हाल ही में, उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने राज्य-स्तरीय समान नागरिक संहिता (यूसीसी) लागू करने का एलान किया और यह इशारा किया कि कैसे उनका प्रशासन दूसरों के अनुसरण के लिए एक मिसाल क़ायम कर सकता है. इस एलान के बाद, एक हफ़्ते के अंदर, धामी ने एक सोशल मीडिया पोस्ट के ज़रिये एक ‘विशेषज्ञ समिति’ बनाने की घोषणा की. कई अन्य भारतीय जनता पार्टी-शासित राज्यों ने यूसीसी को आगे बढ़ाने में अपनी दिलचस्पी दिखायी है. केंद्र सरकार को अलग रख, भाजपा-शासित राज्य सरकारों द्वारा क़ानून बनाने और लागू करने के इस तरह के विकेंद्रीकृत रवैये के देश के लिए व्यापक अप्रत्याशित नतीजे हो सकते हैं. उत्तराखंड के ताज़ा घटनाक्रम के आलोक में, यह लेख इस विषय पर ग़ौर करेगा कि भारत में यूसीसी के इर्द-गिर्द बहस किस तरह विकसित हुई है? इसके अलावा, अगर इसे लागू किया गया, तो भाजपा-प्रायोजित यूसीसी की शक्ल क्या होगी?
ख़ूनी बंटवारे के बाद भारत में मुस्लिम संख्या के हिसाब से कमज़ोर समुदाय के रूप में रहे गये थे, लिहाज़ा समुदाय के लिए सुरक्षा की ज़रूरत थी, भले ही वह यूसीसी के non-justiciable (किसी अदालत द्वारा लागू किये जा सकने की योग्यता से परे) होने जैसी चीज़ के रूप में क्यों न हो.
पृष्ठभूमि
भारत में पर्सनल लॉ की जड़ें कम-से-कम ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन तक खोजी जा सकती हैं. अगर 1840 तक पीछे जाएं, तो ब्रिटिश प्रशासन उस वक़्त भारत के लिए स्थानीय विधान (lex loci ) निर्मित करने का इच्छुक था. दिलचस्प है कि, वे समुदायों की ‘निजी’ (पर्सनल) ज़रूरतों से अवगत थे. इस स्थानीय विधान ने क़ानूनों के संहिताकरण पर ज़ोर दिया, लेकिन पर्सनल क़ानूनों के संहिताकरण से परहेज़ किया.
आज़ादी के बाद, यूसीसी या यूनिफॉर्म सिविल कोड का सवाल हमारी संविधान सभा की बहसों में आया. कई तर्कों में उनकी राजनीतिक भावना छिपी हुई थी. उदाहरण के लिए, मोहम्मद इस्माइल खान ने बड़ी अक़्लमंदी से यह दावा करते हुए बहुसंख्यक समुदाय की चेतना को जगाने का प्रयास किया कि बहुसंख्यक भी पर्सनल क़ानूनों की हिफ़ाज़त के किसी प्रावधान के उतने ही ‘लाभार्थी’ हैं. इसके अलावा, मुस्लिम सदस्यों की दलील आंशिक रूप से उनकी अस्तित्व संबंधी चिंता का नतीजा थी. ख़ूनी बंटवारे के बाद भारत में मुस्लिम संख्या के हिसाब से कमज़ोर समुदाय के रूप में रहे गये थे, लिहाज़ा समुदाय के लिए सुरक्षा की ज़रूरत थी, भले ही वह यूसीसी के non-justiciable (किसी अदालत द्वारा लागू किये जा सकने की योग्यता से परे) होने जैसी चीज़ के रूप में क्यों न हो. मसौदा समिति के अध्यक्ष बीआर अंबेडकर के तर्क इन ज़्यादा ‘धार्मिक’ और राजनीतिक तर्कों से भिन्न थे और धारदार क़ानूनी तर्क-आधार को प्रतिबिंबित करते थे. शायद यह पहली बार था कि अंबेडकर ने संविधान सभा में पर्सनल क़ानूनों को सामाजिक न्याय के तर्क के ज़रिये चुनौती दी.
कांग्रेस की सियासी वजह से…
यूसीसी को लेकर चल रही ज़्यादातर बहस के लिए संवैधानिक अस्पष्टता को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है. भविष्य के सांसदों को इस तरह के सवाल से कैसे निपटना था, इस संबंध में व्यापक क़ानूनी ढांचे की मौजूदगी गायब थी. निर्देशक सिद्धांतों के हिस्से से पता चलता है कि यूसीसी से जुड़ा अनुच्छेद 44 भारतीय संविधान में सबसे कम स्पष्ट ढंग से वर्णित प्रावधानों में से एक है. संविधान सभा की बहसों के अध्ययन से यह भी पता चलता है कि यूसीसी को एक समझौते के रूप में गैर-प्रवर्तनीय, और लिहाज़ा निर्देशक सिद्धांतों का हिस्सा बनाया गया.
शाह बानो मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने एक बुज़ुर्ग मुस्लिम महिला के पति को तलाक़ के बाद उसे गुज़ारा भत्ता देने का निर्देश दिया. इसे लेकर मुस्लिम समुदाय, ख़ासकर ताक़तवर धार्मिक नेताओं के बीच ख़ूब हल्ला-गुल्ला मचा, क्योंकि इस फ़ैसले को मुस्लिम पर्सनल लॉ में दखलअंदाज़ी माना गया. इसे भांप कर, राजीव गांधी सरकार ने फ़ैसले को पलटते हुए आनन-फानन में एक क़ानून पारित कर दिया, जिसका साफ़ उद्देश्य मुस्लिम अल्पसंख्यकों को तुष्ट करना था.
यूसीसी की बहस को समझने के लिए साल 1985-86 अत्यंत महत्वपूर्ण है. शाह बानो मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने एक बुज़ुर्ग मुस्लिम महिला के पति को तलाक़ के बाद उसे गुज़ारा भत्ता देने का निर्देश दिया. इसे लेकर मुस्लिम समुदाय, ख़ासकर ताक़तवर धार्मिक नेताओं के बीच ख़ूब हल्ला-गुल्ला मचा, क्योंकि इस फ़ैसले को मुस्लिम पर्सनल लॉ में दखलअंदाज़ी माना गया. इसे भांप कर, राजीव गांधी सरकार ने फ़ैसले को पलटते हुए आनन-फानन में एक क़ानून पारित कर दिया, जिसका साफ़ उद्देश्य मुस्लिम अल्पसंख्यकों को तुष्ट करना था. हिंदू-राष्ट्रवादी भाजपा द्वारा इस क़दम को बेजा अल्पसंख्यक तुष्टीकरण के रूप में देखा गया. लिहाज़ा, क़ानून के ज़रिये आगे बढ़ाये गये सरकार के इस क़दम ने न सिर्फ़ इस मुद्दे का राजनीतीकरण किया, बल्कि, जैसा कि महिला अधिकार वकील फ्लेविया एग्नेस उल्लेख करती हैं, ‘मुस्लिम क़ानून को पिछड़ा और महिला-विरोधी के रूप में निंदित करने के ज़रिये यूसीसी की मांग के संप्रदायीकरण के लिए सुर तय कर दिया.’
इसके अलावा, सुप्रीम कोर्ट जैसे संस्थान (स्पष्टता मुहैया कराने के बजाय) इस विवादास्पद प्रावधान के साथ खेलते रहे हैं. इसका एक उदाहरण था सरला मुद्गल फ़ैसले में व्यक्तिगत अधिकारों के मुद्दे से पेश आने का सुप्रीम कोर्ट का ढंग. यह मामला दो शादियां करने का था, जहां अपनी दूसरी शादी को वैध बनाने के लिए एक हिंदू पुरुष मुसलमान बन गया था. दिलचस्प यह है कि, यह धर्म परिवर्तन महज़ छलावा था क्योंकि शादी के बाद दोनों पक्षों ने ‘हिंदू’ रीति का पालन जारी रखा, और यह बात पति के हलफ़नामे से भी स्पष्ट थी. कोई भी इस सूचना से यह तार्किक निष्कर्ष निकाल सकता है कि यह मामला, दरअसल, दो हिंदू महिलाओं से संबंधित था जो दो शादियां करने वाले हिंदू पति से विवाहित थीं. मगर, जस्टिस कुलदीप सिंह के फैसले ने बहस को एक सांप्रदायिक रंग दे दिया. जस्टिस सिंह ने कहा कि ‘राष्ट्रीय एकता और अखंडता के मक़सद के लिए सिखों, बौद्धों और जैनियों के साथ हिंदुओं ने अपनी भावनाओं का परित्याग कर दिया है, लेकिन कुछ अन्य समुदाय [मुसलमान] नहीं करेंगे, हालांकि संविधान पूरे देश के लिए एक ‘समान नागरिक संहिता’ की स्थापना का निर्देश देता है.’ इस तरह के बयान का एक बड़ा नतीजा यह था कि इसने पहले से ही सांप्रदायिक चर्चा को और प्रोत्साहित किया.
…भाजपा के होने की वजह तक
भाजपा के लिए यूसीसी एक बड़ा चुनावी मुद्दा रहता है, लेकिन 2014 के चुनावों में पार्टी के अकेले बहुमत हासिल करने के बाद से यह केंद्र में आ गया है. 1998 से, सभी घोषणापत्रों में भाजपा ने राष्ट्रीय एकता और जेंडर जस्टिस के लिए यूसीसी की ज़रूरत पर ज़ोर दिया है. उसने चिंतन और कर्म दोनों में, हिंदुत्व की विचारधारा के अनुरूप एक एकाश्म (मोनोलिथिक) भारत के विचार को अथक ढंग से आगे बढ़ाया है. इस लिहाज़ से, एक विचारधारात्मक उद्देश्य से प्रेरित यूसीसी के भीतर क्या-क्या होगा?
मुस्लिम पर्सनल क़ानूनों और भाजपा के बीच के रिश्ते को समझने का एक महत्वपूर्ण क्षण है तीन तलाक़ मामला. 28 दिसंबर 2017 को, तीन तलाक़ के चलन को आपराधिक बनाने वाला विधेयक लोकसभा में पारित हुआ. यह भाजपा के लिए भी उतना ही फ़ायदेमंद था, और उसने इसका स्वागत जेंडर जस्टिस की राह में मील के पत्थर के रूप में किया.
यह स्वीकार करना ही होगा कि चुनावी रूप से भाजपा एक क़ानून पारित करने और उसकी वैधता स्थापित करने के लिए सहज स्थिति में है. हालांकि, अब भी एक लोकतांत्रिक हिचक है जो भाजपा द्वारा उत्पन्न भरोसे-के-अभाव के माहौल के चलते दिखायी देती है. भरोसे का यह अभाव इस शासन के तहत बतौर नागरिक अपने अधिकारों पर दावेदारी में अल्पसंख्यक समुदाय की घबराहट में सबसे ज़्यादा दिखता है.
एक भाजपा-प्रायोजित यूसीसी का मूलबिंदु संभवत: मुस्लिम पर्सनल क़ानूनों में दख़लअंदाज़ी पर केंद्रित होगा. मुस्लिम पर्सनल क़ानूनों और भाजपा के बीच के रिश्ते को समझने का एक महत्वपूर्ण क्षण है तीन तलाक़ मामला. 28 दिसंबर 2017 को, तीन तलाक़ के चलन को आपराधिक बनाने वाला विधेयक लोकसभा में पारित हुआ. यह भाजपा के लिए भी उतना ही फ़ायदेमंद था, और उसने इसका स्वागत जेंडर जस्टिस की राह में मील के पत्थर के रूप में किया.
हालांकि, क्या इस अधिनियम का इस तथ्य से कोई लेना-देना नहीं है कि यह उस सीमारेखा को लांघ गया जहां एक ‘धर्मनिरपेक्ष’ राज्य, पर्सनल (सामुदायिक) क़ानून से मिलता है? यहां एक आवश्यक अंतर्निहित तर्क है जिसे जेंडर जस्टिस के भाजपा के बड़े नैरेटिव द्वारा अपने भीतर समा लिया जाता है. यहां नियंत्रण और सीमा लांघने का एक तत्व शामिल है. एक तरह से, यह कहा जा सकता है कि यह मुस्लिम समुदाय की ख़ुद से कुछ करने की शक्ति (एजेंसी) को नियंत्रित करने और साथ ही मुस्लिम पुरुषों को शैतान के रूप में पेश करने के बारे में है. ख़ास तौर पर, और जब-जब यूसीसी के चश्मे से ग़ौर किया गया, मुस्लिम पर्सनल क़ानूनों का चरित्र बदलने के लिए पर्याप्त शक्ति हड़प लेने के ज़रिये पूरे मामले को ‘जीरो-सम गेम’ में बदल देने के उद्देश्य काम करते प्रतीत होते हैं. इसके अलावा, इसकी संभावना है कि तीन तलाक़ मामला महिलाओं के बारे में क़तई नहीं था, और इस प्रकार, यह भाजपा के यूसीसी के लिए हमारी उम्मीदों को पलट रहा है. सिद्धांत रूप में, तब, इसके एक ‘नारीवादी’ यूसीसी के ठीक विपरीत होने की उम्मीद करना उचित हो जाता है.
निष्कर्ष
भारत में बीते सात दशकों में यूसीसी की बहस महत्वपूर्ण ढंग से आगे बढ़ी है. जिसे लगभग हानिरहित समझौता लगने वाली चीज़ के रूप में अपनाया गया था, उस यूसीसी प्रावधान का 1980 के दशक में राजनीतीकरण हो गया. समय के साथ सभी राजनीतिक व्यवस्थाओं ने पर्सनल क़ानूनों और यूसीसी के साथ खिलवाड़ किया है. अब एक नयी क़ानूनी व्यवस्था आ चुकी है जिसने यह पुन: परिभाषित करने के ज़रिये कि भविष्य की सामूहिक राजनीतिक नैतिकता का हिस्सा कौन हो सकता है और कौन नहीं हो सकता है, अल्पसंख्यकों की क़ानूनी नागरिकता और अधिकारों के बिल्कुल बुनियादी आधार को खंडित किया है. यहां एक उदाहरण नागरिकता संशोधन अधिनियम (2019) है. संक्षेप में, पुरानी सभी व्यवस्थाओं ने यूसीसी के साथ छेड़छाड़ की, लेकिन मौजूदा शासन की क़वायद उसके बहुसंख्यकवादी चरित्र तथा भारत जैसे बहुलतावादी व अत्यंत विविधतापूर्ण देश के विपरीत उसकी एकाश्म विचारधारा पर आधारित इस (यूसीसी के) प्रावधान के हथियारीकरण (वेपनाइजेशन) को देखते हुए, ज़्यादा चिंताजनक है.
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