Published on Jul 05, 2022 Updated 0 Hours ago

ईरान से परमाणु समझौते की राह में आने वाली बाधाएं पश्चिम एशिया में बाइडेन और अमेरिका की परेशानी में बढ़ोतरी करती हैं.

अमेरिका और ईरान के बीच फिर से परमाणु समझौता: जो बाइडेन की राह का कांटा!

चूंकि 2018 में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ईरान परमाणु समझौते से अमेरिका को एकतरफ़ा ढंग से अलग किया, ऐसे में अमेरिका के मौजूदा राष्ट्रपति जो बाइडेन के द्वारा फिर से इस समझौते की तरफ़ लौटने की कोशिशें को उम्मीद से ज़्यादा दिक़्क़तों का सामना करना पड़ा है. कुछ दृष्टिकोण से इस परमाणु समझौते, जिसे ज्वाइंट कंप्रिहेंसिव प्लान ऑफ एक्शन (जेसीपीओए) के नाम से भी जाना जाता है, को बहाल करना संभव नहीं लगता. इस परिस्थिति में पश्चिमी देशों की तरफ़ से आईएईए को सौंपे गए प्रस्ताव के जवाब में ईरान के द्वारा अपने परमाणु ठिकानों के भीतर अलग-अलग जगहों पर नज़र रखने वाले 27 कैमरों को हटाने का फ़ैसला इस संकट को और ज़्यादा बढ़ा सकता है. इसकी वजह से लंबे वक़्त में ईरान की परमाणु महत्वाकांक्षा को नियंत्रित करने की कोशिशें बेकार हो सकती हैं. यूरोप की अगुवाई में हाल के दिनों में अमेरिका और ईरान के बीच बातचीत को फिर से शुरू करने की कोशिशों के बावजूद ये अभी नहीं कहा जा सकता कि बातचीत को अभी तक जितना नुक़सान पहुंचा है, उसको किनारे रखकर एक बार फिर से समझौता हो सकता है. 

यूरोप की अगुवाई में हाल के दिनों में अमेरिका और ईरान के बीच बातचीत को फिर से शुरू करने की कोशिशों के बावजूद ये अभी नहीं कहा जा सकता कि बातचीत को अभी तक जितना नुक़सान पहुंचा है, उसको किनारे रखकर एक बार फिर से समझौता हो सकता है.

Source: IAEA

ईरान के लिए बाइडेन के विशेष दूत रॉब मेले ने इस बात को उजागर किया है कि समझौते की शर्तों के उलट ईरान ने परमाणु हथियारों को बनाने के आधारभूत ढांचे में महत्वपूर्ण रूप से बढ़ोतरी की है. 2015 में समान रूप से जोश और आलोचना के बीच जो उद्देश्य हासिल किया गया था, हाल के दिनों में उस पर भी पानी फिर गया है. फिलहाल परिस्थितियां स्पष्ट रूप से प्रतिकूल हैं. मेले ने बताया कि, “ईरान पर्याप्त मात्रा में संवर्धित यूरेनियम जमा कर रहा है और तकनीकी रूप से वो कुछ ही हफ़्तों में परमाणु हथियार बनाने की क्षमता रखता है. ईरान को रोकना तो दूर हमें जब तक जानकारी मिलेगी, तब तक ईरान परमाणु हथियार के लिए पूरी तैयारी कर चुका होगा”.

जेसीपीओए पर टकराव

ईरान और अमेरिका के बीच तकरार का मुख्य मुद्दा है ईरान के इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड कॉर्प्स (आईआरजीसी) को एक आतंकी संगठन घोषित करना. मई में बाइडेन ने आईआरजीसी को आतंकी संगठनों की काली सूची में डालने का फ़ैसला लिया. इस निर्णय से मध्य-पूर्व में अमेरिका के सहयोगी- इज़रायल, सऊदी अरब और यहां तक कि यूएई भी- शांत हो गए जो ईरान के क़दमों के ख़िलाफ़ इस क्षेत्र में और ज़्यादा अमेरिकी सुरक्षा की मांग कर रहे थे. सऊदी अरब और यूएई जैसे देश यमन के हूती उग्रवादियों के द्वारा किए जा रहे हमलों के शिकार बने हुए हैं. हूती उग्रवादियों ने यूएई के अबूधाबी में लंबी दूरी का एक ड्रोन हमला भी किया जिसमें भारतीय मूल के दो कामगारों की मौत हो गई. वहीं इज़रायल ने ईरान और आईआरजीसी के ख़िलाफ़ एक आक्रामक रुख़ अपनाया है. ख़बरों के मुताबिक़ हाल के दिनों में इज़रायल ने ईरान की सीमा क्षेत्र के भीतर अपने गुप्त अभियान चलाए हैं जिनमें ईरान के परमाणु और सैन्य ठिकानों को निशाना बनाया गया है. इज़रायल के अभियान से जुड़े एक नज़दीकी सूत्र ने वॉल स्ट्रीट जर्नल को बताया कि, “दोनों पक्ष एक दूसरे पर निशाना साध रहे हैं”. हाल के दिनों में ईरान ने आईआरजीसी के प्रमुख हुसैन तैयब को बर्खास्त कर दिया. ख़बरों के मुताबिक़ हुसैन तैयब को बर्खास्त करने की वजह है इज़रायल के द्वारा ईरान के भीतर रक्षा और परमाणु कार्यक्रमों में मिली सफलता.

ईरान और अमेरिका के बीच तकरार का मुख्य मुद्दा है ईरान के इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड कॉर्प्स (आईआरजीसी) को एक आतंकी संगठन घोषित करना. मई में बाइडेन ने आईआरजीसी को आतंकी संगठनों की काली सूची में डालने का फ़ैसला लिया.

ईरान के दृष्टिकोण से बात करें तो जेसीपीओए पर लौटना घरेलू रूप से उतना आसान नहीं है, जितना कुछ लोग सोचते हैं. ईरान ने परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर उदारवादी हसन रूहानी के राष्ट्रपति रहने के दौरान किया था. ईरान के ताक़तवर अति रूढ़िवादियों ने इस समझौते का ज़ोरदार विरोध किया था और इब्राहिम रईसी के अगस्त 2021 में राष्ट्रपति चुनाव जीतने के साथ आख़िरकार वो सत्ता पर काबिज भी हो गए. हालांकि, कुछ विश्लेषकों का मानना है कि राष्ट्रपति चुनाव में रईसी के लिए अनुकूल परिस्थितियां बनाई गई थीं. इन रूढ़िवादियों ने अतीत में अमेरिका पर भरोसा करने को लेकर अपनी नाराज़गी का इज़हार किया था और ट्रंप ने उनकी सोच को सही साबित कर दिया. वैसे कुछ लोगों का मानना है कि परमाणु समझौते पर लौटना रईसी के कार्यकाल में आसान होगा क्योंकि एक रूढ़िवादी नेता के द्वारा जिस समझौते पर सहमति जताई जाएगी वो ईरान के लोगों के बीच ज़्यादा स्वीकार्य होगा लेकिन आईआरजीसी को आतंकी संगठन घोषित करने के मुद्दे ने समझौते की राह में मुश्किल खड़ी कर दी. ईरान के लिए ये ऐसा मुद्दा है जिस पर कोई समझौता नहीं हो सकता है. आईआरजीसी को लेकर विवाद जेसीपीओए के मूल उद्देश्य से भटकने को भी उजागर करता है क्योंकि हथियार नियंत्रण की जो एक व्यवस्था थी वो अब अलग-अलग मुद्दों और शिकायतों को लेकर भू-राजनीतिक संघर्ष बन गया है.  

परमाणु समझौते की तरफ़ नहीं लौटने की संभावित नाकामी सिर्फ़ अमेरिका-ईरान के संबंधों से जुड़ी हुई नहीं है. इस समझौते में चीन, रूस के साथ-साथ यूरोप ने भी महत्वपूर्ण तौर पर राजनीतिक प्रेरणा दी थी. अमेरिका की तरफ़ से समझौते से हटने के बाद ईरान में पहला बड़ा दौरा चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग का था. चीन भले ही इस मौक़े को लंबे वक़्त के लिए ईरान को सहयोगी बनाने के रूप में देखे लेकिन उसे भी ये पता है कि परमाणु हथियार से संपन्न ईरान या इस क्षेत्र में परमाणु हथियारों की होड़ उसके अपने हित के लिए भी फ़ायदेमंद नहीं है. एक बात और ध्यान रखनी चाहिए कि ईरान का अभिजात्य वर्ग पश्चिमी देशों के क़रीब रहना चाहता है. मार्च में यूक्रेन में रूस के युद्ध के बाद अमेरिका और रूस ने बड़ी कूटनीतिक लड़ाई के बावजूद जेसीपीओए को नया जीवन देने को लेकर बातचीत की. यहां तक कि भारत ने भी, जिसे ईरान के साथ अपने ज़्यादातर ऊर्जा संबंधों को तोड़ना पड़ा था क्योंकि जेसीपीओए से पहले के आर्थिक प्रतिबंधों के कारण तेल का व्यापार संभव नहीं था, अपनी कूटनीति और ईरान तक अपनी पहुंच का इस्तेमाल ईरान की अर्थव्यवस्था के लिए परमाणु समझौते के फ़ायदों के बारे में बताने में किया. 

लेकिन जेसीपीओए की अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति के बावजूद बाइडेन की घरेलू चुनौतियां, जो कि यूक्रेन युद्ध की वजह से और भी बढ़ गई हैं, उनका ज़्यादातर समय ले लेती हैं. राष्ट्रपति बाइडेन के आगामी सऊदी अरब और इज़रायल दौरे की मज़बूत क्षेत्रीय सुरक्षा स्थिति के बावजूद तेल की क़ीमत और महंगाई ने अमेरिका को मजबूर कर दिया है कि बाइडेन सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान के साथ मुलाक़ात करें. ये स्थिति तब है जब बाइडेन ने राष्ट्रपति चुनाव के अपने अभियान के दौरान सऊदी अरब को “अछूत” घोषित किया था. 

अमेरिकी दृष्टिकोण 

जब बाइडेन ने अपने कार्यकाल की शुरुआत में अमेरिका को फिर से जेसीपीओए की तरफ़ ले जाने का इरादा जताया था तो ये आम तौर पर ईरान के साथ एक नया परमाणु समझौता करने की वास्तविक रुकावटों के बारे में महसूस करने से ज़्यादा डोनाल्ड ट्रंप के द्वारा लिए गए फ़ैसले को पलटने के बारे में था. तब से कई कारणों से समझ की ये दूरी बढ़ गई है. घरेलू स्तर पर बात करें तो इस साल नवंबर में होने वाले मध्यावधि चुनाव में डेमोक्रेट्स की जीत के हिसाब से बाइडेन के रास्ते में चुनौतियां खड़ी हो गई हैं. इस चुनाव की वजह से राजनीतिक तौर पर बाइडेन ज़्यादा बदलाव नहीं कर सकते हैं. वैसे तो सीनेट में रिपब्लिकन पार्टी के पास इतनी संख्या नहीं है कि वो ईरान से परमाणु समझौते को फिर से बहाल करने की बाइडेन की कोशिशों को रोक सकें लेकिन उनका राजनीतिक विरोध अभी भी जारी है. वित्तीय रूप से बाइडेन का प्रशासन “ईरान न्यूक्लियर डील एडवाइस एंड कंसेंट एक्ट ऑफ 2021” की वजह से मजबूर है क्योंकि इस क़ानून के तहत जेसीपीओए को आगे बढ़ाने के लिए किसी भी तरह की वित्तीय मदद पर प्रतिबंध है जब तक कि राष्ट्रपति बाइडेन सीनेट के सामने राय और सलाह के लिए एक नये समझौते का प्रस्ताव नहीं रखते हैं. इससे भी बढ़कर बात ये है कि अमेरिकी सीनेट की विदेश संबंध से जुड़ी समिति के अध्यक्ष ने व्यापक राजनीतिक भावनाओं को ये कहकर आवाज़ दी कि बाइडेन प्रशासन ये स्वीकार करे कि 2015 के परमाणु समझौते की वापसी अमेरिका के हित में शायद नहीं है

अमेरिका की तरफ़ से समझौते से हटने के बाद ईरान में पहला बड़ा दौरा चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग का था. चीन भले ही इस मौक़े को लंबे वक़्त के लिए ईरान को सहयोगी बनाने के रूप में देखे लेकिन उसे भी ये पता है कि परमाणु हथियार से संपन्न ईरान या इस क्षेत्र में परमाणु हथियारों की होड़ उसके अपने हित के लिए भी फ़ायदेमंद नहीं है.

घरेलू राजनीतिक अखाड़े में बाइडेन प्रशासन के लिए आने वाली मुश्किलों के आगे अमेरिका की चुनौती क्षेत्रीय भू-राजनीति को ईरान के मामले में अपने मुख्य प्रसार के उद्देश्य से विशिष्ट रूप से अलग रखना है. बाइडेन का आगामी यूएई और सऊदी अरब का दौरा जेसीपीओए को लेकर बातचीत के लिए एक चुनौतीपूर्ण पृष्ठभूमि है क्योंकि ईरान के साथ यूएई और सऊदी अरब के संबंध अच्छे नहीं हैं. ईरान को इज़रायल-सऊदी अरब-यूएई की संभावित धुरी के बारे में भी पता होगा जिसे बाइडेन अपनी यात्रा के दौरान आगे बढ़ाने की कोशिश करेंगे. अमेरिका के लिए इस तरह की क्षेत्रीय धुरी अब्राहम अकॉर्ड और आई2यू2 या पश्चिम एशियाई क्वॉड से होने वाली बढ़त को मज़बूत करने में मदद कर सकती है. लेकिन इसकी वजह से ईरान को मजबूर होकर रूस और चीन जैसे साझेदारों के साथ अपने व्यापार और रणनीतिक विकल्प का विस्तार करना पड़ सकता है. वैसे तो चीन ने इस बात का कोई संकेत नहीं दिया है कि वो ईरान से तेल का आयात कम करेगा. वहीं रूस और ईरान की साझेदारी भी आगे बढ़ रही है ताकि पश्चिमी देशों के आर्थिक प्रतिबंधों के असर को कम किया जा सके. रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोफ़ के पिछले दिनों के तेहरान दौरे और चीन के विदेश मंत्री वांग यी के द्वारा लावरोफ़ की यात्रा के दिन ईरान के विदेश मंत्री हुसैन अमीर अब्दुल्लाहियान के साथ फ़ोन पर बातचीत से अमेरिका-ईरान तनाव के बीच इस समानांतर संबंध का पता चलता है.  

बाइडेन का आगामी यूएई और सऊदी अरब का दौरा जेसीपीओए को लेकर बातचीत के लिए एक चुनौतीपूर्ण पृष्ठभूमि है क्योंकि ईरान के साथ यूएई और सऊदी अरब के संबंध अच्छे नहीं हैं. ईरान को इज़रायल-सऊदी अरब-यूएई की संभावित धुरी के बारे में भी पता होगा जिसे बाइडेन अपनी यात्रा के दौरान आगे बढ़ाने की कोशिश करेंगे.

निष्कर्ष

अभी के हिसाब से ऐसा लगता है कि अमेरिका और ईरान के बीच परमाणु समझौते का भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि पहले कौन झुकता है. ईरान की तरफ़ से आर्थिक प्रतिबंध हटाने और सुरक्षा की मांग के जवाब में अमेरिका इस ज़िद पर अड़ा है कि समझौते को लेकर बातचीत और उसे लागू करना तभी संभव हो सकता है जब ईरान “अपनी उन अतिरिक्त मांगों को छोड़ दे जो कि जेसीपीओए से अलग हैं”. लेकिन ये याद रखना ज़रूरी है कि जेसीपीओए एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें अमेरिका और ईरान के अलावा भी कई पक्ष शामिल हैं. जेसीपीओए में शामिल दूसरे पक्षकार, जिनमें अमेरिका के साथ मतभेद के बावजूद चीन और रूस भी शामिल हैं, आख़िरकार ये चाहेंगे कि परमाणु समझौते की फिर से बहाली की कोशिशें कामयाब हो जाएं. 

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Authors

Kabir Taneja

Kabir Taneja

Kabir Taneja is a Fellow with Strategic Studies programme. His research focuses on Indias relations with West Asia specifically looking at the domestic political dynamics ...

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Vivek Mishra

Vivek Mishra

Vivek Mishra is a Fellow with ORF’s Strategic Studies Programme. His research interests include America in the Indian Ocean and Indo-Pacific and Asia-Pacific regions, particularly ...

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