Published on Jul 14, 2022 Updated 0 Hours ago

संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों को अपने तंग राष्ट्रीय नज़रिए से ऊपर उठना होगा. उन्हें वैश्विक स्तर पर तयशुदा सिद्धांतों और मूल्यों के साथ-साथ अपने राष्ट्रीय सामरिक हितों का सामंजस्य बिठाना होगा.

#United Nations: संयुक्त राष्ट्र चार्टर के ज़रिये मुमकिन है आदर्शवाद और यथार्थवाद के बीच सामंजस्य बिठाना!

इस साल 24 फ़रवरी को रूस ने यूक्रेन पर हमला बोल दिया. बदक़िस्मती से क़रीब पांच महीने बाद भी इस युद्ध का अंत होता नहीं दिख रहा है. आशंका है कि अभी कई महीनों तक जंग के ऐसे ही हालात बने रहेंगे. 2022 की शुरुआत में यूरोप में इस तरह के युद्ध की कोई कल्पना तक नहीं कर सकता था. बहरहाल रूस-यूक्रेन जंग ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की वैश्विक व्यवस्था और संयुक्त राष्ट्र (UN) चार्टर पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं. इस परिस्थिति में संयुक्त राष्ट्र के सभी सदस्य देशों के लिए एक बात बेहद अहम हो गई है. अब उन्हें ये सुनिश्चित करना होगा कि यूक्रेन संकट की प्रतिक्रिया के तौर पर उनके रुख़ और नीतिगत उपायों में आदर्शवाद और यथार्थवाद दोनों का मुनासिब रूप से दख़ल हो.   

75 साल पहले छिड़े ख़ूनी जंग (द्वितीय विश्वयुद्ध) के अवशेषों पर संयुक्त राष्ट्र चार्टर की बुनियाद रखी गई थी. यूरोप और बाक़ी दुनिया में भविष्य में युद्ध की रोकथाम के मक़सद से ये प्रोत्साहनकारी और आकांक्षी दस्तावेज़ सामने रखा गया था. 

75 साल पहले छिड़े ख़ूनी जंग (द्वितीय विश्वयुद्ध) के अवशेषों पर संयुक्त राष्ट्र चार्टर की बुनियाद रखी गई थी. यूरोप और बाक़ी दुनिया में भविष्य में युद्ध की रोकथाम के मक़सद से ये प्रोत्साहनकारी और आकांक्षी दस्तावेज़ सामने रखा गया था. संयुक्त राष्ट्र के “आदर्शवाद” के कारगर होने और सियासी तौर पर लोकप्रियता हासिल करने के कई उदाहरण हमारे सामने हैं. 1948 में मानव अधिकारों पर सार्वभौम घोषणापत्र इसकी शानदार मिसाल है. इस दस्तावेज़ का दुनिया में सबसे ज़्यादा बार अनुवाद हुआ है. इसके तमाम खंडों का नियम आधारित वैश्विक व्यवस्था के उभार में भारी योगदान रहा है. हाल ही में इसकी एक और बानगी देखने को मिली. 2015 में दुनिया के देशों ने टिकाऊ विकास लक्ष्यों से जुड़े 2030 के एजेंडे को मंज़ूरी दी थी. तब संयुक्त राष्ट्र के सभी 193 सदस्य राष्ट्रों ने आम सहमति से इसे स्वीकार किया था. मानव इतिहास में विकास से जुड़े किसी मसले पर ये अब तक की सबसे महत्वाकांक्षी क़वायद है.  

UN चार्टर का सम्मान

UN चार्टर ने 1945 के बाद इस पूरे कालखंड में दुनिया के तमाम देशों की सुरक्षा की है. लिहाज़ा यूक्रेन युद्ध के संदर्भ में इस चार्टर के आदर्शों, सिद्धांतों और मूल्यों का सम्मान बेहद ज़रूरी हो जाता है. ऐसा क़दम आदर्शवादी क़वायद होने के साथ-साथ दुनिया के तमाम देशों के मध्यम और दीर्घकालिक राष्ट्रीय सामरिक हितों के लिए भी अहम होगा. इनमें भारत, टर्की, दक्षिण अफ़्रीका, ब्राज़ील और चीन जैसे अहम विकासशील देश शामिल हैं. अब समय आ गया है कि ये तमाम देश न सिर्फ़ कूटनीतिक शब्दावलियों में बल्कि अपनी गतिविधियों और क़दमों के ज़रिए भी इस मोर्चे पर खरे उतरें. 

इसमें कोई शक़ नहीं कि मौजूदा संदर्भ में UN चार्टर और अंतरराष्ट्रीय नियम आधारित व्यवस्था का खुले तौर पर उल्लंघन किया गया है. संयुक्त राष्ट्र के वजूद में आने के बाद से शायद ही कभी ऐसी घटना देखने को मिली है. लिहाज़ा अंतरराष्ट्रीय रुख़ में आदर्शवाद की एक माकूल हिस्सेदारी ज़रूरी है.

वैश्विक मंच पर इसे नौसिखिया रुख़ समझना उचित नहीं होगा. दरअसल ऐसी किसी क़वायद की जड़ में ये बात छिपी है कि दुनिया का कोई भी देश महज़ आदर्शवाद के भरोसे टिका नहीं रह सकता. वैश्विक स्तर पर किसी भी निर्णय या गुणा-गणित के पीछे हमेशा ही सामरिक राष्ट्रीय हित एक अहम भूमिका निभाते रहे हैं. इसमें कोई शक़ नहीं कि मौजूदा संदर्भ में UN चार्टर और अंतरराष्ट्रीय नियम आधारित व्यवस्था का खुले तौर पर उल्लंघन किया गया है. संयुक्त राष्ट्र के वजूद में आने के बाद से शायद ही कभी ऐसी घटना देखने को मिली है. लिहाज़ा अंतरराष्ट्रीय रुख़ में आदर्शवाद की एक माकूल हिस्सेदारी ज़रूरी है. हाल ही में संयुक्त राष्ट्र महासभा के कम से कम 2 प्रस्तावों के ज़रिए UN के सदस्य देशों ने भारी मतों से इसपर सहमति बनाई है. निश्चित रूप से ये इतिहास का एक अहम लम्हा है. बिना किसी उत्तेजना के छेड़े गए इस जंग पर संयुक्त राष्ट्र के सभी 193 सदस्य देशों ने ख़ुद को इतिहास के जायज़ पक्ष में रखा है. इस मसले पर दुनिया ने आम सहमति का प्रदर्शन किया है. इनमें संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के सभी मौजूदा स्थायी (और स्थायी सदस्यता की चाहत रखने वाले) और ग़ैर-स्थायी सदस्य देश शामिल हैं. इस नाज़ुक घड़ी में इन तमाम देशों के लिए अपने तंग राष्ट्रीय हितों से परे जाकर वैश्विक शांति और सुरक्षा के बचाव को प्राथमिकता देना ज़रूरी हो गया है.    

आदर्शवाद और यथार्थवाद के घालमेल का मतलब यूरोप या उत्तरी अटलांटिक संघि संगठन (नेटो) की समस्याओं और ज़रूरतों को संयुक्त राष्ट्र के दूसरे तमाम सदस्य देशों के मसलों के ऊपर तरजीह देना नहीं है. दरअसल यूक्रेन में जारी जंग सिर्फ़ यूरोप या नेटो की समस्या नहीं है. इस युद्ध से उदारवादी लोकतांत्रिक वैश्विक व्यवस्था पर ख़तरे के बादल मंडराने लगे हैं. संतुलित रूप से इस तंत्र ने दुनिया के सभी देशों लिए बेहतर तरीक़े से काम किया है. पिछले 75 सालों में ख़ासतौर से विकासशील देशों को ये व्यवस्था बहुत रास आई है.   

पुतिन को रोकना इसलिए भी ज़रूरी है कि उनके मंसूबे नेटो की बढ़त को थामने से कहीं ज़्यादा बड़े हैं. उनके बयानों और हरकतों से बार-बार ये बात उभरकर सामने आई है कि वो काफ़ी अर्सा पहले ख़त्म हो चुके रूसी साम्राज्य को वापस पाना चाहते हैं. ऐसा लगता है कि यूक्रेन युद्ध में लगे झटकों और सैन्य हानियों के बावजूद पुतिन के ये मंसूबे जस के तस बने हुए हैं. 

पश्चिम के देश- ख़ासतौर से अमेरिका और जर्मनी अपने अनगिनत गुनाहों पर पर्दा नहीं डाल सकते. ग़ौरतलब है कि पिछले दशक में पुतिन ने कई बार सीरिया, क्रीमिया और अन्य जगहों पर अनेक अवसरों पर अंतरराष्ट्रीय लक्ष्मण रेखाओं का उल्लंघन किया था. इसके बावजूद पश्चिमी ताक़तों ने पुतिन को संदेह का लाभ लेने दिया.

यूक्रेन के मिल जाने से नेटो का आकार बढ़ने का डर निश्चित रूप से पुतिन की सबसे अहम चिंता नहीं रही होगी. 2008 में अमेरिका के समर्थन के बावजूद फ़्रांस और जर्मनी ने यूक्रेन को नेटो में शामिल किए जाने का विरोध किया था. तभी ये बात ज़ाहिर हो गई थी कि यूक्रेन कभी भी नेटो में शामिल नहीं हो सकता. यहां तक कि राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की ने भी हाल ही में सार्वजनिक रूप से ये बात स्वीकार की है. सच्चाई तो ये है कि अगर यूक्रेन को 2008 में नेटो की सदस्यता मिल जाती तो घुसपैठ और जंग की ये वारदात कभी देखने को ही नहीं मिलती. 

पश्चिम के देश- ख़ासतौर से अमेरिका और जर्मनी अपने अनगिनत गुनाहों पर पर्दा नहीं डाल सकते. ग़ौरतलब है कि पिछले दशक में पुतिन ने कई बार सीरिया, क्रीमिया और अन्य जगहों पर अनेक अवसरों पर अंतरराष्ट्रीय लक्ष्मण रेखाओं का उल्लंघन किया था. इसके बावजूद पश्चिमी ताक़तों ने पुतिन को संदेह का लाभ लेने दिया. यूरोपीय संघ (EU) और अमेरिका को सामूहिक रूप से इन नाकामियों की ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए. इन तमाम मसलों पर पश्चिमी देशों द्वारा ठोस और कारगर प्रतिक्रियाएं नहीं जताने (यहां तक कि कई मौक़ों पर ख़ामोशी बरत लेने) से पुतिन के हौसले बढ़ते चले गए. लिहाज़ा उन्होंने इस बार बिना किसी उत्तेजना के जंग छेड़ दिया. 2016 में रूस द्वारा क्रीमिया को अपने साथ मिला लिए जाने की घटना के फ़ौरन बाद जर्मनी ने उसे नॉर्ड स्ट्रीम 2 गैस पाइपलाइन का ठेका दे दिया. संकेत साफ़ थे कि रूस द्वारा अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों का उल्लंघन किए जाने के बावजूद यूरोप की सबसे अहम आर्थिक ताक़त (जर्मनी) उसके साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करने को तैयार है. इस घटना और इसी तरह के बाक़ी प्रकरणों ने फ़रवरी 2022 में रूस द्वारा यूक्रेन पर चढ़ाई किए जाने की बुनियाद तैयार कर दी. 

निश्चित रूप से पश्चिम के इन तमाम फ़ैसलों में दूरदर्शिता का अभाव था. संगीन क़िस्म की ये तमाम हरकतें माफ़ी के क़ाबिल नहीं हैं. इसके बावजूद यूक्रेन पर रूसी आक्रमण से जुड़ी भयानक भूल को वाजिब क़रार नहीं दिया जा सकता. तटस्थता या गुटनिरपेक्षता के नाम पर जंग की ये करतूत कतई जायज़ नहीं है.   

राष्ट्रीय हितों को अतीत या भविष्य के अल्पकालिक नज़रिए से नहीं देखा जा सकता. इसे मध्यम और दीर्घकाल में एक व्यापक रणनीतिक चश्मे से देखने की ज़रूरत है. इस मियाद में ये लगभग तय है कि इस नाजायज़ जंग के चलते भू-राजनीतिक, सैनिक और आर्थिक तौर पर पुतिन की अगुवाई वाले रूस की हालत और पतली होने वाली है. भले ही रूस अतीत में इन तमाम क्षेत्रों में बेहद अहम भूमिकाएं निभा चुका है, लेकिन आने वाले वक़्त में अब वो अपनी पुरानी भूमिका जारी नहीं रख सकेगा. इतना ही नहीं अपने कमज़ोर रुतबे की वजह से रूस भविष्य में चीन के और भी ज़्यादा प्रभाव में रहेगा. उसे चीन की चिरौरी करनी होगी. ये हालात ज़्यादातर देशों के राष्ट्रीय हित में नहीं हो सकते. भारत और क्वॉड के लिए भी ये स्थिति प्रतिकूल साबित होगी. 

इस तर्क को स्वीकारने का मतलब ये नहीं है कि हम पश्चिमी देशों द्वारा पिछले कई दशकों में सुलगाए गए और समय-समय पर अंजाम दिए गए नाजायज़ जंगों और क़ब्ज़ा जमाने की हरकतों को अनदेखा कर दें. इनमें अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम और कुछ और पश्चिमी देशों के अतिक्रमणकारी कारनामे शामिल हैं. मसलन, इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान में पश्चिम की दख़लंदाज़ियों से जुड़ी क़वायद शुरू से ही अपना रास्ता भटक चुकी थीं. ज़ाहिर है इनका नाकाम होना तय था. मिसाल के तौर पर अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान ने अपनी हरकतों से एक बार फिर ये दिखा दिया है कि वो 21वीं सदी में हुकूमत करने लायक ही नहीं है. हाल ही में तालिबान द्वारा लड़कियों और महिलाओं के साथ किए गए बर्तावों से ये बात जगज़ाहिर हो चुकी है. हालांकि यूक्रेन की इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान से तुलना नामुनासिब और गुमराह करने वाली क़वायद होगी.  

निष्कर्ष

राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर सामरिक हितों का सामंजस्य बिठाना मुमकिन है. दुनिया के अनेक विकासशील देश अब तक सैन्य ख़रीदारियों या तेल और गैस के लिए रूस पर निर्भर रहे हैं. इन देशों के लिए ऐसे सामंजस्य बिठाने से जुड़ी गतिविधियों के साथ पश्चिमी या दूसरे स्रोतों से सैन्य टेक्नोलॉजी या तेल और गैस का और ज़ोरशोर से जुगाड़ करने की क़वायद भी ज़रूर जुड़ी होनी चाहिए. अमेरिका, यूरोपीय संघ और नेटो को ये सुनिश्चित करना चाहिए कि ये पूरी प्रक्रिया बेहद कम समय के भीतर पूरी हो जाए. मुमकिन तौर पर इसके लिए लंबे समय से लंबित पड़े तमाम क़दम उठाने होंगे. ग़ौरतलब है कि अमेरिका चंद विकासशील देशों से रूसी आक्रमण के ख़िलाफ़ साफ़ रुख़ अपनाने की अपील करता आ रहा है. उसने इन देशों को अत्याधुनिक सैन्य साज़ो-सामानों के निर्यात पर रोक लगा रखी है. बहरहाल, अब ऐसी पाबंदी हटाने का वक़्त आ गया है. इसी तरह यूरोपीय संघ को भी तत्काल रूसी तेल और प्राकृतिक गैस पर रोक से जुड़ी क़वायद को अमल में लाना होगा. इससे दूसरे देशों को रूस से सस्ते तेल और प्राकृतिक गैस की ख़रीद बढ़ाने या ख़रीद के मौजूदा स्तर में कमी लाने का कोई बहाना नहीं मिल पाएगा. 

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