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वैश्विक स्थिरता के लिए केवल सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) को हासिल करना ही पर्याप्त नहीं हैं, बल्कि इसके लिए OECD देशों द्वारा सतत उपभोग लक्ष्यों (SCGs) को भी अपनाने की ज़रूरत है.
न्यूयॉर्क में हाल ही में 18-19 सितंबर को आयोजित हुई SDG समिट में पूरी दुनिया के देश एक साथ जुटे और सबने मिलकर सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) की प्रगति की समीक्षा की, साथ ही बदलाव के संभावित तौर-तरीक़ों पर विस्तृत चर्चा की. 2023 की यह समिट ऐसे समय में आयोजित की गई है, जो वर्ष 2030 के एजेंडा एवं सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करने की निर्धारित समयसीमा के आधे कार्यकाल का साल है.
देखा जाए तो सभी के हितों को सुरक्षित करने के बारे में लंबी-चौड़ी बातें तो की जाती हैं, लेकिन जब सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने की बात आती है, तो इसकी पूरी ज़िम्मेदारी विकासशील देशों पर थोप दी जाती है और उनसे अपने पर्यावरण एवं सामाजिक सूचकों में सुधार लाने को कहा जाता है. विडंबना यह है कि इस मुद्दे पर विकसित देशों की ज़िम्मेदारी के बारे में चुप्पी साध ली जाती और यहां तक कि उनकी करतूतों को छिपा दिया जाता है. ज़ाहिर है कि ऐतिहासिक रूप से वैश्विक संसाधनों का एक बड़ा हिस्सा ये धनी देश ही उपभोग करते हैं. वर्तमान में भी ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट (OECD) और यूरोपीय संघ (EU) के चंद अमीर देशों द्वारा की जाने वाली वैश्विक संसाधनों की प्रति व्यक्ति खपत, विकासशील देशों की तुलना में कहीं ज़्यादा है. इतना ही नहीं इन अमीर देशों द्वारा होने वाले CO2 उत्सर्जन, पैदा किए जाने वाले ई-कचरे एवं उपभोग के तौर-तरीक़े का वैश्विक पर्यावरण पर गंभीर और व्यापक प्रभाव पड़ता है. इस संबंध में हाल ही में आयोजित SDG समिट जैसे फोरम द्वारा वर्तमान हालात का अनुमान लगाने के लिए अमल में लाई जाने वाली प्रक्रिया, निगरानी एवं मूल्यांकन जैसी तमाम क़वायदों की ज़िम्मेदारी जिस तरह से विकासशील देशों के ऊपर मढ़ दी गई है, वो किसी भी लिहाज़ से उचित नहीं है और इसमें कई खामियां हैं.
वर्तमान में भी ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट (OECD) और यूरोपीय संघ (EU) के चंद अमीर देशों द्वारा की जाने वाली वैश्विक संसाधनों की प्रति व्यक्ति खपत, विकासशील देशों की तुलना में कहीं ज़्यादा है. इतना ही नहीं इन अमीर देशों द्वारा होने वाले CO2 उत्सर्जन, पैदा किए जाने वाले ई-कचरे एवं उपभोग के तौर-तरीक़े का वैश्विक पर्यावरण पर गंभीर और व्यापक प्रभाव पड़ता है.
जिन वैश्विक संस्थाओं द्वारा इस मूल्यांकन को किया जाता है, वे रैंकिंग, प्रदर्शन आधारित वर्गीकरण और अंतर्राष्ट्रीय मापदंडों का पलान किए जाने की आड़ में विकासशील देशों पर तमाम दबावों को डालती हैं. वहीं इस प्रकार के मानक दबाव से छुटकारा पाने के लिए विकासशील देशों को पर्याप्त वित्तीय मदद भी मुहैया नहीं कराई जाती है. इसका कारण यह है कि ओवरसीज डेवलपमेंट एड (ODA) में OECD देशों का योगदान तेज़ी से कम होता जा रहा है. सच्चाई यह है कि वर्ष 2018 से 2022 के बीच OECD की डेवलपमेंट असिस्टेंस कमेटी (DAC) के सदस्य देशों ने ODA में अपनी सकल राष्ट्रीय आय (GNI) का सिर्फ़ 0.31 प्रतिशत से 0.36 प्रतिशत तक का ही अंशदान किया है. यह योगदान SDG 17 (टिकाऊ विकास के लिए वैश्विक साझेदारी) के अंतर्गत सभी हाई इनकम और OECD डेवलपमेंट असिस्टेंस कमेटी के देशों द्वारा अंतर्राष्ट्रीय रियायती पब्लिक फाइनेंस के लिए निर्धारित GNI के 1 प्रतिशत से बेहद कम है.
ऐसे में वैश्विक स्थिरता को हासिल करने के लिए ‘टिकाऊ उपभोग लक्ष्य (SCG)’ एक मददगार नज़रिया हो सकता है. ज़िम्मेदार खपत एवं उत्पादन पर आधारित SDG 12 ने इस समस्या को लेकर अभी तक कुछ भी नहीं किया है. उल्लेखनीय है कि SCG के अंतर्गत अलग-अलग देशों के द्वारा विभिन्न पहलों के ज़रिए प्रति व्यक्ति खपत को कम करने के लिए कई लक्ष्यों को निर्धारित किया जाएगा. इन लक्ष्यों को पाने के लिए जो बातें कहीं गई हैं, उनकी प्रगति की जांच-परख के लिए पारदर्शी निगरानी प्रक्रियाओं को अपनाने की ज़रूरत होगी, साथ ही वैश्विक स्तर पर तय किए गए विशेष एवं समयबद्ध सूचकों का इस्तेमाल सुनिश्चित करना होगा. संयुक्त राष्ट्र महासभा (UNGA) में SDG समिट की तरह ही SCG समिट आयोजित करनी होगी और यह एक टिकाऊ दुनिया बनाने के लिए एक पुख़्ता दृष्टिकोण प्रदान कर सकता है. यह ध्यान रखना अहम है कि OECD देश, जो कि वैश्विक संसाधनों, कार्बन बजट और सीमित इकोसिस्टम सेवाओं के एक बड़े हिस्से का उपयोग करना जारी रखे हुए हैं, उन्हें SCGs को अपनाने के लिए सक्रिय क़दम उठाने चाहिए. विकासशील देशों, ख़ास तौर पर इन देशों के विशेषज्ञ संस्थान इसके लिए मापदंड व लक्ष्य निर्धारित कर सकते हैं और नियमित तौर पर ताज़ा हालातों का अनुमान लगाने एवं प्रदर्शन मूल्यांकन की प्रक्रिया की अगुवाई कर सकते हैं.
भारत का मिशन LiFE (पर्यावरण के अनुकूल जीवन शैली) इस दिशा में एक क्रांतिकारी विचार है. मिशन LiFE वैश्विक स्तर पर टिकाऊ उपभोग लक्ष्यों (SCGs) के विचार को प्रोत्साहित करने के लिए एक बेहतरीन पहल है. नई दिल्ली में हाल ही में संपन्न हुए G20 सम्मेलन को दौरान कई देशों के राष्ट्राध्यक्षों ने मिशन LiFE कार्यक्रम के महत्व को स्वीकार किया है. ज़ाहिर है कि मिशन LiFE पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन से जुड़े ख़तरों का सामना करने में उल्लेखनीय रूप से मददगार साबित हो सकता है. बेतरतीब और गैर-टिकाऊ तरीक़े से संसाधनों का उपभोग करने से जहां एक ओर अधिक अपशिष्ट पैदा होता है, ज़्यादा कार्बन उत्सर्जन होता है और वनों की अत्यधिक कटाई होती है, वहीं इसके पर्यावरण पर कई दूसरे गंभीर प्रभाव भी पड़ते हैं. ऐसे में जीवनशैली में बदलाव का आह्वान करना प्रभावशाली क़दम साबित हो सकता है. G20 के सदस्य देशों में कुल वैश्विक आबादी का 60 प्रतिशत हिस्सा निवास करता है और अगर इन देशों के नागरिक खपत को कम करते हैं, तो वे जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध लड़ाई में अपना उल्लेखनीय योगदान दे सकते हैं.
शुरुआती दौर में SCGs को मिशन LiFE के अंतर्गत सूचीबद्ध किए गए सात विषयों, जैसे कि पानी की बचत, ऊर्जा की बचत, अपशिष्ट कम करना, ई-कचरे में कमी लाना, सिंगल-यूज़ प्लास्टिक के उपयोग में कमी, टिकाऊ खाद्य प्रणालियों को अपनाना और स्वस्थ जीवन शैली को अपनाने के साथ एकीकृत किया जा सकता है.
निसंदेह तौर पर SCGs की क़ामयाबी के लिए OECD की सक्रिय रूप से भागीदारी बेहद ज़रूरी है. उदाहरण के तौर पर OECD देश न केवल दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में शामिल हैं, बल्कि सबसे बड़े उपभोक्ता भी हैं, ऐसे में इन राष्ट्रों की सक्रिय भागीदारी टिकाऊ उपभोग लक्ष्यों की सफलता सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण है. अगर OECD देश SCGs को अपनाते हैं, तो ऐसा करके वे वैश्विक मापदंड स्थापित कर सकते हैं. बेतरतीब तरीक़े से उपभोग संसाधनों की कमी की वजह बन सकता है, नतीज़तन वस्तुओं के दाम बढ़ सकते हैं और इससे आर्थिक अस्थिरता के हालात भी पैदा हो सकते हैं. ज़ाहिर है कि ऐसे में देश टिकाऊ उपभोग को प्रोत्साहन देकर न केवल घरेलू स्तर पर, बल्कि वैश्विक स्तर पर भी दीर्घकालिक वित्तीय स्थिरता सुनिश्चित करने में सहायता कर सकते हैं.
संयुक्त राष्ट्र महासभा (UNGA) में SDG समिट की तरह ही SCG समिट आयोजित करनी होगी और यह एक टिकाऊ दुनिया बनाने के लिए एक पुख़्ता दृष्टिकोण प्रदान कर सकता है.
भारत द्वारा जिस प्रकार प्रभावशाली ढंग से मिशन LiFE की परिकल्पना को दुनिया के समक्ष रखा गया है और इस कार्यक्रम की अगुवाई की गई है, उससे यह स्पष्ट है कि SCGs वैश्विक स्तर पर विकासशील देशों के हितों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व कर सकते हैं. OECD देश टिकाऊ उपभोग लक्ष्यों को अपनाकर जहां एक तरफ विकासशील देशों को एकजुटता का सशक्त संकेत देते हैं, वहीं बराबरी वाले और निष्पक्ष विश्व को लेकर अपनी प्रतिबद्धता को भी जताते हैं. ऐसा करना जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध हमारे क़दमों को भी फलीभूत करेगा, यानी वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में जिन देशों की अधिक भागीदारी है, वे जलवायु कार्रवाई में किसी न किसी रूप में अपना ज़्यादा योगदान देंगे.
SCGs के महत्व को दर्शाने वाले निम्न सात महत्वपूर्ण विषय हैं, जिन पर OECD देशों द्वारा गंभीरता से कार्य किया जा सकता है:
भारत द्वारा जिस प्रकार प्रभावशाली ढंग से मिशन LiFE की परिकल्पना को दुनिया के समक्ष रखा गया है और इस कार्यक्रम की अगुवाई की गई है, उससे यह स्पष्ट है कि SCGs वैश्विक स्तर पर विकासशील देशों के हितों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व कर सकते हैं.
SCGs का लक्ष्य वर्ष 2030 तक सिंगल यूज़ प्लास्टिक के उपयोग में व्यापक स्तर पर कमी लाने का होना चाहिए. इसकी प्रगति को प्रति व्यक्ति उपयोग किए जाने वाले सिंगल यूज़ प्लास्टिक के वजन/मात्रा के ज़रिए मापा जा सकता है.
विकासशील देशों की अगुवाई वाले विशेषज्ञ संस्थान इन सतत उपभोग लक्ष्यों को हासिल करने का नेतृत्व कर सकते हैं. इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए हर स्तर पर प्रतिबद्धता की ज़रूरत है, फिर चाहे वो नीति निर्माताओं के स्तर पर हो, या फिर व्यवसायों, समुदायों और व्यक्तियों के स्तर पर. ऐसा करना OECD देशों की तरफ से पर्यावरण संरक्षण में अहम योगदान साबित होगा, क्यों कि इन देशों की भागीदारी SCGs की क़ामयाबी के लिए अनिवार्य है. इस तरह के प्रयास संभावित रूप से आर्थिक रूप से भी लाभकारी हैं, क्योंकि टिकाऊ प्रथाओं को अमल में लाए जाने से इनोवेशन, रोज़गार सृजन और दीर्घकालिक स्थिरता के लक्ष्य को भी हासिल किया जा सकता है.
विक्रम माथुर ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर फेलो हैं.
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Vikrom Mathur is Senior Fellow at ORF. Vikrom curates research at ORF’s Centre for New Economic Diplomacy (CNED). He also guides and mentors researchers at CNED. ...
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