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अमेरिका के ख़िलाफ़ पश्चिम एशियाई देशों के हितों को बचाने में चीन उनकी मदद तो कर सकता है लेकिन ज़मीन पर चीन की कूटनीति में कमी दिखाती है कि महत्वाकांक्षा और वास्तविकता के बीच अभी भी अंतर है.
आतंकवादी संगठन हमास के द्वारा अक्टूबर महीने की शुरुआत में इज़रायल पर हमले को लेकर चीन की आधिकारिक प्रतिक्रिया “दो देशों वाले समाधान” पर ज़ोर देना और झगड़े को तुरंत ख़त्म करने की अपील थी. चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने फिलिस्तीन के मुद्दे को लेकर एक व्यापक सर्वसम्मति बनाने के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय शांति सम्मेलन आयोजित करने का प्रस्ताव भी रखा है. चीन ने गाजा में हमास के ख़िलाफ़ इज़रायल के अभियान को आत्मरक्षा के दायरे से बहुत ज़्यादा बताया है. मौजूदा संकट को लेकर चीन के किसी भी बयान में हमास की आलोचना नहीं की गई है. चीन के दृष्टिकोण का उद्देश्य अरब हितों के साथ सार्वजनिक तौर पर एकजुटता दिखाना और ख़ुद को ऐसे इलाक़े में शांति दूत के रूप में स्थापित करना है जिसे व्यापक तौर पर अमेरिकी प्रभाव वाला माना जाता है. चीन का ये रुख शीत युद्ध के दौर से चीन की नीति की निरंतरता है जो महाशक्तियों की राजनीति के नए युग के लिए तैयार की गई है.
चीन का ये रुख शीत युद्ध के दौर से चीन की नीति की निरंतरता है जो महाशक्तियों की राजनीति के नए युग के लिए तैयार की गई है.
पश्चिम एशिया (मध्य पूर्व) संकट को लेकर चीन का दृष्टिकोण उसकी ऐतिहासिक और समकालीन भू-राजनीति का मिश्रण है. इस समय चीन ख़ुद को ऐसे रुख के आसपास रखे जो उसके साझेदारों जैसे कि रूस और ईरान को फायदा पहुंचाए. रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ने बस्तियों के विस्तार को लेकर इज़रायल की आलोचना की है और इज़रायल की घरेलू राजनीति को मौजूदा संकट से जोड़ा है. क्षेत्रीय समीकरणों से आगे चीन उसी तरह का संतुलन बनाए हुए हैं जैसा उसने रूस और यूक्रेन के बीच बनाया था. वहां उसने अतीत की पश्चिमी देशों की नीतियों की आलोचना और क्षेत्रीय अखंडता के लिए सम्मान पर ज़ोर के बीच संतुलन बनाया था.
चीन के सैन्य विशेषज्ञ सॉन्ग योंगपिंग ने इज़रायल के युद्ध में उतरने के लिए अमेरिका के नैतिक समर्थन को उकसावे के रूप में बताया. उन्होंने ये भी कहा कि गज़ा में सैन्य हमले को लेकर अंतर्राष्ट्रीय नाराज़गी के बावजूद इज़रायल की बेपरवाही का कारण भी अमेरिका ही है. इसके अलावा, सॉन्ग ने गज़ा में इज़रायल के अभियान में गलतियों को भी उजागर किया है. उनके मुताबिक, इज़रायल के हमलों से बड़ी संख्या में आम लोगों की मौत की आशंका है. चीन के मीडिया में पूर्वानुमान लगाया गया है कि मौजूदा संघर्ष के एक व्यापक युद्ध में बदलने की आशंका है. ग्लोबल टाइम्स जैसे अख़बारों में इसकी तुलना पश्चिम एशिया में “छठे युद्ध” से की गई है. पूरे इलाक़े के लिए प्रलय के परिदृश्य की तरह निंगशिया यूनिवर्सिटी में पश्चिम एशिया के विशेषज्ञ ली शाओशियान सावधान करते हैं कि हिज़बुल्लाह जैसे समूह अपनी भागीदारी बढ़ा सकते हैं और इस संकट में और बढ़ोतरी कर सकते हैं.
जहां तक भविष्य के परिदृश्य की बात है तो शिंघुआ यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर शी गैंगझेंग के द्वारा एक नज़रिया पेश किया गया है जिसके मुताबिक हमास को ख़त्म करने के लिए इज़रायल की सेना को हमास की सैन्य शाखा (मिलिट्री विंग) को मिटाना होगा और इस मक़सद को पूरा करने के लिए इज़रायली डिफेंस फोर्स को गज़ा पर कब्ज़ा करना होगा. फूडान यूनिवर्सिटी के ज़ाऊ सिकियांग और ली शाओशियान दलील देते हैं कि गज़ा पर नियंत्रण इज़रायल के लिए बहुत बड़ा बोझ बनेगा.
पूर्वी एशिया के सांस्कृतिक इलाक़े में चल रही चर्चा में अमेरिका और पश्चिम एशिया को लेकर उसके कूटनीतिक नज़रिए पर भी ध्यान दिया गया है. पश्चिम एशिया में चीन के पूर्व दूत वू साइके ने पश्चिम एशिया में सक्रिय अलग-अलग फैक्टर पर ध्यान दिया है. वू कहते हैं कि राजनीति में “यहूदी लॉबी” के असर ने जहां अमेरिका की विदेश नीति में इज़रायल की अहमियत को सुनिश्चित किया है, वहीं पश्चिम एशिया में संघर्ष में बढ़ोतरी एशिया-पैसिफिक में अमेरिका को उसकी प्राथमिकताओं की तरफ से ध्यान खींचती है. वू का आकलन है कि इस तरह के दबाव अमेरिका को युद्ध रोकने– संभवत: गज़ा में इज़रायल के अभियान का हवाला- में साथ देने के लिए प्रेरित करेगा ताकि इस इलाक़े के दूसरे देशों को सैन्य कार्रवाई में शामिल होने से रोका जा सके. एक आकलन ये भी है कि इस क्षेत्र में अमेरिका के रुतबे में गिरावट आई है. इसकी वजह ये है कि पश्चिम एशिया में अमेरिका कई युद्धों में शामिल रहा है और दूसरे देशों के आर्थिक प्रभाव में बढ़ोतरी हुई है. वू का अनुमान है कि पश्चिम एशिया में अमेरिकी सैन्य मौजूदगी के बावजूद नए शक्ति संतुलन- चीन के उदय को देखते हुए- की वजह से अरब देशों में कूटनीतिक भागीदारी में “स्वायत्तता का एहसास” बढ़ रहा है. इस पूरी समीक्षा में ईरान को इस क्षेत्र में अमेरिका के कूटनीतिक दृष्टिकोण के पीड़ित के तौर पर दिखाने की कोशिश की गई है. वू ऐसी तस्वीर खींचते हैं कि अमेरिका इस क्षेत्र की ताकतों के बीच सुलह नहीं चाहता है और उसने पश्चिम एशिया में नेटो की तरह ईरान के ख़िलाफ़ एक संगठन बनाने की कोशिश की है.
जहां अमेरिका की विदेश नीति में इज़रायल की अहमियत को सुनिश्चित किया है, वहीं पश्चिम एशिया में संघर्ष में बढ़ोतरी एशिया-पैसिफिक में अमेरिका को उसकी प्राथमिकताओं की तरफ से ध्यान खींचती है.
पश्चिम एशिया में चीन की रणनीति ये है कि यहां के संकट के लिए अमेरिका की विदेश नीति को ज़िम्मेदार ठहराया जाए. दूसरा, चीन इज़रायल के द्वारा अपने फिलिस्तीनी अल्पसंख्यकों के प्रति बर्ताव पर ध्यान खींचना चाहता है और इस तरह “दो देशों वाले समाधान” के ज़रिए इसे सुलझाना चाहता है. हालांकि ये एक विडंबना है क्योंकि चीन ख़ुद “वन चाइना” के सिद्धांत को मानता है जो ताइवानी राष्ट्रीयता से इनकार करता है. अंत में, एक घटना का ज़िक्र ज़रूरी है जहां चीन में इज़रायली दूतावास के एक कर्मचारी पर हमला किया गया है. चीन को ये अवश्य ध्यान में रखना चाहिए कि फिलिस्तीनी उद्देश्य को बढ़ावा देना और हमास के आतंकवाद पर पर्दा डालना शिनजियांग प्रांत में निष्क्रिय हो चुके वीगर संघर्ष में जान फूंकने का एक कारण बन सकता है.
ऊपर कही गई बातें चीन के उद्देश्यों के लिए अच्छी साबित होंगी. अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका की वापसी की तुलना अक्सर उसकी ज़रूरत से की गई है ताकि वो अपने संसाधनों को रूस-यूक्रेन संघर्ष की तरफ निर्देशित कर सके. मध्य पूर्व में दूसरे ‘मोर्चे’ का मतलब है कि अमेरिका का ध्यान इंडो-पैसिफिक जैसे युद्ध क्षेत्रों से और भी भटकेगा. ये कई बड़े युद्ध के क्षेत्रों को एक साथ चलाने की अमेरिका की क्षमता के बारे में एक रणनीतिक नैरेटिव को भी पेश करता है. 9/11 के बाद के युग में अफ़ग़ानिस्तान और इराक़- दोनों देशों में अमेरिका की सामरिक नाकामी के पीछे एक के लिए दूसरे की बदइंतज़ामी को बताया गया. इसका अर्थ ये है कि इराक़ युद्ध को ध्यान भटकाने की तरह देखा गया जिसकी वजह से अंत में अफ़ग़ानिस्तान में भी अमेरिका के अभियान की हार हुई.
अमेरिका के ख़िलाफ़ हितों की रक्षा के मामले में क्षेत्रीय देशों के लिए चीन उपलब्ध हो सकता है लेकिन मध्य पूर्व में इस समय ज़मीन पर चीन की कूटनीति का न होना दिखाता है कि महत्वाकांक्षा और वास्तविकता के बीच अभी भी अंतर है.
अंत में, चीन की आकांक्षा संघर्षों में मध्यस्थ की भूमिका निभाने वाला देश बनने की भी है. इस साल मार्च में सऊदी अरब और ईरान ने कूटनीतिक संबंधों को फिर से शुरू करने का ऐलान किया. ये समझौता चीन ने कराया था और इसकी घोषणा बीजिंग में हुई. एक महीने बाद अप्रैल में चीन ने इज़रायल और फिलिस्तीन के बीच मध्यस्थता के पुराने प्रस्ताव को फिर से दोहराया. हालांकि वास्तविकताएं अलग हैं. अमेरिका के विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन की व्यापक शटल डिप्लोमेसी और उसके बाद अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन के द्वारा इज़रायल के दौरे ने दिखाया है कि अरब और इज़रायल की दिलचस्पी अभी भी अमेरिका की तरफ देखने की है, वो अभी भी अमेरिका को प्रबल बाहरी ताकत मानते हैं. अमेरिका के ख़िलाफ़ हितों की रक्षा के मामले में क्षेत्रीय देशों के लिए चीन उपलब्ध हो सकता है लेकिन मध्य पूर्व में इस समय ज़मीन पर चीन की कूटनीति का न होना दिखाता है कि महत्वाकांक्षा और वास्तविकता के बीच अभी भी अंतर है.
कल्पित ए. मंकिकर ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के स्ट्रैटेजिक स्टडीज़ प्रोग्राम में फेलो हैं.
कबीर तनेजा ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के स्ट्रैटेजिक स्टडीज़ प्रोग्राम में फेलो हैं
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Kalpit A Mankikar is a Fellow with Strategic Studies programme and is based out of ORFs Delhi centre. His research focusses on China specifically looking ...
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