Published on Jul 19, 2022 Updated 0 Hours ago

श्रीलंका में उत्पन्न हो रही राजनीतिक स्थिति को लेकर नयी दिल्ली चिंतित है, लेकिन उसने श्रीलंका के घरेलू मामले में दख़ल नहीं देना चुना है.

श्रीलंका में हो रहे विरोध प्रदर्शनों का भारत के लिए क्या मायने निकाला जाये?

पहले के किसी भी वक़्त के मुक़ाबले बड़ी राजनीतिक अनिश्चितता पैदा करने वाले सफल ‘संघर्ष’ (सिंहली भाषा में ‘अरगालया’) के बाद 24 घंटे भी नहीं बीते थे कि भारत के उच्चायुक्त गोपाल बागले श्रीलंकाई कृषि मंत्री महिंदा अमरवीरा के साथ बैठे हुए थे, और उन्हें रासायनिक उर्वरकों की 40,000 टन की खेप औपचारिक रूप से सौंप रहे थे. भारत इसकी आपूर्ति अभूतपूर्व खाद्य संकट (जो मौजूदा आर्थिक आपदा का एक हिस्सा भर है) से जूझ रहे द्वीपीय-राष्ट्र को सहारा देने के लिए लाइन-ऑफ-क्रेडिट के एक हिस्से के बतौर कर रहा था. रिपोर्टों के मुताबिक़, मंत्री इस्तीफ़ा देने से पहले इस औपचारिक राजनयिक मुलाक़ात का इंतज़ार कर रहे थे.

यह उर्वरकों तक सीमित नहीं रहा. श्रीलंका में पेट्रोलियम उत्पाद बेचने वाले संयुक्त उपक्रम ‘लंका आइओसी’, जिसमें सार्वजनिक क्षेत्र की भारतीय कंपनी इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन साझेदार है, ने भी विरोध प्रदर्शनों के एक दिन बाद आउटलेट्स के अपने नेटवर्क के ज़रिये वितरण को बहाल किया. इससे पहले कंपनी ने गत 9 जुलाई को बहु-प्रचारित विरोध प्रदर्शन के चलते अपने ख़ुदरा कारोबार को दो दिन के लिए रोक दिया था.

प्रधानमंत्री (निवर्तमान) रानिल विक्रमसिंघे ने खुला ऐलान किया था कि ज़रूरत और मुसीबत की इस घड़ी में ‘भारत अकेला देश है जो हमारी मदद के लिए आगे आया है’, जिसके बाद का यह अकेला प्रसंग दोनों देशों के द्विपक्षीय संबंधों की मज़बूती की व्याख्या करने को काफ़ी है.

प्रधानमंत्री (निवर्तमान) रानिल विक्रमसिंघे ने खुला ऐलान किया था कि ज़रूरत और मुसीबत की इस घड़ी में ‘भारत अकेला देश है जो हमारी मदद के लिए आगे आया है’, जिसके बाद का यह अकेला प्रसंग दोनों देशों के द्विपक्षीय संबंधों की मज़बूती की व्याख्या करने को काफ़ी है. विक्रमसिंघे के ऐसा कहने के हफ़्तों बाद भी हालात जस के तस बने हुए थे. प्रधानमंत्री के बहु-प्रचारित पश्चिमी दोस्त और राष्ट्रपति (निवर्तमान) गोटबाया राजपक्षे के चीनी सहयोगी ज़बानी जमा ख़र्च के अलावा कोई पेशकश नहीं कर रहे थे-  कहीं न कहीं बीजिंग अब भी चूक रहा था.

उम्मीद थी कि अमेरिकी अगुवाई वाला पश्चिम किसी बड़े योगदान के लिए आगे आने से पहले अनिवार्य शर्तों वाले एक बेल आउट पैकेज पर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के निर्णय का इंतज़ार कर रहा है, लेकिन इसी बीच, विक्रमसिंघे (एक समकालीन श्रीलंकाई नेता जो भरोसेमंद लग रहे थे) को लोकप्रिय विरोध प्रदर्शनों के चलते हटना पड़ा. इन सबका का मतलब यह हो सकता है कि मौजूदा अनिश्चितता अलग-अलग रूपों में जारी रह सकती है, जो श्रीलंका को भारत पर और निर्भर बना सकती है.

भारत का ‘इंतज़ार करो और देखो’ दृष्टिकोण

तिरुवअनंतपुरम में, ‘कोलंबो की जटिल पहेली’ (अगर ऐसा कहा जा सके तो) के एक दिन बाद, भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा कि नयी दिल्ली ‘श्रीलंका की मददगार है, और उसकी सहायता की कोशिश कर रही है’. वह श्रीलंका की हालिया घटनाओं और बदलावों पर टिप्पणी करते हुए सावधानी बरत रहे थे. मंत्री ने कहा, ‘वे अपनी समस्याओं से इस समय निपट रहे हैं, इसलिए हमें इंतज़ार करना और देखना होगा कि वे क्या करते हैं.’ यह स्पष्ट संकेत था कि भारत इस मूलत: घरेलू स्थिति में शामिल होने का इरादा नहीं रखता, भले ही इसका उसके पूरे पड़ोस के लिए गंभीर नतीजा हो सकता है.

इस बीच, नयी दिल्ली में, विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने भी इसी रुख़ को दोहराया. उन्होंने कहा, ‘हम उन तमाम चुनौतियों से वाक़िफ़ हैं जिनका सामना श्रीलंका और उसके लोग कर रहे हैं, और हम इस कठिन दौर से पार पाने की जद्दोजहद में जुटे श्रीलंकाई लोगों के साथ खड़े हैं.’ बागची ने ध्यान दिलाया कि कैसे सबसे क़रीबी पड़ोसी के रूप में, भारत ने ‘श्रीलंका में गंभीर आर्थिक स्थिति में सुधार’ के लिए 3.8 अरब डॉलर से अधिक की ‘अभूतपूर्व’ मदद का हाथ बढ़ाया है. 

नयी दिल्ली में, विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने भी इसी रुख़ को दोहराया. उन्होंने कहा, ‘हम उन तमाम चुनौतियों से वाक़िफ़ हैं जिनका सामना श्रीलंका और उसके लोग कर रहे हैं, और हम इस कठिन दौर से पार पाने की जद्दोजहद में जुटे श्रीलंकाई लोगों के साथ खड़े हैं.’

ख़ासकर 9 जुलाई को जो घटित हुआ, उसके आलोक में प्रवक्ता को यह जोड़ना पड़ा : ‘हम श्रीलंका के हालिया घटनाक्रम पर नज़र बनाये रखेंगे. भारत श्रीलंका के लोगों के साथ खड़ा है, क्योंकि वे लोकतांत्रिक साधनों व मूल्यों, स्थापित संस्थाओं व संवैधानिक ढांचे के ज़रिये समृद्धि और प्रगति की अपनी आकांक्षाओं को हक़ीक़त बनाना चाहते हैं.’

श्रीलंका नहीं जायेंगे भारतीय सैनिक

10 जुलाई को भारतीय उच्चायोग का बयान था कि नयी दिल्ली श्रीलंका में सैनिक नहीं भेज रहा है, जो एक मित्रवत पड़ोसी के आंतरिक मामलों में दख़लअंदाज़ी नहीं करने का स्पष्ट रूप से चुनाव था.

उच्चायोग ने इस तरह के खंडन के लिए बिना कोई वजह बताये ट्वीट किया, ‘ये रिपोर्टें और इस तरह के विचार भारत सरकार के रुख़ से मेल नहीं खाते हैं’. हालांकि, यह खंडन शायद इसलिए आवश्यक हुआ कि स्थानीय सोशल मीडिया के एक हिस्से ने इस संबंध में सत्तारूढ़ भाजपा के सांसद रहे सुब्रमण्यम स्वामी का ट्वीट फॉरवर्ड करना शुरू किया, जिसमें पूछा गया कि ‘भारत कैसे एक भीड़ को’ एक चुनी हुई सरकार को उखाड़ फेंकने की अनुमति दे सकता है.

इन सबसे अलग, श्रीलंका के रक्षा मंत्रालय ने भी उन अन्य सोशल मीडिया पोस्ट्स का खंडन किया, जिनमें दावा किया गया था कि ‘गाले फेस ग्रीन’ सी-फ्रंट स्थित मुख्य प्रदर्शन स्थल के लिए स्थानीय बलों को रवाना किया गया है. चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ, जनरल शवेंद्र सिल्वा ने कहा, ‘‘अरगला’ भूमिया या ‘संघर्ष स्थल’ पर हमला करने या विघ्न डालने का कोई प्रयास नहीं हुआ है.’ विपक्षी दल एसजेबी के सांसद और युद्ध-कालीन सेना कमांडर, फील्ड मार्शल सरत फोन्सेका ने भी इस बयान से सहमति जतायी – और दोनों ही ज़मीन पर सही साबित हुए.

छिपे हुए अर्थों वाले बयान

बुधवार, 13 जुलाई को राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे के पद छोड़ने की पेशकश की शुरुआती रिपोर्टों को प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे पुष्ट कर चुके हैं. वह ख़ुद भी पद छोड़ने का वादा कर चुके हैं. लेकिन अब भी उतनी स्पष्टता नहीं है. उनके उत्तराधिकारियों के लिए एक स्वीकार्य नाम के साथ अभी काफ़ी चर्चा होनी है, क्योंकि साधारण बहुमत के साथ संसद द्वारा नामित व्यक्ति ही राष्ट्रपति गोटा का बचा हुआ कार्यकाल पूरा करेगा.

श्रीलंका के रक्षा मंत्रालय ने भी उन अन्य सोशल मीडिया पोस्ट्स का खंडन किया, जिनमें दावा किया गया था कि ‘गाले फेस ग्रीन’ सी-फ्रंट स्थित मुख्य प्रदर्शन स्थल के लिए स्थानीय बलों को रवाना किया गया है.

संयोगवश, विक्रमसिंघे (जो देश की ग्रैंड ओल्ड पार्टी, यूएनपी के अकेले सांसद हैं) को मिलाकर मौजूदा सरकार के पास बहुत थोड़े अंतर से ही बहुमत है. स्पीकर समेत 225 की संख्या वाले सदन में उसके पास 115 सदस्य हैं. वहीं मुख्य विपक्षी एसजेबी का एक हिस्सा इस बात पर अडिग है कि उनके नेता साजिथ प्रेमदासा उपयुक्त व्यक्ति साबित होंगे, जबकि दूसरे लोग सत्तारूढ़ एसएलपीपी के 40 बागी सांसदों की सूची में से नामों पर ग़ौर कर रहे हैं, जो या तो उनका समर्थन हासिल करने में सक्षम हो सकते हैं या ज़रूरत पड़ने पर पार्टी तोड़ सकते हैं.

अन्य दक्षिण एशियाई देशों के बीच सबसे नज़दीकी पड़ोसी के रूप में भारत, जिसकी भूरणनीतिक सुरक्षा श्रीलंका से जुड़ी हुई है, बिना कोई पक्ष लिये ताज़ा घरेलू घटनाक्रम को उत्सुकता से देख रहा है. ठीक इसी दौरान, भारतीय नीति-निर्माता मध्यमार्गी-वाम (एक समय उग्र वाम) दल जेवीपी के तिलविन सिल्वा जैसे नेताओं के छिपे हुए अर्थों वाले बयानों की अनदेखी नहीं कर सकते. सिल्वा कहते हैं कि यह ‘संघर्ष’ एक नयी सरकार के गठन तक जारी रहना चाहिए जो ‘74 साल पुरानी विफल आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक प्रणाली के रूपांतरण के ज़रिये व्यवस्था-परिवर्तन’ की ओर ले जाए.

रिपोर्टों के मुताबिक़, जनता विमुक्ति पेरामुना (जेवीपी) और उससे टूट कर बनी फ्रंटलाइन सोशलिस्ट पार्टी (एफएसपी) कोलंबो बीच-फ्रंट पर शहरी मध्यम-वर्गीय संघर्ष के साथ हाथ मिलाने से पहले देश के कई हिस्सों में विरोध प्रदर्शनों की अगुवाई करती रही हैं. भारत के उलट, श्रीलंका में अब भी मजबूत, सेक्टर-आधारित श्रमिक संगठन आंदोलन और विश्वविद्यालय छात्र संघ हैं, जो मुख्यत: इन्हीं दोनों पार्टियों से जुड़े हैं. 

‘क्रांति’ की चर्चा

जेवीपी के नेता थोड़ा कम, लेकिन एफएसपी के नेता खुल कर 20वीं सदी के अतीत की भूली-बिसरी वैचारिक शब्दावली में ‘क्रांति’ की बात करते रहे हैं. यह आगामी घटनाओं व बदलावों को किस तरह प्रभावित करेगा, क्योंकि राष्ट्रपति के सचिवालय और आधिकारिक निवास पर क़ब्ज़ा करने वाले प्रदर्शनकारियों ने भावी राजनीति और नीतियों पर अपने नेताओं की सारी जिज्ञासाओं के जवाब मिलने तक वहीं जमे रहने के दृढ़निश्चय का इज़हार किया है. 

मित्रवत पड़ोसी भारत आने वाले महीनों और वर्षों में भी श्रीलंका की उसी तरह मदद करने का इरादा रखता है जैसा कि उसने हालिया अतीत में किया है, लेकिन उसे एक ऐसी नरमपंथी राजनीति से संकेतों की ताक में रहना चाहिए जिसकी संसद में और सड़कों पर विचाराधारात्मक प्रदर्शनकारियों में मौजूदगी हो. यह अब भी असंभावित नहीं है कि सड़क पर प्रदर्शन करने वाला तबका जल्दी संसदीय चुनाव के लिए काम कर सकता है. दूसरे तबके भी लंबे समय से चुनाव चाहते रहे हैं और लोकतांत्रिक साधनों के ज़रिये निर्वाचित सत्ता पर क़ब्ज़े की कोशिश करना चाहते हैं. इस बीच यह सवाल बना रहेगा कि क्या जेवीपी अपने तीन सांसदों के साथ ‘राष्ट्रीय सरकार’ में शामिल होना चाहेगी, जैसा कि उसने सप्ताहांत विरोध प्रदर्शन की तैयारी में वादा किया था.  

मित्रवत पड़ोसी भारत आने वाले महीनों और वर्षों में भी श्रीलंका की उसी तरह मदद करने का इरादा रखता है जैसा कि उसने हालिया अतीत में किया है, लेकिन उसे एक ऐसी नरमपंथी राजनीति से संकेतों की ताक में रहना चाहिए जिसकी संसद में और सड़कों पर विचाराधारात्मक प्रदर्शनकारियों में मौजूदगी हो.

जो भी हो, नयी दिल्ली को दूसरे पड़ोसी राष्ट्रों को लेकर भी उतना ही चिंतित होना चाहिए. इनमें विरोध रखने वाला पाकिस्तान और उतना-अमित्रवत-नहीं म्यांमार शामिल हैं, जहां आर्थिक संकट तेज़ी से बढ़ने के साथ अस्थिर राजनीतिक आबोहवा के चलते इन देशों के भविष्य की दिशा को लेकर ख़तरा बना हुआ है. दक्षिण एशियाई क्षेत्र में इस राह पर अन्य देश भी चल सकते हैं. भारत को क्षेत्र के सबसे बड़े देश के रूप में हरेक के साथ सीमा साझा करने के चलते, उतना ही चिंतित होना पड़ेगा. हो सकता है कि उनके नाम अभी नहीं उभरे हों, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उनमें से कुछ देश जल्द ही ऐसे संकट का सामना नहीं कर सकते, चाहे वह संकट आर्थिक हो, राजनीतिक या दोनों.

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