Author : Shashidhar K J

Published on Nov 12, 2021 Updated 0 Hours ago

चीन में नए नियमों के तहत 18 साल से कम के गेमर्स अब रात के 10 बजे से लेकर सुबह 8 बजे तक गेम नहीं खेल सकेंगे. इतना ही नहीं सोमवार से शुक्रवार तक गेमर्स सिर्फ़ 90 मिनट और सप्ताहांत और छुट्टियों के दिनों में केवल तीन घंटे ही वीडियो गेम का मज़ा ले सकेंगे.

ऑनलाइन गेमिंग: थोड़ा रुककर, सोच-समझकर गेमिंग के नियमों में बदलाव लाना बेहद ज़रूरी

नाबालिगों और कच्ची उम्र के युवाओं में वीडियो गेमिंग की लत पर लगाम लगाने के लिए चीन में नए क़ानून बनाए गए हैं. नए नियमों के तहत 18 साल से कम के गेमर्स अब रात के 10 बजे से लेकर सुबह 8 बजे तक गेम नहीं खेल सकेंगे. इतना ही नहीं सोमवार से शुक्रवार तक गेमर्स सिर्फ़ 90 मिनट और सप्ताहांत और छुट्टियों के दिनों में केवल तीन घंटे ही वीडियो गेम का मज़ा ले सकेंगे. इतना ही नहीं, चीन की सरकार ने महीने भर में वीडियो गेम के ऊपर ख़र्च होने वाली रक़म की अधिकतम सीमा भी तय कर डाली है. वीडियो गेमर्स अब वीडियो गेम्स पर महीने में ज़्यादा से ज़्यादा 200 युआन ही ख़र्च कर सकेंगे. नाबालिगों को इस लत से बचाने के लिए जापान और दक्षिण कोरिया में भी इसी तरह के क़ानून बनाए गए हैं. वहां यूज़र्स पहले से तय किए गए ख़ास समयों पर ऑनलाइन गेम्स से या तो अपने-आप लॉग आउट हो जाते हैं या उन्हें खेल बंद करने की चेतावनी मिलने लगती है.

नाबालिगों पर अपने संभावित कुप्रभावों और लत को बढ़ावा देने के चलते एक माध्यम के तौर पर वीडियो गेम्स हमेशा से सरकारों और राजनेताओं के निशाने पर रहे हैं. 2018 में विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने गेमिंग की लत को मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े विकारों की श्रेणी में रखा था. WHO ने अपनी रिपोर्ट में नौजवानों के दिमाग़ पर वीडियो गेम्स के प्रभावों पर ज़ोर दिया था. बहरहाल, अमेरिका में स्कूलों में हुई गोलीबारी की घटनाओं के बाद बंदूकों से जुड़े क़ानूनों में सुधार लाने की बजाए फ़र्स्ट पर्सन शूटर (एफ़पीएस) और शूटर गेम्स को बलि का बकरा बना दिया गया. इन पर वर्चुअल माध्यमों के ज़रिए हिंसा की तस्वीरें परोसकर बच्चों को असंवेदनशील बनाने और युवाओं के दिलोदिमाग़ को भटकाने का इल्ज़ाम लगाया गया. 1990 के दशक की शुरुआत में जब वीडियो गेम्स का चलन बिल्कुल शुरू ही हुआ था, तब भी अमेरिकी कांग्रेस की सुनवाइयों में इनकी खिंचाई की जाती रही थी. अमेरिकी सीनेटर जो लाइबरमैन और हर्ब कोल ने “तस्वीरों के ज़रिए हिंसा को हक़ीक़त में परोसने” के लिए वीडियो गेम उद्योग को खूब खरी-खोटी सुनाई थी. उन्होंने वीडियो गेम उद्योग पर नौजवानों को गुमराह करने का आरोप लगाया था.

नाबालिगों पर अपने संभावित कुप्रभावों और लत को बढ़ावा देने के चलते एक माध्यम के तौर पर वीडियो गेम्स हमेशा से सरकारों और राजनेताओं के निशाने पर रहे हैं. 2018 में विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने गेमिंग की लत को मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े विकारों की श्रेणी में रखा था.

राजनेता अक्सर युवा मन पर वीडियो गेम्स के कुप्रभावों को लेकर चिंता ज़ाहिर करते रहे हैं. हालांकि भारत में गलवान घाटी में हुए हमले के बाद वीडियो गेम्स के ख़िलाफ़ चल रही मुहिम ने राष्ट्रवादी रुख़ अख़्तियार कर लिया. उसके बाद भारत सरकार ने PlayerUnknown’s Battlegrounds Mobile (PUBG) समेत तमाम दूसरे चीनी ऐपों पर पाबंदी लगा दी. राष्ट्रीय सुरक्षा को इन ऐप से पहुंचने वाले ख़तरों के मद्देनज़र ये रोक लगाई गई. हालांकि हक़ीक़त ये है कि PUBG गेम को दक्षिण कोरिया की वीडियो गेम कंपनी ब्लूहोल ने तैयार किया है. चीनी गेम पब्लिशर कंपनी टेंशेंट इसे भारत में केवल डिस्ट्रिब्यूट करने का काम करती है.

ऑनलाइन गेमों के प्रति अनचाही लत से अभिभावकों में चिंता

बहरहाल कोविड-19 महामारी के ख़तरों ने बच्चों को घरों में क़ैद कर दिया. घरों में बंद बच्चे वीडियो गेम्स खेलते हुए स्क्रीन के सामने ज़्यादा से ज़्यादा वक़्त बिताने लगे. बच्चों में बढ़ रही इस अनचाही लत से अभिभावकों की चिंता बढ़ गई है. बच्चे स्क्रीन के सामने ज़रूरत से ज़्यादा वक़्त बिताने लगे हैं. ऐसे में अभिभावकों की ख़्वाहिश है कि हिंसा को बढ़ावा देने वाले इन वीडियो गेम्स के ख़िलाफ़ कुछ न कुछ क़दम उठाया जाए. हो सकता है कि भारत के नीति-नियामक और राजनेता भी इस मामले में चीनी नक़्शेक़दम पर चलते हुए वहां लगाई गई पाबंदियों जैसी सख़्ती शुरू करना चाहें. हालांकि इस वक़्त शायद थोड़ा ठहरकर और ठंडे दिमाग़ से फ़ैसला लेने की दरकार है. सबसे पहले हमें ये समझना होगा कि वीडियो गेम उद्योग और गेमर्स के लिए दरअसल परेशानी का सबब क्या है.

हक़ीक़त ये है कि PUBG गेम को दक्षिण कोरिया की वीडियो गेम कंपनी ब्लूहोल ने तैयार किया है. चीनी गेम पब्लिशर कंपनी टेंशेंट इसे भारत में केवल डिस्ट्रिब्यूट करने का काम करती है.

क्या बच्चों को हिफ़ाज़त की ज़रूरत है?

निश्चित तौर पर वीडियो गेम इंडस्ट्री को कई मसले प्रभावित कर रहे हैं. इस उद्योग के लिए ज़रूरी नियम-क़ायदे बनाना लाज़िमी है. हालांकि बच्चों को हानिकारक सामग्रियों से बचाने के लिए नैतिकता के चश्मे से पटकथा तैयार कर नियम बनाने का विचार शायद बेहतर सोच नहीं होगी. वीडियो गेम्स को एक माध्यम के तौर पर कला के रूप में ऊंचा दर्जा मिल चुका है. इनमें जटिल परिकल्पनाएं और भावनाएं जुड़ी होती हैं. वीडियो, ऑडियो या टेक्स्ट के मुक़ाबले वीडियो गेम्स में इन परिकल्पनाओं और भावनाओं को शायद कहीं अच्छे तरीक़े से पेश किया जाता है. वैसे ये भी सच है कि वीडियो गेम्स पर अक्सर एक बड़ा इल्ज़ाम लगाया जाता रहा है. आलोचकों का मानना है कि इन गेम्स को इस तरह से तैयार किया जाता है कि इनकी लत पड़ जाती है. वीडियो गेम्स की लत में पड़े यूज़र्स दूसरे कामकाज छोड़कर इसके पीछे कहीं ज़्यादा समय लगाने लगते हैं. इस सिलसिले में गेम कंपनियों को संतुलन बिठाते हुए आगे बढ़ना होगा. उन्हें ये सुनिश्चित करना होगा कि उनके गेम लुभावने और मनोरंजक बने रहें या फिर अगर यूज़र्स को वो मनोरंजक न लगें तो वो गेम को बीच में ही छोड़ सकें.

ऐसा नहीं है कि यूज़र्स का ध्यान अपनी ओर खींचना और उसे बनाए रखना सिर्फ़ वीडियो गेम की ही समस्या है. सोशल मीडिया, फ़िल्म, टेलीविज़न, रेडियो कार्यक्रम, पॉडकास्ट्स और यहां तक कि प्रिंट माध्यम भी इस चुनौती से दो-चार होते हैं. इस सिलसिले में चिंता दरअसल कंपनियों द्वारा यूज़र्स का ध्यान खींचने के लिए अपनाए जाने वाले हथकंडों को लेकर है. मिसाल के तौर पर सोशल मीडिया कंपनियां अपने एल्गोरिथम में बदलाव कर पुराने पोस्ट्स को एक बार फिर से सामने ला देती हैं. इससे यूज़र्स का चाहे-अनचाहे उन पोस्ट्स के साथ दोबारा जुड़ाव शुरू हो जाता है. हालांकि इसका एक ग़ैर-इरादतन असर भी देखने को मिलता है. पुरानी पड़ चुकी सामग्रियों और घिसी-पिटी सूचनाओं को नए रंग रूप में पेश कर मौजूदा संदर्भों को धुंधला या गुम करने की कोशिश की जाती है. इसके ज़रिए झूठी और फ़र्जी जानकारियों का और ज़्यादा प्रचार-प्रसार किया जाता है.

यूजर्स को गेम से जुड़ी (in-game) ख़रीदारियों के लिए किया जाता है मजबूर

वीडियो गेम्स के मामले में कमाई के विकल्प कई गुना बढ़ जाते हैं. दरअसल वीडियो गेम्स के डेवलपर्स उस समूचे वर्चुअल वातावरण को नियंत्रित करते हैं जिसमें खिलाड़ी प्रवेश करते हैं. वीडियो गेम इंडस्ट्री का राजस्व फ़िल्मों, टेलीविज़न, म्यूज़िक और प्रिंट जैसे मीडिया के दूसरे स्वरूपों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा है. ये बात किसी से छिपी भी नहीं है. वीडियो गेम इंडस्ट्री की कमाई अब ज़्यादातर माइक्रो ट्रांजेक्शन  के ज़रिए संचालित होती है. डेवलपर्स के पास इनको अमल में लाने के लिए तमाम तरह के हथकंडे मौजूद होते हैं. इनमें त्वचा या वैकल्पिक पोशाकों के ज़रिए ख़ास तरह के किरदार तैयार करना भी शामिल है. इसके अलावा एक ख़ास लेवल के बाद लगातार तीखी होती और मुश्किलों से भरी चुनौतियां सामने रखने की रणनीति भी इन्हीं हथकंडों का हिस्सा है. इनके ज़रिए उपयोगकर्ताओं को गेम से जुड़ी (in-game) ख़रीदारियों के लिए मजबूर किया जाता है ताकि वो इन ख़ामियों से पार पा सके. कैंडी क्रश जैसे गेम में ऐसे ही हथकंडे देखने को मिलते हैं. इसके अलावा वो बारी पर आधारित तौर-तरीक़े भी अमल में लाते हैं. इसमें यूज़र्स को कुछ समय तक गेम को आगे बढ़ाने से रोक दिया जाता है. इस रुकावट से पार पाने के लिए गेम से जुड़ी ख़रीदारियां करनी होती हैं. क्लैश ऑफ़ किंग्स में ऐसा ही देखने को मिलता है. खेल में आगे बढ़ने के लिए खेल से जुड़े संसाधनों को सामने लाया जाता है. यूज़र्स को इन संसाधनों की ख़रीदारी करनी होती है. इसके अलावा ‘लूट बक्सों’ का प्रावधान भी होता है. इसमें खिलाड़ियों को बेतरतीब तरीक़े से खेल के भीतर के ढेरों साज़ोसामान हासिल हो सकते हैं. इनका मल्टीप्लेयर गेम्स आदि में इस्तेमाल होता है. कुछ मायनों में तो इन वीडियो गेम्स में आगे बढ़ने के लिए ही उपयोगकर्ताओं को जेब ढीली करनी पड़ती है. लिहाज़ा इनमें खिलाड़ी के कौशल का कोई बहुत ज़्यादा महत्व नहीं रह जाता है. वीडियो गेम कंपनियां खेल को आगे ले जाने के बदले ही कमाई कर लेती हैं.

वीडियो गेम्स के डेवलपर्स उस समूचे वर्चुअल वातावरण को नियंत्रित करते हैं जिसमें खिलाड़ी प्रवेश करते हैं. वीडियो गेम इंडस्ट्री का राजस्व फ़िल्मों, टेलीविज़न, म्यूज़िक और प्रिंट जैसे मीडिया के दूसरे स्वरूपों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा है.

व्यापक रूप से वीडियो गेम्स से जुड़ी समूची बिरादरी के सामने उद्योग की भावी दिशा को लेकर रस्साकशी का दौर जारी है. डेवलपर्स और पब्लिशर्स गेम्स को सेवा के तौर पर देखते हैं. इसमें उनके द्वारा निरंतर नयापन लाने की दरकार रहती है. इसके साथ ही उन्हें ये भी सुनिश्चित करना होता है कि उपयोगकर्ता उनके बदले भुगतान भी करे. इस पूरी क़वायद के ज़रिए दरअसल डेवलपर्स और पब्लिशर्स गेम से जुड़े बौद्धिक संपदा अधिकार के जीवन काल को बढ़ाते हैं. वहीं दूसरी ओर वीडियो गेम प्लेयर्स गेम्स को एकाकी और अलग उत्पाद के तौर पर देखना पसंद करते हैं. उनके नज़रिए के मुताबिक गेम पर मालिक़ाना हक़ उपयोगकर्ता का होता है जिसे मीडिया के दूसरे स्वरूपों जैसे डीवीडी में मौजूद फ़िल्मों, उपन्यासों, सीडी में मौजूद म्यूज़िक एलबम और वायनल रिकॉर्ड्स की तरह सहेज कर रखा जा सकता है. उद्योग की भावी चाल और प्रगति पर इनमें से हरेक मॉडल का प्रभाव पड़ता है. बहरहाल आज गेम्स से जुड़ा ऑनलाइन बाज़ार तेज़ी से उभर रहा है. इसके साथ ही सहेज कर रखी गई सामग्रियों के अपने-आप ग़ायब हो जाने की तकनीक को देखते हुए ऐसा लग रहा है कि गेम्स को सेवा के रूप में देखने वाला तौर-तरीक़ा भविष्य में भी मौजूद रहेगा. माइक्रो ट्रांजैक्शंस के ज़रिए इन गेम्स के संचालक ज़रूरत से ज़्यादा वसूली करने लगे हैं. गेम्स से इतर हक़ीक़त की दुनिया में इसका नाबालिगों पर भारी असर पड़ रहा है. लिहाज़ा खिलाड़ियों की ओर से इसको लेकर तीखी प्रतिक्रियाएं देखने को मिल रही हैं.

बच्चों पर ऑनलाइन गेम की सामग्री खरीदने का मानसिक दबाव

यूनाइटेड किंगडम के चिल्ड्रेंस कमिश्नर द्वारा 2019 में पेश एक रिपोर्ट में इन मसलों को रेखांकित किया गया है. इस रिपोर्ट के लिए 10 साल से 16 साल तक की उम्र वाले बच्चों से बात की गई और वीडियो गेम्स के मॉनेटाइज़ेशन विकल्प के बारे में उनकी राय ली गई. इस पड़ताल से वीडियो गेम्स खेल रहे प्रतिभागियों के बेहद जटिल सामाजिक बर्तावों का पता चला. प्रतिभागियों ने वीडियो गेम्स को एक अहम सामाजिक गतिविधि बताया. उनका विचार था कि गेम्स के ज़रिए उन्हें नए-नए दोस्त बनाने और अपनी उम्र के बाहर के समूहों से दोस्ती बनाने में मदद मिलती है. हालांकि इसका एक नुकसानदेह पहलू भी है. वीडियो गेम्स खेलने वाले बच्चों को अपने साथियों का भारी दबाव भी झेलना होता है. ख़ासतौर से सामाजिक समूहों में अपना रसूख़ बनाए रखने के लिए उन पर गेम के भीतर की सामग्रियों को ख़रीदने का मानसिक दबाव होता है. इतना ही नहीं वीडियो गेम के स्ट्रीमर्स भी लगे हाथ युवाओं पर अपना प्रभाव कायम कर लेते हैं.

माइक्रो ट्रांजैक्शंस के ज़रिए इन गेम्स के संचालक ज़रूरत से ज़्यादा वसूली करने लगे हैं. गेम्स से इतर हक़ीक़त की दुनिया में इसका नाबालिगों पर भारी असर पड़ रहा है. लिहाज़ा खिलाड़ियों की ओर से इसको लेकर तीखी प्रतिक्रियाएं देखने को मिल रही हैं.

गेम प्ले के दौरान वो खिलाड़ियों पर नई-नई सामग्रियां ख़रीदने का दबाव बनाते हैं. यूके की रिपोर्ट में ‘लूट बॉक्स’ से जुड़ी व्यवस्था की समस्याओं को भी रेखांकित करते हुए इसे जुए का नाम दिया गया है. दरअसल इस पूरी क़वायद से खिलाड़ियों को जो सामान हासिल होते हैं वो बेतरतीब तरीक़े से मिलते हैं. लिहाज़ा खिलाड़ियों को दूसरी ख़रीदारियों के लिए ‘दोबारा कोशिश’ करने के लिए उकसाया जाता है. इसी को देखते हुए जापान और बेल्जियम जैसे देशों ने गेम्स के भीतर की इन ख़रीदारियों को ग़ैर-क़ानूनी घोषित कर दिया है. चीन में भी इन लूट बक्सों को और अधिक पारदर्शी बनाने का प्रावधान किया गया है. इसके तहत कंपनियों को उन तमाम पुरस्कारों के बारे में जानकारी देनी होती है जो यूज़र्स को मिल सकते हैं. इतना ही नहीं इन पुरस्कारों के मिलने की संभावनाओं का भी खुलासा करना ज़रूरी कर दिया गया है. नीदरलैंड्स में गेम कंपनियों को गेम में लूट बॉक्स को शामिल करने के लिए लाइसेंस लेना होता है. इस बीच यूके में वीडियो गेम्स में माइक्रोट्रांजेक्शन को नियमित करने के लिए एक क़ानून बनाने को लेकर बहस चल रही है. दूसरी ओर अमेरिका में सीनेटर जॉस हॉले ने पे-टू-विन और लूट बॉक्स से जु़ड़े लेन-देनों पर पाबंदी लगाने के लिए एक बिल पेश किया है.

क्या हक़ीक़त क्या फ़साना..

बहरहाल भारत के स्टार्ट अप इकोसिस्टम ने तो जैसे जुए के तत्वों के साथ वीडियो गेम तैयार करने को लेकर सारा आडंबर छोड़ने का मन बना लिया है. भारतीय स्टार्ट अप एक ख़ास अदालती फ़ैसले से हासिल नियामक मध्यस्थता का इस्तेमाल कर सिर्फ़ जुए से जुड़े पहलू पर ध्यान लगा रहे हैं. वैसे तो भारत में संघीय तौर पर जुए और सट्टेबाज़ी पर पाबंदी है, लेकिन कुछ राज्य सरकारें अपने स्तर पर जुए की छूट दे सकती हैं. हालांकि मोटे तौर पर अदालती फ़ैसलों में पोकर, तीन पत्ती और फैंटेसी स्पोर्ट्स को “कौशल वाला  खेल” करार दिया गया है. ये तमाम खेल रॉलेट, स्लॉट मशींस, राफ़ेल्स जैसे “संयोग  या इत्तेफ़ाक़ वाले खेलों” से जुदा हैं. मार्च 2020 में कोविड-19 के चलते लगे लॉकडाउन के बाद वेंचर कैपिटलिस्टों ने “गेमिंग” सेक्टर में करोड़ों का निवेश किया. हालांकि इस सेक्टर के लिए भारतीय स्टार्ट अप इकोसिस्टम “रीयल वर्ल्ड गेमिंग” जैसी शब्दावली का इस्तेमाल करता है. इसके दायरे में ‘ड्रीम 11‘ और ‘मोबाइल प्रीमियर लीग‘ जैसे फैंटेसी स्पोर्ट्स आते हैं.

इन खेलों में यूज़र्स अपनी वर्चुअल टीम तैयार करते हैं और हक़ीक़त की दुनिया में उन खिलाड़ियों के प्रदर्शन के आधार पर प्वाइंट हासिल करते हैं. आगे चलकर इन अंकों को पुरस्कारों के तौर पर बदला जा सकता है. ऑनलाइन पोकर में भी इसी नियामक मध्यस्थता का इस्तेमाल होता है. ये तमाम कंपनियां नियामक प्रक्रियाओं में मौजूद ख़ामियों का लाभ उठाते हुए अपनी गतिविधियां चलाती हैं.गूगल प्ले स्टोर और  iOS ऐप स्टोर जैसे ऐप बाज़ारों में इनके ऐप्लिकेशंस को प्रवेश की मंज़ूरी नहीं होती है. दरअसल इन ऐप बाज़ारों में जुए से ताल्लुक़ रखने वाले ऐप्लिकेशंस को शामिल नहीं करने की नीति का पालन किया जाता है. बहरहाल, गेम से जुड़े इन ऐप्स को ऐप स्टोर नियमों और नीतियों को दरकिनार कर फ़ोन पर सीधे ही डाउनलोड किया जा सकता है.

भारतीय स्टार्टअप इकोसिस्टम और जुए की लक्ष्मण रेखा

हालांकि इन सबके बावजूद “रीयल वर्ल्ड गेमिंग” को लेकर दिखाई दे रही दीवानगी ने निवेशकों का ध्यान अपनी ओर खींचा है. दरअसल इन वेंचरों के ज़रिए वो तेज़ गति से, और कहीं मोटा मुनाफ़ा कमा सकते हैं. उन्हें दूसरी जगह दांव लगाने की बजाए इन गेमिंग पर दांव लगाना ज़्यादा फ़ायदेमंद नज़र आ रहा है. ड्रीम 11 ने वित्त वर्ष 2020 में 180 करोड़ रु का मुनाफ़ा कमाया है. हाल ही में नज़ारा गेम्स बहुत तामझाम के साथ स्टॉक मार्केट में लिस्ट हुआ था. इससे गेमिंग सेक्टर में भारत में मौजूद संभावनाओं का पता चलता है. हालांकि भारतीय इकोसिस्टम में गेमिंग को जीवंत रूप से क़िस्सागोई के लिए इस्तेमाल करने से जुड़ी सोच का अभाव झलकता है. नज़ारा गेम्स के पास अपनी कोई मौलिक कहानी नहीं है और न ही उसके पास कोई मौलिक बौद्धिक संपदा (IP) है. वो तो बस बिना शुल्क वाले तथाकथित “फ्रीमियम गेम्स” के सहारे टिकी हुई है. वहीं अगर हम दूसरी ओर नज़र दौड़ाएं तो ‘ग्रैंड थेफ़्ट ऑटो’, ‘द एल्डर स्क्रॉल्स, बायोशॉक’, ‘डूम’, ‘कॉल ऑफ़ ड्यूटी’, ‘Assassin’s Creed’ जैसी फ्रेंचाइज़ियों के ज़रिए बेहतरीन क़िस्सागोई की जाती है. नज़ारा गेम्स का राजस्व मुख्य रूप से स्पॉन्सर्ड ई-स्पोर्ट्स इवेंट्स, फ्रीमियम गेम्स और “रीयल वर्ल्ड गेमिंग”​ की मेज़बानी से हासिल होता है. लिहाज़ा साफ़ है कि ​भारतीय स्टार्टअप इकोसिस्टम जुए की लक्ष्मण रेखा को धुंधला करने पर आमादा है. वो केवल अपने मुनाफ़े को ज़्यादा से ज़्यादा बढ़ाने से जुड़ी क़वायदों पर ध्यान दे रहा है.

भारतीय स्टार्ट अप एक ख़ास अदालती फ़ैसले से हासिल नियामक मध्यस्थता का इस्तेमाल कर सिर्फ़ जुए से जुड़े पहलू पर ध्यान लगा रहे हैं. वैसे तो भारत में संघीय तौर पर जुए और सट्टेबाज़ी पर पाबंदी है, लेकिन कुछ राज्य सरकारें अपने स्तर पर जुए की छूट दे सकती हैं.

“रीयल वर्ल्ड गेमिंग” ऐप्स कौशल से जुड़े खेल हैं या इत्तेफ़ाक़ या संयोग का खेल- ये बहस बाल की खाल निकालने जैसा है. निश्चित रूप से जुए से किसी देश के सामाजिक तानेबाने को भारी नुकसान पहुंचता है, चाहे उस खेल को किसी भी नाम का चोला क्यों न पहना दिया जाए. फ़ैंटेसी स्पोर्ट्स आख़िरकार किसी खिलाड़ी के मैदान पर दिखाए गए वास्तविक प्रदर्शन पर निर्भर करता है, चाहे फ़ैंटेसी गेम का खिलाड़ी कोई भी चुनाव क्यों न करे. पोकर को कौशल वाले खेल को तौर पर गिना जाता रहा है क्योंकि इस खेल में खिलाड़ियों के पास झांसा देने या गेम के दौरान दिए जा रहे झांसों को पकड़ने से जुड़े कौशल की आवश्यकता होती है. वैसे यहां ये सवाल अहम है कि क्या किसी ऑनलाइन गेम में ये बात अहमियत रखती है, जहां खिलाड़ियों को ऑफ़लाइन गेम के खिलाड़ियों की तरह इशारों को पढ़ने का मौका ही नहीं मिलता. अदालतों और नियामकों को इस सेक्टर को रेगुलेट करने के लिए नया नज़रिया अपनाना होगा. शायद इस सिलसिले में एक दिशानिर्देशक सिद्धांत “कसीनो हाउस हमेशा जीतता है” हो सकता है. इसके ज़रिए ये तय हो सकता है कि गेम्स को जुए की श्रेणी में रखा जा सकता है या नहीं.

देश के कई राज्यों म ऑनलाइन जुओं पर पाबंदी

आंध्र प्रदेश, केरल, कर्नाटक और तमिलनाडु जैसे राज्यों ने ऐसे गेम्स और इसी तरह के ऑनलाइन जुओं पर पाबंदी लगा दी है. वहीं उत्तर प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्य इस सेक्टर को रेगुलेट करने के लिए नए क़ानून लाने पर विचार कर रहे हैं. बहरहाल आंध्र प्रदेश की सूची में तो वीडियो गेम पब्लिशर इलेक्ट्रॉनिक आर्ट्स की वेबसाइट भी शामिल है. इससे साफ़ ज़ाहिर होता है कि राज्य सरकारें ऑनलाइन गेम्स और ऑनलाइन गैम्बलिंग ऐप्स और वेबसाइट्स में पर्याप्त और ज़रूरी फ़र्क़ नहीं कर रही हैं. ग़ौरतलब है कि ऑनलाइन गेम्स में जुए जैसे और “रीयल वर्ल्ड गेमिंग” की दुनिया के कुछ तौर-तरीकों को शुमार किया जाता है. यूज़र्स का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए अपनाए जाने वाले इन हथकंडों की पड़ताल ज़रूरी है. इसके साथ ही अनेक इन-गेम करेंसियों के ज़रिए उनसे पैसा कमाने के पीछे के जटिल तौर-तरीक़ों को समझना भी आवश्यक है. इनसे जुड़े संसाधनों और यूज़र्स के सामने पेश जोख़िमों और ख़तरों पर भी ध्यान देना ज़रूरी है. कम उम्र के खिलाड़ियों के साथ मुद्रीकरण की इन व्यवस्थाओं के रिश्तों की पड़ताल आवश्यक है. इसके साथ ही बेहतर तरीक़े से उम्र का निर्धारण करने और ज़रूरी लक्ष्मण रेखा खींचने की भी ज़रूरत है. अंत में “रीयल वर्ल्ड गेमिंग” के लिए एक बेहतर शब्दावली तय करना आज वक़्त की मांग बन गई है. इस मामले में खरी-खरी बात करना ज़रूरी है. निश्चित तौर पर ऑनलाइन माध्यमों पर जुए जैसी गतिविधियों को जबरन गेमिंग का नाम देने की प्रवृति से बचना होगा.

अदालतों और नियामकों को इस सेक्टर को रेगुलेट करने के लिए नया नज़रिया अपनाना होगा. शायद इस सिलसिले में एक दिशानिर्देशक सिद्धांत “कसीनो हाउस हमेशा जीतता है” हो सकता है. इसके ज़रिए ये तय हो सकता है कि गेम्स को जुए की श्रेणी में रखा जा सकता है या नहीं. 

गेम तैयार करने का काम बेहद जटिल है. इसके लिए अनेक क्षेत्रों से मदद लेनी होती है ताकि खिलाड़ियों को किसी कहानी में उलझाया जा सके. कई मायनों में वीडियो गेम्स ने कम्प्यूटिंग के विकास में योगदान दिया है. हालांकि इस प्रक्रिया में कई स्टूडियो उभरे और फिर पर्दे के पीछे गुम होते चले गए, लेकिन उन्होंने इस माध्यम का स्तर उठाने और ज़रूरी प्रयोग करने से कभी गुरेज़ नहीं किया. उनके इन प्रयासों के कई प्रशंसक भी थे. ग़ौरतलब है कि भारत के वेंचर कैपिटलिस्टों ने “रीयल वर्ल्ड गेमिंग” में करोड़ों डॉलर लगाए हैं. इन गेम्स के ज़रिए यूज़र्स अपनी किस्मत आज़माते हैं. ऐसे में ये बात वाकई विडंबनापूर्ण लगती है कि यही वेंचर कैपिटलिस्ट भारतीय गेम स्टूडियो में पैसा क्यों नहीं लगाना चाहते. आख़िर वो बायोवेयर, id Software, वाल्व जैसे दूसरे गेमिंग स्टूडियोज़ के टक्कर का भारतीय गेम स्टूडियो खड़ा करने में दिलचस्पी क्यों नहीं ले रहे!

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