ध्रुवीकरण, जो तमाम धुरियों (धार्मिक, वैचारिक, जातीय, सामाजिक) पर हो सकता है, वो ज़्यादातर लोकतांत्रिक देशों में पहले से ही एक प्रमुख गुण रहा है. इस ध्रुवीकरण की जड़ें समाज में लंबे समय से चले आ रहे विभाजन में छुपी होती हैं. राजनीतिक दल, नेता और चुनाव का प्रबंधन करने वाली एजेंसियां तक चुनावी फ़ायदे के लिए ध्रुवीकरण का इस्तेमाल करती आई हैं. दुनिया ने देखा था कि 2016 के अमेरिकी चुनाव में किस तरह डॉनाल्ड ट्रंप ने ध्रुवीकरण वाले उत्तेजक बयानों से अभूतपूर्व राजनीतिक लाभ उठाया था. इसी तरह, ब्रिटेन में ब्रेग्ज़िट अभियान को ध्रुवीकरण के ज़रिए आगे बढ़ाया गया. हमने ध्रुवीकरण की राजनीति की ऐसी ही उठा-पटक दुनिया के अन्य बड़े लोकतंत्रों, जैसे कि ब्राज़ील, तुर्की, पोलैंड, इंडोनेशिया और भारत जैसे देशों में भी देखी है.

राजनीतिक दल, नेता और चुनाव का प्रबंधन करने वाली एजेंसियां तक चुनावी फ़ायदे के लिए ध्रुवीकरण का इस्तेमाल करती आई हैं. 

भारत में आज़ादी के बाद से ही ज़्यादातर राजनीतिक दल, ध्रुवीकरण को एक राजनीतिक लाभ के हथियार के तौर पर प्रयोग करते आए हैं; उदाहरण के लिए, कांग्रेस की इंदिरा गांधी ने ‘संकट की राजनीति’ का शानदार तरीक़े से इस्तेमाल करते हुए मतदाताओं को विभाजित किया था. हालांकि, पिछले कुछ दशकों के दौरान भारतीय जनता पार्टी (BJP) राजनीतिक ध्रुवीकरण का बहुत चालाकी से इस्तेमाल करते हुए अपनी ताक़त और प्रभाव का विस्तार किया है. 1984 में संसद में बीजेपी की हैसियत लगभग शून्य थी. लेकिन, 1991 में भारतीय जनता पार्टी संसद के भीतर दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बन गई. इस कामयाबी की सबसे बड़ी वजह धार्मिक ध्रुवीकरण ही थी. बीजेपी के ज़बरदस्त उभार का सबसे बड़े कारण राम जन्मभूमि आंदोलन और लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा ही थे. ध्रुवीकरण की इस राजनीति के कारण ही बीजेपी ने 1996, 1998 और 1999 में केंद्र में सरकार बनाई. बहुत से विश्लेषकों का मानना है कि 2014 में केंद्र की सत्ता में बीजेपी की अभूतपूर्व वापसी और अकेले अपने बूते पर पूर्ण बहुमत हासिल करना भी काफ़ी हद तक हिंदी भाषी राज्यों में ध्रुवीकरण के हथियार का इस्तेमाल करके हिंदू वोटों को एकजुट करने के कारण ही संभव हो सका था.

2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बीजेपी की अभूतपूर्व चुनावी जीत का श्रेय, बहुत से विश्लेषक हिंदू मतदाताओं को सफलता से एकजुट करने को ही देते हैं. इसका सबसे स्पष्ट सबूत उस समय राज्य की सत्ताधारी समाजवादी पार्टी (SP) और एक समय में राजनीतिक रूप से बेहद शक्तिशाली रही बहुजन समाज पार्टी (BSP) के बेहद ख़राब प्रदर्शन के रूप में देखने को मिला था. इन दोनों पार्टियों के परंपरागत मतदाता (यादव और जाटव मतदाताओं को छोड़कर) ने उनका साथ छोड़ दिया और बीजेपी के पाले में चले गए थे. अपने पारंपरिक गढ़ एटा में समाजवादी पार्टी चारों विधानसभा सीटें हार गई थी.

बंगाल का उदाहरण 

बीजेपी ने उम्मीद लगाई थी कि वो इस साल के बंगाल विधानसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश की सफलता को दोहरा सकेगी. इसकी बड़ी वजह 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी का ज़बरदस्त प्रदर्शन थी. 2014 में बीजेपी, बंगाल में केवल दो लोकसभा सीटें जीत सकी थी. लेकिन, 2019 के आम चुनाव में बीजेपी ने राज्य में 18 लोकसभा सीटें जीतीं और 40 प्रतिशत वोट हासिल किए थे. 2019 के आम चुनाव के नतीजों की सबसे महत्वपूर्ण बात ये थी कि, बंगाल में बीजेपी बहुसंख्यक हिंदू समुदाय के 57 प्रतिशत वोट (सारणी 1 देखें) हासिल करने में सफल रही थी.

बीजेपी ने बंगाल में ऐसे विभिन्न समुदायों के बीच पैठ बनाने की कोशिश की, जो सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस (TMC) से नाख़ुश थे. ये सनसनीख़ेज़ जीत हासिल करने के लिए बीजेपी ने अपने बार-बार सफल साबित हो चुके हथियार यानी ध्रुवीकरण का इस्तेमाल किया. ध्रुवीकरण के इस हथियार से बीजेपी ने अन्य राज्यों में मिली जुली सफलता हासिल की थी. इसे और धारदार बनाते हुए हिंदू समुदाय की आक्रामकता को पुरज़ोर तरीक़े से प्रस्तुत किया. राम नवमी और हनुमान जयंती जैसे आयोजन किए और हिंदुत्व के संदेश को घर घर पहुंचाने के लिए कई संगठन लगाए गए. अपने मिशन में उन्हें इस धारणा से और भी मदद मिली कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीतिक करती हैं. जैसे कि वो मुस्लिम धर्मगुरुओं को विशेष भत्ते देती हैं और उनकी पार्टी ट्रिपल तलाक़ जैसे मुद्दे पर मुस्लिम रूढ़िवादियों के साथ खड़ी हुई थी. तृणमूल कांग्रेस द्वारा मुस्लिम तुष्टिकरण की इस क़दर हवा बनी कि ममता बनर्जी सरकार की कल्याणकारी नीतियां और सार्वजनिक हित के लिए उठाए गए क़दमों को भी मुसलमानों को तरज़ीह देने और हिंदुओं को हितों को नुक़सान पहुंचाने वाला माना जाने लगा. इससे भी एक क़दम आगे बढ़कर बीजेपी ने बंगाल में नागरिकता संशोधन क़ानून (CAA) लागू करके उन हिंदू दलितों को स्थायी नागरिकता देने का वादा किया, जो चुनावी रूप से बेहद महत्वपूर्ण हैं. ऐसा लगता है कि बीजेपी के ये प्रयास दोनों चुनावों में सफल रहे हैं. फिर चाहे वो 2019 के लोकसभा चुनाव हों या इस साल के विधानसभा चुनाव. दोनों ही बार, बीजेपी ने बंगाल की अंतरराष्ट्रीय सीमा के आस-पास के ज़िलों में बहुत अच्छा प्रदर्शन किया है. 

ऐसा लगता है पार्टी का बीजेपी को बाहरी बताने के तर्क ने भी ममता बनर्जी को तीसरी बार ज़बरदस्त चुनावी जीत दिलाने में अहम भूमिका निभाई.

पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव की तारीख़ों का एलान होने के साथ ही, बीजेपी ने अपने ध्रुवीकरण के हथियार की धार और तेज़ कर दी, जिससे वो आक्रामक तरीक़े से मतदाताओं को धार्मिक और जातीय आधार पर एकजुट कर सके. यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मार्च में बांग्लादेश जाकर मतुआ समुदाय के हिंदुओं को रिझाने का प्रयास किया. इसी तरह बीजेपी ने ये भय खड़ा करने की भी कोशिश की कि तृणमूल कांग्रेस अपनी तुष्टिकरण की नीति से पश्चिम बंगाल को पश्चिमी बांग्लादेश बना देंगी. बीजेपी के नेताओं ने ममता बनर्जी को ‘बेग़म’ कहकर बुलाना शुरू कर दिया. ज़ाहिर है, तृणमूल कांग्रेस ने भी बीजेपी पर ज़ोरदार पलटवार करते हुए पार्टी के नेताओं को ‘बाहरी’ कहकर उन्हें बंगाली संस्कृति के लिए ख़तरा बताना शुरू कर दिया. ममता बनर्जी ने अपने हिंदू होने का सबूत पेश करते हुए सॉफ्ट हिंदुत्व को अपना हथियार बनाया और वो मंदिरों में जाने लगीं. मंत्रोच्चार करने लगीं. संक्षेप में कहें तो बंगाल का चुनाव अभियान कुछ ज़्यादा ही ध्रुवीकृत हो गया था.

ध्रुवीकरण की पूरी ताक़त लगा देने के बावजूद, बीजेपी बंगाल की सत्ता में आ पाने में सफल नहीं हुई. बीजेपी न केवल 100 सीटों का आंकड़ा छूने में नाकाम रही, बल्कि, उसका वोट प्रतिशत भी घटकर 38 ही रह गया. जबकि, तृणमूल कांग्रेस ने पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ते हुए 48 फ़ीसद वोट हासिल किए. बीजेपी ने बंगाल में 2019 के आम चुनाव के दौरान हिंदू वोटों का जो ध्रुवीकरण किया था, वो भी विधानसभा में बिखर गया. सेंटर फॉर स्टडी ऑफ़ डेवेलपिग सोसाइटीज़ (CSDS) के चुनाव बाद कराए गए सर्वे के आंकड़ों (सारणी 1 देखें) के मुताबिक़, 2019 में जहां बीजेपी को कुल हिंदू वोटों का 57 प्रतिशत हिस्सा हासिल हुआ था. वहीं, 2021 के विधानसभा चुनाव में उसे केवल 50 प्रतिशत हिंदू वोट ही मिले. इस सर्वे के अनुसार, बीजेपी के हिंदू वोटों में सात प्रतिशत की गिरावट और मुस्लिम मतदाताओं के ज़बरदस्त समर्थन (जो राज्य की कुल आबादी का 30 प्रतिशत हैं) की मदद से ही तृणमूल कांग्रेस, बंगाल में केसरिया विजय रथ को रोक सकी.

सवाल ये है कि आख़िर विधानसभा चुनाव में ध्रुवीकरण का दांव क्यों नहीं चला?

कुछ विश्लेषकों के अनुसार, ज़मीनी स्तर पर ध्रुवीकरण का असर कई कारणों से कमज़ोर पड़ गया. जैसे कि भ्रष्टाचार के तमाम आरोपों के बावजूद, ममता बनर्जी की लोकप्रियता बनी हुई है. इसके अलावा ममता बनर्जी की कल्याणकारी योजनाएं, महिला मतदाताओं का तृणमूल कांग्रेस को समर्थन, कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर से हुई तबाही और राज्य स्तर पर बीजेपी के पास किसी विश्वसनीय चेहरे के न होने से तृणमूल कांग्रेस को बढ़त मिली. इसके अतिरिक्त, तृणमूल कांग्रेस ने बंगाली अस्मिता (सांस्कृतिक गौरव) को लेकर बेहद आक्रामक प्रचार अभियान चलाया. ऐसा लगता है पार्टी का बीजेपी को बाहरी बताने के तर्क ने भी ममता बनर्जी को तीसरी बार ज़बरदस्त चुनावी जीत दिलाने में अहम भूमिका निभाई.

इसके बावजूद, सवाल ये पूछा जाना चाहिए कि, ‘कमज़ोर तबक़े के हिंदुत्व पर व्यापक चर्चा और पूरब के राज्य में बीजेपी के ज़बरदस्त उभार के बावजूद, क्या बंगाल के चुनाव में ध्रुवीकरण एक निर्णायक कारक था?’ इस सवाल के अधिक ठोस जवाब के लिए आइए एक नज़र 2019 और 2021 के चुनाव में बीजेपी के मुख्य मतदाता वर्ग पर एक नज़र डालते हैं, और ये देखने की कोशिश करते हैं कि क्या वो हिंदुत्व की अपील के चलते बीजेपी के साथ गए थे या इसकी कोई और वजह थी.

असम में बीजेपी लगातार दो बार विधानसभा चुनाव जीतने में सफल रही है. बीजेपी की इस जीत को कुछ विश्लेषक, पार्टी द्वारा ध्रुवीकरण के हथियार के प्रभावी इस्तेमाल का नतीजा बताया है. 

इस बात के पर्याप्त सबूत हैं, जो ये इशारा करते हैं कि बीजेपी, जो केंद्र में सरकार चला रही है और जिसकी पूर्वोत्तर भारत में व्यापक पहुंच है, उसे सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस की असली प्रतिद्वंदी के रूप में देखा गया. कुछ विश्लेषक इसका श्रेय, 2018 के पंचायत चुनाव के बाद लेफ्ट और कांग्रेस के समर्थकों के बड़ी तादाद में बीजेपी में शामिल होने को देखते हैं. उस चुनाव में तृणमूल कांग्रेस के समर्थकों ने अभूतपूर्व हिंसा की थी. बहुत से लोग ये मानते हैं कि इसी के कारण तृणमूल कांग्रेस ने पंचायत की एक तिहाई सीटें बिना किसी मुक़ाबले के जीत ली थीं. इसके अतिरिक्त, तृणमूल कांग्रेस सरकार द्वारा अंफन तूफ़ान का कुप्रबंधन और कल्याणकारी योजनाओं को लागू करने में भ्रष्टाचार (कट मनी) ने बहुत से मतदाताओं को बीजेपी के पाले में जाने को मजबूर कर दिया. इसका बात का सबसे स्पष्ट सबूत 2019 के आम चुनाव के दौरान तमाम दलों के प्रदर्शन से मिलता है. उस चुनाव में बीजेपी ने नाटकीय ढंग से अपना वोट प्रतिशत बढ़ाकर 40.25 और सीटों की संख्या 18 तक पहुंचा ली. वहीं, एक ज़माने में बंगाल में एकछत्र राज करने वाले वामपंथी गठबंधन का खाता तक नहीं खुला था. कांग्रेस भी उस चुनाव में केवल दो सीट जीत सकी थी.

संक्षेप में कहें तो बीजेपी अगर तृणमूल कांग्रेस की मुख्य प्रतिद्वंदी बनकर उभरी, तो इसकी वजह हिंदू वोटों का एकजुट होना या ध्रुवीकरण नहीं थी. प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता, बीजेपी का ग्रामीण क्षेत्रों में पहुंच बनाने का व्यापक अभियान और तृणमूल कांग्रेस को चुनौती दे सकने की उसकी आकर्षक छवि ने ही राष्ट्रीय चुनावों में बीजेपी की क़िस्मत बदली थी. हालांकि, विधानसभा चुनावों में मतदाता स्थानीय स्तर पर विश्वसनीय चेहरे को तलाश रहे थे. ऐसे में सत्ताधारी पार्टी का सार्वजनिक हित के कार्यक्रम चलाना और अन्य स्थानीय बातें उसके पक्ष में गईं. बंगाल के विधानसभा चुनाव के नतीजे मोटे तौर पर उसी राष्ट्रीय प्रवृत्ति का दोहराव लगते हैं, जिसमें राज्यों के सत्ताधारी दल, राष्ट्रीय चुनाव में तो एक राष्ट्रीय दल से हार जाते हैं. लेकिन, विधानसभा चुनावों में वो राष्ट्रीय दलों की चुनौती का प्रभावी ढंग से सामना करते हैं. चुनावों के इस दोहरे आयाम की अच्छी मिसाल दिल्ली के अरविंद केजरीवाल और ओडिशा के नवीन पटनायक भी हैं.

असम में बीजेपी का ध्रुवीकरण ‘असरदार’ रहा?

असम में बीजेपी लगातार दो बार विधानसभा चुनाव जीतने में सफल रही है. बीजेपी की इस जीत को कुछ विश्लेषक, पार्टी द्वारा ध्रुवीकरण के हथियार के प्रभावी इस्तेमाल का नतीजा बताया है. ध्रुवीकरण की मदद से बीजेपी असम में हिंदू वोटों को एकजुट करने में सफल रही है. हालांकि, असम के चुनाव प्रचार के दौरान मुख्य विषय बांग्लादेश से अवैध घुसपैठ रहा था. लेकिन, नागरिकता के राष्ट्रीय रजिस्टर (NRC) और नागरिकता संशोधन क़ानून (CAA) से जुड़े विवादों के चलते बीजेपी, असम के ‘स्थानीय समुदायों’ के कड़े विरोध का सामना कर रही थी. असम की कई स्थानीय जनजातियां इन क़दमों का विरोध कर रहे हैं. हालांकि, समीक्षक ये मानते हैं कि बीजेपी, इस बार असम के चुनाव अभियान में ‘मूल निवासी बनाम बाहरी’ के मुद्दे को धार्मिक रंग देकर अपने हक़ में करने में सफल रही. बीजेपी के नेतृत्व वाले गठबंधन को मतदाताओं के सामने ये बात रखने में प्रभावी रूप से सफलता हासिल हुई कि बंगाली बोलने वाले मुस्लिम अप्रवासी एक ‘ख़तरा’ हैं. वहीं, पार्टी बंगाली मूल के हिंदू अप्रवासियों को अपने साथ जोड़े रखने में कामयाब हुई. बीजेपी ने पहले की मांग में बदलाव करते हुए मौजूदा NRC में ‘सुधार’ की मांग उठाई, क्योंकि कहा जा रहा है कि NRC में बड़ी संख्या में हिंदुओं को भी बाहर रखा गया है.

समीक्षकों के अनुसार, असम में ध्रुवीकरण का सबसे बड़ा बिंदु ये था कि यहां तृणमूल कांग्रेस के उलट, बीजेपी की मुख्य प्रतिद्वंदी कांग्रेस ने बदरुद्दीन अजमल के ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (AIUDF) के साथ गठबंधन कर लिया था. जबकि तृणमूल कांग्रेस ने किसी भी अल्पसंख्यक समुदाय वाले दल या धार्मिक संगठन से चुनावी समझौता नहीं किया था. बीजेपी ने कांग्रेस के नेतृत्व वाले महाजोत के ख़िलाफ़ ज़बरदस्त हमले किए. ख़ास तौर से उसने अजमल की पहचान और उनके बांग्लादेश से संबंधों को निशाने पर लिया. बीजेपी ने महाजोत की ये कहकर आलोचना की कि वो असम के हिंदुओँ के मुक़ाबले में अपने समर्थक बांग्लादेशी मुसलमानों के हितों को तरज़ीह दे रही है. बीजेपी ने अपने प्रचार अभियान के दौरान असमिया हिंदुओं को चेतावनी दी कि कांग्रेस की महाजोत केवल राज्य की 35 प्रतिशत मुस्लिम आबादी के लिए काम करेगी. पार्टी ने ये आरोप बी लगाया कि बंगाली मुस्लिम अप्रवासी या मियां लोग ‘असमिया लोगों के लिए ख़तरा’ हैं और उनकी ‘संस्कृति के लिए चुनौती’ हैं. हालांकि, बीजेपी की ध्रुवीकरण वाली राजनीति का सबसे ख़ास पहलू ये था कि उसके तहत AIUDF के प्रमुख बदरुद्दीन अजमल पर उनके ‘पहनावे, टोपी और दाढ़ी’ को लेकर लगातार हमले किए गए.

सारणी 2: असम में पिछले दो विधानसभा चुनावों में हिंदू मुस्लिम वोट की हिस्सेदारी

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महाजोत को वोट दिया (%) एनडीए को वोट दिया (%) वोट एजेपी-आरडी गठबंधन (%) दूसरों को वोट दिया
2016 2021 2016 2021 2021 2016 2021
हिंदू 32 19 57 67 7 1 1 8
मुस्लिम 77 81 6 1 1 2 18 6
अन्य 48 36 39 48 9 13 7

*स्रोत: सीएसडीएस-लोकनीति

विश्लेषक मानते हैं कि ध्रुवीकरण और हिंदुत्व से बीजेपी गठबंधन को ज़बरदस्त चुनावी फ़ायदा हुआ है, क्योंकि गठबंधन ने उस ऊपरी असम इलाक़े में बहुत अच्छा प्रदर्शन किया, जहां असमिया हिंदुओं का प्रभाव अधिक है. बीजेपी, असम विधानसभा की 126 में से 75 सीट जीतकर अपनी सत्ता बचाने में बहुत आसानी से सफल रही. ध्रुवीकरण से बदरुद्दीन अजमल की पार्टी AIUDF को भी काफ़ी लाभ हुआ, उसने 20 में से 16 सीटें जीत लीं. वहीं, ध्रुवीकरण के इस खेल में सबसे ज़्यादा नुक़सान कांग्रेस को हुआ. जबकि एक वक़्त ऐसा लग रहा था कि असम में कांग्रेस, बीजेपी को सत्ता से बाहर करने की सबसे मज़बूत दावेदार है.

विश्लेषक मानते हैं कि ध्रुवीकरण और हिंदुत्व से बीजेपी गठबंधन को ज़बरदस्त चुनावी फ़ायदा हुआ है, क्योंकि गठबंधन ने उस ऊपरी असम इलाक़े में बहुत अच्छा प्रदर्शन किया, जहां असमिया हिंदुओं का प्रभाव अधिक है. 

फिर भी बुनियादी प्रश्न यही है कि- क्या ये केवल ध्रुवीकरण और हिंदू वोटों की एकजुटता ही थी, जिसने असम में बीजेपी को लगातार दूसरी बार सत्ता दिलाई या फिर पार्टी की इस जीत के पीछे अन्य कारण भी हैं? अगर हम उपलब्ध सबूतों की गहराई से पड़ताल करें, तो दूसरी ही तस्वीर नज़र आती है. ऊपरी असम में तो ध्रुवीकरण से बीजेपी को ज़रूर फ़ायदा हुआ, लेकिन राज्य के अन्य इलाक़ों में बीजेपी ने अपनी जीत के लिए कई अन्य बातों को आधार बनाया; कल्याणकारी योजनाएं, कुछ ज़्यादा ही लोक-लुभावन नीतियां और मज़बूत व विश्वसनीय स्थानीय चेहरे, विशेष रूप से बीजेपी के लिए हर समस्या का समाधान तलाशने वाले हिमंता बिस्वा सरमा (कांग्रेस के पास ऐसे किसी नेता का अभाव था) ने एक प्रभावशाली प्रचार अभियान चलाया और उपयोगी चुनाव पूर्व गठबंधन किए. इन सबकी मदद से बीजेपी ने नागरिकता संशोधन क़ानून के विरोध के चलते पैदा हुई अनिश्चितता से पार पाने में सफलता प्राप्त की. बीजेपी ने छठवीं अनुसूची में आने वाले तीन इलाक़ों- बोडो टेरिटोरियल काउंसिल (BTC) कार्बी ऑटोनॉमस काउंसिल और दिमा हसाओ को नागरिकता संशोधन क़ानून से छूट देने का एलान करने में ज़रा भी देर नहीं की. और आख़िर में, बीजेपी ने अपने विकास के रिकॉर्ड को भुनाने में भी पूरी ताक़त लगाई. पार्टी ने बेहद लोकप्रिय योजनाओं जैसे कि उरुनदाई (चाय बागानों के आदिवासियों को लुभाने के लिए) आरोग्य निधि को लागू किया था.

निष्कर्ष

एक दूसरे से लगे बंगाल और असम के विधानसभा चुनावों के नतीजे उन लोगों के लिए कई निष्कर्ष उपलब्ध कराते हैं, जो ध्रुवीकरण को राजनीतिक प्रचार अभियान का एक धारदार हथियार बनाने की संभावनाएं तलाशना चाहते हैं. वैसे तो असम और बंगाल, दोनों ही राज्यों में ध्रुवीकरण की फ़सल काटने की उर्वर ज़मीन तैयार है. फिर भी, दोनों ही राज्यों के चुनाव के नतीजे बिल्कुल ही अलग आए. बीजेपी, जिसने 2016 के चुनाव के दौरान ध्रुवीकरण के राजनीतिक हथियार का बख़ूबी इस्तेमाल करते हुए, असम में सत्ता हासिल की थी. उसे इस बार के चुनाव में सत्ता बचाने के लिए अपने उस हथियार को नया रंग रूप देना पड़ा और अन्य तरीक़ों का भी इस्तेमाल करना पड़ा. वहीं, बंगाल में ध्रुवीकरण वाले प्रचार अभियान को जनता ने पुरज़ोर तरीक़े से नकार दिया. इसकी बड़ी वजह स्थानीय स्तर पर इसे चुनौती देने वाले एक विश्वसनीय चेहरे के होने के साथ साथ चुनावी मैदान में प्रतिद्वंदिता के अन्य कारण भी थे. इससे एक निष्कर्ष तो ये निकलता है कि ध्रुवीकरण का राजनीतिक अस्त्र उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में तो शायद प्रभावी साबित हो, लेकिन ये बंगाल में भी काम करे, ऐसा ज़रूरी नहीं. भले ही इसके इस्तेमाल का उचित माहौल राज्य में क्यों न मौजूद हो. इसके अलावा, असम की मिसाल से साबित हो गया है कि अब ध्रुवीकरण के हथियार से चुनावी जीत की गारंटी कम होती जा रही है.

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