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कल्पना कीजिए महासागर, जो पृथ्वी के कार्बन का सबसे बड़ा भंडार है, अब हमारे ग्लोबल वार्मिंग के समाधान का हीरो बन रहा है. महासागर-आधारित कार्बन कैप्चर तकनीकें (CCUS) वायुमंडल से CO2 खींचकर इसे समुद्र में सुरक्षित रूप से जमा करती हैं, जिससे पर्यावरण बचाने के साथ-साथ नई नौकरियों और समुद्री अर्थव्यवस्था का विकास भी संभव हो रहा है.
कार्बन डाइऑक्साइड (CO2), नाइट्रस ऑक्साइड (N2O) और मीथेन जैसी ग्रीन हाउस गैस (GHG) के उत्सर्जन से प्रेरित जलवायु परिवर्तन ने पर्यावरण पर गंभीर असर डाला है. हर साल 2.6 गीगाटन CO2 उत्सर्जन के साथ अमेरिका और चीन के बाद भारत दुनिया में तीसरा सबसे बड़ा उत्सर्जन पैदा करने वाला देश है. औद्योगिक क्रांति के समय से CO2 के संकेंद्रण में 32 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है और ये 280 से बढ़कर 400 भाग प्रति मिलियन (ppm) हो गया है. 2018 की IPCC - जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल - रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि बेरोकटोक ग्लोबल वॉर्मिंग 2040 तक तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ा सकती है जिससे समुद्र के स्तर में बढ़ोतरी होगी और जैव-विविधता का नुकसान होगा. इसे रोकने के लिए 2030 तक उत्सर्जन में 45 प्रतिशत कमी और 2050 तक शून्य (नेट-ज़ीरो) उत्सर्जन की आवश्यकता होगी. CO2 के बढ़ते स्तर ने महासागरीय अम्लीकरण (समुद्र में pH की कमी) को भी बढ़ावा दिया है जिससे समुद्री इकोसिस्टम को नुकसान हो रहा है. भारत ने 2050 तक अपने CO2 उत्सर्जन को आधा करने का वादा किया है और 2070 तक नेट-ज़ीरो का लक्ष्य रखा है.
कार्बन कैप्चर, यूटिलाइज़ेशन एवं स्टोरेज (CCUS) और कार्बन डाइऑक्साइड रिमूवल (CDR) तकनीकें ऊर्जा कुशलता और नवीकरणीय ऊर्जा के साथ प्रमुख समाधान के रूप में उभरी हैं. CDR वायुमंडल या महासागर में पहले से मौजूद CO2 को हटाता है जबकि CCUS उद्योगों और पावर प्लांट समेत उत्सर्जन के स्रोतों से कार्बन को इकट्ठा करके, ऑयल रिकवरी के लिए या इसे समुद्री पानी, गहरे समुद्री तलछट या भूवैज्ञानिक स्थलों में जमा करके कार्बन उत्सर्जन रोकता है. CCUS और CDR के प्रभावी कार्यान्वयन से 2060 तक CO2 में 14 प्रतिशत कमी आ सकती है और 2100 तक संकेंद्रण को 450 ppm तक स्थिर किया जा सकता है. नीति आयोग के अनुसार, CCUS 2050 तक 80 लाख से एक करोड़ पूर्णकालिक नौकरियां उत्पन्न कर सकता है.
IPCC - जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल - रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि बेरोकटोक ग्लोबल वॉर्मिंग 2040 तक तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ा सकती है जिससे समुद्र के स्तर में बढ़ोतरी होगी और जैव-विविधता का नुकसान होगा.
CCUS तकनीकें जैविक, भूवैज्ञानिक या महासागर आधारित पृथक्करण का उपयोग करती हैं. वनीकरण, टिकाऊ कृषि और बायोचार उत्पादन जैसी ज़मीन आधारित पद्धतियों में जहां मज़बूत डिकार्बनाइज़ेशन (CO2 उत्सर्जन में कमी) की क्षमता है, वहीं 70 प्रतिशत पृथ्वी में फैला महासागर सबसे बड़ा कार्बन सिंक (कार्बन को सोखने वाला) है जो वायुमंडल की तुलना में 50 गुना अधिक और ज़मीन आधारित इकोसिस्टम (जिसमें जीव-जंतु, पौधे, मृत कार्बनिक पदार्थ और मिट्टी शामिल हैं) में जमा कार्बन के मुकाबले 16 गुना अधिक कार्बन जमा करता है. इस प्रकार महासागर आधारित CCUS एक रणनीतिक वैश्विक कार्बन मुक्ति का रास्ता प्रदान करता है. रिसर्च करने वाले और कंपनियां CO2 को सोखने और जमा करने के लिए महासागर की प्राकृतिक रसायन और जैविक प्रक्रियाओं का उपयोग करने के तरीकों की खोज कर रही हैं.
महासागर आधारित पृथक्करण में तरल रूप में CO2 को स्थिर करने के लिए कम तापमान और अधिक दबाव का इस्तेमाल किया जाता है जिससे रिसाव कम-से-कम होता है. गहरे समुद्र में इसकी स्थिति भू-जल प्रदूषण और टेक्टोनिक गतिविधि से भूवैज्ञानिक ख़तरे को रोकती है. साथ ही ज़मीन आधारित जटिल बुनियादी ढांचे के बिना भी इसका विस्तार हो सकता है. महासागर आधारित प्रमुख नकारात्मक उत्सर्जन तकनीकों (NET) में ओशन एल्केलिनिटी एनहांसमेंट (OAE), इलेक्ट्रो केमिकल सीवॉटर प्रोसेसिंग, बायोलॉजिकल कार्बन कैप्चर, एनहांसमेंट ऑफ ब्लू कार्बन सिंक और ओशन फर्टिलाइज़ेशन शामिल हैं.
भारत अपनी 11,098.8 किमी. लंबी तटरेखा और लगभग 20 लाख वर्ग किमी. के विशेष आर्थिक क्षेत्र (EEZ) के साथ CCUS की विशाल संभावना प्रदान करता है. OAE सबसे टिकाऊ भंडारण प्रदान करता है- शेलफिश एक्वाकल्चर और समुद्री शैवाल की खेती के साथ 1,00,000 साल तक. महासागर के 20 प्रतिशत हिस्से में समुद्री शैवाल की खेती से हर साल 0.6 गीगाटन कार्बन हटाया जा सकता है जो आर्टिफिशियल ओशन फर्टिलाइज़ेशन के साथ बढ़कर 1 गीगाटन हो सकता है. हालांकि 2030 तक ये लक्ष्य हासिल करने के लिए समुद्री शैवाल की खेती में 64 प्रतिशत विस्तार की आवश्यकता है. इकट्ठा CO2 का औद्योगिक उपयोग किया जा सकता है जिसमें खाद्य एवं पेय पदार्थ, स्वास्थ्य देखभाल, जैव ईंधन, बायोपॉलीमर, यूरिया, ग्रीन हाइड्रोजन, अधिक ऑयल रिकवरी, बायोप्लास्टिक और सीमेंट एवं निर्माण सामग्री में उपयोग किया जाने वाला खनिज कार्बोनेट शामिल हैं.
महासागर आधारित NET में दुनिया की दिलचस्पी बढ़ती जा रही है. ज़्यादातर देशों ने संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (UNFCC) के तहत अपनी दीर्घकालिक जलवायु रणनीतियों में CDR को शामिल किया है. इसमें जापान और अमेरिका समुद्र आधारित CDR पर ज़ोर दे रहे हैं. अमेरिका का ऊर्जा विभाग (DoE) कार्बन निगेटिव शॉट इनिशिएटिव के ज़रिए CDR तकनीकों की रिसर्च फंडिंग और विस्तार का समर्थन करता है. इसका लक्ष्य 2030 तक अपनी लागत को घटाकर लगभग 100 अमेरिकी डॉलर प्रति शुद्ध टन CO2 करना है. होराइज़न यूरोप जैसी पहल समुद्री शैवाल की खेती और इलेक्ट्रो केमिकल समुद्री पानी की प्रोसेसिंग का समर्थन करती है. यूरोप की कई पहल बायोलॉजिकल कार्बन कैप्चर को बढ़ाने के लिए बायोरिफाइनरी वैल्यू चेन और ओशन फर्टिलाइज़ेशन का समर्थन करती हैं.
दुनियाभर में कंपनियां समुद्र आधारित CDR समाधान विकसित कर रही हैं. स्टार्टअस इनसाइट 2025 रिपोर्ट में शैवाल एवं साइनोबैक्टीरिया आधारित CCUS, डायरेक्ट एयर कैप्चर, सीवॉटर अल्कलाइज़ेशन और CO2 से सामग्री में बदलाव करने वाले स्टार्टअप के बारे में बताया गया है जो मुख्य रूप से पश्चिमी यूरोप, अमेरिका और भारत में हैं. एम्सटर्डम की कंपनी ब्राइनवर्क्स इलेक्ट्रोलाइसिस का उपयोग करके समुद्री पानी को विभाजित करती है और 100 अमेरिकी डॉलर प्रति टन से कम पर CO2 निकालती है. इस दौरान ग्रीन हाइड्रोजन का उत्पादन एक उप-उत्पाद के रूप में होता है. SeaO2 (एम्सटर्डम) और कैप्टुरा (कैलिफोर्निया) जैसी कंपनियां समुद्री पानी से CO2 निकालने के लिए इलेक्ट्रोडायलिसिस का उपयोग करती हैं. समुद्र में लौटाया गया ट्रीटेड और कार्बन मुक्त समुद्री पानी वायुमंडल से कार्बन सोखता रहता है. इस क्षेत्र में सेस्टोर (स्वीडन), लाइमनेट (इटली), आर्बन अर्थ (स्वीडन) और एवरेस्ट कार्बन (अमेरिका) कुछ अन्य प्रमुख स्टार्टअप हैं. बिडकार्बन फाउंडेशन जैसे संगठन थाईलैंड, मलेशिया, सिंगापुर, चीन और इंडोनेशिया समेत पूरे एशिया में रिसर्च एवं तकनीकी विकास, स्थिरता और महासागर आधारित CDR परियोजनाओं के कार्यान्वयन का समर्थन करते हैं.
भारत में ऑल्ट कार्बन महासागर से CO2 हटाने के लिए सिलिका के साथ चट्टान के अपक्षय को बढ़ाने का उपयोग करता है. इसका लक्ष्य 2030 तक 5,00,000 हेक्टेयर क्षेत्र में काम और 50 लाख मीट्रिक टन कार्बन को हटाना है. विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग (DST) अधिक कार्बन वाले उद्योगों से नेट-ज़ीरो उत्सर्जन हासिल करने के लिए किफायती और सुरक्षित CCUS आधारित इनोवेशन पर अनुसंधान एवं विकास को बढ़ावा दे रहा है. बेंगलुरु की कंपनी Sea6Energy CCUS और जैव ईंधन के उत्पादन के लिए बड़े पैमाने पर समुद्री शैवाल की खेती में अग्रणी है. IIT बॉम्बे और JNCASR जैसे रिसर्च इंस्टीट्यूट में राष्ट्रीय CCUS केंद्र तटीय CCUS और खनिज कार्बोनेशन पर सक्रिय रूप से काम कर रहे हैं. भारत महासागर आधारित CCUS को आगे बढ़ाने के लिए जर्मनी, फ्रांस, नॉर्वे, स्विट्ज़रलैंड, रोमानिया, नीदरलैंड्स, ग्रीस, तुर्की और यूनाइटेड किंगडम के साथ तालमेल करता है.
महासागर आधारित CDR (OCDR) हर साल कई गीगाटन CO2 हटा सकता है जिससे CO2 उत्सर्जन में 10 प्रतिशत कमी आ सकती है. लेकिन विस्तार, पहचान, सटीकता, पर्यावरण पर असर, कम तकनीकी तैयारी का स्तर (TRL) और जानकारी एवं गवर्नेंस के मामले में बड़ी कमी महत्वपूर्ण चुनौतियां पेश करती हैं. कुशलता, TRL और सामाजिक-पर्यावरणीय प्रभाव के मामले में हर तकनीक में अंतर होता है.
वर्तमान में OCDR के पर्यावरणीय प्रदर्शन और क्षमता के बारे में सूचना सीमित है. इसलिए विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के द्वारा समर्थित महासागर आधारित CCUS पर राष्ट्रीय मिशन को कार्यान्वयन से पहले इनोवेशन, पैमाने, सुरक्षा और विस्तृत तकनीकी-आर्थिक एवं पर्यावरणीय प्रभाव विश्लेषण पर अध्ययन करवाना चाहिए. नीतियों के माध्यम से बड़े पैमाने पर फील्ड रिसर्च का समर्थन करना चाहिए क्योंकि परियोजना के पैमाने के असर, कार्बन भंडारण की अवधि और पर्यावरणीय प्रभाव पर उपलब्ध डेटा लैब आधारित और छोटे पैमाने के परीक्षण तक सीमित हैं. इसमें फील्ड टेस्ट का नतीजा कम ही है. भारत को अपने TRL में सुधार के लिए R&D पर अपने GDP खर्च को वर्तमान के एक प्रतिशत से भी कम से बढ़ाकर 2-3 प्रतिशत से ज़्यादा करना होगा.
सार्वजनिक और निजी पहलों के माध्यम से OCDR तकनीकों को लैब से शुरुआती स्तर तक बदलने में सहायता देनी चाहिए. इनोवेशन में सहायता देने वाली नीतियों को बेहद सटीक सेंसर, पानी के अंदर चलने वाली गाड़ियों और घुली हुई CO2, pH, सूक्ष्म धातु, खनिज एवं जैव रसायन समेत समुद्री पानी के रसायन की निगरानी के लिए उपकरण पर ध्यान देना चाहिए. पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय (MoES), पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC), नीति आयोग और विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय समेत प्रमुख एजेंसियों को प्रोत्साहन, फंड, नियामक दिशा-निर्देश और अनुसंधान संस्थानों, उद्योगों एवं स्टार्टअप के साथ तालमेल के अवसर प्रदान करने चाहिए.
रणनीतिक तौर पर नीतिगत समर्थन और विशेष फंडिंग के साथ भारत अपने नेट-ज़ीरो और 100 अरब अमेरिकी डॉलर की समुद्री अर्थव्यवस्था के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए महासागर के संसाधनों की पूरी क्षमता का उपयोग कर सकता है.
सरकार को हर हाल में पारदर्शी CCUS अकाउंटिंग गाइडलाइन के साथ एक मानकीकृत मापन, रिपोर्टिंग और सत्यापन (MRV) का ढांचा लागू करना चाहिए. उसे समुद्री घास एवं मैंग्रोव इकोसिस्टम का उपयोग करके तटीय समुद्री कार्बन के दृष्टिकोण में कार्बन पृथक्करण एवं स्थायित्व को प्रभावित करने वाली विशेषताओं पर अध्ययन का समर्थन करना चाहिए. इनमें समुद्री पानी का रसायन, गैस एक्सचेंज एवं पारस्परिक क्रियाएं; जटिल महासागरीय गतिशीलता जैसे कि पानी का मिश्रण, तलछट एवं जैविक पारस्परिक क्रियाएं और कार्बन पुनर्संयोजन दर परिवर्तनशीलता शामिल हैं. मापन के कठिन मानक और एजेंसियों के द्वारा लगातार निगरानी (जैसे कि वॉलंटरी कार्बन मार्केट इंटीग्रिटी इनिशिएटिव) आवश्यक हैं. पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय को जहां नियामक निगरानी का तालमेल करना चाहिए, वहीं विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय और नीति आयोग तकनीकी प्रगति का समर्थन कर सकते हैं. नीतिगत सुधारों को अधिक कार्यकुशलता, नौकरशाही की वजह से देरी में कमी और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग बढ़ाने पर ध्यान देना चाहिए.
नीतिगत ढांचे को नीचे से ऊपर की ओर दृष्टिकोण अपनाना चाहिए जिससे समुदाय, पारिस्थितिकी और सामाजिक संदर्भों के अनुसार कार्यान्वयन एवं लाभ साझा करने को सुनिश्चित किया जा सके. पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय और पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय को क्षमता निर्माण, कौशल विकास और जागरूकता कार्यक्रमों का समर्थन करना चाहिए क्योंकि तटीय समुदायों (विशेष रूप से महिलाओं) को शामिल करने से समुद्री कार्बन की पहल, तट से दूर शैवाल की खेती और समुद्री पानी से CO2 निकालने को तेज़ किया जा सकता है.
महासागर आधारित CCUS 2070 तक भारत के नेट-ज़ीरो के लक्ष्य को हासिल करने के लिए एक महत्वपूर्ण रास्ता है. वैसे तो CCUS रिसर्च और कार्यान्वयन में वैश्विक और भारतीय पहल आगे बढ़ रही है लेकिन उसके पैमाने, TRL, रेगुलेटरी ढांचे और लोगों की भागीदारी में चुनौतियां बनी हुई है. सरकार को चाहिए कि CCUS को जलवायु परिवर्तन पर प्रमुख घरेलू एवं विदेश नीति के एजेंडे में जोड़ दे. हरित ईंधन, जैव आधारित सामग्री और कार्बन क्रेडिट में महासागर आधारित CCUS नई वैल्यू चेन का निर्माण कर सकता है जो स्थिर समुद्री विकास में सीधे योगदान करेगी. रणनीतिक तौर पर नीतिगत समर्थन और विशेष फंडिंग के साथ भारत अपने नेट-ज़ीरो और 100 अरब अमेरिकी डॉलर की समुद्री अर्थव्यवस्था के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए महासागर के संसाधनों की पूरी क्षमता का उपयोग कर सकता है.
पूर्णिमा वी बी ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च इंटर्न हैं.
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