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क्वॉड और ऑकस दोनों संगठन भले ही अलग हों लेकिन उनका मूल मकसद एक ही है और वह है विश्व को अड़ियल और तानाशाह चीन की दबंगई से बचाना. ऐसे में क्वॉड के सदस्य भारत जैसे देश की ऑकस को लेकर कोई असहजता नहीं होनी चाहिए.
पिछले कुछ दिन हिंद-प्रशांत क्षेत्र को लेकर खासे हलचल भरे बीते हैं. क्वॉड और ऑकस जैसे संगठन इस हलचल के केंद्र में रहे. चूंकि हिंद-प्रशांत क्षेत्र समान विचार वाले लोकतांत्रिक देशों की सहभागिता और सक्रियता वाला ऐसा क्षेत्र है, जिनका उद्देश्य निरंतर निरंकुश होते चीन पर कुछ अंकुश लगाना है तो ऐसे देशों के इन दोनों संगठनों से यही अपेक्षाएं भी लगी हुई हैं. इस बीच अचानक से अस्तित्व में आए ऑकस ने अवश्य कुछ चौंकाने का काम किया है. आस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और अमेरिका के इस नए संगठन को लेकर आलोचना की जा रही है कि जब अमेरिका और आस्ट्रेलिया जैसे देश पहले से ही क्वॉड के सदस्य हैं, तो फिर इस नए संगठन की क्या आवश्यकता थी? यदि ब्रिटेन को ही साथ लाना था तो क्वॉड का विस्तार किया जा सकता था. जो लोग इन बिंदुओं पर ऑकस की आलोचना और इससे क्वॉड के राह भटकने की बात कर रहे हैं वे सही नहीं हैं.
जहां क्वॉड एक व्यापक विस्तार और साझेदारी वाला संगठन है, वहीं ऑकस विशुद्ध रूप से सामरिक साझेदारी का मंच.
सबसे पहली बात तो यही कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन की बढ़ती दबंगई और उसकी काट के लिए जारी अमेरिकी प्रयासों के बीच इतनी गुंजाइश अवश्य है कि उसमें एक से अधिक संगठन सक्रिय रह सकें. ऐसे में ऑकस और क्वॉड के समांतर रूप से संचालन में कोई समस्या नहीं होनी चाहिए. हमें इन संगठनों की मूल प्रकृति को समझना होगा. जहां क्वॉड एक व्यापक विस्तार और साझेदारी वाला संगठन है, वहीं ऑकस विशुद्ध रूप से सामरिक साझेदारी का मंच. जिन्हें लगता है कि अमेरिका ने बहुत जल्दबाजी में ऑकस के गठन की दिशा में कदम बढ़ाए, उन्हें अमेरिकी तत्परता की वजह भी समझनी चाहिए.
दरअसल, अफगानिस्तान से अपने सैनिकों की वापसी के बाद अमेरिका के बारे में यही धारणा बनती दिख रही थी कि वह अपने अन्य साझेदारों को भी अधर में छोड़ सकता है. ऐसे में इस धारणा को तोड़ने और अपने साथियों में भरोसा जगाने के लिए ही अमेरिका ने ऑकस की संकल्पना को जल्दी से साकार किया
दरअसल, अफगानिस्तान से अपने सैनिकों की वापसी के बाद अमेरिका के बारे में यही धारणा बनती दिख रही थी कि वह अपने अन्य साझेदारों को भी अधर में छोड़ सकता है. ऐसे में इस धारणा को तोड़ने और अपने साथियों में भरोसा जगाने के लिए ही अमेरिका ने ऑकस की संकल्पना को जल्दी से साकार किया. इसीलिए परमाणु शक्तिसंपन्न राष्ट्र न होने बावजूद आस्ट्रेलिया को अमेरिका से परमाणु पनडुब्बियां मिलने जा रही हैं. इसके लिए अमेरिका ने फ्रांस जैसे पुराने साथी के कुपित होने की परवाह भी नहीं की. दरअसल कोरोना काल से ही आस्ट्रेलिया की चीन से अदावत चल रही है. इस स्थिति में उसे अमेरिका से किसी ठोस समर्थन की आवश्यकता थी. अमेरिका ने भी उसे निराश न कर यही संदेश दिया है कि वह अपने साथियों को मझधार में नहीं छोड़ेगा. वहीं आस्ट्रेलिया ने चीन को स्पष्ट संदेश दे दिया है कि वह भले ही कई मामलों में उस पर निर्भर है, लेकिन उसकी आक्रामकता को कतई बर्दाश्त नहीं करेगा. आस्ट्रेलिया ने इसमें कोई मध्यमार्गी विकल्प न चुनकर एक स्पष्ट रुख अख्तियार किया है. उधर ब्रेक्जिट के बाद से ब्रिटेन भी हिंद-प्रशांत क्षेत्र में नए सिरे से सक्रियता बढ़ाने की तैयारी में था. वैसे भी ये तीनों देश पुराने सहयोगी और साझेदार हैं. ऐसे में ऑकस पुराने और स्वाभाविक साथियों की सहभागिता का एक नया मंच ही है.
किसी भी क्रिया की प्रतिक्रिया निश्चित होती है. ऑकस के मामले में भी यही हुआ. इस साझेदारी और आस्ट्रेलिया के साथ रक्षा करार से बाहर होने पर फ्रांस ने बहुत तल्ख तेवर दिखाए. केवल फ्रांस ही नहीं, बल्कि यूरोपीय संघ को भी यह नागवार गुजरा. भारत में भी एक तबके ने सवाल उठाए कि अमेरिका जो तकनीक भारत को देने के लिए तैयार नहीं, वह आस्ट्रेलिया को देने जा रहा है. यहां तक बातें हुईं कि ऑकस के अस्तित्व से क्वॉड हाशिये पर चला जाएगा. ऐसी आपत्तियां वास्तव में अनुचित हैं. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आस्ट्रेलिया और जापान जैसे देशों के साथ अमेरिका का पहले से ही सुरक्षा को लेकर समझौता है. इससे अमेरिका द्वारा आस्ट्रेलिया को उपरोक्त तकनीक हस्तांतरण में कोई बाधा नहीं. जबकि भारत का अमेरिका से ऐसा कोई करार नहीं है. वस्तुत: ऑकस पर आपत्ति जताने के बजाय उसके प्रभाव पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए. यह देखना चाहिए कि उसके गठन से चीन कैसे तिलमिलाया है? बीजिंग को अहसास हुआ है कि आस्ट्रेलिया जैसी क्षेत्रीय शक्ति भी उसके ख़िलाफ निर्णायक फैसला कर बिगुल बजाने की क्षमता रखती है. भारत के नजरिये से देखें तो चीन पर दबाव बनाने वाली ऐसी कोई भी पहल उसके लिए उपयोगी ही कही जाएगी.
जिन लोगों को यह चिंता सता रही है कि ऑकस के कारण क्वॉड किनारे लगा दिया जाएगा उन्हें यह समझना चाहिए कि ऑकस जैसी सामरिक साझेदारी के उलट क्वॉड व्यापक सहयोग वाली विस्तारित अवधारणा है. बीते दिनों क्वॉड राष्ट्रप्रमुखों की बैठक में बनी सहमति के बिंदुओं से भी यह स्पष्ट दिखता है.
जिन लोगों को यह चिंता सता रही है कि ऑकस के कारण क्वॉड किनारे लगा दिया जाएगा उन्हें यह समझना चाहिए कि ऑकस जैसी सामरिक साझेदारी के उलट क्वॉड व्यापक सहयोग वाली विस्तारित अवधारणा है. बीते दिनों क्वॉड राष्ट्रप्रमुखों की बैठक में बनी सहमति के बिंदुओं से भी यह स्पष्ट दिखता है. उसमें अवसंरचना विकास, जलवायु परिवर्तन से लेकर निवेश जैसे बिंदुओं पर चर्चा की गई. क्वॉड वैश्विक महत्व के अहम बिंदुओं पर समग्रता में अपनी भूमिका निभाने के लिए प्रतिबद्ध दिखता है. जैसे यूरोपीय संघ के साथ वह कनेक्टिविटी के मसले पर सहयोग बढ़ाना चाहता है. दक्षिण कोरिया जैसे देश के साथ सेमीकंडक्टर उत्पादन में आगे बढ़ने की संभावनाएं तलाश रहा है तो आसियान देशों को साथ लाकर व्यापारिक मोर्चे को मजबूत बनाना चाहता है. ऐसे में यदि क्वॉड में सामरिक साङोदारी का तत्व जोड़ेंगे तो तमाम संभावित साझेदार देशों के लिए इस संगठन के साथ औपचारिक रूप से जुड़ना कुछ असहज हो जाएगा. यही कारण है कि क्वॉड चीन की अपनी तरह से घेराबंदी कर रहा है तो ऑकस उस पर अपने हिसाब से शिकंजा कसेगा. ये दोनों संगठन भले ही अलग हों, लेकिन उनका मूल मकसद एक ही है और वह है विश्व को विस्तारवादी, अड़ियल और तानाशाह चीन की दबंगई से बचाना और वैश्विक ढांचे को संतुलित करना.
वास्तव में चीन पर किसी भी प्रकार से बनाया जा रहा दबाब भारत के लिए अच्छा ही है.
क्वॉड के सदस्य भारत जैसे देश की ऑकस को लेकर कोई असहजता नहीं होनी चाहिए. वास्तव में चीन पर किसी भी प्रकार से बनाया जा रहा दबाब भारत के लिए अच्छा ही है. इस बीच भारत को चाहिए कि वह इन नई साझेदारियों से फ्रांस जैसे जो पुराने सहयोगी छिटक रहे हैं, उन्हें मनाने और साधने में मध्यस्थता करने के प्रयास करे ताकि चीन के ख़िलाफ न केवल मोर्चा और मजबूत किया जा सके, बल्कि उसमें किसी भी तरह के बिखराव की आशंका भी समाप्त हो जाएं.
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Professor Harsh V. Pant is Vice President – Studies and Foreign Policy at Observer Research Foundation, New Delhi. He is a Professor of International Relations ...
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