Author : Sushant Sareen

Published on Jul 28, 2022 Updated 0 Hours ago

हालिया उपचुनावों से पाकिस्तान के सियासी और आर्थिक हलकों में हड़कंप मच गया है. पूरे मुल्क में अफ़रातफ़री का दौर है और हालात पहले से ज़्यादा गंभीर हो गए हैं.

पाकिस्तान: पंजाब सूबे के चुनावी नतीजों से अस्थिरता और खलबली का दौर

बीते 17 जुलाई को पाकिस्तान की पंजाब विधानसभा की 20 सीटों पर हुए उपचुनावों ने वहां की नाज़ुक सियासी और आर्थिक व्यवस्था में हड़कंप मचा दिया है. इन चुनावों के नतीजे चौंकाने वाले हैं. किसी ने भी ऐसे परिणाम का अंदाज़ा नहीं लगाया था. चुनावों से पहले राजनीतिक पंडितों में लगभग आम राय थी कि पाकिस्तान की सत्तारूढ़ पाकिस्तान मुस्लिम लीग नवाज़ (PMLN) को ही इनमें से ज़्यादातर सीटों पर जीत हासिल होगी. सब बस ये जानना चाहते थे कि PMLN की जीत कितनी बड़ी होगी और वोटों का अंतर कितना रहेगा. बहरहाल राजनीतिक पंडितों के पूर्वानुमानों के उलट इन चुनावों में PMLN को मुंह की खानी पड़ी है. उसे 20 में से सिर्फ़ 4 सीटों पर ही जीत नसीब हुई है. अप्रैल में अविश्वास प्रस्ताव के ज़रिए पद से हटाए गए पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने सबको चौंकाते हुए 15 सीटें जीतकर देश की सियासत में वापसी कर ली है. इनमें से कई सीटों पर इमरान के उम्मीदवारों की जीत का अंतर भी काफ़ी बड़ा रहा है. ऐसे में कोई ताज्जुब की बात नहीं है कि जीत के बाद इमरान ने अपने पक्ष में जनादेश होने का हवाला देते हुए मुल्क में जल्द आम चुनाव कराए जाने की मांग दोहराई है.  

अप्रैल में अविश्वास प्रस्ताव के ज़रिए पद से हटाए गए पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने सबको चौंकाते हुए 15 सीटें जीतकर देश की सियासत में वापसी कर ली है. इनमें से कई सीटों पर इमरान के उम्मीदवारों की जीत का अंतर भी काफ़ी बड़ा रहा है.

ये चुनाव बेहद अहम थे. हमज़ा शहबाज़ की अगुवाई वाली पंजाब की PMLN सरकार की क़िस्मत इनके नतीजों पर टिकी थी. इतना ही नहीं, इस्लामाबाद से संचालित संघीय सरकार की तक़दीर भी इससे जुड़ी हुई थी. संघीय सरकार की अगुवाई हमज़ा के पिता शहबाज़ शरीफ़ कर रहे हैं. संघीय सरकार के वजूद से जुड़ा एक अहम सवाल ये है कि नवंबर में पाकिस्तान की सर्वशक्तिमान सेना की कमान किसके हाथ जाएगी. मौजूदा सेना प्रमुख जनरल क़मर बाजवा को एक और विस्तार मिलेगा या कोई नया जनरल नियुक्त होगा- ये मसला आज से लेकर नवंबर तक की राजनीति पर टिका है. हालांकि इन चुनावों से जुड़ा सबसे अहम सवाल पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था के भविष्य को लेकर है. 

आर्थिक संकट से उबरने की कोशिश

पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था बर्बादी की कगार पर है. मुश्किल आर्थिक हालात से उबरने के लिए कठोर क़दम उठाए जाने की ज़रूरत है. ऐसे में पाकिस्तान को राजनीतिक स्थिरता की दरकार है. PMLN की हार का मतलब आर्थिक सुधारों से जुड़ी क़वायदों का अंत है. इससे अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) के कार्यक्रम बेपटरी हो सकते हैं. सियासी वजूद बचाने के लिए सियासतदानों में पहुंच से बाहर और दिवालिया बनाने वाले लोकलुभावने उपायों की अहमियत बढ़ जाएगी. दरअसल उपचुनावों में PMLN की करारी हार की वजहों में ईंधन और दूसरे ज़रूरी सामानों की क़ीमतों में हुई भारी बढ़ोतरी और बिजली की दरों में भविष्य में होने वाला इज़ाफ़ा शामिल है. आर्थिक मोर्चे पर ये तमाम उपाय IMF द्वारा विस्तारित कोष सुविधा (EFF) को बहाल करने की अनिवार्य पूर्व-शर्तों का हिस्सा हैं. 

वित्त मंत्री मिफ़्ता इस्माइल के मुताबिक पाकिस्तान को बकाया चुकाने में नाकामी और दिवालिएपन से बचाने के लिए उन्होंने ये मुश्किल उपाय किए थे. हालांकि सियासी तौर पर पाकिस्तान की ग़रीब अवाम पर मिफ़्ता के बहादुराना अल्फ़ाज़ों का कोई ख़ास असर नहीं हुआ.

वित्त मंत्री मिफ़्ता इस्माइल के मुताबिक पाकिस्तान को बकाया चुकाने में नाकामी और दिवालिएपन से बचाने के लिए उन्होंने ये मुश्किल उपाय किए थे. हालांकि सियासी तौर पर पाकिस्तान की ग़रीब अवाम पर मिफ़्ता के बहादुराना अल्फ़ाज़ों का कोई ख़ास असर नहीं हुआ. इनका इल्ज़ाम है कि मिफ़्ता इस्माइल और PMLN की सरकार ने पाकिस्तान के रईसों (जिनको कोई तकलीफ़ नहीं झेलनी पड़ी है) को बचाने के लिए ग़रीब तबके को दिवालिया बना दिया है. उनकी दौलत और शानो-शौक़त की हिफ़ाज़त होती रही है, जबकि बाक़ी लोगों से अपना सबकुछ कुर्बान करने की अपील की जा रही है. जिन नेताओं को जनता से जनादेश हासिल करना है, उनके लिए इस्माइल के ‘गर्मजोशी’ भरे लब्ज़ों और पाकिस्तान को तयशुदा दिवालियापन  से बचाने के लिए सियासी कुर्बानी देने के जज़्बाती अपीलों के कोई मायने नहीं हैं.

आसान लब्ज़ों में कहें तो समूचे पाकिस्तान का स्थायित्व इन उपचुनावों पर टिका था. इन नतीजों ने कुछ बेहद डरावने सपनों को असलियत में बदल दिया है. भले ही काग़ज़ी तौर पर पंजाब में हुकूमत गंवाने से संघीय सरकार के वजूद पर कोई ख़तरा दिखाई नहीं देता, लेकिन पंजाब जैसे सूबे को एक प्रतिरोधी और टकराव की नीयत रखने वाले सियासी विरोधी के हाथों गंवाना हुकुमती और सियासी तौर पर हालात को बेहद मुश्किल बना देता है. इन हालातों में इस्लामाबाद से संघीय सरकार चलाना भले ही नामुमकिन न हो, लेकिन बेहद मुश्किल ज़रूर हो जाएगा. अगर ख़ैबर पख़्तूनख़्वा और पंजाब, दोनों ही PTI के नियंत्रण में आ जाते हैं तो इस्लामाबाद की सत्ता हमेशा ही इमरान ख़ान के समर्थकों के निशाने पर रहेगी. 

हमज़ा की सरकार को जैसे-तैसे बचाने की तमाम कोशिशें जारी हैं. फ़िलहाल संवैधानिक और न्यायिक मोर्च पर एक सांकेतिक रियायत के बूते हमज़ा की हुकूमत बच गई है. बहरहाल पाकिस्तान और उसके पंजाब सूबे- दोनों में ही लंबी अस्थिरता का दौर रहने वाला है. हालात के क़ाबू से बाहर निकल जाने की आशंकाएं काफ़ी ज़्यादा हैं. अगर इमरान पंजाब हथिया लेते हैं तो संघीय सरकार का कामकाज चलाना लगभग नामुमकिन हो जाएगा. अगर हमज़ा किसी तरह से हुकूमत बचा लेते हैं तो इमरान पाकिस्तान की सड़कों पर ग़दर मचा देंगे. इससे हुकूमत चलाना और आर्थिक सुधार- दोनों ही नामुमकिन हो जाएगा. अगर फ़ौज प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से दख़ल देती है तो इसके भी अपने सियासी, आर्थिक और कूटनीतिक प्रभाव होंगे. इनमें अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध भी शामिल हैं जो आर्थिक संकट को और गंभीर बना देंगे.

पाकिस्तानी सेना की स्थिति

इस बीच, सेना प्रमुख जनरल क़मर बाजवा की स्थिति बेहद डांवाडोल नज़र आ रही है. इससे मौजूदा संकट और गहरा हो गया है. इतना ही नहीं, सियासत को अपने हिसाब से चलाने और उसपर क़ाबू रखने की फ़ौज की क़ाबिलियत धीरे-धीरे घटती चली गई है. जनरल बाजवा का मौजूदा कार्यकाल नवंबर में ख़त्म हो रहा है. शहबाज़ शरीफ़ की सरकार तब तक बरक़रार रहे या न रहे, जनरल बाजवा को एक और विस्तार मिलने के आसार अब कम से कमतर होते जा रहे हैं. हालांकि जनरल बाजवा ने अपने कुनबे को सियासत से दूर रहने का फ़रमान जारी किया है, लेकिन सेना हालिया चुनावों में हुए उलटफ़ेर से ख़ुद को अलग नहीं रख सकती. वो लंबे समय तक सबकुछ सामान्य होने का दिखावा नहीं कर सकती. इस बीच इमरान ख़ान हुकूमत से जुड़े आला नेताओं के ख़िलाफ़ ताबड़तोड़ मुहिम चला रहे हैं. इशारों इशारों में उन्होंने जनरल बाजवा पर ‘मीर जाफ़र’ होने का इल्ज़ाम मढ़ दिया है: एक ऐसा गद्दार जिसने पाकिस्तान में हुकूमत बदलने की क़वायद से जुड़े कथित अमेरिकी षड्यंत्र में रोल अदा किया. PTI ने सोशल मीडिया पर अपने लड़ाकों को सक्रिय कर दिया है, जो मौजूदा हुकूमत से जुड़े आला नेताओं पर निशाने साध रहे हैं. ये पाकिस्तान में एक अभूतपूर्व घटनाक्रम है.

वित्त मंत्री मिफ़्ता इस्माइल के मुताबिक पाकिस्तान को बकाया चुकाने में नाकामी और दिवालिएपन से बचाने के लिए उन्होंने ये मुश्किल उपाय किए थे. हालांकि सियासी तौर पर पाकिस्तान की ग़रीब अवाम पर मिफ़्ता के बहादुराना अल्फ़ाज़ों का कोई ख़ास असर नहीं हुआ.

आम तौर पर पाकिस्तानी फ़ौज इस तरह की हरकतों को कुचल देती है लेकिन ताज्जुब की बात है कि इस बार वो ख़ुद बेसहारा महसूस कर रही है. इसकी एक वजह सत्ता के गलियारों में हो रही कानाफ़ूसी और मीडिया में गाहेबगाहे हो रही टिप्पणियां हो सकती हैं. कहा जा रहा है कि इमरान ख़ान को लेकर फ़ौज में मतभेद और यहां तक कि बंटवारे का माहौल है. एक तबका उन्हें पागलपन की हद तक आत्ममुग्ध और अहंकारी शख़्स के तौर पर देखता है. उनके मुताबिक इमरान ख़ान मुल्क और मुल्क पर फ़ौज के दबदबे के लिहाज़ से ख़तरनाक हैं. जबकि दूसरा तबका उन्हें पाकिस्तान को मौजूदा दलदल से बाहर निकालने वाली इकलौती उम्मीद के तौर पर देखता है. प्रधानमंत्री के पद पर रहते हुए इमरान ख़ान कई मौक़ों पर ख़ुद के बचाव के लिए फ़ौज पर निर्भर रहते थे. अब वो ये महसूस कर रहे हैं कि उन्हें आगे फ़ौज की बैसाखियों की ज़रूरत नहीं है. लिहाज़ा वो ‘स्थापित सत्ता’ से दो-दो हाथ कर सकते हैं, यहां तक कि उसे अपने सामने झुकने पर मजबूर कर सकते हैं. सैन्य नेतृत्व के सामने दुविधा ये है कि अगर वो इमरान के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई करते हैं तो इससे फ़ौजी कुनबे के मतभेद सार्वजनिक रूप से बाहर आ सकते हैं. साथ ही इमरान ख़ान के पक्ष में बड़े पैमाने पर उपद्रवी घटनाएं भी देखने को मिल सकती हैं. दूसरी ओर अगर फ़ौज हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती है तो इमरान न सिर्फ़ हुकूमत को अस्थिर कर देंगे बल्कि वो फ़ौजी हुक्मरानों के ख़िलाफ़ भी क़वायदों को अंजाम देने लगेंगे. वो फ़ौजी जनरलों को आपस में भिड़ाकर सेना में दख़लंदाज़ी करने लगेंगे. इससे पाकिस्तान की इकलौती कार्यकारी संस्था (फ़ौज) का अंदरुनी तालमेल चौपट हो जाएगा.

सियासी तौर पर PMLN की चुनावी शिकस्त ने कई मौजूदा और संभावित साथियों को बेचैन कर दिया है. अब लोग PMLN को अगले आम चुनाव के निश्चित विजेता के तौर पर देखने को तैयार नहीं हैं. PMLN के ज़रिए सत्ता की सीढ़ियां चढ़ने का ख़्वाब देख रहे सियासतदान अपने सियासी रुख़ पर दोबारा विचार करने लगे हैं. सत्तारूढ़ गठबंधन के भीतर से असंतोष की आवाज़ें सुनाई देने लगी हैं. भले ही सार्वजनिक तौर पर गठबंधन के साथीदारों ने ये ऐलान  किया है कि सरकार नेशनल असेंबली का कार्यकाल पूरा होने तक बरक़रार रहेगी, लेकिन पर्दे के पीछे गठबंधन में शामिल सियासी पार्टियों में बेचैनी की ख़बरें आने लगी हैं. वो PMLN का साथ छोड़ेंगे या नहीं- ये फ़ौजी इंतज़ामिया की ओर से उन्हें मिलने वाले इशारे पर निर्भर करेगा. अगर फ़ौज इस नतीजे पर पहुंचती है कि इस्लामाबाद की मौजूदा हुकूमत को आगे चलाना मुमकिन नहीं है और समय से पहले चुनाव होने तय हैं, तो मुत्ताहिदा क़ौमी मूवमेंट (MQM) और बलूचिस्तान  अवामी पार्टी (BAP) जैसे छोटे दल सरकार से समर्थन वापस खींच लेंगे. शायद इससे अक्टूबर में चुनाव की संभावना बन जाएगी. अगर ऐसा नहीं होता है तो गिरते-संभलते सरकार चलती रहेगी. बहरहाल इस वक़्त ऐसे आसार बेहद कम ही नज़र आते हैं कि सरकार अगले साल अगस्त तक चल पाएगी. ग़ौरतलब है कि मौजूदा नेशनल असेंबली का कार्यकाल अगस्त 2023 में पूरा होने वाला है.

सिर पर मंडराता आर्थिक संकट       

उपचुनावों के नतीजों से सामने आई राजनीतिक अस्थिरता का असर अर्थव्यवस्था पर महसूस होने लगा है. पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था बेहद तेज़ गति से धराशायी हो रही है. उपचुनावों के नतीजे आने के बाद से पाकिस्तानी रुपये में अमेरिकी डॉलर के मुक़ाबले तक़रीबन 25 रु (क़रीब 10 फ़ीसदी) की गिरावट आ चुकी है. एक डॉलर का भाव 230 पाकिस्तानी रुपये के बराबर पहुंच गया है. यहां तक कि खुले बाज़ार में 240 पाकिस्तानी रुपया देने पर भी अमेरिकी डॉलर उपलब्ध नहीं है. रुपए में गिरावट की रोकथाम के लिए स्टेट बैंक ऑफ़ पाकिस्तान ने आयातकों को फ़ंड जारी करना बंद कर दिया है. इससे विदेशी मुद्रा बाज़ार में अटकलों का दौर और तेज़ हो गया है. ख़बरों के मुताबिक क़रीब 60 अहम दवाइयां पाकिस्तानी बाज़ार से ग़ायब हो चुकी हैं. अंतरराष्ट्रीय क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों ने पाकिस्तान का दर्जा घटा दिया है. इससे पाकिस्तान के लिए वाणिज्यिक ऋण हासिल करने की क़वायद बेहद मुश्किल हो गई है. अंतरराष्ट्रीय वित्तीय बाज़ारों को ऋण अदायगी में पाकिस्तान के नाकाम रहने का अंदेशा हो गया है. पाकिस्तानी बॉन्ड्स के यील्ड 50 प्रतिशत को पार कर चुके हैं. पाकिस्तान के ‘दोस्त’ उसे मुश्किलों से उबारने के लिए आगे नहीं आ रहे हैं. ज़रूरी सामानों की क़ीमतों में महंगाई की दर 33 फ़ीसदी की रिकॉर्ड ऊंचाई तक पहुंच गई है. स्टेट बैंक ऑफ़ पाकिस्तान की मुख्य ब्याज़ दर 15 प्रतिशत के स्तर पर है. इसका मतलब ये है कि व्यापार और उद्योग को 17-20 प्रतिशत तक की ब्याज़ दरें वहन करनी पड़ रही हैं. अभी बिजली की दरों में बढ़ोतरी होनी बाक़ी है. रुपए में गिरावट के बीच बिजली और ईंधन की क़ीमतों में और ज़्यादा उछाल आना तय है. इससे महंगाई और बढ़ जाएगी. 

पाकिस्तानी बॉन्ड्स के यील्ड 50 प्रतिशत को पार कर चुके हैं. पाकिस्तान के ‘दोस्त’ उसे मुश्किलों से उबारने के लिए आगे नहीं आ रहे हैं. ज़रूरी सामानों की क़ीमतों में महंगाई की दर 33 फ़ीसदी की रिकॉर्ड ऊंचाई तक पहुंच गई है.

हालांकि पाकिस्तान के लिहाज़ से सिर पर मंडरा रही आर्थिक तबाही असल क़िस्सा नहीं है. असल तवज्जो तो सियासी रस्साकशी पर है. ऐसा लगता है कि वहां की अवाम और सत्ताधारी तबका ख़ुदकुशी करने पर आमादा हैं. आज के पाकिस्तान की हालत अपने आख़िरी दिन गिनते मुग़ल साम्राज्य जैसी हो गई है. उस वक़्त आक्रमणकारी ताक़तें दिल्ली की ओर बढ़ रही थीं और साम्राज्य से जुड़े लोग दरबारी दांवपेचों में उलझे थे. उस निर्णायक घड़ी में वो अपना वज़ीर तय करने में मशगूल थे. फ़िलवक़्त इस्लामाबाद के सत्तारूढ़ गठबंधन के सामने एक ओर कुआं तो दूसरी ओर खाई जैसे हालात हैं. वो जल्द चुनाव का ऐलान  नहीं कर सकता क्योंकि उपचुनावों के नतीजों से साफ़ है कि सियासी हवा का रुख़ इमरान ख़ान की ओर है. हालांकि विपक्ष के हमलावर तेवरों के बीच सत्तारूढ़ गठबंधन के लिए राज-काज चलाना नामुमकिन होता जाएगा. ज़ाहिर है सरकार अपनी सियासी पूंजी हासिल करने के लिए जनता तक कुछ ख़ास सहूलियतें नहीं पहुंचा पाएगी.  

संघीय सत्ता से चिपके रहने का मतलब ये है कि अर्थव्यवस्था को बेपटरी होने से बचाने के लिए आर्थिक मोर्चे पर और कड़वी दवाइयां लेनी होंगी. निश्चित तौर पर इससे सरकार की अलोकप्रियता बढ़ती चली जाएगी. मौजूदा सरकार को बनाए रखने की हिमायत करने वाले लोगों की उम्मीदें और दावे कुछ भी हो लेकिन अगले साल की दूसरी छमाही में तयशुदा चुनावों से पहले अर्थव्यवस्था के पटरी पर आने के आसार ना के बराबर हैं. अगर सरकार लोकलुभावनी आर्थिक नीतियों पर अमल करती है तो इससे अर्थव्यवस्था और ज़्यादा बदहाली की कगार पर पहुंच जाएगी. साथ ही, इससे बहुपक्षीय वित्तीय संस्थाओं और द्विपक्षीय भागीदारों के ग़ुस्से को भी बढ़ावा मिलेगा. ऐसा हुआ तो हालात ना घर का, ना घाट का जैसे हो जाएंगे. आम बोलचाल में इसे ‘सौ प्याज़ भी खाए और सौ कोड़े भी’ के ज़रिए सटीक ढंग से समझा जा सकता है. 

सौ बात की एक बात ये है कि शहबाज़ शरीफ़ की हुकूमत के अगस्त 2023 तक बरक़रार रहने के आसार ना के बराबर हैं. संभावना यही है कि ये सरकार कुछ हफ़्तों या ज़्यादा से ज़्यादा कुछ महीनों से अधिक नहीं टिकेगी. अगर चुनाव थोपे गए तो पूरा मुल्क कम से कम तीन महीनों तक ठहराव की हालत में पहुंच जाएगा. ये वक़्त बेहद अहम है. देश की अर्थव्यवस्था का वजूद इन्हीं तीन महीनों में तय होगा. IMF पहले ही कह चुका है कि वो कार्यवाहक सरकार के साथ कामकाज करने को तैयार है. बहरहाल चुनावों की ओर जा रहे राजनेता आर्थिक मोर्चे पर उठाए गए क़दमों की जवाबदेही लेने को कतई तैयार नहीं होंगे. इसके उलट उनकी ओर से यही वादा किया जाएगा कि चुनाव जीतने पर वो इन फ़ैसलों को पलट देंगे. दूसरे लब्ज़ों में कार्यवाहक सरकार द्वारा उठाए गए क़दमों की अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों की नज़र में कोई विश्वसनीयता नहीं होगी. साथ ही पाकिस्तानी अफ़सरशाही भी आर्थिक, प्रशासनिक या यहां तक कि कूटनीतिक मसलों पर भी कोई फ़ैसले नहीं लेगी. इन तमाम मोर्चों पर आगे क़दम बढ़ाने के लिए वो अगली सरकार के सत्ता संभालने का इंतज़ार करेगी.

अगर चुनाव थोपे गए तो पूरा मुल्क कम से कम तीन महीनों तक ठहराव की हालत में पहुंच जाएगा. ये वक़्त बेहद अहम है. देश की अर्थव्यवस्था का वजूद इन्हीं तीन महीनों में तय होगा. IMF पहले ही कह चुका है कि वो कार्यवाहक सरकार के साथ कामकाज करने को तैयार है.

भारत के लिए पाकिस्तान के मौजूदा घटनाक्रमों में कई सबक़ छिपे हैं. हमेशा ही आशावादी रुख़ रखने वाले और कभी ना सुधरने वाले आशावादियों को पाकिस्तान के साथ दोबारा जुड़ाव क़ायम करने का एक मौक़ा दिखाई दे रहा है. हालांकि उन्हें अपनी आंखें खोलने और ये देखने की ज़रूरत है कि अवसरों की वो खिड़की पहले ही बंद हो चुकी है. जनरल बाजवा और पाकिस्तानी फ़ौज के साथ जुड़ाव बनाने की कोशिशें असफल होने लगी हैं. ना तो बाजवा और ना ही किसी और के पास भारत के साथ जुड़ाव बनाकर कुछ ठोस नतीजा हासिल करने का सियासी रसूख़ बचा है. अब पाकिस्तानी फ़ौज ने पुराना राग अलापना बंद कर दिया है. सेना प्रमुख की बातों में अब वो वज़न नहीं रह गया है. अब उनके फ़ैसलों में पहले जैसी आम सहमति नहीं रह गई है. वैसे भी इस बात की कोई कोई गारंटी नहीं है कि बाजवा के उत्तराधिकारी उनके द्वारा लिए गए फ़ैसलों पर अमल करने को लेकर प्रतिबद्धता या दिलचस्पी दिखाएंगे. आर्थिक तौर पर पाकिस्तान के धराशायी होने की आशंका बढ़ गई है. पाकिस्तानी फ़ौज के साथ बेसबब और बेकार के जुड़ावों में वक़्त बर्बाद करने की बजाए भारत को अपने संसाधनों को बेहतर इस्तेमाल में लगाना चाहिए. पाकिस्तान की संभावित दुर्दशा से उभरने वाले हालातों से निपटने के लिए भारत को सुरक्षा, सामरिक और कूटनीतिक मोर्चे पर तैयार रहना चाहिए. इन क़वायदों से भारत के हित सटीक तरीक़े से पूरे हो सकेंगे. 

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.