भारत में स्टार्टअप्स आखिरकार कैसे सही अर्थों में टिकाऊ कारोबारी स्तर हासिल करने में सक्षम होंगे?
8 नवंबर 2016 की तारीख बड़ी ही महत्वपूर्ण थी। उस दिन जहां एक ओर अमेरिका की जनता बड़ी बेसब्री से अपने यहां हुए राष्ट्रपति चुनाव के नतीजे की प्रतीक्षा कर रही थी, वहीं दूसरी ओर दुनिया के दूसरे हिस्से में भी एक और बेहद अजीबोगरीब घटना सभी लोगों को अवाक कर रही थी। दुनिया का यह हिस्सा कोई और नहीं, बल्कि हमारा देश भारत ही था जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने टेलीविजन पर राष्ट्र के नाम संबोधन में यह घोषणा कर समस्त देशवासियों को चकित कर दिया कि आधी रात से उनकी 86 प्रतिशत मुद्रा बेकार हो जाएगी। इसके साथ ही यह जानकारी दी गई कि देशवासी ‘उच्च मूल्य’ वाले 500 तथा 1,000 रुपये के नोटों को बैकों में ले जाकर उन्हें नए नोटों में बदल सकते हैं।
वैसे तो यह निर्णय टैक्स चोरी पर लगाम लगाने के मकसद से लिया गया था, लेकिन इसकी योजना बिल्कुल बेतरतीब ढंग से बनाई गई थी। शायद प्रधानमंत्री ने यह सोचा था कि इस निर्णय से ज्यादा-से-ज्यादा एक सप्ताह या उससे कुछ अधिक समय तक ही लोगों को मामूली असुविधा होगी। हालांकि, इसके ठीक बाद जो स्थिति उभर कर सामने आई वह कल्पना से बिल्कुल परे थी। बैंकों के एटीएम से तब तक नए नोट नहीं निकल पाए जब तक कि फिर से व्यापक प्रोग्रामिंग करके उन्हें इसके अनुरूप ढाल नहीं दिया गया। वहीं, बैंकों की शाखाओं पर ग्राहकों ने जल्द ही अपनी भारी नाराजगी जतानी शुरू कर दी। यही नहीं, कुछ ही दिनों के भीतर अर्थव्यवस्था में नकदी (कैश) का भारी टोटा हो गया।
ऐसे में जल्द ही सरकार के सुर बदल गए। कुछ ही समय में, सरकार यह दावा करने लगी कि ‘नोटबंदी (विमुद्रीकरण) का उद्देश्य वास्तव में एक ‘डिजिटल अर्थव्यवस्था’ बनाने का मार्ग प्रशस्त करना है। कर चोरी के खिलाफ जंग में एकजुटता दर्शाने के उद्देश्य से भारतीयों को अधिक से अधिक डिजिटल लेन-देन का इस्तेमाल करने के लिए प्रोत्साहित किया गया। डिजिटल अर्थव्यवस्था का समर्थन देशभक्ति का प्रतीक बन गया। डिजिटलीकरण बड़ी तेजी से सरकार की राजनीतिक छवि के लिहाज से अत्यंत महत्वपूर्ण बन गया। 31 जनवरी 2017 को पेश किए गए सरकार के मुख्य आर्थिक नीतिगत वक्तव्य यानी केंद्रीय बजट में कर रियायतें देकर डिजिटल लेन-देन के प्रति सरकारी समर्थन को दोहराया गया। बजट में ग्रामीण भारत को कनेक्ट करने के लिए एक फाइबर ऑप्टिक नेटवर्क के निर्माण में पैसा लगाने का भी प्रावधान किया गया। इससे पहले, उसने यहां तक कि स्मार्टफोन एप जारी करना भी शुरू कर दिया था जिनके जरिए लोगों को डिजिटल भुगतान करने में मदद मिलेगी।
हालांकि, ‘मोबाइल वॉलेट’, जो भारतीयों द्वारा फोन पर एक-दूसरे को धन हस्तांतरित करने का सामान्य तरीका है और जिसके तहत बैंक खातों को धनराशि के इलेक्ट्रॉनिक भंडार से जोड़ दिया जाता है, के क्षेत्र में अग्रणी वास्तव में ‘पेटीएम’ नामक एक निजी स्टार्टअप है। अन्य कंपनियों के साथ-साथ चीन के अलीबाबा द्वारा भी समर्थित ‘पेटीएम’ ने सरकार से पहले ही मोदी के इस अप्रत्याशित कदम के असर को बखूबी भांप लिया था। यही कारण था कि 8 नवंबर की शाम को प्रधानमंत्री के भाषण के कुछ ही घंटों के बाद ‘पेटीएम’ ने प्रमुख अख़बारों में पूर्ण पृष्ठ का विज्ञापन देकर नरेंद्र मोदी के फैसले के लिए उनका धन्यवाद किया। यही नहीं, कुछ ही दिनों में कैश पर निर्भर भारत की अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में हर जगह सड़क के किनारे स्थित विक्रेताओं से लेकर नाई की दुकानों तक में ‘पेटीएम यहां स्वीकार किया जाता है’ जैसे साइन बोर्ड नजर आने लगे। इस कंपनी के मुख्य कार्यकारी अधिकारी कुछ ही माह बाद उस समय सुर्खियों में रहे जब कंपनी की नव वर्ष पार्टी में रिकॉर्ड किया गया एक वीडियो वायरल हो गया, जिसमें उन्होंने दुर्वचन भरा भाषण दिया था और जिसमें उस वर्ष मिली शानदार सफलता की तारीफ की गई थी। वीडियो से सामान्यत: यही प्रतीत हुआ कि कंपनी की अप्रत्याशित अच्छी किस्मत पर उनकी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था।
दरअसल, जब नकदी की किल्लत महज कुछ हफ्तों के बजाय महीनों तक खिंचने लगी तो और भी ज्यादा संख्या में देशवासी स्मार्टफोन के जरिए भुगतान करने पर अपना ध्यान केंद्रित करने लगे। इनमें से कई देशवासी बेशक ऐसे थे जिन्होंने पहली बार अपेक्षाकृत ज्यादा उत्कृष्ट स्मार्टफोन एप का इस्तेमाल किया था। ऐसे में जो सरकारी निर्णय अत्यंत विघटनकारी एवं तकलीफदेह साबित हो रहा था वह डिजिटल अर्थव्यवस्था और भारतीय उद्यमियों एवं स्टार्टअप्स के लिए एक संभावित ‘गेम चेंजर’ प्रतीत होने लगा।
सच तो यह है कि विमुद्रीकरण से पहले भी भारतीय स्टार्टअप क्षेत्र आकर्षण का केंद्र था। कई वर्षों तक यही क्षेत्र विदेशी पूंजी आकर्षित करने में सबसे ज्यादा कामयाब रहा है।
भारत का पूर्णरूपेण विकास हो रहा है। हालांकि, विकास कुछ ही क्षेत्रों में केंद्रित एवं असमान है। ज्यादा रिटर्न वाले क्षेत्रों जैसे कि बुनियादी ढांचे और अचल संपत्ति में निवेश को विदेशी निवेशकों द्वारा स्वाभाविक रूप से जोखिम भरा माना जाता है। दरअसल, इन क्षेत्रों से जुड़े राजनीतिक जोखिम के ‘प्रबंधन’ की जो क्षमता घरेलू निवेशकों में होती है उसका अमूमन विदेशी निवेशकों में अभाव देखा जाता है। उदाहरण के लिए, तेज खपत वाली उपभोक्ता वस्तुओं (एफएमसीजी) जैसे सुरक्षित क्षेत्रों में निवेश करना फिलहाल काफी महंगा पड़ रहा है। बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज के एसएंडपी एफएमसीजी सूचकांक ने 1 फरवरी 2017 को भाव-आय अनुपात को 40 से भी ज्यादा दर्शाया था।
यही कारण है कि ज्यादातर विदेशी दिलचस्पी स्टार्टअप, विशेष रूप से प्रौद्योगिकी स्टार्टअप जैसे कि पेटीएम पर केंद्रित हो गई है। इस तरह की कंपनियों में अरबों डॉलर का निवेश हो चुका है। अकेले वर्ष 2015 की तीसरी तिमाही में 2.5 अरब डॉलर का निवेश हुआ है।
हालांकि, ज्यादातर भारतीय स्टार्टअप उन्हीं समस्याओं से जूझ रहे हैं जिनसे दुनिया भर में फैले उनके समकक्ष परेशान हैं। जहां एक ओर वे बार-बार धनराशि जुटाने पर जरूरत से ज्यादा भरोसा करते हैं, वहीं दूसरी ओर वे मुनाफे में आने वाले पल को अनवरत टाल देते हैं। एक और बात, वे या तो आसानी से अपना उत्पादन स्तर बढ़ाने में अथवा धनराशि खर्च करने की दर को घटाने में असमर्थ हैं। यही कारण है कि इस क्षेत्र में दिलचस्पी अब भी ज्यादा होने के बावजूद वर्ष 2015 की भांति जबरदस्त दिलचस्पी नहीं रह गई है। वैसे तो इस क्षेत्र में डील पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा हो रही है, लेकिन अब आकर्षक सौदों की संख्या निश्चित रूप से घट गई है। ऑनलाइन पत्रिका ‘इंक42.कॉम’ के मुताबिक, वर्ष 2016 में सौदों की संख्या में तो 18 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई है, लेकिन कुल धन प्राप्ति (फंडिंग) में 40 फीसदी की भारी गिरावट देखने को मिली है।
ज्यादातर पैसा ई-कॉमर्स के क्षेत्र में आया है और ऐसा क्यों है, यह अवश्य ही जानने योग्य बात है। दरअसल, इस सफलता के खास पैटर्न हैं जिनसे भारतीय स्टार्टअप सेक्टर की कमजोरियों और अवसरों दोनों के ही बारे में पता चलता है।
सबसे पहले तो यह जानना जरूरी है कि सरकारी नजरिया आखिरकार क्या है। विभिन्न कारणों से केंद्र सरकार अनेक स्टोरों वाले सुपरमार्केट में विदेशी निवेश की संभावनाओं पर नाक-भौं चढ़ाती रही है। इस वजह से अब कई भारतीयों को यही प्रतीत होता है कि ऑनलाइन कॉमर्स ही कम माल रखने वाले स्थानीय स्टोरों का एकमात्र वास्तविक विकल्प है। अपने रिटेल कारोबार के आधुनिकीकरण के लिए कई वृहद सुपरमार्केट चेन ने भारत में प्रवेश करने की इच्छा जताई है, लेकिन भारत सरकार की पाबंदियां इतनी कठोर रही हैं कि महज कुछ सुपरमार्केट चेन ने ही वास्तव में इस दिशा में अपना कदम आगे बढ़ाया है और व्यापक निवेश किया हैं।
दूसरी बात विशिष्ट एवं स्थानीय पसंद से जुड़ी हुई है। विशेष रूप से रिटेल क्षेत्र में विपणन विश्लेषकों ने कुछ अन्य बड़े बाजारों की तुलना में भारत के उपभोक्ताओं के तौर-तरीकों से जुड़े कुछ विशिष्ट तथ्यों को अलग कर दिया है। भारतीय दरअसल कीमतों को लेकर बड़े सजग एवं संवेदनशील होते हैं, वे कुछ भी खरीदने से पहले विभिन्न विकल्पों पर विचार करते रहते हैं और इसके साथ ही कम भीड़-भाड़ वाले बाजारों में खरीदारी करने से अक्सर बचा करते हैं। संभवत: इस सोच के कारण भी भारत के लोगों को संगठित खुदरा क्षेत्र रास नहीं आ रहा है और उन्होंने इसके बजाय ई-कॉमर्स को ही अपना लिया है।
तीसरी बात स्टार्टअप परितंत्र के खास स्वरूप से जुड़ी हुई है। भारत में किसी ई-कॉमर्स वेबसाइट को बनाने का मतलब यह कतई नहीं है कि अन्य जगहों पर मौजूद इसी तरह के परिचालनों के मुकाबले यह कोई बड़ी तकनीकी उपलब्धि है। यहां तक कि अगर औसत ग्राहक और औसत उद्यमी बिल्कुल अलग-अलग पृष्ठभूमि और स्थानों के होते हैं, तो भी इससे वास्तव में कोई फर्क नहीं पड़ता है। उद्यमी इस प्लेटफॉर्म के विशिष्ट स्वरूप की बदौलत किसी भी ग्राहक द्वारा भेजे जाने वाले मांग संबंधी संकेतों पर तेजी से संपर्क साध सकते हैं। भारत जैसे स्तरीकृत समाज में इस स्थिति के सदा ही बने रहने की कल्पना नहीं की जा सकती है। हम बाद में इस मुद्दे पर वापस आएंगे।
चौथी बात यह है कि संभावित ग्राहक यहां-वहां फैले हुए हैं। अनेक ई-कॉमर्स उद्यमियों ने इस तथ्य पर काफी आश्चर्य व्यक्त किया है कि छोटे भारतीय शहर ही उनके व्यवसाय के लिहाज से काफी बड़े केंद्र के रूप में उभर कर सामने आए हैं। दरअसल, इस तरह के कस्बों में संगठित रिटेल क्षेत्र के अभाव ने ही वहां के लोगों को ई-कॉमर्स की ओर मुखातिब किया है और यह उनकी असंतुष्टता का एक बड़ा लक्षण है। महानगरीय भारत अर्थात मुंबई, दिल्ली, कोलकाता या बेंगलुरू जैसे बड़े शहरों का तो तेजी से वैश्वीकरण हो गया है, लेकिन छोटे शहर इस मामले में काफी ज्यादा अलग-थलग नजर आते हैं। चूंकि इंटरनेट बाहर की दुनिया के लिए एक जीवन रेखा है, इसलिए वहां के युवा लोग असामान्य रूप से ऑनलाइन कुछ नया करने की कोशिश में लगे रहते हैं।
मेरी राय यही है कि भारतीय डिजिटल अर्थव्यवस्था आगे चलकर किस तरह से विकसित होगी उसमें इन सभी चारों विशेष बातों अर्थात सरकारी कदम, विशिष्ट स्थानीय पसंद, उद्यमियों एवं ग्राहकों के बीच सामाजिक अंतर और छोटे भारतीय कस्बों की असंतुष्टता की अहम भूमिका होगी।
आइए, सबसे पहले स्थानीय पसंद की बात करें। यह बात हमें स्पष्ट रूप से याद रखनी चाहिए कि विदेश के बिजनेस मॉडल को आंख मूंद कर अपना लेना हमेशा ही भारत के लिए एक अच्छा आइडिया नहीं है। दरअसल, भारतीय ई-कॉमर्स ने एक अभिनव आइडिया को अपनाया है जिससे उसे अपने व्यवसाय को तेज गति प्रदान करने में मदद मिली है। इसके तहत ज्यादातर विदेशी वेबसाइटों के विपरीत भारतीय मार्केटप्लेस को ‘कैश ऑन डिलीवरी’ में विशेषज्ञता प्राप्त है। दूसरे शब्दों में, आप बाजार में अग्रणी फ्लिपकार्ट डॉट कॉम से कोई ऑर्डर दे सकते हैं और उसकी डिलीवरी मिल जाने पर संबंधित व्यक्ति को भुगतान कर सकते हैं। (इससे लॉजिस्टिक्स काफी जटिल हो गई है। हालांकि, प्लेटफॉर्म का तकनीकी डिजाइन सरल ही है।) भारत में किसी डिजिटल उपक्रम में किसी भी उत्पादक निवेश के तहत यह दर्शाना होगा कि यह कहीं और मिली सफलता के बजाय स्थानीय पसंदों के ही अनुरूप है।
दूसरा, अब उद्यमियों और ग्राहकों के बीच के सामाजिक अंतर पर विचार करते हैं। यह भारतीय स्टार्टअप के लिए आज एक प्रमुख मुद्दा है, जो बेंगलुरू के दक्षिणी महानगर में केंद्रित हैं और जिनका संचालन मुख्यत: अंग्रेजी बोलने वाले एवं उच्च जाति वर्ग के संभ्रांत लोगों के हाथों में है। उद्यमियों और ज्यादातर संभावित यूजर्स (उपयोगकर्ताओं) के रहन-सहन में काफी भिन्नताएं हैं। वे अपने उत्पादों को अक्सर उस तरह से ढाल सकते हैं जिस तरह से उनका उपयोग खुद वे या उनके आसपास रहने वाले लोग करना चाहते हैं। हालांकि, इस सीमित दायरे से बाहर निकलना और फिर शेष भारत के लोगों की पसंद को समझना उतना आसान नहीं है। हालांकि, यह विशेष रूप से सच है कि स्टार्टअप अर्थव्यवस्था अब कहीं अधिक मुश्किल उत्पादों और प्लेटफॉर्मों की ओर उन्मुख हो रही है। उदाहरण के लिए, यह लगभग निश्चित है कि आने वाले वर्षों में स्वास्थ्य से संबंधित डिजिटल उद्यम अच्छा प्रदर्शन करने में कामयाब होंगे। लेकिन कोई विदेशी निवेशक यह आकलन कैसे कर सकता है कि किस उद्यम द्वारा अपेक्षित स्तर हासिल कर लेने की प्रबल संभावना है? वैसे, यह संभव है कि उन्हें ऐसे विशेषज्ञों की सेवाएं लेनी पड़ सकती हैं जो गैर-अभिजात वर्ग की पृष्ठभूमि वाले उपभोक्ताओं की पसंद-नापसंद को समझते हैं। यहां तक कि बड़ी भारतीय कंपनियां भी यह समझने में विफल रही हैं। भारत की सबसे बड़ी कार कंपनी और जगुआर लैंड रोवर की मालिक टाटा मोटर्स ने छोटी सी सस्ती कार ‘नैनो’ बनाने में ढेर सारी पूंजी के साथ-साथ बहुमूल्य समय भी गंवा दिया और बहुत बाद में उसे यह पता चला कि उसके लक्षित कामगार वर्ग के भारतीय उपभोक्ता दरअसल इसे खरीदने को तैयार नहीं थे क्योंकि वे यह नहीं चाहते थे कि उनके पड़ोसी यह सोचें कि वे एक बड़ी कार खरीदने की हैसियत नहीं रखते हैं। इसी तरह ‘एथर एनर्जी’ नामक एक स्टार्टअप कंपनी हाल ही में काफी चर्चाओं में रही है, जो इलेक्ट्रिक स्कूटर बनाती है। उसके अधिकारियों से यह पूछना अवश्य ही दिलचस्प होगा कि उनकी कंपनी इस तरह की समस्या से कैसे बचेगी।
यह भारतीय स्टार्टअप के लिए आज एक प्रमुख मुद्दा है, जो बेंगलुरू के दक्षिणी महानगर में केंद्रित हैं और जिनका संचालन मुख्यत: अंग्रेजी बोलने वाले एवं उच्च जाति वर्ग के संभ्रांत लोगों के हाथों में है।
भारत में पैतृक संपत्ति वाली एफएमसीजी कंपनियां इस खाई को पाटने में निपुण रही हैं। इसी तरह के विशेषाधिकार प्राप्त पृष्ठभूमि वाले ज्यादातर युवा कर्मचारियों को ग्रामीण इलाकों में कई साल बिताने का आदेश दिया जाता है, ताकि वे यह जान सकें कि आम भारतीय उपभोक्ताओं के सोचने का ढंग क्या है। भारतीय डिजिटल उद्यम में उत्पादक निवेश करने वालों को यह मान कर चलना पड़ेगा कि इसका बाजार केवल उन लोगों तक सीमित है, जो इसके संस्थापकों की ही समान जीवनशैली वाले हैं। जब तक कुछ और नहीं बताया जाए, तब तक तो यही सोच रखनी पड़ेगी।
दूसरे शब्दों में, एक बड़ा सवाल यह है कि जब तक स्टार्टअप अपने महानगरीय दायरे से बाहर नहीं निकलेंगे और तीसरे स्थान यानी छोटे शहरों में अपना कदम नहीं रखेंगे तब वे कैसे भारत में वास्तविक एवं टिकाऊ स्तर हासिल करने में सक्षम होंगे। यह विशेष रूप से केवल डिजिटल क्षेत्र वाले स्टार्टअप के लिए बिल्कुल सच है। भारत में इंटरनेट की पैठ मजबूत होना तो हाल ही में शुरू हुआ है। वर्ष 2012 से लेकर अब तक इंटरनेट उपभोक्ताओं की संख्या तिगुनी हो गई है। सही अर्थों में इसका मतलब यही है कि बड़े शहरों में एक दशक पहले इंटरनेट कनेक्शन ने काफी जोर पकड़ा था और स्टार्टअप परितंत्र का निर्माण करने में उन्हें शुरुआती बढ़त हासिल है। वहीं, दूसरी ओर छोटे शहरों ने तो अभी इससे जुड़ना शुरू ही किया है।
यह समझना मुश्किल नहीं है कि भारत के इन हिस्सों को बाहरी दुनिया से जोड़ने के मामले में इंटरनेट कितना महत्वपूर्ण है। भारत अच्छी सड़कों का निर्माण करने में विफल रहा है। इसके बैंकिंग और वित्तीय नेटवर्क खराब हैं। इसका मनोरंजन उद्योग असाधारण रूप से विशिष्ट है, जिसका संचालन मुंबई में महज कुछ परिवारों के हाथों में है। छोटे शहरों में तेजी से बढ़ते अमीर भारतीयों की बड़ी आबादी यहां तक कि चीन के अपने समकक्षों की तुलना में भी इंटरनेट की दुनिया से कहीं ज्यादा ही अलग-थलग पड़ी हुई है। यह आमतौर पर पश्चिमी देशों में कहा जाता है कि मिलेनियल को ही सबसे पहले इंटरनेट का साक्षात अनुभव हुआ था। हालांकि, देश के अलग-थलग हिस्से में रहने वाले युवा भारतीयों के अनुभव इससे भी एक डिग्री कम है। पश्चिमी देशों में रहने वाले युवा अपनी जिंदगी को आसान बनाने वाली वास्तविक एवं ऑफलाइन बुनियादी ढांचागत सुविधाओं के आदी हो जाएंगे। उनके पास सड़कें, नियामक, बैंक और कॉलेज हैं। इन भारतीयों को ये मयस्सर नहीं हैं। ऐसे कई भारतीयों को अपने पहले औपचारिक वित्तीय लेन-देन का अनुभव, अपना पहला वास्तविक शैक्षणिक अनुभव, अपना पहला रोमांटिक अनुभव, अपने लिए लिखी गई मनोरंजक गाथा से पहला सामना और सरकार का अपना पहला अनुभव ऑनलाइन ही होगा। उनके लिए सूचना सुपरहाईवे एक ‘वास्तविक’ राजमार्ग की तुलना में कहीं अधिक वास्तविक है। अत: उनकी ऊर्जा का उपयोग करने की क्षमता और खर्च करने की उनकी क्षमता बहुत ज्यादा है, लेकिन सफल होने के लिए इसे उनके जीवंत अनुभवों में अंतर्निहित करना पड़ेगा। यह वाकया काफी हद तक वैसा ही है जैसा कि पश्चिमी देशों में 60 साल की आयु के लोगों के एक समूह द्वारा किशोरों पर लक्षित इंटरनेट प्लेटफॉर्म का संचालन किए जाने की कल्पना नहीं की जा सकती है। अत: इस क्षेत्र के निवेशकों के लिए पुरस्कार निश्चित रूप से काफी आकर्षक प्रतीत होते हैं, लेकिन इसके साथ ही जोखिम भी हैं। ये जोखिम भारतीय अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों में मौजूद जोखिमों की तुलना में उतने स्पष्ट नहीं हैं, लेकिन वे वास्तविक हैं और उनसे अवश्य ही निपटा जाना चाहिए।
ऐसे में सवाल यह उठता है कि इस जोखिम का प्रबंधन आखिरकार कैसे हो सकता है? वैसे तो कई विकल्प हैं, लेकिन बुनियादी ढांचे में निवेश की दुनिया से जुड़ा विकल्प विशेष रूप से विचार करने लायक है। बुनियादी ढांचे के वैश्विक निवेशक अपने दम पर भारत आने के समय पर्याप्त रूप से सावधान रहते हैं। भारत को अज्ञात जोखिमों के देश के रूप में देखा जाता है, जिनसे उन्हें अपने बलबूते जूझना होगा। भौतिक बुनियादी ढांचे का निर्माण वैसे तो काफी हद तक मापन योग्य स्टार्टअप से काफी भिन्न है, लेकिन एक महत्वपूर्ण तथ्य का वास्ता दोनों से ही है। तथ्य यह है कि ज्यादातर मामलों में महानगरीय शहरों के वैश्विक बुलबुले के बाहर अवस्थित ‘असली’ भारत में मौजूद प्रतिकूल स्थितियों से निपटने के लिए किसी विशेष परियोजना की आवश्यकता है।
तो अब प्रश्न यह उठता है कि ज्यादातर निवेशक इस जोखिम का प्रबंधन किस तरह से करना पसंद करते हैं? महज निजी भारतीय कंपनियों, जो खुद भी जोखिम का एक शक्तिशाली स्रोत हैं, के साथ साझेदारी करने के बजाय वे सरकार को एक आवश्यक अतिरिक्त भागीदार के रूप में मानते हैं। सरकार स्वाभाविक रूप से राजनीतिक जोखिम को कम करने में मदद कर सकती है। दरअसल, सरकार स्थानीय मुद्दों से कहीं अधिक प्रभावशाली ढंग से निपट सकती है और इसकी पहुंच पूरे भारत में होती है।
यह वैश्विक पूंजी अथवा निवेशकों के लिए एक महत्वपूर्ण अंतर्दृष्टि है जो यह जानना चाहते हैं कि स्टार्टअप इंडिया और विशेष रूप से डिजिटल इंडिया से होने वाले अपरिहार्य विकास से आखिरकार किस तरह लाभान्वित हुआ जा सकता है। अत: बड़े नोटों के विमुद्रीकरण के बाद अर्थव्यवस्था के डिजिटलीकरण पर सरकार का विशेष ध्यान वास्तव में वरदान है। सरकार ने डिजिटलीकरण के आइडिया में भारी-भरकम राजनीतिक पूंजी का निवेश किया है और वह इसे सफल बनाने को लेकर काफी उत्सुक है।
वैसे तो भारतीय राज्य खासकर चीन के राज्यों से तुलना किए जाने पर सामान्य रूप से बहुत कुशल या प्रभावशाली नजर नहीं आता है, लेकिन इसकी यह दिलचस्प विशेषता है: राजनीतिक रूप से समर्थित ‘मिशन’ के रूप में देखी जाने वाली परियोजनाओं पर असामान्य दक्षता के साथ काम किया जाता है। अर्थव्यवस्था का डिजिटलीकरण भी कुछ ऐसा ही मिशन प्रतीत होता है। यह या तो सीधे या संस्थागत इक्विटी के जरिए निजी क्षेत्र के साथ साझेदारी करने को भी तैयार है। केंद्रीय बजट में सरकार ने घोषित किया कि पहली बार उसके एक ऑनलाइन उद्यम को शेयर बाजार में निवेश के लिए खोला जाएगा। यह दरअसल वह एजेंसी है जो विशाल भारतीय रेलवे प्रणाली के टिकटिंग सहित अन्य ऑनलाइन कार्य पूरे करती है। डिजिटल क्षेत्र की अन्य सरकारी परियोजनाओं को तेजी से निजी साझेदारी के लिए खोला जाएगा और इसके साथ ही यह भी कहा गया है कि निजी भागीदारों का चयन करने के मामले में स्टार्टअप को पैतृक संपत्ति वाले कारोबारियों के साथ अवश्य ही समान अवसर दिया जाना चाहिए। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सरकार भारतीय अर्थव्यवस्था के उन हिस्सों के लिए सीधे तौर पर जवाबदेह है, जिन्हें भारत के महानगरीय क्षेत्रों के स्टार्टअप्स आम तौर पर पूरी तरह समझने में असमर्थ रहते हैं। ये हिस्से हैं छोटे शहर और ग्रामीण भारत। उत्पादन स्तर अंतनिर्हित होता है। यह अत्यंत सावधानीपूर्वक कुछ विशेष प्रयास करने का अच्छा तरीका साबित हो सकता है।
निजी भागीदारों का चयन करने के मामले में स्टार्टअप को पैतृक संपत्ति वाले कारोबारियों के साथ अवश्य ही समान अवसर दिया जाना चाहिए।
अंत में, यह ध्यान देने योग्य बात है कि एक स्टार्टअप राष्ट्र के तौर पर भारत का वास्तविक अभ्युदय दरअसल अभी कुछ साल दूर है, क्योंकि तब तक मोबाइल इंटरनेट की पहुंच वर्तमान में इससे वंचित ज्यादातर भारतीय क्षेत्रों में बाकायदा हो जाएगी और युवा भारतीयों को इसके इस्तेमाल में अभ्यस्त होने के लिए कुछ साल मिल जाएंगे। यही वह समय होगा जब छोटे शहरों के युवा उद्यमी खुद ही ऐसे उत्पादों और प्लेटफॉर्मों की तलाश शुरू कर देंगे जो उनके जीवन के लिए प्रासंगिक होंगे और इसके साथ ही वे ऐसे आवश्यक नेटवर्कों को बनाने में सक्षम होंगे जो उनके मुद्रीकरण के लिहाज से आवश्यक होंगे। खुला प्रश्न यह है कि आखिरकार कैसे इन उत्पादों और प्लेटफॉर्मों के लिए वित्त का इंतजाम होगा। भारतीय निजी पूंजी को लगाए जाने के लिहाज से कई अस्पष्ट सेक्टर (ब्लाइंड स्पॉट) भी हैं और इस तरह के स्टार्टअप का वित्तपोषण करना संभवत: इनमें से एक है। यह वैश्विक पूंजी के लिए एक बहुत बढ़िया अवसर है। हालांकि, अपेक्षित विकास स्तर में दिलचस्पी रखने वाले किसी भी व्यक्ति को ऐसे देश यानी भारत को समझने की तैयारी अभी से ही शुरू करनी होगी जो अब भी यहां तक कि कई अन्य भारतीयों के लिए भी विदेशी है।
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Mihir Swarup Sharma is the Director Centre for Economy and Growth Programme at the Observer Research Foundation.
He was trained as an economist and political scientist ...