2 अप्रैल 2022 को भारत और ऑस्ट्रेलिया ने आर्थिक सहयोग और व्यापार समझौते (ECTA) पर दस्तख़त किए. ये समझौता, भारत द्वारा तमाम देशों से अलग अलग मुक्त व्यापार समझौते (FTAs) करने को लेकर हालिया उत्साह की एक मिसाल है. ये अंतरिम समझौता, भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच आर्थिक सहयोग के उस व्यापक समझौते (CECA) का सूचक है, जिसके बारे में दोनों देशों ने 11 साल पहले यानी 2011 में बातचीत शुरू की थी.
आर्थिक सहयोग और व्यापार समझौते (ECTA) से ये उम्मीद की जा रही है कि इससे कुछ ख़ास वस्तुओं और सेक्टर के व्यापार की राह में आने वाली बाधाएं कम होंगी या फिर पूरी तरह से ख़त्म हो जाएंगी और इससे दोनों देशों के कारोबारियों के लिए दूसरे देश के बाज़ार तक पहुंच बनाना भी आसान हो जाएगा.
आर्थिक सहयोग और व्यापार समझौते (ECTA) से ये उम्मीद की जा रही है कि इससे कुछ ख़ास वस्तुओं और सेक्टर के व्यापार की राह में आने वाली बाधाएं कम होंगी या फिर पूरी तरह से ख़त्म हो जाएंगी और इससे दोनों देशों के कारोबारियों के लिए दूसरे देश के बाज़ार तक पहुंच बनाना भी आसान हो जाएगा. ये सहमति, आगे चलकर CECA के तहत और ठोस आकार लेगी, जिसमें सबसे ज़्यादा व्यापार की जाने वाली वस्तुओं, अलग अलग उत्पादों, तमाम क्षेत्रों के संसाधनों और सेवाओं, निवेश, सरकारी ख़रीद और बौद्धिक संपदा के मामलों में आपसी व्यापार और सहयोग करना आसान हो जाएगा. आज जब दोनों देशों के बीच आर्थिक सहयोग और व्यापार का समझौता (ECTA) हो चुका है, तो इससे यही उम्मीद की जा रही है कि भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच (सेवाओं और वस्तुओं का) आपसी व्यापार लगभग दोगुना हो जाएगा. ऐसा इसलिए होगा क्योंकि समझौते के तहत व्यापार कर में काफ़ी कमी की गई है. व्यापार बढ़ाने की राह में आने वाली अन्य चुनौतियां भी अगले एक दशक में दूर की जाएंगी. इसके अलावा अब दोनों देश हुनरमंद कामगारों और निवेश को आसान बनाकर सेवा क्षेत्र में व्यापार को बढ़ावा देंगे. जब दोनों देशों के बीच आर्थिक सहयोग का व्यापक समझौता (CECA) होगा, तो व्यापार को और भी बढ़ावा मिलेगा. जहां तक बाज़ार में पहुंच बनाने का सवाल है, तो ऑस्ट्रेलिया ने अपने व्यापार कर के दायरे में आने वाली लगभग सभी वस्तुओं के मामले में भारत को प्राथमिकता देने पर सहमति जताई है. इसमें ज़्यादा श्रम मांगने वाले सेक्टर भी शामिल हैं. इनसे भारत में रोज़गार के मौक़े बढ़ाने में मदद मिलेगी.
खाद्य क्षेत्र के अवसर
कृषि और खाद्य क्षेत्र में भारत, ऑस्ट्रेलिया की कंपनियों से आने वाला निवेश हासिल करने के लिए काफ़ी उत्सुक है, जिससे खेती के सही विकल्प चुनने, संसाधनों के संरक्षण, खाद्य तकनीक, प्रॉसेसिंग और डेयरी सेक्टर में सुधार लाया जा सके. भारत में खाद्यान्न के प्रबंधन में सुधार लाने के लिए ज़रूरी तकनीक और निवेश में सहयोग के साथ साथ लागत और लॉजिस्टिक्स का सही इस्तेमाल करना, इस क्षेत्र के विकास के लिए ज़रूरी होगा.
वैसे भारत के कृषि क्षेत्र के इको-सिस्टम के लिए ऑस्ट्रेलिया से आने वाला खाद्यान्न काफ़ी चुनौतियां खड़ी कर सकता है. हालांकि, इसमें भारत के लिए अवसर भी ख़तरों के बीच ही मौजूद हैं. इसके लिए या तो भारत की मौजूदा व्यवस्था को अपने अंदर क्रांतिकारी बदलाव लाकर, आने वाले समय में इस होड़ के लिए ख़ुद को तैयार रखना होगा- जिसमें उत्पादन की प्रक्रिया से लेकर इसकी मार्केटिंग और प्रॉसेसिंग तक पूरी वैल्यू चेन शामिल है- या फिर भारत का खाद्यान्न क्षेत्र पूरी तरह से ख़त्म हो जाएगा. वैसे तो भारत ने खाद्यान्न के उत्पादन में आत्मनिर्भरता हासिल कर ली है. लेकिन वो कृषि खाद्य व्यवस्था के सामने खड़ी हो रही नई चुनौतियों के हिसाब से इस सेक्टर में सुधार नहीं कर सका है. इससे भारत संसाधनों के इस्तेमाल में कुशलता लाने, इसे समावी बनाने और साथ साथ टिकाऊ बना पाने में भी नाकाम रहा है. इस सेक्टर की बाहरी चुनौती से मुक़ाबला कर पाने की क्षमता, आधुनिक वैज्ञानिक खेती की व्यवस्था विकसित करने, कृषि क्षेत्र के मूलभूत ढांचे में विकास और कृषि- खाद्य आपूर्ति श्रृंखलाओं में सुधार करके उन्हें मज़बूत बनाने पर निर्भर है. दो नीतिगत लक्ष्य हासिल करने के लिए ये परिवर्तन लाना ज़रूरी है: किसानों की आमदनी को दोगुना करना और विश्व कृषि- खाद्य व्यापार में भारत की हिस्सेदारी को 1 प्रतिशत से दोगुना करके 2 प्रतिशत तक ले जाना. इन दो नीतिगत लक्ष्यों के साथ खाद्यान्न की बढ़ती मांग को पूरा करने की चुनौती भी सामने है, जो आबादी में इज़ाफ़े और ख़ास तौर से देश के मध्यम वर्ग का दायरा बढ़ने के साथ साथ, लगातार बढ़ती जा रही है और जो अब बेहतर उत्पादों की मांग (मतलब अनाज से जानवरों के ज़्यादा प्रोटीन वाले उत्पादों तक) कर रही है. देश का मध्यम वर्ग आज ताज़ा खाद्यान्न और प्रीमियम उत्पाद (जिनमें पोषक तत्व ज़्यादा हों और केमिकल कम) की मांग कर रही है. भारत आज एक अनूठे बाज़ार के रूप में विकसित हो रहा है, जहा 1.4 अरब की आबादी अलग अलग तरह के उत्पाद की मांग कर रही है. इसका नतीजा ये हुआ है कि अनाज, तिलहन, दालों, हॉर्टीकल्चर के उत्पादों, उन्नत डेयरी उत्पादों और आला दर्ज़े के मांस की मांग बढ़ रही है.
ऑस्ट्रेलिया के बाग़बानी उत्पादों, गेहूं और दालों के लिए भारत एक अहम बाज़ार है. इसके बावजूद इस बाज़ार में कुछ अनाजों, दालों, तिलहन और बाग़बानी के उत्पादों के कारोबार के विकास की काफ़ी संभावनाएं हैं. हालांकि ऑस्ट्रेलिया और भारत का अनाज के मामले में व्यापार अपनी पूरी क्षमता के हिसाब से नहीं बढ़ सका है.
ऑस्ट्रेलिया के बाग़बानी उत्पादों, गेहूं और दालों के लिए भारत एक अहम बाज़ार है. इसके बावजूद इस बाज़ार में कुछ अनाजों, दालों, तिलहन और बाग़बानी के उत्पादों के कारोबार के विकास की काफ़ी संभावनाएं हैं. हालांकि ऑस्ट्रेलिया और भारत का अनाज के मामले में व्यापार अपनी पूरी क्षमता के हिसाब से नहीं बढ़ सका है. इसकी वजह, भारत द्वारा अपने यहां अनाज के आयात पर लगाया जाने वाला व्यापार कर, घरेलू स्तर पर क़ीमतों में मदद, खेती के संसाधनों को मिलने वाली सब्सिडी और दूसरे संरक्षणवादी क़दम हैं. अंतरिम मुक्त व्यापार समझौता (FTA0) में प्रस्ताव है कि खाद्य उत्पादों पर लागू, इनमें से ज़्यादातर संरक्षण वाले उपाय आने वाले समय में धीरे-धीरे या तो कम किए जाएंगे या फिर पूरी तरह ख़त्म कर दिए जाएं. भेड़ का मांस, ऊन, दालें, बाग़बानी के उत्पाद और वाइन पर आने वाले समय में या तो कर कम किया जाएगा या फिर पूरी तरह से ख़त्म कर दिया जाएगा. ऊन पर लगने वाला पांच फ़ीसद का व्यापार कर इस साल के आख़िर तक पूरी तरह ख़त्म कर दिया जाएगा. इसी तरह, भेड़ के मांस के आयात पर लगने वाला 30 फ़ीसद व्यापार कर पूरी तरह से हटा लिया जाएगा. इसी तरह दालों पर व्यापार कर 30 से घटाकर 15 प्रतिशत किया जाएगा. इसी तरह अगले सात साल में बाकला पर लगने वाला व्यापार कर पूरी तरह से ख़त्म कर दिया जाएगा. इसके साथ साथ, कई बाग़बानी उत्पादों पर भी कर को घटाकर शून्य कर दिया जाएगा. वहीं, वाइन पर व्यापार कर में धीरे धीरे कमी की जाएगी.
भारत का बाज़ार और ऑस्ट्रेलिया की तक़नीक
व्यापार कर में कटौती और कोटा में कमी करके आर्थिक सहयोग का ये व्यापक समझौता, रिसर्च, इनोवेशन और बड़े पैमाने पर उत्पादन के बारे में सहयोग के विकल्प सुझाएगा, जिससे कि भारत में कृषि क्षेत्र में बदलाव लाया जा सके. ख़ास तौर से उसे बेहतर बनाने, कारोबारी स्तर पर उत्पादन करने के साथ साथ उसे जलवायु परिवर्तन के हिसाब से ढालने में सहयोग के सुझाव दिए जाएंगे. ऑस्ट्रेलिया के पास खेती करने, फ़सल तैयार होने के बाद इस्तेमाल होने वाली तकनीक, फूड प्रॉसेसिंग, कौशल विकास और लचीली आपूर्ति श्रृंखलाएं तैयार करने के मामले में ऑस्ट्रेलिया के पास मज़बूत तकनीकी क्षमता और विशेषज्ञता है. ये वही लक्ष्य हैं, जिन्हें भारत अपनी कृषि- खाद्य व्यवस्था में विज्ञान, तकनीक और आविष्कारों (STI) को अपनाकर हासिल करना चाहता है. विज्ञान, तकनीक और आविष्कारों (STI) का खाद्य और कृषि व्यवस्था में इस्तेमाल करना इस नज़रिए से अहम माना जाता है कि इससे व्यापक स्तर पर खाद्य सुरक्षा और पोषण के लक्ष्य हासिल किए जा सकते हैं; जैसे कि, इनकी मदद से नई उभरती संक्रामक बीमारियों और उन ज़िद्दी कीड़ों के असर को सीमित किया जा सकता है, जो पूरी कृषि और खाद्य व्यवस्था में फैल जाते हैं (भारत में हर साल खेती की कुल उपज का लगभग 30-35 प्रतिशत हिस्सा सिर्फ़ कीड़े-मकोड़ों के चलते नष्ट हो जाता है); इससे जलवायु परिवर्तन के खेती पर बुरे असर को कम किया जा सकता है; जलवायु परिवर्तन के हिसाब से ढल जाने वाली फ़सलें विकसित की जा सकती हैं; और महज़ खेती के भरोसे ज़िंदगी चलाने के बजाय खेती को कारोबारी स्तर तक ले जाया जा सकता है.
भारत का बाज़ार जितना बड़ा है- और इसके साथ भारत तकनीक की मदद से कृषि क्षेत्र में जो क्रांति लाने की बात कर रहा है- वो ऑस्ट्रेलिया के लिए एक अवसर है, जिससे वो खेत की आधुनिक तकनीक, मूलभूत ढांचे के विकास और भारत के मध्यम और उच्च मध्यम वर्ग को प्रीमियम खाद्य उत्पाद उपलब्ध कराने के मामले में भारत के साथ लंबे समय की साझेदारी विकसित कर सकता है. ऑस्ट्रेलिया पहले ही भारत को जैविक सुरक्षा के मामले में जानकारी बढ़ाने में मदद कर रहा है, जिससे वो ऐसे जोखिमों से बच सके. ऑस्ट्रेलिया के पास जैविक सुरक्षा की एक व्यापक व्यवस्था है, जो तेज़ी से बदल रहे पर्यावरण के हिसाब से ख़ुद को ढालने में सक्षम है. ऑस्ट्रेलिया की राष्ट्रीय अनाज जैविक सुरक्षा निगरानी रणनीति, उसके खाद्यान्न उद्योग को नए बाज़ार तक पहुंच बनाने के मामले में जल्द से ज़ल्द अवसरों की पहचान करने और निगरानी करने का काम करती है. आर्थिक संबंध मज़बूत होने के चलते, भारत जैविक सुरक्षा के निदान के उपाय अपनाकर अपने निर्यात और आयात की क्षमता में और सुधार कर सकता है, जो आगे चलकर ऑस्ट्रेलिया के साथ द्विपक्षीय व्यापार को बढ़ाने में ही मददगार साबित होगा.
वैल्यू चेन में सुधारों की ज़रूरत
भारत में कृषि क्षेत्र में उदारीकरण की बात तो कई दशकों से होती आ रही है. लेकिन, आज भी भारत का कृषि क्षेत्र, अलग थलग, संरक्षित और तमाम तरह की रियायतें देकर दुलारा बनाए रखा गया है. कृषि क्षेत्र को आधुनिक तौर-तरीक़े अपनाकर उसमें सुधार लाने की किसी भी कोशिश का कड़ा विरोध ही हुआ है. अहम बात ये है कि भारत में खाद्यान्न की कमी के चलते होने वाली महंगाई से आज भी पुराने ढर्रे पर चलते हुए ही निपटा जाता है. सरकार अनाजों का एक सुरक्षित भंडारण तैयार रखती है और सार्वजनिक वितरण प्रणाली के ज़रिए इसे जनता तक पहुंचाती है. महामारी के दौरान भारत सरकार ने वितरण की तमाम व्यवस्थाओं का इस्तेमाल करते हुए, सभी नागरिकों तक खाद्यान्न पहुंचाने की कोशिश की थी. सरकारी व्यवस्था पर इसी निर्भरता की वजह से कृषि बाज़ार की प्रक्रिया में कुशलता लाने के लिए बाज़ार आधारित उपायों की इजाज़त नहीं मिल पाती है. लोग ये नहीं समझ पाते हैं कि देश में अनाज का सुरक्षित भंडार बनाए रखने और इसके नियम दुनिया के कई देशों में असफल साबित हो चुके हैं (मिसाल के तौर पर पापुआ न्यू गिनी में) और आज ऐसे तौर तरीक़े, कृषि उत्पादों की मार्केटिंग, ख़रीद और वितरण के दुनिया में सबसे बेहतर नियमों से मेल नहीं खाते हैं.
1996 में व्यापार और विकास पर संयुक्त राष्ट्र के सम्मेलन (UNCTAD) ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी, जिसमें भारत में खेती की वैल्यू चेन में मौजूद जोख़िमों के प्रबंधन की ज़रूरत पर रौशनी डाली गई थी. इसकी वजह ये है कि दुनिया में बढ़ते भूमंडलीकरण और कृषि के व्यापार में उदारीकरण के चलते भारत के कृषि क्षेत्र को भी नई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा था. रिपोर्ट में इस प्रक्रिया में जोखिम के प्रबंध के बाज़ार आधारित उपायों और संस्थानों की ज़रूरत बताई गई थी. लगभग उसी दौरान केएन काबरा की अध्यक्षता वाली समिति ने 16 कृषि उत्पादों की फ्यूचर ट्रेडिंग दोबारा शुरू करने की सलाह दी थी. नई सदी में बहुत सी वस्तुओं के कारोबार वाले डेरीवेटिव एक्सचेंज की स्थापना का मक़सद, (जोखिम के प्रबंधन) के लिए दांव लगाने और कृषि उत्पादों की असल की क़ीमत का अंदाज़ा लगाने के लिए ज़रूरी बताया गया था.
जब CECA लागू होगा और दोनों देशों के कृषि क्षेत्र को बराबर का मौक़ा मिलेगा, तो भारत की मौजूदा वैल्यू चेन, ऑस्ट्रेलिया के खाद्य क्षेत्र से मुक़ाबला नहीं कर पाएगी. इन हालात में हम यही उम्मीद कर सकते हैं कि ऑस्ट्रेलिया से खाद्य के आयात का भारत में खाद्यान्न के मौजूदा वैल्यू चेन पर बुरा असर ही पड़ने वाला है, न कि भारत के खाद्य क्षेत्र में ऑस्ट्रेलिया के निवेश पर.
अब सबसे बड़ा सवाल तो ये है कि: क़रीब दो दशक से भारत में कारोबार करने के बाद क्या डेरीवेटिव बाज़ार अपनी सही भूमिका निभा पाए हैं? इस सवाल का जवाब मोटे तौर पर न में है. न ही ये बाज़ार कृषि के बंटे हुए बाज़ारों का विकल्प बन सके हैं और न ही ये डेरिवेटिव एक्सचेंज कृषि उत्पादों और ख़ास तौर से खाने के सामान की मार्केटिंग की प्रक्रिया को बेहतर बना सके हैं. पूरे देश में इलेक्ट्रॉनिक स्पॉट मार्केट (मतलब e-Nam) जैसे नए क़दम भी देश के खेती वाले उत्पादों के बाज़ारों को एकजुट करने में नाकाम रहे हैं. क्योंकि भारत में कृषि के बाज़ार बहुत बंटे हैं और लोगों के बीच डिजिटल तकनीक अपनाने में भी बहुत बड़ा फ़ासला है. हालांकि अगर खाद्यान्न की वैल्यू चेन में विदेशी प्रतिद्वंदियों का प्रवेश होता है, तो इन्हें बेहतर बनाने का एक रास्ता निकल सकता है. वरना, जब CECA लागू होगा और दोनों देशों के कृषि क्षेत्र को बराबर का मौक़ा मिलेगा, तो भारत की मौजूदा वैल्यू चेन, ऑस्ट्रेलिया के खाद्य क्षेत्र से मुक़ाबला नहीं कर पाएगी. इन हालात में हम यही उम्मीद कर सकते हैं कि ऑस्ट्रेलिया से खाद्य के आयात का भारत में खाद्यान्न के मौजूदा वैल्यू चेन पर बुरा असर ही पड़ने वाला है, न कि भारत के खाद्य क्षेत्र में ऑस्ट्रेलिया के निवेश पर. ये दोनों ही बातें मेक इन इंडिया और/ या आत्मनिर्भर भारत के लिहाज़ से ठीक नहीं होंगी.
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