Author : Sameer Patil

Published on Jul 28, 2022 Updated 0 Hours ago

भारत रक्षा अनुसंधान से जुड़े अपने प्रयासों में पंख लगाना चाहता है. इसके लिए दूसरे हिस्सेदारों तक इन क़वायदों का विस्तार करने के साथ-साथ अन्य देशों के अनुसंधान और विकास कार्यों से जुड़ाव तैयार करना होगा.

भारत में रक्षा अनुसंधान की रफ़्तार बढ़ाना ज़रूरी

यूक्रेन में जारी टकराव के चलते रूसी एयरोस्पेस उद्योग पर पश्चिमी देशों की ओर से तकनीकी प्रतिबंध आयद कर दिए गए. नतीजतन रूसी रक्षा उत्पाद और आपूर्ति श्रृंखला में ज़बरदस्त संकट पैदा हो गया. इस वाक़ये से रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनने की ज़रूरत नए सिरे से रेखांकित हुई है. भारत रक्षा पर खर्च करने वाला दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा देश है. 2017 और 2021 में हथियारों के वैश्विक व्यापार में भारत का हिस्सा तक़रीबन 11 फ़ीसदी रहा. भारत मुख्य रूप से रूस, इज़राइल और फ़्रांस से रक्षा सामग्रियों का आयात करता है. हथियारों के आयात की ये क़वायद भारत की रक्षा अनुसंधान प्रणाली की ख़ामियों को बेपर्दा करती है. प्रमुख सैन्य ताक़तों के मुक़ाबले भारत में रक्षा शोध के क्षेत्र में पूरी क्षमता का इस्तेमाल नहीं किया जा सका है. राष्ट्रीय स्तर पर अनुसंधान और विकास (R&D) की क़वायद को बढ़ावा देने के लिए सरकार कई क़दम उठा रही है. इस काम में निजी क्षेत्र और स्टार्ट-अप्स को भी जोड़ा जा रहा है. दूसरे देशों के रक्षा शोध और विकास तंत्र के साथ ज़्यादा से ज़्यादा संपर्क बनाकर और फ़ंडिंग से जुड़े नए-नए तौर-तरीक़े अपनाने से इन प्रयासों को बल मिलेगा. इससे रक्षा-औद्योगिक क्षमताओं के विस्तार में भी मदद मिलेगी.

राष्ट्रीय स्तर पर अनुसंधान और विकास (R&D) की क़वायद को बढ़ावा देने के लिए सरकार कई क़दम उठा रही है. इस काम में निजी क्षेत्र और स्टार्ट-अप्स को भी जोड़ा जा रहा है. दूसरे देशों के रक्षा शोध और विकास तंत्र के साथ ज़्यादा से ज़्यादा संपर्क बनाकर और फ़ंडिंग से जुड़े नए-नए तौर-तरीक़े अपनाने से इन प्रयासों को बल मिलेगा. 

रक्षा अनुसंधान के क्षेत्र में जद्दोजहद करता हिंदुस्तान

रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (DRDO) रक्षा शोध और विकास के क्षेत्र में भारत की प्रमुख इकाई है. ये संस्था स्थानीय स्तर पर नई तकनीकों के विकास में केंद्रीय किरदार के रूप में काम करती है. DRDO के पास 50 से ज़्यादा प्रयोगशालाएं हैं. ये शिक्षण संस्थाओं (सेंटर्स फ़ॉर एक्सिलेंस के ज़रिए), रक्षा क्षेत्र की सार्वजनिक इकाइयों (जैसे हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड), राष्ट्रीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी संस्थाओं (जैसे वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद), निजी क्षेत्र और अंतरराष्ट्रीय भागीदारों के साथ मिलकर काम करती है.

बहरहाल, इतनी अहमियत दिए जाने के बावजूद DRDO भारतीय सेना के इस्तेमाल के लिए ज़रूरी अत्याधुनिक तकनीक के विकास में पूरी तरह से कामयाब नहीं हो सका है. इस सिलसिले में सबसे जाना-माना उदाहरण अर्जुन टैंक का है. 1974 में 15.50 करोड़ रु के बजट पर इस टैंक के विकास की परिकल्पना की गई थी. बहरहाल 2004-05 में पहली बार ये टैंक सेना के सुपुर्द हुआ, हालांकि तब तक इसकी संरचना पुरानी (outdated) हो चुकी थी. इस सिलसिले में एक और बात ग़ौर करने लायक़ है. भले ही इस टैंक को ‘मेड इन इंडिया’ उत्पाद के तौर पर प्रचारित किया गया लेकिन इसमें इस्तेमाल होने वाले 69 फ़ीसदी कल-पुर्जे विदेशी विक्रेताओं से हासिल किए गए. इसके विकास में इतना लंबा समय लगा कि भारतीय सेना को अपने हथियारबंद बेड़े में आई कमी को दूर करने के लिए रूस से T-90 टैंक ख़रीदने पड़े. कुछ अन्य उदाहरणों से DRDO के लचर प्रदर्शन की झलक मिलती है (टेबल 1 देखें).

टेबल 1: DRDO की प्रमुख परियोजनाओं की मौजूदा स्थिति

परियोजना लॉन्च/मंज़ूरी का साल मौजूदा स्थिति
हवा से हवा में मार करने वाली एस्ट्रा मिसाइल 2004

पहली पीढ़ी के एस्ट्रा-एमके-1 का निर्माण 2017 में शुरू हुआ;

आगे चलकर इसे भारतीय वायु सेना में शामिल किया गया

हल्के लड़ाकू विमान तेजस 1983 फ़रवरी 2019 में ऑपरेशन की अंतिम मंज़ूरी मिली; 2016 में वायु सेना की पहली स्क्वैड्रन तैयार हुई
अर्जुन मुख्य युद्धक टैंक 1974 2004 में भारतीय सेना में शामिल; अगली पीढ़ी के संस्करणों एमके-Iए और एमके-II के परीक्षण जारी
बैलेस्टिक मिसाइल रक्षा 1999 अधिकारियों का दावा है कि ये कार्यक्रम पूरा हो चुका है. दिल्ली के लिए इसकी तैनाती की मंज़ूरी की क़वायद जारी है.
नाग टैंक-रोधी गाइडेड मिसाइल 1983 कई बार परीक्षण के बावजूद सेना में शामिल किया जाना अभी बाक़ी
एडवांस्ड टोड आर्टिलरी गन सिस्टम 2013 2022 में प्रामाणिक परीक्षण पूरा

स्रोत: लेखक का शोध कार्य

वैसे तो स्थानीय स्तर पर अनुसंधान और विकास तंत्र खड़ा करने में देरी के पीछे भारत पर आयद तकनीक से जुड़ी पाबंदियों का भी हाथ रहा है. हालांकि पिछले कई सालों में DRDO के कामकाज पर नज़र डालें तो हमें लागत में बेहिसाब बढ़ोतरी, लचर परियोजना प्रबंधन और अंतिम तौर पर असंतोषजनक परिणाम ही दिखाई देते हैं. दरअसल इस क्षेत्र में प्रतिस्पर्धी इकाई की ग़ैर-मौजूदगी के साथ-साथ शिक्षा जगत और निजी क्षेत्र की न्यूनतम भागीदारी से रक्षा अनुसंधान और विकास में DRDO का ही दबदबा बना रहा. इसके उलट अमेरिका में शिक्षण संस्थाएं रक्षा अनुसंधान के क्षेत्र में सक्रिय रूप से हिस्सा लेती रही हैं. अमेरिकी सरकार भी भारी-भरकम आर्थिक सहायता (3.5 अरब अमेरिकी डॉलर तक) के ज़रिए इन क़वायदों को बढ़ावा देती है.

भले ही इस टैंक को ‘मेड इन इंडिया’ उत्पाद के तौर पर प्रचारित किया गया लेकिन इसमें इस्तेमाल होने वाले 69 फ़ीसदी कल-पुर्जे विदेशी विक्रेताओं से हासिल किए गए. इसके विकास में इतना लंबा समय लगा कि भारतीय सेना को अपने हथियारबंद बेड़े में आई कमी को दूर करने के लिए रूस से T-90 टैंक ख़रीदने पड़े. कुछ अन्य उदाहरणों से DRDO के लचर प्रदर्शन की झलक मिलती है

प्रौद्योगिकी विकास को बढ़ावा देने के लिए सरकार के प्रयास

हाल के वर्षों में सरकार ने धीरे-धीरे सुधारवादी उपायों पर अमल शुरू किया है. मिसाल के तौर पर इस साल यानी 2022-23 के बजट में शैक्षणिक रक्षा अनुसंधान के लिए 1200 करोड़ रु. की रकम आवंटित की गई है. बजट में रक्षा अनुसंधान और विकास के साथ-साथ ख़रीद को निजी क्षेत्र के लिए खोलने के भी प्रावधान किए गए हैं. घरेलू उद्योग से ख़रीद के लिए पूंजी अधिग्रहण का 68 प्रतिशत और निजी क्षेत्र (स्टार्ट-अप्स समेत) के लिए रक्षा शोध और विकास बजट के 25 फ़ीसदी हिस्से का आवंटन किया गया है. इसके अलावा DRDO के प्रौद्योगिकी विकास कोष से रक्षा शोध और विकास में लगी इकाइयों को 10 करोड़ रु की सहायता उपलब्ध कराई जाती है.

सरकार ने रक्षा नवाचार संगठन (DIO) के तहत रक्षा उत्कृष्टता के लिए नवाचार (iDEX) कार्यक्रम के ज़रिए स्टार्ट-अप इकोसिस्टम का भी उपयोग किया है. DIO का गठन अमेरिका की रक्षा नवाचार इकाई के तर्ज़ पर किया गया है. अमेरिका की ये इकाई सिलिकॉन वैली के साथ क़रीबी तालमेल बिठाकर काम करती है. बहरहाल DIO शोध और विकास संस्थाओं, शैक्षणिक संस्थानों, कारोबार जगत, स्टार्ट-अप्स और नवाचार में लगे व्यक्तियों के साथ मिलकर सेना के लिए प्रौद्योगिकी समाधान विकसित कर रही है. इसके लिए वो 1.5 करोड़ रु तक का कोष मुहैया कराती है. 2018 से iDEX डिफ़ेंस इंडिया स्टार्ट-अप चैलेंज (DISC) के तहत सेना की ख़ास समस्याओं का समाधान ढूंढने की क़ाबिलियत के आधार पर स्टार्ट-अप्स को पुरस्कार दिए जा रहे हैं. इन समस्याओं में एनक्रिप्शन, संचार, रेडार प्रणाली और मानवरहित प्लेटफ़ॉर्म शामिल हैं. इनमें से कई प्रौद्योगिकी दोहरे इस्तेमाल वाली हैं. इस सिलसिले में DISC के विजेताओं में से एक IROV टेक्नोलॉजिज़ द्वारा पानी के भीतर निरीक्षण और मरमम्ती के लिए विकसित किए गए ड्रोन की मिसाल ले सकते हैं. इस तकनीक का सामुद्रिक क्षेत्र के साथ-साथ तेल और गैस कंपनियों के लिए वाणिज्यिक इस्तेमाल हो सकता है.

ज़ाहिर है कि सरकार शोध और विकास कार्य में अन्य हिस्सेदारों की भागीदारी को भी बढ़ावा देना चाहती है.

रक्षा अनुसंधान और विकास के दायरे का विस्तार

इसमें कोई शक़ नहीं है कि ऊपर बताए गए उपायों से भारत के रक्षा अनुसंधान और विकास तंत्र में बदलाव आना तय है. इसके साथ ही सरकार को अन्य देशों की R&D प्रणालियों के साथ और ज़्यादा संपर्क क़ायम करने होंगे. अमेरिका और इज़राइल के साथ भारत के रक्षा प्रौद्योगिकी गठजोड़ों ने पहले ही इस प्रक्रिया को रफ़्तार दे दी है. हालांकि फ़िलहाल ये गठजोड़ सिर्फ़ सरकारी एजेंसियों तक सीमित हैं. इस सिलसिले में हवा से लॉन्च होने वाले ड्रोनों को साथ मिलकर विकसित करने के भारत-अमेरिकी क़रार की मिसाल ले सकते हैं. सितंबर 2021 में इससे जुड़ा समझौता हुआ था. अमेरिकी वायु सेना अनुसंधान प्रयोगशाला और DRDO इस मक़सद में मिलकर काम कर रहे हैं. वैश्विक रुझान के मुताबिक प्रौद्योगिकी से जुड़े इन गठजोड़ों का दायरा बढ़ाकर इसमें तमाम दूसरे किरदारों को भी शामिल किए जाने की दरकार है. इनमें शिक्षा जगत, स्टार्ट-अप्स और निजी क्षेत्र शामिल हैं. इससे प्रौद्योगिकी को वाणिज्यिक अहमियत देने में भी मदद मिलेगी.

रक्षा पर लोकसभा की स्थायी समिति के मुताबिक भारत में रक्षा बजट का महज़ 6 फ़ीसदी हिस्सा ही R&D पर ख़र्च होता है. चीन में ये आंकड़ा 20 प्रतिशत और अमेरिका में 12 प्रतिशत है. सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के प्रतिशत के हिसाब से सामान्य R&D ख़र्च का कुल हिस्सा भी अन्य देशों के मुक़ाबले भारत में काफ़ी कम है.  

बहरहाल, अनुसंधान और विकास के क्षेत्र में ख़र्च के लिए ज़रूरी रकम का आवंटन भारत के लिए मुश्किलों भरा सबब बना हुआ है. R&D के क्षेत्र में भारत का ख़र्च दुनिया में निचले स्तर पर है. कोष के अभाव से पार पाने के लिए फ़ंडिंग के नए तौर-तरीक़े विकसित करने होंगे. रक्षा पर लोकसभा की स्थायी समिति के मुताबिक भारत में रक्षा बजट का महज़ 6 फ़ीसदी हिस्सा ही R&D पर ख़र्च होता है. चीन में ये आंकड़ा 20 प्रतिशत और अमेरिका में 12 प्रतिशत है. सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के प्रतिशत के हिसाब से सामान्य R&D ख़र्च का कुल हिस्सा भी अन्य देशों के मुक़ाबले भारत में काफ़ी कम है.

टेबल 2: 2020 में GDP के प्रतिशत के तौर पर अनुसंधान और विकास व्यय

देश GDP का प्रतिशत हिस्सा
अमेरिका 3.45
चीन 2.40
रूस 1.10
इज़राइल 5.44
जापान 3.26
यूके 1.71
फ़्रांस 2.35
जर्मनी 3.14
भारत 0.66

 

स्रोत: यूनेस्को इंस्टीट्यूट फ़ॉर स्टैटिस्टिक्स से विश्व बैंक के आंकड़े

भारत के रक्षा योजनाकारों के सामने ये एक बड़ी कमज़ोरी और रुकावटी हद- दोनों है. उनके सामने कुल रक्षा ख़र्च बढ़ाने के लिए संसाधनों की उपलब्धता एक चुनौती बनी हुई है. लिहाज़ा उन्हें R&D पर ख़र्च बढ़ाने के लिए रचनात्मक रूप से सोचना होगा. निजी क्षेत्र को प्रोद्योगिकी विकास की प्रमुख परियोजनाओं का बीड़ा उठाने के लिए प्रेरित करना इस दिशा में एक अहम प्रयास हो सकता है. हालांकि इसके लिए सरकार को रास्ते की बाधाएं कम करनी होंगी. साथ ही निजी क्षेत्र को प्रोत्साहन भी देने होंगे. DIO के iDEX कार्यक्रम के प्रबंधन को निजी क्षेत्र के लिए खोलना इस सिलसिले में एक अहम उपाय हो सकता है.

DIO के iDEX कार्यक्रम के प्रबंधन को निजी क्षेत्र के लिए खोलना इस सिलसिले में एक अहम उपाय हो सकता है.

रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता हासिल करने के लिए पहले से ज़्यादा प्रतिस्पर्धी R&D तंत्र विकसित करने के साथ-साथ उभरती प्रौद्योगिकी पर ज़ोर देना निहायत ज़रूरी है. सरकार ने नीतिगत तौर पर अनेक उपायों के ज़रिए रक्षा अनुसंधान और विकास तंत्र के विस्तार से जुड़े अपने इरादे ज़ाहिर किए हैं. आधुनिक समय में युद्ध के तौर-तरीक़े बदल रहे हैं. ऐसे में निजी क्षेत्र और स्टार्ट-अप इकोसिस्टम की सक्रिय भागीदारी से राष्ट्रीय रक्षा-औद्योगिक आधार खड़ा करने के दूरगामी नतीजे हासिल होंगे. इससे हथियार आयातों पर निर्भरता में भी कमी आएगी.

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