Published on Jul 19, 2022 Updated 12 Days ago

भारत भू-राजनीति एवं भू-अर्थव्यवस्था के तहत अपने हितों को साधने के लिए पश्चिमी एशिया की तरफ कदम बढ़ा रहा है.

#Global Geopolitics: भारत, सऊदी अरब और इंडो-अब्राहमिक प्लस

वैश्विक भू-राजनीति में तेजी से परिदृश्य बदल रहे हैं : कोरोना महामारी से लेकर अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी फौज की वापसी और मौज़ूदा रूस यूक्रेन जंग से लेकर ताइवान को लेकर जारी तनाव कई तरह के संकेत दे रहे हैं. इंडो-अब्राहमिक ब्लॉक भी धीरे-धीरे पश्चिम एशिया व्यवस्था को सुदृढ़ कर रहा है, जिससे इस क्षेत्र के स्वतंत्र और मज़बूत ताक़तों, ईरान और तुर्की के ख़िलाफ़ शक्ति संतुलन स्थापित हो रहा है और ज़्यादा ताक़त हासिल करने की प्रतिस्पर्द्धा के इस दौर में इस क्षेत्र को स्थायित्व प्रदान कर रहा है. इस पृष्ठभूमि में भारत और सऊदी अरब के बीच कई क्षेत्रों में बढ़ती अभिसारिता (कर्न्वर्जेंस) को देखते हुए दोनों ही राष्ट्र स्वभाविक तौर पर एक दूसरे के सामरिक और आर्थिक साझेदार नज़र आते हैं. आपसी हित को बढ़ावा देने के लिए हाल के दिनों में दोनों ही देश का नेतृत्व आपसी सहयोग को बढ़ाने में दृढ़ संकल्प दिखता है. यह और भी स्पष्ट हो जाता है जब नई दिल्ली और रियाद के बीच राष्ट्रीय स्तर के सहयोग को हम देखते हैं जिसमें उच्च स्तरीय स्ट्रैटिजिक पार्टनरशिप काउंसिल की स्थापना, दोनों देश के बीच व्यापार का उच्च स्तर होने के अतिरिक्त निवेश के नए-नए रास्तों को तलाशने में दिलचस्पी दिखाना और रक्षा सहयोग को बढ़ावा देने के लिए दोनों सेना के कमांडरों के साथ उच्च स्तर पर बातचीत भी शामिल है.

भारत और सऊदी अरब के बीच कई क्षेत्रों में बढ़ती अभिसारिता (कर्न्वर्जेंस) को देखते हुए दोनों ही राष्ट्र स्वभाविक तौर पर एक दूसरे के सामरिक और आर्थिक साझेदार नज़र आते हैं. आपसी हित को बढ़ावा देने के लिए हाल के दिनों में दोनों ही देश का नेतृत्व आपसी सहयोग को बढ़ाने में दृढ़ संकल्प दिखता है.

भू-अर्थशास्त्र  – पहली कूटनीति

परंपरागत रूप से भारतीय और सऊदी अर्थव्यवस्थाओं की पूरकता स्पष्ट रही है. सउदी अरब हाइड्रोकार्बन का एक प्रमुख आपूर्तिकर्ता रहा है – भारत की कच्चे तेल और एलपीजी आवश्यकताओं का क्रमशः 18 प्रतिशत और 30 प्रतिशत आपूर्ति यहीं से पूरी होती है – भारत, जबकि दुनिया का दूसरा सबसे अधिक आबादी वाला देश है तो सऊदी अरब में सबसे ज़्यादा काम करने वाले लोग भी भारत के ही हैं, जो संख्या बल में करीब 2.6 मिलियन से अधिक हैं और ये लोग वापस भारत में लगभग 8 बिलियन अमेरिकी डॉलर पैसा वहां से भेजते हैं. वित्त वर्ष 21/22 में 42.68 बिलियन अमेरिकी डॉलर के द्विपक्षीय व्यापार संबंधों ने सऊदी अरब को भारत का चौथा सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार का दर्ज़ा दिया था जबकि भारत अब सऊदी अरब का दूसरा सबसे बड़ा व्यापार भागीदार है.

हालांकि दोनों राष्ट्रों के बीच आर्थिक संबंध को और मज़बूत बनाने की असल चुनौती व्यापार नहीं बल्कि निवेश को बढ़ावा देना है. सऊदी राज्य की दिग्गज तेल कंपनी अरामको द्वारा भारतीय समूह रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड के तेल-से-रसायन व्यवसाय में 20 प्रतिशत हिस्सेदारी ख़रीदने के लिए 15 बिलियन अमेरिकी डॉलर की डील को नवंबर 2021 में समाप्त कर दिया गया था और 44 बिलियन अमेरिकी डॉलर की रत्नागिरी एकीकृत रिफाइनरी और पेट्रोकेमिकल्स कॉम्प्लेक्स परियोजना में इसकी साझेदारी की संभावनाओं पर 2019 में ब्रेक लग गया था, इसके बाद भी पश्चिम एशिया और दक्षिण एशिया में दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के बीच स्वाभाविक पूरकता से पैदा होने वाले कई अहम आर्थिक मौक़ों को लेकर अभी भी कोई ख़ास बदलाव की स्थिति नहीं देखी जा रही है. रियाद उद्योग और भौगोलिक, दोनों ही क्षेत्रों में अपनी परिसंपत्तियों में विविधता लाने के लिए उत्सुक है, जबकि नई दिल्ली दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के रूप में अपनी गति को जारी रखने के लिए अधिक से अधिक विदेशी निवेश आकर्षित करना चाहता है. दोनों अर्थव्यवस्थाओं ने अपनी अहमियत साबित कर दी है. अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने साल 2022 में सऊदी अरब के लिए 1.04 अमेरिकी ट्रिलियन डॉलर और भारत के लिए 3.53 अमेरिकी ट्रिलियन डॉलर का सकल घरेलू उत्पाद का अनुमान लगाया है.

सऊदी सॉवरेन पब्लिक इन्वेस्टमेंट फंड (पीआईएफ) ने साल 2020 में रिलायंस के जियो में 1.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर और रिलायंस रिटेल वेंचर्स लिमिटेड में 1.3 बिलियन अमेरिकी डॉलर के निवेश के साथ भारतीय अर्थव्यवस्था के तेजी से बढ़ते क्षेत्रों में एंट्री मारने के लिए कदम बढ़ाए हैं. 

सऊदी सॉवरेन पब्लिक इन्वेस्टमेंट फंड (पीआईएफ) ने साल 2020 में रिलायंस के जियो में 1.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर और रिलायंस रिटेल वेंचर्स लिमिटेड में 1.3 बिलियन अमेरिकी डॉलर के निवेश के साथ भारतीय अर्थव्यवस्था के तेजी से बढ़ते क्षेत्रों में एंट्री मारने के लिए कदम बढ़ाए हैं. ये एक तरफा पूंजी निवेश नहीं है, कुछ महीने पहले मीडिया रिपोर्टस के अनुसार भारत में सबसे बड़े समूहों में से एक, अडानी समूह, एक टाई-अप या एक परिसंपत्ति स्वैप सौदे के ज़रिए पीआईएफ में निवेश करने की संभावना की तलाश कर रहा है, या फिर अरबों डॉलर की हिस्सेदारी ख़रीदकर इसमें शामिल होना चाहता है. भारत और सऊदी अरब में बड़े व्यवसायों के बीच संबंध लगातार बढ़ रहे हैं, भारत के प्रमुख समूह रिलायंस ने हाल ही में अरामको के अध्यक्ष (और पीआईएफ गवर्नर) यासिर अल-रूमाय्यान को अपने बोर्ड में नियुक्त किया है. हाल ही में भारत के महाराष्ट्र राज्य की सत्ता में बीजेपी की वापसी के साथ लंबे समय से रुकी हुई रत्नागिरी परियोजना की वापसी की उम्मीद फिर से जग सकती है. 

भारत में पीआईएफ और अरामको की बढती दिलचस्पी यूं ही नहीं है, बल्कि यह एक बड़ी रणनीतिक योजना का हिस्सा है, जैसा कि सऊदी अरब के ‘विज़न 2030’ में उल्लेख किया गया है. यह दस्तावेज़ अरामको को लेकर बड़ी महत्वाकांक्षओं की ओर इशारा करता है जिसके तहत इसे एक तेल कंपनी से ‘वैश्विक औद्योगिक समूह’ और पीआईएफ के लिए ‘दुनिया का सबसे बड़ा संप्रभु धन कोष’ बनाने का लक्ष्य रखा गया है. पीआईएफ के पास लगभग 400 बिलियन अमेरिकी डॉलर (एसएआर 1,500 बिलियन) की प्रबंधन के तहत मौज़ूद संपत्ति (एयूएम) है, जिसमें एयूएम को साल 2025 तक 1 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर और 2030 तक 2 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर तक बढ़ाने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखा गया है. स्वाभाविक रूप से, अरामको और पीआईएफ दोनों के भविष्य के विकास के लिए एशिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के साथ बहुत क़रीबी समन्वय स्थापित करने की ज़रूरत होगी जो साल 2030 तक महाद्वीप की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के लिए सही ट्रैक पर होगा. आने वाले वर्षों में भारतीय और सऊदी अर्थव्यवस्थाओं की बढ़ती हुई परस्पर भागीदारी उभरती द्विपक्षीय साझेदारी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा साबित होने वाला है.

विज़न 2030 भी भारत को ‘रणनीतिक साझेदारी’ के लिए चुने गए आठ देशों में से बतौर एक शामिल करता है. रणनीतिक क्षेत्र आर्थिक दायरे के मुक़ाबले दोनों देशों के लिए विकास के और अधिक आयाम खोलता है, ख़ास कर इसके ऐतिहासिक रूप से कम आधार को देखते हुए. अक्टूबर 2019 में, सऊदी अरब और भारत ने एक रणनीतिक साझेदारी परिषद की स्थापना की घोषणा की जो रक्षा, सुरक्षा, आतंकवाद, ऊर्जा सुरक्षा और रिन्युएबल एनर्जी जैसे नए क्षेत्रों पर चर्चा करने के लिए दोनों देशों में उच्चतम स्तर पर नेतृत्व को नियमित रूप से शामिल करेगी. जैसे ही दोनों पक्षों के बीच बैठकों का दौर तेज हो रहा है, उसके साथ ही रक्षा और सुरक्षा के क्षेत्र दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय संबंधों में ‘उच्च प्राथमिकताओं‘ के रूप में उभर रहे हैं, और दोनों पक्ष द्विपक्षीय रक्षा सहयोग को बढ़ाने के लिए मिलिट्री टू मिलिट्री एंगेजमेंट का विस्तार करने के साथ संयुक्त सैन्य अभ्यास, विशेषज्ञों का आदान-प्रदान और औद्योगिक सहयोग का विस्तार करने में दिलचस्पी रखते हैं. यह पिछले दशकों के अनुभव से एक उल्लेखनीय बदलाव से कम नहीं कहा जा सकता है, जब सऊदी अरब को भारत के ख़िलाफ़ पाकिस्तानी सैन्य कार्रवाई के ‘मज़बूत समर्थक’ के रूप में देखा जाता था लेकिन भारत के लगातार रणनीतिक और आर्थिक विस्तार और पाकिस्तान के लगातार घरेलू राजनीतिक और आर्थिक संकटों से जूझने का ही यह नतीजा है कि दक्षिण एशिया के प्रति सऊदी अरब के दृष्टिकोण में बड़ा बदलाव आया है.

सऊदी अरब को भारत के ख़िलाफ़ पाकिस्तानी सैन्य कार्रवाई के ‘मज़बूत समर्थक’ के रूप में देखा जाता था लेकिन भारत के लगातार रणनीतिक और आर्थिक विस्तार और पाकिस्तान के लगातार घरेलू राजनीतिक और आर्थिक संकटों से जूझने का ही यह नतीजा है कि दक्षिण एशिया के प्रति सऊदी अरब के दृष्टिकोण में बड़ा बदलाव आया है.

इंडो-अब्राहमिक प्लस

एक लेख में लेखकों में से एक द्वारा गढ़ी गई शब्दावली, इंडो-अब्राहमिक की अवधारणा भारत, इज़राइल और संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) (और सऊदी अरब और मिस्र सहित) के बीच रणनीतिक हितों के बढ़ते अभिसरण की ओर इशारा करती है, जो अंततः उनके बीच एक नए भू-रणनीतिक गठबंधन के उद्भव का कारण बनेगी. “लंबे समय से, भारत, इज़राइल और संयुक्त अरब अमीरात ने लेन-देन के संबंध जोड़े रखे हैं. हालांकि पिछले साल इज़रायल और संयुक्त अरब अमीरात सहित कई अरब राज्यों के बीच नॉर्मलाइजेशन (सामान्यीकरण) एग्रीमेंट, जिसमें यूएई भी शामिल था, साथ-साथ तुर्की की मुस्लिम देशों के मसीहा बनने की कोशिश और पाकिस्तान से यूएई की बढ़ती दूरी का नतीजा यह हुआ कि इसने एक असंभव सा प्रतीत होने वाले अभूतपूर्व ‘इंडो-अब्राहमिक’ गठबंधन को जन्म दिया. यह उभरता हुआ बहुपक्षीय गठबंधन मध्य पूर्व में संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा खाली किए गए स्थान को भरकर क्षेत्र की भू-राजनीति और भू-अर्थशास्त्र को फिर से आकार दे सकता है. हालांकि लेखक का यह तर्क भी है कि “इंडो-अब्राहमिक गठबंधन के लिए सबसे बड़ी चुनौती यह है कि सऊदी अरब जो इस्लाम का केंद्र और अरब में सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, क्या वह उभरते भू-राजनीतिक ब्लॉक के साथ खड़ा रहेगा. रियाद ने तेल अवीव और नई दिल्ली के साथ अच्छे संबंध बनाए रखे हैं और इस समूह को आगे जाकर एक रणनीतिक अवसर के तौर पर देखा जा सकता है”. सऊदी अरब की भू-राजनीति, डेमोग्राफी (जनसांख्यिकी), मुस्लिम देशों पर प्रभाव, आर्थिक ताकत और वैश्विक ऊर्जा बाज़ार पर प्रभाव की क्षमता की वज़ह से जिस इंडो-अब्राहमिक ढांचे की कल्पना की गई है उसके लिए वह एक महत्वपूर्ण स्तंभ बन जाता है, जो वैश्विक आर्थिक विकास के साथ संबंध जोड़ता है. इंडो-अब्राहमिक ढ़ांचे में सऊदी अरब का समावेश आंशिक रूप से रियाद और तेल अवीव के बीच संभावित रिश्तों के सामान्यीकरण पर निर्भर करता है, जो कि अब जल्द ही आकार ले सकता है.

इंडो-अब्राहमिक फ्रेमवर्क

इंडो-अब्राहमिक फ्रेमवर्क सऊदी अरब की रणनीतिक महत्वाकांक्षाओं के साथ अच्छी तरह से मेल खाता है. एशिया, यूरोप और अफ्रीका के बीच एक वैश्विक केंद्र में बदलने के लिए यह अपने ‘अद्वितीय रणनीतिक ताकत’ का लाभ उठा सके जो इसके विज़न 2030 का हिस्सा है. सऊदी अरब ख़ुद को ‘अरब और इस्लामी दुनिया का मसीहा बनाना चाहता है. ये लक्ष्य केवल वैचारिक नहीं है – सऊदी अरब सच में एक ‘ग्लोबल इन्वेस्टमेंट पावरहाउस’ बनने की इच्छा रखता है, जो तेल से कमाए जाने वाले राजस्व से अलग एक अधिक विविध और प्रतिस्पर्द्धी अर्थव्यवस्था बनाने की ओर अग्रसर है. भारत और निवेश के लिए इसकी विशाल ज़रूरतें, विशेष रूप से बुनियादी ढ़ांचे में, सऊदी अरब को अपने आर्थिक लक्ष्यों को पूरा करने का शानदार मौक़ा देती है. दो भारतीय कंपनियों में पीआईएफ का 2.8 बिलियन अमेरिकी डॉलर का मौज़ूदा प्रत्यक्ष निवेश लगभग 120 बिलियन अमेरिकी डॉलर के कुल एयूएम का एक बहुत छोटा सा हिस्सा है जो सऊदी अरब के बाहर निवेश की गई रकम का हिस्सा है. सऊदी अरब ने अपने पर्यटन क्षेत्र में भी भारी बदलाव किया है. जहां लाल सागर पर 500 बिलियन अमेरिकी डॉलर से बनने वाले नियोम ‘मेगा सिटी’ की चर्चा जोरों पर है लेकिन सऊदी अरब के पास एक ऐसी महत्वाकांक्षी योजना है जो सैर-सपाटा से लेकर देश में रहने और काम करने के मौक़ों को लेकर स्थानीय और विदेशियों के दृष्टिकोण को पूरी तरह बदल कर रख देगा.

“इंडो-अब्राहमिक गठबंधन के लिए सबसे बड़ी चुनौती यह है कि सऊदी अरब जो इस्लाम का केंद्र और अरब में सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, क्या वह उभरते भू-राजनीतिक ब्लॉक के साथ खड़ा रहेगा. रियाद ने तेल अवीव और नई दिल्ली के साथ अच्छे संबंध बनाए रखे हैं और इस समूह को आगे जाकर एक रणनीतिक अवसर के तौर पर देखा जा सकता है”


हिंद-प्रशांत क्षेत्र को लेकर भारत की चिंताओं के बारे में काफी कुछ कहा गया है लेकिन ये दक्षिण एशियाई देश अपने ‘विस्तारित पड़ोस’ के हिस्से के रूप में अब पश्चिम एशिया को स्वीकार करने पर विचार कर रहा है. यही वज़ह है कि हाल के दिनों में भारतीय नेताओं ने इस क्षेत्र का काफी दौरा किया है — भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में यूएई के पूर्व राष्ट्रपति खलीफा बिन जायद के निधन पर शोक व्यक्त करने और जून में यूएई के नए राष्ट्रपति के रूप में शेख मोहम्मद बिन जायद को चुने जाने पर बधाई देने के लिए अबू धाबी की यात्रा की थी. ऐसे में भारतीय रणनीति से जुड़े अभिजात वर्ग को भी अब इस रिश्ते में उम्मीद दिखने लगी है.— सी राजा मोहन, एक प्रखर विदेश नीति विचारक का भी मानना है कि ‘सऊदी अरब के सफल आर्थिक और सामाजिक आधुनिकीकरण में भारत की बड़ी हिस्सेदारी है’ और सउदी अरब द्वारा किए जा रहे परिवर्तनकारी सुधारों से भारत लाभ उठा सकता है.

भारत ख़ुद को सऊदी अरब के लिए एक ठोस रणनीतिक और आर्थिक साझेदार के रूप में प्रस्तुत करता है, क्योंकि रियाद रणनीतिक स्वायत्तता चाहता है और ख़ुद को एक वैश्विक मध्य शक्ति के रूप में स्थापित करना चाहता है. भारत और सऊदी अरब दोनों ने यह महसूस करना शुरू कर दिया है कि उनके पास स्वाभाविक तौर पर रणनीतिक अभिसरण के कई मौक़े हैं – तुर्की और ईरान जैसी स्वतंत्र ताकतों से सावधान होते हुए, जिनका लक्ष्य पश्चिम एशिया में वर्तमान भू-राजनीतिक समीकरण को बदलना और वैश्विक अव्यवस्था और शक्तिशाली बनने की प्रतिस्पर्द्धा के इस दौर में अधिक प्रभाव की तलाश करना है. भारत-अब्राहमिक ढ़ांचे के तहत सऊदी अरब और भारत का अलाइन्मेंट पश्चिम एशियाई प्रणाली के विकास के लिए महत्वपूर्ण है जो दीर्घकालिक शांति और स्थिरता सुनिश्चित करता है. इस्लाम और हिंदू धर्म की आध्यात्मिक मातृभूमि के तौर पर इन दोनों देशों में व्यापार और निवेश, इमीग्रेशन (आव्रजन) और संस्कृति, तकनीक और वित्त के द्विपक्षीय क्षेत्रों में बहुत सारी संभावनाएं बाकी हैं जिनका उपयोग अभी नहीं हुआ है. इतना ही नहीं, रक्षा और समुद्री सुरक्षा, क्षेत्रीय और वैश्विक एज़ेंडा-सेटिंग पर गहरे समन्वय में संलग्न होने की काफी गुंजाइश अभी बची हुई है. जैसा कि आने वाले दिनों में वैश्विक अव्यवस्था के जारी रहने की आशंका गहराती ही जा रही है, सऊदी अरब और भारत जैसी मध्यम और क्षेत्रीय शक्तियां अपने भविष्य और अपने क्षेत्रों को निर्धारित करने में बेहद अहम भूमिका निभाने के लिए तैयार दिखती हैं.

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